Published on Jul 21, 2022 Updated 0 Hours ago

सरकार को बुनियादी ढांचे के विकास के वित्तपोषण के वास्ते निवेश का पर्याप्त प्रवाह सुनिश्चित करने के लिए और अधिक लक्षित नीतियां बनाने की ज़रूरत है.

कोविड19 महामारी के बाद: कैसे तेज़ हो बुनियादी ढांचे के विकास की रफ़्तार?

जब देश धीरे-धीरे महामारी से उबर रहा है, और अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्र सामान्य गतिविधियां बहाल होने को लेकर उत्साहित हैं, बुनियादी ढांचे में निवेश के लिए सरकार की ओर से नये सिरे से प्रोत्साहन देखने को मिल रहा है. इस संदर्भ में, केंद्र सरकार का हाल में शुरू हुआ महत्वाकांक्षी नीतिगत कार्यक्रम, गतिशक्ति – नेशनल मास्टर प्लान फॉर मल्टी-मोडल कनेक्टिविटी –केंद्र और राज्य सरकारों की विभिन्न बुनियादी ढांचा योजनाओं (जिनमें भारतमालासागरमालाउड़ान और ऐसी अन्य आर्थिक विकास योजनाएं शामिल हैं जो औद्योगिक क्लस्टरों और बुनियादी ढांचा गलियारों पर केंद्रित हैं) को साथ लाकर बुनियादी ढांचा विकास पर अधिक ध्यान केंद्रित करने का वादा करता है. गतिशक्ति के शुभारंभ के बाद, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने बजट (2020-23) भाषण में एलान किया कि 2022 और 2023 के बीच, चोट खायी अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने के लिए निजी निवेशों को सार्वजनिक निवेश आकर्षित करेंगे.

गतिशक्ति के शुभारंभ के बाद, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने बजट (2020-23) भाषण में एलान किया कि 2022 और 2023 के बीच, चोट खायी अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने के लिए निजी निवेशों को सार्वजनिक निवेश आकर्षित करेंगे.

गतिशक्ति का शुभारंभ और भारतीय अर्थव्यवस्था के भीतर निजी निवेश के लिए ज़्यादा जगह बनाने की बजट घोषणा भारतीय बुनियादी ढांचा क्षेत्र के लिए स्वागत-योग्य क़दम हैं. दोनों पहलक़दमियां भारत के बुनियादी ढांचा क्षेत्र को सता रहीं कुछ पुरानी समस्याओं के बारे में भी बात करती हैं तथा भारत में बुनियादी ढांचे के विकास व वित्तपोषण के लिए अधिक दीर्घकालिक समाधान तलाशने के लिए भविष्य का रोडमैप तैयार करती हैं. इसी सिलसिले में, यह लेख बुनियादी ढांचे के विकास और वित्तपोषण में बाधाओं पर दो प्रमुख दृष्टिकोणों से चर्चा करता है. पहला दृष्टिकोण नियामकीय और नौकरशाही की उन अड़चनों से संबंधित है जो लंबे समय से भारत के बुनियादी ढांचा विकास के इकोसिस्टम में व्याप्त हैं और जिन्होंने देश की कई बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में देरी की है और/या उन्हें बाधित किया है. दूसरी तरह की चिंताएं भारत में बुनियादी ढांचे में निवेश की समस्याओं से संबंधित हैं. यह चिंता विशेष रूप से, विकसित देशों तथा कुछ अन्य मध्यम-आय वाले देशों (जिनकी आर्थिक वृद्धि की राह भारत जैसी ही है) की तुलना में भारत में बुनियादी ढांचे में निवेश के अपेक्षाकृत निम्न स्तर को लेकर है. यह लेख बुनियादी ढांचा विकास में जलवायु परिवर्तन द्वारा पेश अवसरों व चुनौतियों, और महामारी की स्थितियों से चर्चा में आये सामाजिक बुनियादी ढांचे में नये सिरे से बढ़ी दिलचस्पी पर भी ग़ौर करता है. हालांकि, इन मुद्दों में गहरे उतरने से से पहले, इस सवाल से मुख़ातिब होना उचित होगा कि आख़िर क्यों बुनियादी ढांचे का विकास देश की व्यापक आर्थिक वृद्धि का अभिन्न अंग है.

बुनियादी ढांचे में सार्वजनिक निवेश

नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ज़ोर देते हैं कि बुनियादी ढांचे पर ख़र्च का पूरी अर्थव्यवस्था पर मल्टीप्लायर इफेक्ट होता है. वह समझाते हैं कि बुनियादी ढांचा परियोजनाएं श्रम और निर्माण सामग्री की बढ़ी हुई मांग में तेज उछाल लाती हैं और बेहतर कनेक्टिविटी को बढ़ावा देकर और माल व लोगों की आवाजाही बढ़ाकर अर्थव्यवस्था पर दूसरे क्रम के प्रभाव डालती हैं. अर्थशास्त्र का अकादमिक साहित्य भी इस मत का समर्थन करता है. आर्थिक प्रसार के मुक़ाबले आर्थिक संकुचन के दौर में मल्टीप्लायर इफेक्ट ज्यादा बड़े रूप में नज़र आता है. कुल मिलाकर, बुनियादी ढांचे में सार्वजनिक निवेश आर्थिक वृद्धि के लिए प्रोत्साहन मुहैया कराता है.

भारत के राज्यों में, अमूमन, विभिन्न मंत्रालयों और राज्यों के विभागों से आवश्यक स्वीकृतियां लेने में 18 महीने से लेकर चार या पांच साल तक अलग-अलग समय लग सकता है. इस तरह की प्रक्रियात्मक अड़चनें परियोजना के क्रियान्वयन और पूरा होने में देरी कराती हैं, जिससे अक्सर निवेशकों के भरोसे को नुक़सान पहुंचता है.

किसी भी बुनियादी ढांचा परियोजना के निर्माण (चाहे वह घरों तक जलापूर्ति हो, या सड़कों व राजमार्गों जैसी बड़े पैमाने की परियोजनाएं जो राज्यों या जिलों की सीमाओं के पार फैली होती हैं) के लिए केंद्र, राज्य और स्थानीय स्तरों पर अनुमतियों व स्वीकृतियों की ज़रूरत होती है. विभिन्न मंत्रालयों के बीच समन्वय का अभाव और बेशुमार प्रशासनिक दिशानिर्देश ऐसे अन्य कारक हैं जो प्रक्रिया को बोझिल बनाते हैं. भारत के राज्यों में, अमूमन, विभिन्न मंत्रालयों और राज्यों के विभागों से आवश्यक स्वीकृतियां लेने में 18 महीने से लेकर चार या पांच साल तक अलग-अलग समय लग सकता है. इस तरह की प्रक्रियात्मक अड़चनें परियोजना के क्रियान्वयन और पूरा होने में देरी कराती हैं, जिससे अक्सर निवेशकों के भरोसे को नुक़सान पहुंचता है.

विवादों के निपटारे की लंबी प्रणाली निजी खिलाड़ियों की मुसीबतों को और बढ़ाती है. निजी-सार्वजनिक साझेदारी परियोजनाओं के मामले में, जोख़िमों के बंटवारे और सेवाओं की प्रोविजिनिंग पर अस्पष्ट ब्योरे (स्पेसिफिकेशन्स) अक्सर ठेकों की विफलताओं का कारण बनते हैं. इसके चलते बहुत सी परियोजनाएं आधी-अधूरी रह जाती हैं या कई अन्य बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में समयसीमा को टालना पड़ता है. इन ख़ामियों को दूर करने के लिए, गतिशक्ति मास्टर प्लान का लक्ष्य ऐसे 16 सरकारी मंत्रालयों के बीच समन्वय को सुविधाजनक बनाना है जिनका वास्ता बुनियादी परियोजनाओं से है. इनमें रेलवे, विमानन, इलेक्ट्रॉनिक्स एवं दूरसंचार, पोत परिवहन, सड़क परिवहन, कपड़ा, और खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय शामिल हैं. तकनीक-आधारित उपायों का इस्तेमाल करते हुए, इस योजना का लक्ष्य विभिन्न सरकारी विभागों के बीच वास्तविक समय में समन्वय सुनिश्चित करना और एक से ज़्यादा सेक्टरों से जुड़ी परियोजनाओं के योजना-निर्माण और क्रियान्वयन (उदाहरण के लिए, बंदरगाहों, रेलवे और राजमार्गों को जोड़ने की एकसाथ योजना बनाना) की मांग करना है.

प्रशासनिक और नियामकीय बाधाओं से परे, बुनियादी ढांचा विकास क्षेत्र के लिए एक आवश्यकता और चिंता निजी क्षेत्र के निवेश पोर्टफोलियो का विस्तार है. बुनियादी ढांचा सुविधाओं की तेज़ी से बढ़ती मांग को देखते हुए, यह संभव नहीं लगता कि अकेले सार्वजनिक निवेश इन सुविधाओं के वित्तपोषण के लिए पर्याप्त होंगे. 

एक ऐसे समय में जब भारत 5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था के लिए तैयार है और सभी क्षेत्रों (ऊर्जा, परिवहन, लॉजिस्टिक्स इत्यादि) में बुनियादी ढांचा सुविधाओं में उछाल देखने को मिल रहा है, सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बुनियादी ढांचा निवेशों को उनकी प्रभावकारिता के लिए एकजुट करके महामारी से प्रभावित अर्थव्यवस्था को ताक़त देना ज़रूरी है.

इसके अलावा, बड़े आकार की बुनियादी ढांचा परियोजनाओं को उच्च आरंभिक निवेश की ज़रूरत होती है, और इन पर कम रिटर्न मिलता है. ये मुनाफ़ा काफ़ी लंबी अवधि में ही दे पाती हैं, अगर कोई हो तो. इसलिए, ऐसी परियोजनाओं के वित्तपोषण के लिए कर राजस्व अपर्याप्त स्रोत हैं. अगर हम केवल शहरी केंद्रों पर ही विचार करें, तो संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट, शहरीकरण की वैश्विक संभावनाएं 2018 का अनुमान है कि 2018 और 2050 के बीच भारत की शहरी आबादी लगभग दोगुनी होकर 46.1 करोड़ से 88.7 करोड़ हो जायेगी. आबादी में ऐसी बढ़ोतरी का नतीजा अपने आप ही अत्यावश्यक और गैर-अत्यावश्यक बुनियादी ढांचा सुविधाओं के निर्माण की वृद्धि के रूप में सामने आयेगा. इसके अलावा, कोविड-19 महामारी ने सामाजिक बुनियादी ढांचे, ख़ासकर स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं की सख़्त ज़रूरत को उजागर किया है. इसके साथ ही, जलवायु परिवर्तन ने निम्न कार्बन बुनियादी ढांचा परियोजनाओं की स्थापना को प्रेरित किया है. इस सिलसिले में, भारत ऊर्जा जैसे सेक्टरों में नेतृत्व कर रहा है और यह लेख लिखे जाने के समय तक़रीबन 196.98 अरब अमेरिकी डॉलर की परियोजनाएं पहले ही प्रगति पथ पर हैं. इसके अतिरिक्त, यूटिलिटी-स्केल की लगभग 300 अक्षय ऊर्जा आधारित विद्युत परियोजनाएं सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में योजना के स्तर पर हैं. इसलिए, बुनियादी ढांचा क्षेत्र निवेश के लिए भारी मौक़े पेश करता है.

5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था का लक्ष्य

वहनीय स्वास्थ्य सेवाओं, ग्रामीण जन सेवाओं और अवसंरचनात्मक सुख-सुविधाओं जैसी प्रमुख सामाजिक बुनियादी ढांचा परियोजनाओं, जहां निवेश पर रिटर्न अत्यधिक कम रहता है, को छोड़कर, अन्य बुनियादी ढांचा क्षेत्रों में निजी निवेश को आकर्षित किया जा सकता है. एक अनुकूल बाजार वातावरण के अभाव और सार्वजनिक-निजी साझेदारी को प्रभावित करने वाली नियामकीय बाधाओं ने भारत में निजी क्षेत्र के निवेश पर ग्रहण लगा रखा है. ख़ास तौर पर 2008 और 2018 के बीच, देश में निजी निवेश में बड़ी गिरावट आयी. यह 2008 के 37 फ़ीसद से घटकर 2018 में 25 फ़ीसद रह गया. इस गिरावट का एक प्राथमिक कारण भारतीय बैंकिंग क्षेत्र में अनर्जक परिसंपत्तियों (एनपीए) का संकट था. बैंकिंग उद्योग के अलावा, प्रतिबंधकारी सरकारी मानदंड बीमा उद्योग और पेंशन कोषों की ओर से निवेश रोकते हैं, अन्यथा वे बुनियादी ढांचे के दीर्घकालिक वित्तपोषण के लिए बड़ी राशि मुहैया करा सकते हैं. अंत में, बुनियादी ढांचे में निजी निवेश आकर्षित करने के वास्ते सार्वजनिक-निजी साझेदारी को बढ़ावा देने के लिए विशिष्ट और लक्षित प्रयासों की ज़रूरत होगी. यहां विशेष उद्देश्य वाहकों (एसपीवी) या ‘वाइबिलिटी गैप फंडिंग’ जैसे साधन मददगार हो सकते हैं, क्योंकि वे परियोजना के वित्तपोषण के एक हिस्से के लिए सार्वजनिक निवेश की और बाक़ी के लिए निजी क्षेत्र द्वारा उधार लिये गये धन के इस्तेमाल की अनुमति देकर निजी खिलाड़ियों के वित्तीय जोखिम को कम करते हैं. 

एक ऐसे समय में जब भारत 5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की अर्थव्यवस्था के लिए तैयार है और सभी क्षेत्रों (ऊर्जा, परिवहन, लॉजिस्टिक्स इत्यादि) में बुनियादी ढांचा सुविधाओं में उछाल देखने को मिल रहा है, सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बुनियादी ढांचा निवेशों को उनकी प्रभावकारिता के लिए एकजुट करके महामारी से प्रभावित अर्थव्यवस्था को ताक़त देना ज़रूरी है. नियामक व्यवस्था में प्रगतिशील बदलाव निवेशकों के भरोसे को काफ़ी बढ़ायेगा, लेकिन निवेश पोर्टफोलियो, ख़ासकर निजी सेक्टर के निवेश, को व्यापक बनाना वक़्त की ज़रूरत है. गतिशक्ति, नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन एंड ऐसेट मॉनेटाइजेशन प्लान जैसे हालिया नीतिगत उपाय उपरोक्त चिंताओं में से कुछ का निवारण करते हैं. हालांकि, विशिष्ट बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के लिए आवश्यकताओं और बाजार में उपलब्ध संभावित निवेश पोर्टफोलियो के बीच के फ़ासले को पाटने वाली लक्षित नीतियां इस क्षेत्र में आने वाले अवसरों के दोहन के लिए कुंजी का काम करेंगी.

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Contributor

Meenakshi Sinha

Meenakshi Sinha

Meenakshi Sinha is an Assistant Professor in Humanities and Applied Sciences at the Indian Institute of Management Ranchi. She previously held research positions at the ...

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