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Published on Jan 11, 2024 Updated 1 Hours ago
सैन्य अभियानों की योजना (CONOPs) के साथ अंतरिक्ष सुरक्षा रणनीति का तालमेल बेहद ज़रूरी!

पूरा विश्व सुरक्षा के लिहाज़ से इन दिनों बेहद मुश्किल हालातों में घिरा हुआ है. हाल ही में इज़राइल पर हुआ हमास का ख़ौफनाक हमला इन सुरक्षा चिंताओं का सटीक उदाहरण है. इन विपरीत सुरक्षा हालातों ने एक मज़बूत C4ISR नेटवर्क की ज़रूरत को बढ़ाने का काम किया है. C4ISR नेटवर्क से तात्पर्य कमांड, नियंत्रण, संचार, कंप्यूटर, इंटेलिजेंस, निगरानी और जासूसी नेटवर्क से है. ज़ाहिर है कि इस नेटवर्क के ज़रिए न केवल रियल टाइम ख़ुफ़िया जानकारी मिलती है, बल्कि परिस्थितियों के मुताबिक़ त्वरित फैसले लेना भी आसान हो जाता है. इन चुनौतियों का समाधान तलाशने के लिए अंतरिक्ष-आधारित सुविधाएं यानी सैटेलाइट कहीं न कहीं बेहद महत्वपूर्ण और अत्यंत ज़रूरी साधन के तौर पर उभरे हैं. देखा जाए तो अंतरिक्ष आधारित संसाधन युद्ध की परिस्थितियों में सैन्य गतिविधियों के सुचारु संचालन में बेहद कारगर साबित होते हैं. इस सबसे साथ ही भारत की बात की जाए, तो यहां अंतरिक्ष क्षेत्र में तमाम निजी सेक्टर की कंपनियां कार्य कर रही हैं. ये कंपनियां भले ही नई हैं, लेकिन देश की सुरक्षा आवश्यकताओं को पूरा करने में धीरे-धीरे ही सही पर महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं. देखा जाए तो स्पेस सेक्टर की यह निजी कंपनियां भारत को अंतरिक्ष सुरक्षा रणनीति में एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी बनाती हैं. उल्लेखनीय है कि अंतरिक्ष सुरक्षा रणनीति के इस ढांचे के लिए न सिर्फ़ विभिन्न तकनीक़ी पहलुओं की आवश्यकता है, बल्कि बेहतर तालमेल वाले राष्ट्रीय नज़रिए की भी ज़रूरत है. यानी कि ऐसा नज़रिया, जो नागरिक, रक्षा, उद्योग, शैक्षणिक सेक्टर में मेलजोल बढ़ाए और साथ ही थिंक टैंक को भी साथ में लाए, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि भारत की अंतरिक्ष सुरक्षा व्यापक होने के साथ-साथ लचीली भी हो.

देखा जाए तो अंतरिक्ष आधारित संसाधन युद्ध की परिस्थितियों में सैन्य गतिविधियों के सुचारु संचालन में बेहद कारगर साबित होते हैं. इस सबसे साथ ही भारत की बात की जाए, तो यहां अंतरिक्ष क्षेत्र में तमाम निजी सेक्टर की कंपनियां कार्य कर रही हैं.

राष्ट्रीय अंतरिक्ष सुरक्षा नीति

 

अंतरिक्ष ऑपरेशन्स यानी अंतरिक्ष से संचालित होने वाली गतिविधियां देखा जाए तो बेहद ही जटिल हैं, ऐसे में अंतरिक्ष के संसाधनों के इस्तेमाल को लेकर जो एक स्पष्ट राष्ट्रीय सुरक्षा दृष्टिकोण निर्धारित किया जा रहा है, उसमें अंतरिक्ष का "सैन्यीकरण" और "हथियारीकरण" दोनों के बीच साफ-साफ अंतर करना बेहद अहम है. देखने में ये दोनों ही शब्द लगभग एक जैसे लगते हैं, लेकिन इनमें व्यापक अंतर है. ज़ाहिर है कि जब भी रक्षा के लिए अंतरिक्ष के इस्तेमाल की चर्चा की जाती है, तब अंतरिक्ष का "सैन्यीकरण" और "हथियारीकरण" जैसे शब्द अक्सर भ्रम की स्थित उत्पन्न करते हैं, साथ ही साथ विभिन्न लोगों के विचारों को भी प्रभावित करने का काम करते हैं. जहां तक अंतरिक्ष के सैन्यीकरण की बात है, तो इसका अर्थ यह है कि अंतरिक्ष आधारित सुविधाओं और उपकरणों का ऐसी गतिविधियों के लिए उपयोग करना, जो गैर-आक्रामक हों और शांति के उद्देश्य से की जाती हैं, या फिर इसका अर्थ ऐसी गतिविधियों से है, जो रक्षात्मक सैन्य अभियानों में सहयोग करने वाली होती हैं. अहम बात यह है कि अंतरिक्ष के सैन्यीकरण का अर्थ यह कतई नहीं है कि आक्रामक आभियानों के लिए अंतरिक्ष में हथियारों को तैनात किया जाए. दूसरी तरफ, अंतरिक्ष के हथियारीकरण का मतलब ख़ास तौर पर आक्रामक उपायों के लिए बनाई गईं अंतरिक्ष सुविधाओं यानी उपकरणों या हथियारों का उपयोग करना है. इसमें एंटी-सैटेलाइट (ASAT) मिसाइल, डायरेक्टेड एनर्जी वीपन (DEW), या दूसरे अंतरिक्ष रोधी हथियारों की तैनाती शामिल है. ज़ाहिर है कि अंतरिक्ष का हथियारीकरण कहीं न कहीं बेहद आक्रामक परिस्थिति है और ऐसा होने पर अंतरिक्ष लड़ाई के मैदान में तब्दील हो सकता है. सैन्यीकरण और हथियारीकरण के बीच के इस बारीक़ अंतर के अच्छी तरह से समझना बेहद ज़रूरी है, क्योंकि अंतरिक्ष से संबंधित नियम-क़ानून और नीतियों के निर्धारण के दौरान इस समझ की आवश्यकता होती है. यही दो मुद्दे हैं, जिन्होंने युद्ध की स्थिति में अपनी तैयारी को पुख्ता करने के लिए अंतरिक्ष से संबंधित उपायों को सशक्त करने एवं अंतरिक्ष में मौज़ूद हमारी सुविधाओं या उपकरणों की सुरक्षा के लिए अंतरिक्ष-रोधी उपायों के लिए प्रेरित किया है. कहने का तात्पर्य यह है कि एक सशक्त राष्ट्रीय अंतरिक्ष सुरक्षा नीति की ज़रूरत पर ज़ोर दिया है.

राष्ट्रीय अंतरिक्ष सुरक्षा नीति न केवल राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अंतरिक्ष में मौज़ूद सुविधाओं और संसाधनों के सुरक्षित व शांतिपूर्ण इस्तेमाल को लेकर भारत के रुख को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी, बल्कि अंतरिक्ष में पहले बल प्रयोग से बचने की प्रतिबद्धता को भी सुनिश्चित करेगी.

राष्ट्रीय अंतरिक्ष सुरक्षा नीति न केवल राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अंतरिक्ष में मौज़ूद सुविधाओं और संसाधनों के सुरक्षित व शांतिपूर्ण इस्तेमाल को लेकर भारत के रुख को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी, बल्कि अंतरिक्ष में पहले बल प्रयोग से बचने की प्रतिबद्धता को भी सुनिश्चित करेगी. ज़ाहिर है कि राष्ट्रीय अंतरिक्ष सुरक्षा नीति को बनाने के लिए अंतरिक्ष के रणनीतिक इस्तेमाल हेतु वांछित नतीज़े हासिल करने के लिए रणनीतिक सुरक्षा फ्रेमवर्क और ऑपरेशन्स की अवधारणा को भी फिर से परिभाषित करने की ज़रूरत होगी. यह नीति अंतरिक्ष से संचालित होने वाली विभिन्न गतिविधियों के लिए एक समन्वित और प्रभावी नज़रिए हेतु एक पुख्ता आधार तैयार करती है, जो कि भारत के डिफेंस एवं बाहरी अंतरिक्ष के क्षेत्र में मेलजोल एवं शांतिपूर्ण तरीक़े से एक दूसरे के विकास में सहयोग करते हुए साथ रहने के लिए बेहद अहम है.

भारत की राष्ट्रीय अंतरिक्ष सुरक्षा नीति को 20 अप्रैल, 2023 को जारी किया गया था. यह अंतरिक्ष नीति निजी कंपनियों एवं उपक्रमों द्वारा अंतरिक्ष में सैटेलाइट्स और रॉकेटों को लॉन्च करने से लेकर ग्राउंड स्टेशनों का संचालन करने तक, शुरू से आख़िरी तक व्यावसायिक अंतरिक्ष गतिविधियों से संबंधित योजनाओं का विस्तारपूर्वक बखान करती है. हालांकि, भारतीय अंतरिक्ष नीति अंतरिक्ष सुरक्षा से जुड़े कई पहलुओं को कवर नहीं करती है, ख़ास तौर पर ऐसे पहलुओं को, जो बचाव और रक्षा संबंधी उपयोग के लिए तैयार किए गए हैं. भारत की यह राष्ट्रीय अंतरिक्ष सुरक्षा नीति शांतिपूर्ण अंतरिक्ष उपयोग के लिए देश के नज़रिए को नए सिरे से परिभाषित करने का काम करेगी, जिसमें सुरक्षा से जुड़ी बातों को लेकर स्पष्ट दृष्टिकोण होगा. लेकिन इतना ही काफ़ी नहीं है, भविष्य में अंतरिक्ष में भारत की रक्षा तैयारियों को सशक्त करने के लिए रक्षा अंतरिक्ष सिद्धांत और रणनीति के साथ अंतरिक्ष सुरक्षा नीति में बदलाव करने और उसे ज़्यादा मज़बूत करने की ज़रूरत होगी. ज़ाहिर है कि किसी भी संकट की परिस्थिति में अंतरिक्ष से जुड़े विभिन्न हितधारकों के बीच बेहतर पारस्परिक समन्वय ज़रूरी है और यह यूनियन वॉर बुक [i][ii] के ज़रिए हासिल हो सकता है. उल्लेखनीय है कि इसमें अलग-अलग सिविल-डिफेंस अंतरिक्ष खिलाड़ियों की भूमिकाओं और ज़िम्मेदारियों का साफ तौर पर उल्लेख किया जाना चाहिए.

दोहरी दुविधा या संकट की स्थिति का समाधान

अंतरिक्ष नीति को बनाने के मामले में एक बेहद ज़रूरी और मुनासिब सवाल भी है और यह सवाल है, "उपग्रहों को मिलिट्री या सिविल या फिर दोहरे उपयोग के रूप में वर्गीकृत करना". लेकिन सैटेलाइट्स के सैन्य या नागरिक इस्तेमाल को लेकर वर्गीकृत करने में जो जटिलताएं हैं, वो भी वैश्विक स्तर पर एक बड़ी चुनौती बनी हुई हैं. ऐसे में भारत को दोहरे उपयोग वाले, यानी सैन्य और नागरिक उपयोग वाले उपग्रहों को प्राथमिकता देकर एवं इसको लेकर सर्वसम्मति बनाकर और अंतरिक्ष नीति को लेकर एक पारदर्शी व अनुकूलनीय नज़रिया बनाए रखकर इस उलझन का समाधान करना चाहिए. अगर भारत द्वारा इस प्रकार का नज़रिए अपनाया जाता है, तो यह न केवल एक लिहाज़ से भारत की ओर से ज़्यादा टिकाऊ एवं शांतिपूर्ण अंतरिक्ष वातावरण बनाने में योगदान होगा, बल्कि यह अनुकूल परिस्थितियों और लचीलेपन का फायदा उठाने में भी सहायक होगा.

वर्तमान में भारत का जो आर्थिक वातावरण है, जो कि राष्ट्र-निर्माण के लिए किए जा रहे ठोस प्रयासों की वजह से बना है, वो किसी भी सूरत में इस बात की इजाज़त नहीं देता है कि अंतरिक्ष आधारित संसाधनों यानी सैटेलाइट्स का उपयोग किसी ख़ास संगठन या विभाग के लिए सीमित कर दिया जाए. यही वजह है कि विभिन्न सैटेलाइट्स को सिविल या डिफेंस उपयोग के लिए अ

ज़ाहिर है कि अंतरिक्ष एक रणनीतिक संसाधन है और इसके साथ ही, इसका उपयोग एक सीमित दायरे में ही संभव है. ऐसे में अंतरिक्ष में मौज़ूद संसाधनों का समझदारी के साथ इस्तेमाल किया जाना बेहद आवश्यक है और ऐसा सुनिश्चित भी किया जाना चाहिए. अगर अंतरिक्ष आधारित विभिन्न संसाधनों का उपयोग कुछ ख़ास संगठनों तक ही सीमित कर दिया जाएगा, तो यह कहीं न कहीं बाक़ी उपयोगकर्ताओं के लिए यह हानिकारक सिद्ध होगा. वर्तमान में भारत का जो आर्थिक वातावरण है, जो कि राष्ट्र-निर्माण के लिए किए जा रहे ठोस प्रयासों की वजह से बना है, वो किसी भी सूरत में इस बात की इजाज़त नहीं देता है कि अंतरिक्ष आधारित संसाधनों यानी सैटेलाइट्स का उपयोग किसी ख़ास संगठन या विभाग के लिए सीमित कर दिया जाए. यही वजह है कि विभिन्न सैटेलाइट्स को सिविल या डिफेंस उपयोग के लिए अलग-अलग करने का विचार न केवल बेमानी है, बल्कि इसे नतीज़े भी नुक़सानदायक हैं.

 

एक ऐसे परिदृश्य के बारे में सोचें, जिसमें सन-सिन्क्रॉनस पोलर ऑर्बिट (SSPO) यानी सूर्य-समकालिक ध्रुवीय कक्षा में 10 अलग-अलग संगठनों द्वारा अपनी निजी उपयोग के लिए समान अंतरिक्ष उपकरण वाले 10 उपग्रहों को भेजा जाता है, नतीज़तन इनके दोबारा भ्रमण का समय एक सप्ताह से अधिक का हो जाता है. हालांकि, जब सभी उपयोगकर्ताओं द्वारा इन उपग्रहों को मिलजुल कर इस्तेमाल किया जाता है, तो इनके दोबारा भ्रमण का समय एक घंटे तक कम किया जा सकता है और इससे इनकी क्षमता कई गुना बढ़ जाती है.

 

ज़ाहिर है कि दोहरे उपयोग वाले सैटेलाइट्स का उपयोग केवल सैन्य अभियानों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इनका इस्तेमाल नागरिक और व्यावसायिक दोनों क्षेत्रों की ज़रूरतों को एक साथ पूरा करने के लिए किया जा सकता है और इस प्रकार से यह अर्थव्यवस्था को भी मज़बूत करते हैं.

अंतरिक्ष से जुड़े उपकरणों या कहा जाए उपग्रहों आदि के निर्माण में बहुत समय लगता है, जबकि इन्हें पूरी तरह संचालित करने की क्षमता हासिल करने में तो अक्सर दशकों लग जाते हैं.

रोडमैप: स्वामित्व और प्रबंधन

अगर अंतरिक्ष के संसाधनों का इस्तेमाल करने वाले किसी भी उपयोगकर्ता या संगठन की बुनियादी परिचालन ज़रूरतों की बात की जाए तो उसे कस्टमाइज्ड क्वालिटी एंड प्रोडक्ट अर्थात अनुकूल गुणवत्ता वाले अंतिम उत्पाद एवं समय पर डिलीवरी के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है. अनुकूल गुणवत्ता वाला अंतिम उत्पाद समुचित अंतरिक्ष उपकरण तैयार करने के लिए रिसर्च क्षेत्र के तहत आता है, वहीं समय पर डिलीवरी मात्रात्मक बढ़ोतरी की मांग करती है, जिससे दोबारा भ्रमण के समय में सुधार होता है. इसलिए, ISRO को भविष्य की टेक्नोलॉजी प्रदान करने वाली अपनी रिसर्च गतिविधियों को जारी रखना चाहिए और जब यह अनुसंधान पूरा हो जाए, तो नई तकनीक़ को उपयोग करने के लिए निजी कंपनियों या संगठनों को सौंप देना चाहिए. इतना ही नहीं स्पेस डिफेंस गैप अर्थात अंतरिक्ष रक्षा की कमियों को समाप्त करने के लिए रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) द्वारा लक्षित अनुसंधान को दोहरे स्तर पर अपनाने की ज़रूरत है, जिसके लिए प्रारंभिक तौर पर इसरो के अनुभवी तकनीक़ीविदों की मदद की ज़रूरत पड़ सकती है.

अगर स्पेस इंफ्रास्ट्रक्चर के अधिकार एवं प्रबंधन को लेकर बात की जाए, तो इस विषय पर भी गंभीरता से और सावधानीपूर्वक विचार-विमर्श किए जाने की आवश्यकता है. अंतरिक्ष से जुड़े उपकरणों या कहा जाए उपग्रहों आदि के निर्माण में बहुत समय लगता है, जबकि इन्हें पूरी तरह संचालित करने की क्षमता हासिल करने में तो अक्सर दशकों लग जाते हैं. इसलिए, एक ऐसे देश में जहां विशाल मानव संसाधन उपलब्ध है और जहां व्यापक स्तर पर सुरक्षा से जुड़ी समस्याएं हैं, उसकी बहु-उपयोगकर्ता ज़रुरतों को पूरा करने के लिए एक मल्टी सर्विस प्रोवाइडर यानी बहु-सेवा प्रदाता दृष्टिकोण ख़ास तौर पर सबसे मुफ़ीद है. उल्लेखनीय है कि अगर दोहरे या बहु-कार्यात्मक उपग्रह बेड़े का उपयोग किया जाता है, तो न सिर्फ़ परियोजना पूरी होने की अवधि को कम किया जा सकता है, बल्कि परिणाम हासिल करने के अंतराल को भी काफ़ी कम किया जा सकता है. ऐसे में अगर सरकारी एवं निजी सहयोग की 30:70 के अनुपात वाले मॉडल के अमल में लाया जाता है, तो यह न केवल एक मज़बूत व्यवस्था स्थापित कर सकता है, बल्कि स्थायित्व लाने के साथ-साथ कम ख़र्च में कार्य को आगे बढ़ाने वाला सिद्ध हो सकता है. भारत में तेज़ी से उभरता निजी स्पेस सेक्टर गतिशील होने के साथ-साथ प्रभावशाली भी है और ऊर्जावान भी है. इस सेक्टर में आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए, जिस चीज़ की सबसे अधिक ज़रूरत है, वो है एक विस्तृत नीतिगत ढांचा, ताकि व्यापर स्तर पर सैटेलाइट उत्पादन के लिए असेंबली लाइन स्थापित की जा सके. इसके लिए सबसे महत्वपूर्ण है कि इस दिशा में जो भी प्रयास किए जा रहे हैं, उन्हें एकीकृत किया जाए, जिससे कि उद्योग की क्षमता बढ़े और एक ही तरह की रिसर्च या कोशिश अलग-अलग नहीं की जाए, यानी दोहराव से बचा जा सके. इस कार्य में इंडियन स्पेस एसोसिएशन (ISpA) और न्यू स्पेस इंडिया लिमिटेड (NSIL) मिलकर प्रयास कर सकते हैं. इतना ही नहीं ये संगठन औद्योगिक प्रतिभा और संसाधनों को आपस में जोड़कर, उनका बेहतर तरीक़े से इस्तेमाल कर सकते हैं.

रणनीतिक समुदाय यानी पेशेवरों का एक ऐसा छोटे सा समूह, जो कि अलग-अलग तरीक़ों से भारत की विदेश और सुरक्षा नीति को निर्देशित या प्रभावित करता है, के लिए अंतिम उत्पाद की सुरक्षित डिलीवरी सुनिश्चित करना बेहद अहम है. ज़ाहिर है कि एल्गोरिद्म द्वारा नियंत्रित किए जाने वाले इस पूरे तंत्र को कई एन्क्रिप्शन लेयर्स की ज़रूरत होती है, अर्थात एक ऐसी प्रक्रिया की ज़रूरत होती है, जिसके द्वारा जानकारी को सीक्रेट कोड में बदल दिया जाता है, जिसे इसके विशेषज्ञ सरकारी संगठनों द्वारा बेहद सावधानी से तैयार किया जाता है. ऐसा करने से न केवल रणनीतिक अवश्यकताओं को प्रभावशाली तरीक़े से पूरा करने में सफलता मिलती है, बल्कि निजी अधिकार वाले और निर्बाघ सैटेलाइट नेटवर्क का उपयोग करने में व्यापक स्तर पर लचीलापन भी सुनिश्चित होता है. ऐसे में यह बेहद अहम है कि अपनी आवश्यकताओं के मुताबिक़ बनाए गए अत्यधिक सुरक्षित ग्राउंड एवं उपभोक्ताओं के अलग-अलग समूहों के बुनियादी ढांचे का अधिकार उपयोगकर्ताओं के ही हाथों में हो. इसके साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि वास्तविक जानकारी को छिपाकर तैयार किए गए उच्च-मूल्य वाले उत्पाद स्पेस सेक्टर में कार्य करने वाली ऐसी निजी कंपनियों या संगठनों द्वारा प्रबंधित किए जाएं, जो स्ट्रैटेजिक उपयोगकर्ताओं की विशेष प्रकार की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस एवं एकीकृत उपकरणों से लैस हों.

आश्यक बुनियादी ढांचा

अंतरिक्ष में भारत की राष्ट्रीय रक्षा क्षमताओं को सशक्त करने के लिए स्पेस कमीशन अर्थात अंतरिक्ष आयोग के ढांचे की विस्तृत समीक्षा किया जाना बेहद ज़रूरी है. उल्लेखनीय है कि अंतरिक्ष आयोग में राष्ट्रीय सुरक्षा के दृष्टिकोण से रणनीतिक अंतरिक्ष ज़रूरतों से संबंधित योजना बनाने, डिजाइन तैयार करने, विकास करने और इनके कार्यान्वयन के लिए ज़िम्मेदार सभी हितधारकों के प्रतिनिधियों को शामिल किया जाना आवश्यक है.

अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी पर आधारित सभी प्रकार के रक्षा अभियानों की प्रभावशीलता को बढ़ाने के लिए आज न सिर्फ तत्काल प्रभाव से अंतरिक्ष में कार्य करने वाली इकाइयों को विकसित करने की ज़रूरत है, बल्कि डिफेंस स्पेस एजेंसी (DSA) को इंडियन डिफेंस स्पेस कमांड (INDSPAC) के रूप में विस्तारित करने की भी आवश्कता है.

मौज़ूदा समय में नागरिक और रक्षा क्षेत्र से जुड़े तमाम संगठन योजना बनाने, डिजाइन करने, विकास करने और कार्यान्वयन से जुड़ी ज़िम्मेदारियों को अपने-अपने तरीक़े से संभालते हैं. देखा जाए तो अक्सर इसमें स्पष्टता की कमी होती है और इनकी कुछ सीमाएं भी होती हैं, जिसकी वजह से एक एकीकृत राष्ट्रीय दृष्टिकोण आकार नहीं ले पाता है. इसके लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि सीडीएस को स्पेस कमीशन में शामिल होना चाहिए, ताकि अंतरिक्ष को राष्ट्रीय सुरक्षा की ज़रूरतों के मुताबिक़ विकसित किया जा सके और सभी तरह के सिविल-डिफेंस अंतरिक्ष हितधारकों के साथ पारस्परिक मेलजोल स्थापित किया जा सके. अगर ऐसा किया जाता है, तो इससे न केवल अंतरिक्ष में सशक्त मौज़ूदगी के प्रयासों को बल मिलेगा, बल्कि असमंजस की स्थिति पर भी काबू पाया जा सकेगा. इसके साथ ही इससे अंतरिक्ष की क्षमता में वृद्धि होगी और अंतरिक्ष में एक मानक स्थापित करने के लिए संगठित व समन्वित राष्ट्रीय नज़रिया भी बनेगा. अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी पर आधारित सभी प्रकार के रक्षा अभियानों की प्रभावशीलता को बढ़ाने के लिए आज न सिर्फ तत्काल प्रभाव से अंतरिक्ष में कार्य करने वाली इकाइयों को विकसित करने की ज़रूरत है, बल्कि डिफेंस स्पेस एजेंसी (DSA) को इंडियन डिफेंस स्पेस कमांड (INDSPAC) के रूप में विस्तारित करने की भी आवश्कता है.

निष्कर्ष

अंतरिक्ष सुरक्षा में भारत की विभिन्न गतिविधियां, कहीं न कहीं उसकी रक्षा संबंधी तैयारियों के साथ जुड़ी हुई हैं और ज़ाहिर तौर पर इसके लिए एक व्यापक और मज़बूत राष्ट्रीय रणनीत की ज़रूरत है. यह राष्ट्रीय रणनीति ऐसी होनी चाहिए, जो समग्र राष्ट्रीय दृष्टिकोण का लाभ उठाते हुए अंतरिक्ष को रणनीतिक, नागरिक और व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए एकीकृत करने वाली हो. अंतरिक्ष के क्षेत्र में अग्रणी देशों से सबक लेते हुए भारत को अपनी सैन्य ज़रूरतों को प्रमुखता देनी चाहिए, साथ ही इसके लिए इंडस्ट्री एवं रक्षा संस्थानों के बीच पारस्परिक सहयोग के माध्यम से फायदा उठाना चाहिए. ज़ाहिर है कि इसके लिए रक्षा संस्थानों से जुड़े लोगों को उद्योग एवं शैक्षणिक क्षेत्र से संबंधित विशेषज्ञों के साथ ही थिंक टैंक व स्पेस सेक्टर के विशेषज्ञों और समान विचारधारा वाले मित्र देशों के साथ नियमित तौर पर बातचीत करनी चाहिए. इस दौरान अंतरिक्ष से जुड़े विभिन्न विषयों पर खुलकर चर्चा की जानी चाहिए, ऐसा करना निश्चित तौर पर दीर्घकालिक राष्ट्रीय अंतरिक्ष रोडमैप को आकार देने के साथ ही समयबद्ध तरीक़े से उसे कार्यान्वित करने में कारगर सिद्ध होगा. इतना ही नहीं अंतरिक्ष से जुड़ी गतिविधियों के लिए दिए जाने वाले बजट का फिर से मूल्यांकन करना भी बेहद ज़रूरी है. इसके साथ ही रक्षा अंतरिक्ष अनुसंधान के साथ नागरिक-रक्षा अंतरिक्ष ढांचे को जोड़ने पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए. निसंदेह तौर पर ऐसा करना व्यापक राष्ट्रीय सुरक्षा स्वरूप को प्रोत्साहित करने का काम करेगा.

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कर्नल बालक सिंह वर्मा, VSM, एक आर्मी एयर डिफेंस अधिकारी हैं, जिन्हें वर्ष 1997 में आईएमए से शिल्का रेजिमेंट में नियुक्त किया गया था. वर्तमान में वह ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के साथ अंतरिक्ष क्षेत्र में रिसर्च फेलोशिप कर रहे हैं.


[i] यूनियन वॉर बुक ऑफ इंडिया युद्ध के दौरान सरकार की प्रतिक्रिया और कार्यों को रेखांकित करने वाला एक दस्तावेज़ है. देशों के पास अपनी स्टेट वॉर बुक्स भी होती हैं.

ये लेखक के निजी विचार हैं.

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