Published on Jul 22, 2022 Updated 0 Hours ago

शिंजो आबे ऐसे नेता थे जिन्होंने भारत और जापान के रिश्तों को और मज़बूत बनाने को नई रफ़्तार दी. ऐसे में उनका जाना भारत के लिए बड़ा झटका है.

जापान के पूर्व प्रधानमंत्री शिंज़ो आबे के निधन से जापान-भारत के संबंधों पर क्या असर पड़ेगा?

जैसे ही चुनाव के नतीजे आए, तो वो बात साबित हो गई जिसका बहुत से लोगों को पहले से अंदाज़ा था. जापान की लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी ने, संसद के ऊपरी सदन डाइट के चुनाव में ज़बरदस्त जीत हासिल की थी. इससे जापान की राजनीति के एक बड़े मुद्दे पर आगे बढ़ने का रास्ता साफ़ हो गया: ये मुद्दा, दूसरे विश्व युद्ध के बाद बने जापान के शांतिवादी संविधान की समीक्षा का है. पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे की मौत ने पूरी प्रक्रिया पर एक स्याह साया डाल दिया है. जिस वक़्त शिंजो आबे का शव राजधानी टोक्यो वापस लाया जा रहा था, तब देश विदेश के पर्यवेक्षकों ने उनकी हत्या के जापान और बाक़ी दुनिया पर पड़ने वाले असर के बारे में अटकलें लगानी शुरू कर दी थीं.

जिस वक़्त शिंजो आबे का शव राजधानी टोक्यो वापस लाया जा रहा था, तब देश विदेश के पर्यवेक्षकों ने उनकी हत्या के जापान और बाक़ी दुनिया पर पड़ने वाले असर के बारे में अटकलें लगानी शुरू कर दी थीं.

भारत के लिए, शिंजो आबे जैसे नेता का असामयिक निधन एक बड़ा झटका है. क्योंकि ये आबे ही थे जिन्होंने भारत को अपनी हिंद प्रशांत रणनीति के केंद्र में रखा था. वैसे तो आबे से पहले के प्रधानमंत्रियों ने भी भारत के साथ रिश्तों का दायरा बढ़ाने में काफ़ी संभावनाएं देखी थीं और उन्हें विस्तार देने की कोशिश की थी. लेकिन, शिंजो आबे ने दोनों देशों के रिश्तों को एक नई दशा दिशा की तरफ़ मोड़ा. जापान और भारत के संबंध आज भी उन्हीं के दिखाए रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं. हिंद और प्रशांत महासागरों को जोड़ने की बात करने वाले ‘दो महासागरों के मिलन’ के सिद्धांत में उनके यक़ीन ने, भारत और जापान के रिश्तों के पारंपरिक दायरों को तोड़ा और सामरिक स्तर पर एक व्यापक ‘हिंद प्रशांत’ रणनीति की परिकल्पना को आकार दिया. शिंजो आबे का तर्क था कि नियमों पर आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था, लोकतंत्र और मानव अधिकारों के हक़ में खड़े होकर भारत और जापान को इस हिंद प्रशांत परिकल्पना को आकार देना होगा. आबे ने अपने इसी नज़रिए से दोनों देशों के रिश्तों में नई जान डाली और उसे एक नया मक़सद दिया. अगर इसमें हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनके गर्मजोशी भरे रिश्तों को जोड़ दें, तो इसने भी भारत और जापान के और नज़दीक आने में बड़ी भूमिका अदा की. 2014 से 2020 के दौरान, दोनों नेताओं ने व्यापार बढ़ाने, भारत में जापान का निवेश बढ़ाने, क्वॉड को फिर से ज़िंदा करने और चीन के आक्रामक रवैये के ख़िलाफ़ साझा रणनीति बनाने के लिए मिलकर काम किया. एक वक़्त में जापान और भारत के जो रिश्ते बेहद सीमित थे वो आज आपूर्ति श्रृंखला की सुरक्षा, अहम तकनीक, अंतरिक्ष, साइबर सुरक्षा में सहयोग और युद्ध अभ्यासों तक फैल चुके हैं.

भारत के लिए अच्छा ये है कि शिंजो आबे ने अपने देश की विदेश नीति को लेकर जो आम सहमति क़ायम की थी, उसके चलते भारत, जापान का एक प्रमुख कूटनीतिक और सुरक्षा साझीदार बना रहेगा. शिंजो आबे से पहले अमेरिका के साथ गठबंधन के भविष्य और चीन के उभार के प्रति जापान का रुख़ कैसा हो, इसे लेकर जापान में ज़बरदस्त राजनीतिक विभाजन था. हालांकि, शिंजो आबे के सत्ता में आने के बाद इन मुद्दों पर जापान का सामरिक नज़रिया बिल्कुल स्पष्ट हो गया. 2013 की अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति में शिंजो आबे ने अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और भारत जैसी लोकतांत्रिक शक्तियों के साथ नज़दीकी रिश्ते क़ायम किए और यहां तक कहा कि जापान को अपनी घरेलू रक्षा क्षमताओं में इज़ाफ़ा करना चाहिए. उनकी ये रणनीति आज भी जापान की विदेश नीति को राह दिखाने वाला दस्तावेज़ बनी हुई है. 2020 में प्रधानमंत्री का पद छोड़ने के बाद भी शिंजो आबे की विदेश नीति के अहम तत्व जस के तस जापान की कूटनीति का हिस्सा बने हुए हैं और उनके आगे भी अहम बने रहने की संभावना है. इस लिहाज़ से देखें तो जापान के एक अहम साझीदार के तौर पर भारत की हैसियत बनी रहने की पूरी संभावना है.

भारत के लिए अच्छा ये है कि शिंजो आबे ने अपने देश की विदेश नीति को लेकर जो आम सहमति क़ायम की थी, उसके चलते भारत, जापान का एक प्रमुख कूटनीतिक और सुरक्षा साझीदार बना रहेगा.

भारत पर असर

हालांकि, शिंजो आबे की ग़ैरमौजूदगी का असर भारत पर पड़ेगा ज़रूर क्यों कि जापान अब दूसरे विश्व युद्ध के बाद के शांतिवाद की धुरी से अलग दिशा में बढ़ने की कोशिश कर रहा है. हम इस मामले में कम से कम ये तो कह ही सकते हैं कि जापान के संविधान की समीक्षा और इसमें संशोधन अभी दूर की कौड़ी दिखने लगी है. जापान का संविधान, दूसरे विश्व युद्ध के बाद उसे हराने वाले अमेरिका के अधिकारियों ने लिखा था. उस वक़्त अमेरिका ने जापान के लिए शांतिवादी संविधान इसलिए तैयार किया, ताकि भविष्य में जापान को अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा बनने से रोका जा सके. मिसाल के तौर पर, जापान के संविधान की धारा 9 बिल्कुल साफ़ तौर पर ‘एक संप्रभु देश के तौर पर युद्ध छेड़ने के अधिकार’ को छोड़ने की बात करती है. इसी धारा में जापान पर अपने लिए जल, थल या वायुसेना गठित करने पर रोक लगाई गई है. वैसे तो जापान के राजनीतिज्ञों ने संविधान और इसकी धारा 9 की नए सिरे से व्याख्या की थी. लेकिन ये एक ऐसा क़दम था जो आज तक विवादित बना हुआ है. वैसे तो जापान के संविधान में सुधार को लेकर कुछ आशंकाएं अभी भी बनी हुई हैं. लेकिन, इसका एक मक़सद ये हो सकता है कि इसके ज़रिए जापान के सैन्य बलों की संवैधानिकता के सवाल को ख़त्म किया जाए और आत्मरक्षा बलों को अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा क़ायम करने में एक स्पष्ट भूमिका दी जाए. चूंकि शिंजो आबे, जापान को एक ‘सामान्य देश’ बनाना चाहते थे, तो ये बात भारत के लिए दिलचस्पी वाली हो सकती है. ऐसे सुधार की कोशिशें, जापान की सेना की वैधानिकता पर उठने वाले सवालों को ख़त्म करेंगी और भविष्य में जापान के नेताओं के लिए भारत जैसी क्षेत्रीय ताक़तों के साथ सैन्य सहयोग का दायरा बढ़ाना आसान बनाएंगी.

ऐसे ही मौक़ों पर शिंजो आबे के प्रभाव और तजुर्बे की कमी महसूस की जाएगी. दूसरे विश्व युद्ध के बाद के जापान के शांतिवादी संविधान में सुधार और उसे एक ‘सामान्य राष्ट्र’ बनाने के किसी भी प्रस्ताव पर गंभीर रूप से विवाद होना तय है. मौजूदा प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा की सरकार को संसद के दोनों सदनों में शोर-शराबे भरी परिचर्चा के बीच से ऐसे सुधारों को पास कराना होगा. तभी संवैधानिक सुधार के मुद्दों को सशंकित जनता के बीच ले जाया जा सकेगा. अगर फुमियो किशिदा किसी दबाव में आकर ऐसे संवैधानिक सुधार से पीछे हटते हैं और ज़्यादा नरमपंथी सुधार के लिए राज़ी होते हैं, तो आशंका इसी बात की है कि उन्हें अपनी पार्टी के दक्षिणपंथियों के विरोध का सामना करना पड़ेगा. क्योंकि ये तबक़ा, संवैधानिक सुधारों को जापान की राष्ट्रीय राजनीति में बदलाव लाने का एक ज़रिया मानता है. शिंजो आबे अपनी विश्वसनीयता के चलते ऐसी नीतियां मंज़ूर कराने की अनूठी क्षमता रखते थे. वो इसके लिए अपनी राजनीतिक साख को भी दांव पर लगाने को तैयार रहते थे. शिंजो आबे के गुज़र जाने के बाद, संवैधानिक समीक्षा के आंदोलन ने अपना सबसे जाना-पहचाना चेहरा खो दिया है. शिंजो आबे की ज़बरदस्त राजनीतिक हैसियत के बग़ैर, किशिदा सरकार पर संविधान की समीक्षा का जो दबाव है, वो भी कम होने का डर है.

चूंकि शिंजो आबे, जापान को एक ‘सामान्य देश’ बनाना चाहते थे, तो ये बात भारत के लिए दिलचस्पी वाली हो सकती है. ऐसे सुधार की कोशिशें, जापान की सेना की वैधानिकता पर उठने वाले सवालों को ख़त्म करेंगी और भविष्य में जापान के नेताओं के लिए भारत जैसी क्षेत्रीय ताक़तों के साथ सैन्य सहयोग का दायरा बढ़ाना आसान बनाएंगी.

आबे की राष्ट्रीय सुरक्षा नीति

शिंजो आबे के निधन से जापान की राजनीति में जो ख़ालीपन आया है, वो भविष्य में रक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा की नीति पर होने वाली परिचर्चाओं पर भी असर डालेगा. जबकि जापान की अंदरूनी राजनीति के इन मुद्दों में भारत की काफ़ी दिलचस्पी है. आज जापान, शिंजो आबे की 2013 की राष्ट्रीय सुरक्षा नीति को नए सिरे से ढालने में जुटा है. फुमियो किशिदा की सरकार ने जापान के रक्षा बजट को बढ़ाने और हिंद प्रशांत क्षेत्र में अधिक सक्रिय सैन्य भूमिका निभाने का वादा किया है. इससे चीन और उत्तर कोरिया को उनकी हद में रखने में मदद मिलेगी. ताइवान की सुरक्षा को नई ताक़त मिलेगी और चीन के इर्द-गिर्द के हिंद प्रशांत के देशों की सेनाओं को सुधारने के लिए पूंजी जुटाई जा सकेगी. आज जब महंगाई और जनता की नाराज़गी बढ़ रही है, तो एक सवाल जापान की राजनीति के केंद्र में है: जापान की सरकार रक्षा संबंधी इन ख़र्चों के लिए पैसे कहां से जुटाएगी? कोरोना महामारी के बाद अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकने के लिए विशाल स्टिमुलस पैकेज लागू करने और नई आर्थिक चुनौतियों का सामना करते हुए, जापान के लिए रक्षा क्षेत्र में सुधार के लिए पूंजी जुटाना मुश्किल साबित हो सकता है.

शिंजो आबे के निधन से जापान की राजनीति में जो ख़ालीपन आया है, वो भविष्य में रक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा की नीति पर होने वाली परिचर्चाओं पर भी असर डालेगा. जबकि जापान की अंदरूनी राजनीति के इन मुद्दों में भारत की काफ़ी दिलचस्पी है.

अपने देहांत से पहले शिंजो आबे इस परिचर्चा में बहुत अहम भूमिका निभा रहे थे. चूंकि जापान के सत्ताधारी दल के एक अहम गुट पर उनका प्रभाव था और वो इसका इस्तेमाल करके जापान की रक्षा क्षमताओं में इज़ाफ़े को बढ़ावा दे रहे थे. ऐसे में शिंजो आबे की मौत ने जापान की घरेलू राजनीति को और भी पेचीदा बना दिया है. प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा को एक ज़माने में विदेश नीति के मामले में नरमपंथी कहा जाता था. जापान की सेना को भविष्य के लिए तैयार करने के लिए किशिदा को अब नरमपंथियों, रुढ़िवादियों और गठबंधन के अनिच्छुक साझीदारों और आक्रामक अफ़सरशाही से निपटना होगा.

साफ़ है शिंजो आबे की मौत जापान के लिए भी बड़ी क्षति है और भारत के लिए भी.

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