Author : Sushant Sareen

Published on Feb 12, 2021 Updated 0 Hours ago

इमरान ने बहुत ही शानदार ढंग से बातचीत या समझौते की मेज़ पर भारत को न्यौता दिया, लेकिन यह न्यौता एक चेतावनी के साथ था.

पाकिस्तान का भारत की तरफ़ बढ़ा ‘शांति का हाथ’, ईमानदार कोशिश या हाथ की सफ़ाई?

फरवरी 2021 की शुरुआत भारत और पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय रिश्तों में बहुत हद तक अनचाही, लेकिन अल्पकालिक रूप से सामने आई हरकत के साथ हुई. इस उथलपुथल से दोनों देशों के बीच लंबे समय से चली आ रही कड़वाहट और शिथिलता के ख़त्म होने की संभावना पैदा हुई. दो फरवरी को सेना स्नातक समारोह (army graduation ceremony) को संबोधित करते हुए, पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल क़मर बाजवा ने कहा, “यह सभी दिशाओं में शांति का हाथ बढ़ाने का समय है.” इसी भाषण में, उन्होंने यह भी कहा कि, “जम्मू और कश्मीर के लोगों की आकांक्षाओं के अनुसार, पाकिस्तान और भारत को जम्मू कश्मीर के लंबे समय के जारी मसले को गरिमापूर्ण और शांतिपूर्ण तरीके से हल करना चाहिए और इस मानवीय त्रासदी को उसके तार्किक निष्कर्ष तक पहुंचाना चाहिए,” इसके बाद उन्होंने हमेशा की तरह एक चेतावनी दी और कहा (जो पिछले सात दशकों में बिना सोचे समझे लगातार कई बार कहा जा चुका है) कि, पाकिस्तान की शांति की इच्छा को कम़जोरी के संकेत के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए.

इस के तीन दिन बाद, पाकिस्तान के ‘चयनित’ प्रधानमंत्री, इमरान खान ने ‘कश्मीर सॉलिडेरिटी डे’ के अवसर पर पाकिस्तान के कब्ज़े वाले जम्मू और कश्मीर के कोटली इलाक़े में एक रैली को संबोधित किया. भारत और भारतीय प्रधानमंत्री, नरेंद्र मोदी पर सभी तरह के उलाहने और आरोप लगाने के बाद, इमरान खान ने भारत पर अपने कड़े रुख में नरमी लाते हुए कहा, (और यह पाकिस्तान की व्याख्या है) कि भारत के साथ कश्मीर के मुद्दे को सुलझाने के लिए केवल सार्थक बातचीत का रास्ता ही अपनाया जा सकता है, क्योंकि इस के अलावा और कोई रास्ता नहीं है. हालांकि, इस के बाद इमरान खान ने कहा कि इस दिशा में कोई भी शुरुआत करने से पहले भारत को पांच अगस्त 2019 से पहले की स्थिति को बहाल करना होगा. यह कुछ इस तरह की धमकी थी कि जैसे पाकिस्तान ने भारत को युद्ध के मैदान में तहस-नहस कर दिया हो और भारत अपना चेहरा बचाने के लिए बेताब है. इमरान ने बहुत ही शानदार ढंग से बातचीत या समझौते की मेज़ पर भारत को न्यौता दिया, लेकिन यह न्यौता एक चेतावनी के साथ था. उन्होंने भारत को धमकाते हुए कहा कि, “आप कश्मीरियों को उनका वो अधिकार देने के लिए सहमत हों, जो विश्व समुदाय ने उन्हें दिया है, और हम आपसे बात करने के लिए तैयार हैं.” इसके बाद बहुत हद तक अपने चयनकर्ता जनरल बाजवा की तर्ज पर इमरान खान ने भी वही पुराना रटा-रटाया बयान दोहराया कि उनके प्रस्ताव को पाकिस्तान की कमज़ोरी के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि “यह किसी किस्म का डर नहीं है कि हम आपके साथ दोस्ती करना चाहते हैं.

भारत और पाकिस्तान की मीडिया ने इमरान खान और जनरल बाजवा द्वारा कहे गए एक या दो वाक्य उठाकर उन्हें ही केंद्र में रखा. इस प्रक्रिया में वह इन भाषणों/कथनों में कही गई और बहुत सी बातों को दरकिनार कर गए. साथ ही इन बयानों की पृष्ठभूमि, संदर्भ और सबसे अधिक उनकी ज़मीनी वास्तविकता, जिस के तहत इस तरह के भाषण दिए गए, को भी अनदेखा कर दिया गया

फिर जैसा करने के लिए वो अभ्यस्त हैं, भारत और पाकिस्तान की मीडिया ने इमरान खान और जनरल बाजवा द्वारा कहे गए एक या दो वाक्य उठाकर उन्हें ही केंद्र में रखा. इस प्रक्रिया में वह इन भाषणों/कथनों में कही गई और बहुत सी बातों को दरकिनार कर गए. साथ ही इन बयानों की पृष्ठभूमि, संदर्भ और सबसे अधिक उनकी ज़मीनी वास्तविकता, जिस के तहत इस तरह के भाषण दिए गए, को भी अनदेखा कर दिया गया. भारतीय पत्रकारों द्वारा विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता से पूछे गए सवाल केवल पाकिस्तान द्वारा बढ़ाए गए ‘शांति के हाथ’ और ‘सह-अस्तित्व’ की बात तक सीमित रहे और कुछ पत्रकारों ने इसे ‘शांति की पहल’ के रूप में भी देखा. इस बीच, टीवी कार्यक्रमों और समाचार विश्लेषणों में यह अनुमान लगाना शुरू कर दिया गया कि पाकिस्तान द्वारा बढ़ाए गए ‘शांति के हाथ’ और पाकिस्तान के सेना प्रमुख और प्रधानमंत्री द्वारा भारत के लिए बढ़ाई गई ‘ऑलिव ब्रांच’ (olive branch) जो शांति का प्रतीक मानी जाती है, के क्या मायने हैं. अगर मीडिया इस मामले में हड़बड़ी दिखाने और आगे से आगे बढ़ कर कयास लगाने में जल्दी नहीं दिखाती, तो यह बात समझ में आती कि जनरल बाजवा और उन के चुने हुए नुमाइंदे ने जो कुछ कहा था, उसमें न तो कुछ नया था, न ही कोई गंभीरता थी और बहुत कम ईमानदारी थी. कुलमिलाकर पाकिस्तान की ओर से भारत की ओर बढ़ाया गया यह शांति का हाथ, एक पुरानी रणनीति है. यदि इस में कुछ था तो वह यह है कि यह ‘ऑलिव ब्रांच’ ज़हरीले कांटों से लदी थी और शांति का हाथ, छल-कपट की एक कोशिश था.

बयानों का विश्लेषण

पाकिस्तान से आए बयानों को चार दृष्टिकोणों से विश्लेषित करने की आवश्यकता है: सबसे पहले, क्या कोई नई ज़मीन तैयार की जा रही है, या ऐसा कुछ कहा जा रहा है जो पहले नहीं कहा गया है? दूसरे, क्या किसी भाषण या बयान को चुनिंदा रूप से उद्धृत किया जा सकता है, जिस से अनजाने में और ग़लत रूप में समझा जा सकता है, जिसके परिणामस्वरूप और अधिक दोषपूर्ण निष्कर्ष निकाले जा सकते हों? तीसरे, क्या जो कहा जा रहा है उस की ज़मीन स्तर पर कोई बुनियाद है, यानी कही गई बातों पर साथ-साथ कोई ज़मीनी कार्रवाई भी की जा रही है? और चौथा कि क्या एक व्यापक संदर्भ (घरेलू या अंतरराष्ट्रीय) है जिसमें कोई बयान दिया गया है? इन सभी दृष्टिकोणों पर यह स्पष्ट है कि मीडिया ने बाजवा और इमरान के इन ताज़ा बयानों को ग़लत तरीक़े से समझा, उनकी ग़लत तरीक़े से व्याख्य़ा की और उन्हें ग़लत तरीक़े से प्रस्तुत किया.

दो फरवरी वह पहला मौक़ा नहीं था जब जनरल बाजवा ने भारत के साथ पाकिस्तान के संबंधों के बारे में बात की थी. अप्रैल 2018 में, पाकिस्तान मिलिट्री अकादमी में पासिंग आउट परेड (passing our parade) को संबोधित करते हुए, बाजवा ने कहा था कि, “यह हमारी ईमानदार धारणा है कि पाक-भारत विवादों के शांतिपूर्ण समाधान के लिए रास्ता- कश्मीर के मुख्य़ मुद्दे सहित, व्यापक और सार्थक बातचीत के माध्यम से हो कर जाता है. यह कहते हुए, बाजवा ने उपमहाद्वीप में शांति लाने के लिए अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप की मांग की थी. उन्होंने कहा था कि पाकिस्तान भारत के साथ बातचीत करने के लिए प्रतिबद्ध है, लेकिन केवल संप्रभु समानता, सम्मान और सम्मान के आधार पर ही. इस भाषण का संदर्भ अमेरिका के साथ बात को आगे बढ़ाना था, जो अफगानिस्तान में मामले को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहा था. इसी के साथ, बाजवा रूस को संकेत दे रहे थे कि वह भारत के साथ तनाव को कम करने के लिए तैयार हैं, और बदले में वह चाहते हैं कि रूस, पाकिस्तान को हथियारों की आपूर्ति से संबंधित अपनी अनिच्छा की रणनीति में बदलाव लाए. हालांकि, ज़मीनी स्तर पर ऐसा कोई संकेत या ऐसा कोई सबूत मौजूद नहीं था, जिससे यह बात सामने आए कि पाकिस्तान वास्तव में भारत के प्रति अपने अतार्किक व्यवहार को समाप्त करने के लिए तैयार था, या पाकिस्तान-आधारित, भारत-केंद्रित आतंकवादी समूहों पर नकेल कसने के लिए तैयार था, जो एक बार फिर बहुत सक्रिय हो रहे थे.

जनवरी 2015 में लंदन की यात्रा के दौरान, बाजवा के पूर्ववर्ती राहिल शरीफ़, जिन्हें भारत के धुर विरोधी होने की प्रतिष्ठा प्राप्त थी, ने भी ‘शांति के हाथ’ की पेशकश की. अंतर्राष्‍ट्रीय सामरिक अध्‍ययन संस्‍थान यानी आईआईएसएस (international institute for strategic studies, IISS) में बोलते हुए, राहेल शरीफ ने भारत के साथ क्षेत्रीय स्तर पर शांति बनाए रखने और बेहतर संबंधों की ज़रूरत पर ज़ोर दिया और दोनों देशों के बीच समान स्तर पर बातचीत करने का आग्रह किया. उन्होंने इस बारे में पाकिस्तान के रटे-रटाये बयान को दोहराया कि “कश्मीर मुद्दे को दीर्घकालिक शांति, क्षेत्र में स्थिरता के लिए हल किया जाना ज़रूरी है, पाकिस्तान शांति चाहता है, लेकिन आत्म सम्मान और प्रतिष्ठा के साथ.” छह महीने बाद, राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय (National Defence University) को संबोधित करते हुए, राहिल शरीफ ने पाकिस्तान की लंबे समय से चीली आ रही स्थिति को दोहराया और कहा कि कश्मीर, विभाजन के अधूरे एजेंडे का हिस्सा था और पाकिस्तान और कश्मीर अविभाज्य हैं. उन्होंने भारत के साथ शांति की शर्तों को स्वीकार किया और कहा, “जब हम क्षेत्र में शांति, स्थिरता चाहते हैं, तो हम चाहते हैं कि संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों के प्रकाश में कश्मीर पर न्यायपूर्ण फ़ैसला हो और क्षेत्र में स्थायी रूप से शांति लाने के लिए कश्मीरियों की आकांक्षाओं के अनुसार कोई भी हल निकाला जाए. लंदन में, राहेल पाकिस्तान का तार्किक चेहरा पेश कर रहे थे और उन्होंने एक लीक को पकड़ा, लेकिन वापस आने पर पाकिस्तान में वह एक बार फिर उसी रटे-रटाए ढर्रे पर वापस लौट आए.

इस से भी पीछे जाएं तो राहेल के पूर्ववर्ती हैं, अशफाक कियानी. एक बार फिर एक ऐसा आदमी जो भारत को घृणा की दृष्टि से देखने के लिए जाना जाता है. लेकिन अप्रैल 2012 में, सियाचिन सेक्टर में एक हिमस्खलन में 140 पाकिस्तानी सैनिकों के मारे जाने के बाद, भावनात्मक हो कर कियानी ने कहा कि, “दो पड़ोसियों के बीच शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व बहुत महत्वपूर्ण है ताकि दोनों ही पक्ष आम लोगों की भलाई पर ध्यान केंद्रित कर सकें,” और फिर वही दोहराया जो उनके सभी उत्तराधिकारियों ने पहले कई बार कहा और दोहराया था: पाकिस्तान की शांति की इच्छा को “कमज़ोरी के रूप में देखे जाने की ग़लती नहीं की जानी चाहिए.” कयानी ने वार्ता के माध्यम से भारत-पाकिस्तान के मुद्दों को हल करने के पक्ष में भी बात की, और सियाचिन क्षेत्र में सैन्य तैनाती के कारण पर्यावरणीय क्षति के कारक को एक तत्काल मुद्दे के रूप में जोड़ा. संयोग से, मारे गए पाकिस्तानी पत्रकार, सैयद सलीम शहज़ाद ने एशिया टाइम्स के लिए गए अपने लेख में खुलासा किया था कि मुंबई में 26/11 के हमलों की योजना मूल रूप से आईएसआई (ISI) द्वारा कियानी के सेना प्रमुख होने के दौरान बनाई गई थी. बाद में, शहज़ाद ने दावा किया कि यह प्लाट अल-क़ायदा द्वारा ‘हाईजैक कर लिया गया’ और लश्कर-ए-तैयबा द्वारा इसे अमल में लाया गया. फिर भी, मीडिया की भूलने की आदत को देखते हुए, कियानी की टिप्पणियों ने एक बार फिर दोनों हलकों में हलचल पैदा की. लेकिन अंत में, यह कुछ भी साबित नहीं हुआ, क्योंकि तमाम बयानों के बावजूद, ज़मीन पर कुछ भी नहीं बदला था.

कियानी से पहले सेना प्रमुख़ के रूप में जनरल जहांगीर करामत और परवेज़ मुशर्रफ़ दोनों ने इसी तरह के बयान दिए थे. मुशर्रफ़ और कियानी ने यहां तक कहा कि पाकिस्तान में पनप रहा आंतरिक ख़तरा, भारत के चलते पाकिस्तान को होने वाले किसी भी ख़तरे से ज़्यादा गंभीर था. लेकिन इस के बाद भी दोनों ने आतंकवाद से आंतरिक ख़तरे के बारे में बातचीत करने के बजाय, इस बात पर अधिक ध्यान केंद्रित किया कि भारत से पाकिस्तान को किस तरह का रणनीतिक ख़तरा है. हालांकि, भारत के संबंध में कुछ सामरिक बदलाव और रणनीतिक समायोजन किए गए. राष्ट्रपति के रूप में, मुशर्रफ़ ने कश्मीर मुद्दे को हल करने के लिए कुछ लीक से हटकर कोशिशें (out of the box) कीं, जिसे एक चार सूत्रीय फ़ॉर्मुला के रूप में परिभाषित किया गया- लेकिन बेहतर से बेहतर तौर पर भी यह एक अस्थायी समाधान ही सबित हुआ. मुशर्रफ़ के सत्ता से बाहर होने के बाद, कश्मीर पर उनकी योजना को उनके उत्तराधिकारी कियानी द्वारा बकवास क़रार दिया गया, और उसे कचरे के डिब्बे में फेंक दिया गया. कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है कि पाकिस्तान की सुरक्षा गणना, हमेशा भारत पर केंद्रित रही है, और यह रणनीति अब भी बदली नहीं है.

शांति प्रस्ताव की आड़ में ‘छल’

बात यह है कि, पाकिस्तान का हर ‘शांति प्रस्ताव’ एक पैटर्न का अनुसरण करता है. पहला यह कि इसे या तो किसी घरेलू संकट से निपटने के लिए सामने रखा जाता है, या किसी परिस्थिति के शोषण के लिए, या कई बार, किसी तरह के अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण. दूसरा कि वह कभी भी बिना शर्त नहीं होता है. सबसे कम स्तर पर यह स्थितियां बेहद अधिक पाने की आकांक्षा रखती हैं और इसलिए यह किसी भी रूप में कुछ भी हासिल नहीं कर पातीं. यह लगभग वैसा ही है जैसा कि पाकिस्तान को लगता है कि भारत इतना हताश है कि वह पाकिस्तान की ओर फेंके गए किसी भी तिनके को पकड़ने के लिए तत्पर रहेगा. पाकिस्तानियों की ओर से, इस बात पर ज़ोर देने की किसी भी कोशिश को अधूरा नहीं छोड़ा जाता कि जब तक कश्मीर की समस्या हल नहीं हो जाती, दक्षिण एशिया में शांति नहीं होगी. इस संदेश में अंतर्निहित धारणाएं हैं कि (क) शांति कोई ऐसी चीज़ है जिसकी भारत को पाकिस्तान से ज़्यादा ज़रूरत है, और भारत के साथ शांति समझौता करने के ज़रिए पाकिस्तान, भारत का पक्ष ले रहा है या उस पर एहसान कर रहा है; और (ख) किसी भी प्रस्ताव के तहत कश्मीर पर लिया जाने वाला कोई भी फैसला पाकिस्तान की शर्तों के अनुसार होना चाहिए. ज़ाहिर है कि यह दोनों ही बातें नकारात्मक हैं, और इनके तहत कोई भी नतीजा निकलना नामुमकिन है.

पाकिस्तान का हर ‘शांति प्रस्ताव’ एक पैटर्न का अनुसरण करता है. पहला यह कि इसे या तो किसी घरेलू संकट से निपटने के लिए सामने रखा जाता है, या किसी परिस्थिति के शोषण के लिए, या कई बार, किसी तरह के अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण. दूसरा कि वह कभी भी बिना शर्त नहीं होता है. 

जहां तक भारत का सवाल है, तो जो बात मायने रखती है, वह पाकिस्तान के शब्द नहीं बल्कि उस के द्वारा उठाए जाने वाले क़दम हैं. हाल के वर्षों में, जबकि पाकिस्तान की ओर से एक भी ऐसी कार्रवाई नहीं की गई है जो शांति के लिए उस की वास्तविक इच्छा का संकेत देती हैं, वहीं इमरान खान और उन के समकक्षों के माध्यम से भारतीय प्रधानमंत्री, भारत सरकार और भारत के लोगों के ख़िलाफ़ जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया गया है, वह बेहद भद्दी और कड़वी है. स्पष्ट रूप से, इन परिस्थितियों में, इमरान खान या बाजवा द्वारा बोले गए किन्हीं एक या दो वाक्यों को शांति स्थापित करने की पाकिस्तान की मंशा के रूप में देखना कल्पना की उड़ान से कम नहीं है. यह किसी भी रूप में द्विपक्षीय संबंधों में नरमी आने का संकेत नहीं है.

इस बात की अधिक संभावना है कि भारत के लिए पाकिस्तान की ‘शांति की पेशकश और संवाद प्रस्ताव’ अमेरिका में बहाल हुई नई सरकार और नए प्रशासन पर अधिक लक्षित था. इमरान खान और बाजवा खुद को तार्किक रूप से चलने वाले उन लोगों के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे थे, जो भारत के साथ शांति पर बात करने के लिए तैयार थे, और फिर इस का उपयोग भारत को ज़िद्दी और कठोर साबित करने के लिए किया जा सकता है. पाकिस्तान की योजना पश्चिमी प्रेस में भारत के नकारात्मक कवरेज का फ़ायदा उठाने और जनमत को बदलने की है, ताकि पाकिस्तान को कुछ रियायतें देने के लिए भारत पर अमेरिकी दबाव बनाया जा सके. इस के बदले में पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान और तालिबान पर अमेरीकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के प्रशासन को कुछ आश्वासन दे देगा. यह एक पुरानी चाल है, जिसे पाकिस्तानियों ने 9/11 के बाद से लगातार दोहराया है, पहले बुश प्रशासन के साथ, फिर ओबामा के साथ और अब जो बाइडेन के साथ भी इसी तरह के प्रयास कर रहे हैं. उन्होंने इसे डोनाल्ड ट्रंप के साथ भी आज़माया, लेकिन इसे लेकर उनकी ओर से पाकिस्तान को बहुत कम तवज्जो मिली.

फरवरी 2021 की शुरुआत भारत और पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय रिश्तों में बहुत हद तक अनचाही, लेकिन अल्पकालिक रूप से सामने आई हरकत के साथ हुई. इस उथलपुथल से दोनों देशों के बीच लंबे समय से चली आ रही कड़वाहट और शिथिलता के ख़त्म होने की संभावना पैदा हुई. दो फरवरी को सेना स्नातक समारोह (army graduation ceremony) को संबोधित करते हुए, पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल क़मर बाजवा ने कहा, “यह सभी दिशाओं में शांति का हाथ बढ़ाने का समय है.” इसी भाषण में, उन्होंने यह भी कहा कि, “जम्मू और कश्मीर के लोगों की आकांक्षाओं के अनुसार, पाकिस्तान और भारत को जम्मू कश्मीर के लंबे समय के जारी मसले को गरिमापूर्ण और शांतिपूर्ण तरीके से हल करना चाहिए और इस मानवीय त्रासदी को उसके तार्किक निष्कर्ष तक पहुंचाना चाहिए,” इसके बाद उन्होंने हमेशा की तरह एक चेतावनी दी और कहा (जो पिछले सात दशकों में बिना सोचे समझे लगातार कई बार कहा जा चुका है) कि, पाकिस्तान की शांति की इच्छा को कम़जोरी के संकेत के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए.

इस के तीन दिन बाद, पाकिस्तान के ‘चयनित’ प्रधानमंत्री, इमरान खान ने ‘कश्मीर सॉलिडेरिटी डे’ के अवसर पर पाकिस्तान के कब्ज़े वाले जम्मू और कश्मीर के कोटली इलाक़े में एक रैली को संबोधित किया. भारत और भारतीय प्रधानमंत्री, नरेंद्र मोदी पर सभी तरह के उलाहने और आरोप लगाने के बाद, इमरान खान ने भारत पर अपने कड़े रुख में नरमी लाते हुए कहा, (और यह पाकिस्तान की व्याख्या है) कि भारत के साथ कश्मीर के मुद्दे को सुलझाने के लिए केवल सार्थक बातचीत का रास्ता ही अपनाया जा सकता है, क्योंकि इस के अलावा और कोई रास्ता नहीं है. हालांकि, इस के बाद इमरान खान ने कहा कि इस दिशा में कोई भी शुरुआत करने से पहले भारत को पांच अगस्त 2019 से पहले की स्थिति को बहाल करना होगा. यह कुछ इस तरह की धमकी थी कि जैसे पाकिस्तान ने भारत को युद्ध के मैदान में तहस-नहस कर दिया हो और भारत अपना चेहरा बचाने के लिए बेताब है. इमरान ने बहुत ही शानदार ढंग से बातचीत या समझौते की मेज़ पर भारत को न्यौता दिया, लेकिन यह न्यौता एक चेतावनी के साथ था. उन्होंने भारत को धमकाते हुए कहा कि, “आप कश्मीरियों को उनका वो अधिकार देने के लिए सहमत हों, जो विश्व समुदाय ने उन्हें दिया है, और हम आपसे बात करने के लिए तैयार हैं.” इसके बाद बहुत हद तक अपने चयनकर्ता जनरल बाजवा की तर्ज पर इमरान खान ने भी वही पुराना रटा-रटाया बयान दोहराया कि उनके प्रस्ताव को पाकिस्तान की कमज़ोरी के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि “यह किसी किस्म का डर नहीं है कि हम आपके साथ दोस्ती करना चाहते हैं.

भारत और पाकिस्तान की मीडिया ने इमरान खान और जनरल बाजवा द्वारा कहे गए एक या दो वाक्य उठाकर उन्हें ही केंद्र में रखा. इस प्रक्रिया में वह इन भाषणों/कथनों में कही गई और बहुत सी बातों को दरकिनार कर गए. साथ ही इन बयानों की पृष्ठभूमि, संदर्भ और सबसे अधिक उनकी ज़मीनी वास्तविकता, जिस के तहत इस तरह के भाषण दिए गए, को भी अनदेखा कर दिया गया

फिर जैसा करने के लिए वो अभ्यस्त हैं, भारत और पाकिस्तान की मीडिया ने इमरान खान और जनरल बाजवा द्वारा कहे गए एक या दो वाक्य उठाकर उन्हें ही केंद्र में रखा. इस प्रक्रिया में वह इन भाषणों/कथनों में कही गई और बहुत सी बातों को दरकिनार कर गए. साथ ही इन बयानों की पृष्ठभूमि, संदर्भ और सबसे अधिक उनकी ज़मीनी वास्तविकता, जिस के तहत इस तरह के भाषण दिए गए, को भी अनदेखा कर दिया गया. भारतीय पत्रकारों द्वारा विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता से पूछे गए सवाल केवल पाकिस्तान द्वारा बढ़ाए गए ‘शांति के हाथ’ और ‘सह-अस्तित्व’ की बात तक सीमित रहे और कुछ पत्रकारों ने इसे ‘शांति की पहल’ के रूप में भी देखा. इस बीच, टीवी कार्यक्रमों और समाचार विश्लेषणों में यह अनुमान लगाना शुरू कर दिया गया कि पाकिस्तान द्वारा बढ़ाए गए ‘शांति के हाथ’ और पाकिस्तान के सेना प्रमुख और प्रधानमंत्री द्वारा भारत के लिए बढ़ाई गई ‘ऑलिव ब्रांच’ (olive branch) जो शांति का प्रतीक मानी जाती है, के क्या मायने हैं. अगर मीडिया इस मामले में हड़बड़ी दिखाने और आगे से आगे बढ़ कर कयास लगाने में जल्दी नहीं दिखाती, तो यह बात समझ में आती कि जनरल बाजवा और उन के चुने हुए नुमाइंदे ने जो कुछ कहा था, उसमें न तो कुछ नया था, न ही कोई गंभीरता थी और बहुत कम ईमानदारी थी. कुलमिलाकर पाकिस्तान की ओर से भारत की ओर बढ़ाया गया यह शांति का हाथ, एक पुरानी रणनीति है. यदि इस में कुछ था तो वह यह है कि यह ‘ऑलिव ब्रांच’ ज़हरीले कांटों से लदी थी और शांति का हाथ, छल-कपट की एक कोशिश था.

बाजवा रूस को संकेत दे रहे थे कि वह भारत के साथ तनाव को कम करने के लिए तैयार हैं, और बदले में वह चाहते हैं कि रूस, पाकिस्तान को हथियारों की आपूर्ति से संबंधित अपनी अनिच्छा की रणनीति में बदलाव लाए.

बयानों का विश्लेषण

पाकिस्तान से आए बयानों को चार दृष्टिकोणों से विश्लेषित करने की आवश्यकता है: सबसे पहले, क्या कोई नई ज़मीन तैयार की जा रही है, या ऐसा कुछ कहा जा रहा है जो पहले नहीं कहा गया है? दूसरे, क्या किसी भाषण या बयान को चुनिंदा रूप से उद्धृत किया जा सकता है, जिस से अनजाने में और ग़लत रूप में समझा जा सकता है, जिसके परिणामस्वरूप और अधिक दोषपूर्ण निष्कर्ष निकाले जा सकते हों? तीसरे, क्या जो कहा जा रहा है उस की ज़मीन स्तर पर कोई बुनियाद है, यानी कही गई बातों पर साथ-साथ कोई ज़मीनी कार्रवाई भी की जा रही है? और चौथा कि क्या एक व्यापक संदर्भ (घरेलू या अंतरराष्ट्रीय) है जिसमें कोई बयान दिया गया है? इन सभी दृष्टिकोणों पर यह स्पष्ट है कि मीडिया ने बाजवा और इमरान के इन ताज़ा बयानों को ग़लत तरीक़े से समझा, उनकी ग़लत तरीक़े से व्याख्य़ा की और उन्हें ग़लत तरीक़े से प्रस्तुत किया.

दो फरवरी वह पहला मौक़ा नहीं था जब जनरल बाजवा ने भारत के साथ पाकिस्तान के संबंधों के बारे में बात की थी. अप्रैल 2018 में, पाकिस्तान मिलिट्री अकादमी में पासिंग आउट परेड (passing our parade) को संबोधित करते हुए, बाजवा ने कहा था कि, “यह हमारी ईमानदार धारणा है कि पाक-भारत विवादों के शांतिपूर्ण समाधान के लिए रास्ता- कश्मीर के मुख्य़ मुद्दे सहित, व्यापक और सार्थक बातचीत के माध्यम से हो कर जाता है. यह कहते हुए, बाजवा ने उपमहाद्वीप में शांति लाने के लिए अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप की मांग की थी. उन्होंने कहा था कि पाकिस्तान भारत के साथ बातचीत करने के लिए प्रतिबद्ध है, लेकिन केवल संप्रभु समानता, सम्मान और सम्मान के आधार पर ही. इस भाषण का संदर्भ अमेरिका के साथ बात को आगे बढ़ाना था, जो अफगानिस्तान में मामले को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहा था. इसी के साथ, बाजवा रूस को संकेत दे रहे थे कि वह भारत के साथ तनाव को कम करने के लिए तैयार हैं, और बदले में वह चाहते हैं कि रूस, पाकिस्तान को हथियारों की आपूर्ति से संबंधित अपनी अनिच्छा की रणनीति में बदलाव लाए. हालांकि, ज़मीनी स्तर पर ऐसा कोई संकेत या ऐसा कोई सबूत मौजूद नहीं था, जिससे यह बात सामने आए कि पाकिस्तान वास्तव में भारत के प्रति अपने अतार्किक व्यवहार को समाप्त करने के लिए तैयार था, या पाकिस्तान-आधारित, भारत-केंद्रित आतंकवादी समूहों पर नकेल कसने के लिए तैयार था, जो एक बार फिर बहुत सक्रिय हो रहे थे.

जनवरी 2015 में लंदन की यात्रा के दौरान, बाजवा के पूर्ववर्ती राहिल शरीफ़, जिन्हें भारत के धुर विरोधी होने की प्रतिष्ठा प्राप्त थी, ने भी ‘शांति के हाथ’ की पेशकश की. अंतर्राष्‍ट्रीय सामरिक अध्‍ययन संस्‍थान यानी आईआईएसएस (international institute for strategic studies, IISS) में बोलते हुए, राहेल शरीफ ने भारत के साथ क्षेत्रीय स्तर पर शांति बनाए रखने और बेहतर संबंधों की ज़रूरत पर ज़ोर दिया और दोनों देशों के बीच समान स्तर पर बातचीत करने का आग्रह किया. उन्होंने इस बारे में पाकिस्तान के रटे-रटाये बयान को दोहराया कि “कश्मीर मुद्दे को दीर्घकालिक शांति, क्षेत्र में स्थिरता के लिए हल किया जाना ज़रूरी है, पाकिस्तान शांति चाहता है, लेकिन आत्म सम्मान और प्रतिष्ठा के साथ.” छह महीने बाद, राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय (National Defence University) को संबोधित करते हुए, राहिल शरीफ ने पाकिस्तान की लंबे समय से चीली आ रही स्थिति को दोहराया और कहा कि कश्मीर, विभाजन के अधूरे एजेंडे का हिस्सा था और पाकिस्तान और कश्मीर अविभाज्य हैं. उन्होंने भारत के साथ शांति की शर्तों को स्वीकार किया और कहा, “जब हम क्षेत्र में शांति, स्थिरता चाहते हैं, तो हम चाहते हैं कि संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों के प्रकाश में कश्मीर पर न्यायपूर्ण फ़ैसला हो और क्षेत्र में स्थायी रूप से शांति लाने के लिए कश्मीरियों की आकांक्षाओं के अनुसार कोई भी हल निकाला जाए. लंदन में, राहेल पाकिस्तान का तार्किक चेहरा पेश कर रहे थे और उन्होंने एक लीक को पकड़ा, लेकिन वापस आने पर पाकिस्तान में वह एक बार फिर उसी रटे-रटाए ढर्रे पर वापस लौट आए.

इस से भी पीछे जाएं तो राहेल के पूर्ववर्ती हैं, अशफाक कियानी. एक बार फिर एक ऐसा आदमी जो भारत को घृणा की दृष्टि से देखने के लिए जाना जाता है. लेकिन अप्रैल 2012 में, सियाचिन सेक्टर में एक हिमस्खलन में 140 पाकिस्तानी सैनिकों के मारे जाने के बाद, भावनात्मक हो कर कियानी ने कहा कि, “दो पड़ोसियों के बीच शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व बहुत महत्वपूर्ण है ताकि दोनों ही पक्ष आम लोगों की भलाई पर ध्यान केंद्रित कर सकें,” और फिर वही दोहराया जो उनके सभी उत्तराधिकारियों ने पहले कई बार कहा और दोहराया था: पाकिस्तान की शांति की इच्छा को “कमज़ोरी के रूप में देखे जाने की ग़लती नहीं की जानी चाहिए.” कयानी ने वार्ता के माध्यम से भारत-पाकिस्तान के मुद्दों को हल करने के पक्ष में भी बात की, और सियाचिन क्षेत्र में सैन्य तैनाती के कारण पर्यावरणीय क्षति के कारक को एक तत्काल मुद्दे के रूप में जोड़ा. संयोग से, मारे गए पाकिस्तानी पत्रकार, सैयद सलीम शहज़ाद ने एशिया टाइम्स के लिए गए अपने लेख में खुलासा किया था कि मुंबई में 26/11 के हमलों की योजना मूल रूप से आईएसआई (ISI) द्वारा कियानी के सेना प्रमुख होने के दौरान बनाई गई थी. बाद में, शहज़ाद ने दावा किया कि यह प्लाट अल-क़ायदा द्वारा ‘हाईजैक कर लिया गया’ और लश्कर-ए-तैयबा द्वारा इसे अमल में लाया गया. फिर भी, मीडिया की भूलने की आदत को देखते हुए, कियानी की टिप्पणियों ने एक बार फिर दोनों हलकों में हलचल पैदा की. लेकिन अंत में, यह कुछ भी साबित नहीं हुआ, क्योंकि तमाम बयानों के बावजूद, ज़मीन पर कुछ भी नहीं बदला था.

कियानी से पहले सेना प्रमुख़ के रूप में जनरल जहांगीर करामत और परवेज़ मुशर्रफ़ दोनों ने इसी तरह के बयान दिए थे. मुशर्रफ़ और कियानी ने यहां तक कहा कि पाकिस्तान में पनप रहा आंतरिक ख़तरा, भारत के चलते पाकिस्तान को होने वाले किसी भी ख़तरे से ज़्यादा गंभीर था. लेकिन इस के बाद भी दोनों ने आतंकवाद से आंतरिक ख़तरे के बारे में बातचीत करने के बजाय, इस बात पर अधिक ध्यान केंद्रित किया कि भारत से पाकिस्तान को किस तरह का रणनीतिक ख़तरा है. हालांकि, भारत के संबंध में कुछ सामरिक बदलाव और रणनीतिक समायोजन किए गए. राष्ट्रपति के रूप में, मुशर्रफ़ ने कश्मीर मुद्दे को हल करने के लिए कुछ लीक से हटकर कोशिशें (out of the box) कीं, जिसे एक चार सूत्रीय फ़ॉर्मुला के रूप में परिभाषित किया गया- लेकिन बेहतर से बेहतर तौर पर भी यह एक अस्थायी समाधान ही सबित हुआ. मुशर्रफ़ के सत्ता से बाहर होने के बाद, कश्मीर पर उनकी योजना को उनके उत्तराधिकारी कियानी द्वारा बकवास क़रार दिया गया, और उसे कचरे के डिब्बे में फेंक दिया गया. कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है कि पाकिस्तान की सुरक्षा गणना, हमेशा भारत पर केंद्रित रही है, और यह रणनीति अब भी बदली नहीं है.

शांति प्रस्ताव की आड़ में ‘छल’

बात यह है कि, पाकिस्तान का हर ‘शांति प्रस्ताव’ एक पैटर्न का अनुसरण करता है. पहला यह कि इसे या तो किसी घरेलू संकट से निपटने के लिए सामने रखा जाता है, या किसी परिस्थिति के शोषण के लिए, या कई बार, किसी तरह के अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण. दूसरा कि वह कभी भी बिना शर्त नहीं होता है. सबसे कम स्तर पर यह स्थितियां बेहद अधिक पाने की आकांक्षा रखती हैं और इसलिए यह किसी भी रूप में कुछ भी हासिल नहीं कर पातीं. यह लगभग वैसा ही है जैसा कि पाकिस्तान को लगता है कि भारत इतना हताश है कि वह पाकिस्तान की ओर फेंके गए किसी भी तिनके को पकड़ने के लिए तत्पर रहेगा. पाकिस्तानियों की ओर से, इस बात पर ज़ोर देने की किसी भी कोशिश को अधूरा नहीं छोड़ा जाता कि जब तक कश्मीर की समस्या हल नहीं हो जाती, दक्षिण एशिया में शांति नहीं होगी. इस संदेश में अंतर्निहित धारणाएं हैं कि (क) शांति कोई ऐसी चीज़ है जिसकी भारत को पाकिस्तान से ज़्यादा ज़रूरत है, और भारत के साथ शांति समझौता करने के ज़रिए पाकिस्तान, भारत का पक्ष ले रहा है या उस पर एहसान कर रहा है; और (ख) किसी भी प्रस्ताव के तहत कश्मीर पर लिया जाने वाला कोई भी फैसला पाकिस्तान की शर्तों के अनुसार होना चाहिए. ज़ाहिर है कि यह दोनों ही बातें नकारात्मक हैं, और इनके तहत कोई भी नतीजा निकलना नामुमकिन है

पाकिस्तान का हर ‘शांति प्रस्ताव’ एक पैटर्न का अनुसरण करता है. पहला यह कि इसे या तो किसी घरेलू संकट से निपटने के लिए सामने रखा जाता है, या किसी परिस्थिति के शोषण के लिए, या कई बार, किसी तरह के अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण. दूसरा कि वह कभी भी बिना शर्त नहीं होता है. 

जहां तक भारत का सवाल है, तो जो बात मायने रखती है, वह पाकिस्तान के शब्द नहीं बल्कि उस के द्वारा उठाए जाने वाले क़दम हैं. हाल के वर्षों में, जबकि पाकिस्तान की ओर से एक भी ऐसी कार्रवाई नहीं की गई है जो शांति के लिए उस की वास्तविक इच्छा का संकेत देती हैं, वहीं इमरान खान और उन के समकक्षों के माध्यम से भारतीय प्रधानमंत्री, भारत सरकार और भारत के लोगों के ख़िलाफ़ जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया गया है, वह बेहद भद्दी और कड़वी है. स्पष्ट रूप से, इन परिस्थितियों में, इमरान खान या बाजवा द्वारा बोले गए किन्हीं एक या दो वाक्यों को शांति स्थापित करने की पाकिस्तान की मंशा के रूप में देखना कल्पना की उड़ान से कम नहीं है. यह किसी भी रूप में द्विपक्षीय संबंधों में नरमी आने का संकेत नहीं है.

इस बात की अधिक संभावना है कि भारत के लिए पाकिस्तान की ‘शांति की पेशकश और संवाद प्रस्ताव’ अमेरिका में बहाल हुई नई सरकार और नए प्रशासन पर अधिक लक्षित था. इमरान खान और बाजवा खुद को तार्किक रूप से चलने वाले उन लोगों के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे थे, जो भारत के साथ शांति पर बात करने के लिए तैयार थे, और फिर इस का उपयोग भारत को ज़िद्दी और कठोर साबित करने के लिए किया जा सकता है. पाकिस्तान की योजना पश्चिमी प्रेस में भारत के नकारात्मक कवरेज का फ़ायदा उठाने और जनमत को बदलने की है, ताकि पाकिस्तान को कुछ रियायतें देने के लिए भारत पर अमेरिकी दबाव बनाया जा सके. इस के बदले में पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान और तालिबान पर अमेरीकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के प्रशासन को कुछ आश्वासन दे देगा. यह एक पुरानी चाल है, जिसे पाकिस्तानियों ने 9/11 के बाद से लगातार दोहराया है, पहले बुश प्रशासन के साथ, फिर ओबामा के साथ और अब जो बाइडेन के साथ भी इसी तरह के प्रयास कर रहे हैं. उन्होंने इसे डोनाल्ड ट्रंप के साथ भी आज़माया, लेकिन इसे लेकर उनकी ओर से पाकिस्तान को बहुत कम तवज्जो मिली

.भारत को चाहिए कि वह पाकिस्तान के सामने इस बात को स्पष्ट कर दे कि उसके द्वारा बढ़ाए गए शांति के इस इस हाथ को तभी थामा जा सकता है, जब इसकी एवज़ में पाकिस्तान, ज़मीनी बदलाव के कुछ संकेत दिखाए. 

भारत के लिए यह ज़रूरी है कि वह अपने द्वारा खींची गई लाल रेखाओं और अपने लिए तय की गई सीमाओं पर अडिग रहे और न केवल पाकिस्तान के अपने हित में बढ़ाए गए ‘शांति के हाथ’ को अस्वीकार करे बल्कि पाकिस्तान के साथ बातचीत करने के लिए किसी भी तरह की आभार प्रकट करने वाली कोशिश से बचे. इसके साथ ही, भारत को चाहिए कि वह पाकिस्तान के सामने इस बात को स्पष्ट कर दे कि उसके द्वारा बढ़ाए गए शांति के इस इस हाथ को तभी थामा जा सकता है, जब इसकी एवज़ में पाकिस्तान, ज़मीनी बदलाव के कुछ संकेत दिखाए. भारत के ऐसा करने के बाद भी, उसे अपनी उंगलियों को गिनते रहना चाहिए, क्योंकि पाकिस्तान के साथ कोई भी किसी भी चीज़ को ले कर निश्चित नहीं हो सकता है.

भारत के लिए यह ज़रूरी है कि वह अपने द्वारा खींची गई लाल रेखाओं और अपने लिए तय की गई सीमाओं पर अडिग रहे और न केवल पाकिस्तान के अपने हित में बढ़ाए गए ‘शांति के हाथ’ को अस्वीकार करे बल्कि पाकिस्तान के साथ बातचीत करने के लिए किसी भी तरह की आभार प्रकट करने वाली कोशिश से बचे. इसके साथ ही, भारत को चाहिए कि वह पाकिस्तान के सामने इस बात को स्पष्ट कर दे कि उसके द्वारा बढ़ाए गए शांति के इस इस हाथ को तभी थामा जा सकता है, जब इसकी एवज़ में पाकिस्तान, ज़मीनी बदलाव के कुछ संकेत दिखाए. भारत के ऐसा करने के बाद भी, उसे अपनी उंगलियों को गिनते रहना चाहिए, क्योंकि पाकिस्तान के साथ कोई भी किसी भी चीज़ को ले कर निश्चित नहीं हो सकता है.

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