Author : Vivek Mishra

Published on Feb 16, 2022 Updated 0 Hours ago

दो रणनीतिक मोर्चों पर मुक़ाबला करने में बाइडेन प्रशासन की अक्षमता उसे बैकफुट पर रख रही है. 

यूक्रेन मुद्दे पर राष्ट्रपति बाइडेन के सामने मौजूद विकल्प: महाशक्ति की हालत पहले से ही कमज़ोर

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यूक्रेन को लेकर रूस और अमेरिका व यूरोपीय संघ (ईयू) के बीच ठनी नाक की लड़ाई भू-राजनीति का आदर्श नमूना है, जहां शीत-युद्धकालीन मोल-तोल के पैटर्न और उस ज़माने से चले आ रहे राजनीतिक व सुरक्षा हितों के अवशेष देखे जा सकते हैं. पूर्वी यूक्रेन की सीमाओं पर रूस द्वारा भारी-भरकम सैन्य जमावड़ा, उसके आक्रामक रुख़ और यहां तक कि आक्रमण के संभावित इरादे को तो दिखाता ही है, यह रूसी दबदबे के एक अघोषित दायरे के सीमा-निर्धारण की कोशिश भी है. अगर 2008 में जॉर्जिया पर आक्रमण और 2014 में क्रीमिया व पूर्वी यूक्रेन पर आक्रमण छोटे-छोटे बढ़ते कदम थे, तो रूस अब उस शक्ति संतुलन का मूलभूत पुनर्गठन चाहता है जिसे सोवियत संघ के पतन के बाद यूक्रेन के ज़रिये प्रभुत्वशाली पश्चिम द्वारा स्थापित किया गया था. पूर्वी यूरोप में नाटो और ‘यूरोप में सुरक्षा एवं सहयोग संगठन’ (ओएससीई) जैसी ट्रांस-अटलांटिक सुरक्षा गारंटियों द्वारा मुहैया संरचनात्मक और संस्थानिक संतुलन को रूसी सुरक्षा एवं राजनीतिक मांगों के समक्ष चुनौती मिल रही है. अगर ये मांगें पूरी हुईं, तो इस क्षेत्र में अमेरिका की भूमिका बदल सकती है.

यूक्रेन को लेकर रूसी आक्रामकता से पेश आने के लिए बाइडेन प्रशासन की रणनीति बहुआयामी रही है. बाइडेन ने समर्थन जताने के लिए अपने विदेश मंत्री को यूक्रेन भेजा है, रूस के सर्वोच्च नेता से दो बार बात की है, यूरोप में कई वार्ताओं की अगुवाई की है.

जैसी कि रिपोर्ट है, रूस ने यूक्रेन सीमा के पास 1,30,000 सैनिकों को जमा कर रखा है, साथ ही और सैनिकों के आने की भी काफ़ी संभावना है. अहम बात यह है कि, ज़रूरत पड़ने पर एक पूर्ण-स्तरीय सैन्य अभियान को समर्थन देने के लिए रूस अपने बहुत से रणनीतिक सहायकों (स्ट्रैटजिक इनेबलर्स) को ला चुका है. इनमें सैन्य साजोसामान और चिकित्सकीय आपूर्ति का पूर्वानुमानित इंतज़ाम शामिल है. वहीं दूसरे मोर्चे पर, अमेरिका ने नाटो की रक्षा पंक्ति को मज़बूत करने के वास्ते 8500 सैनिकों को पूर्वी यूरोप में तैनाती के लिए अलर्ट पर रखा है, साथ ही साथ उसने यूक्रेन को अतिरिक्त सुरक्षा सहायता भेजनी जारी रखी हुई है. 

यूक्रेन को लेकर रूसी आक्रामकता से पेश आने के लिए बाइडेन प्रशासन की रणनीति बहुआयामी रही है. बाइडेन ने समर्थन जताने के लिए अपने विदेश मंत्री को यूक्रेन भेजा है, रूस के सर्वोच्च नेता से दो बार बात की है, यूरोप में कई वार्ताओं की अगुवाई की है. अगर रूस यूक्रेन पर आक्रमण के लिए आगे बढ़ता है, तो आर्थिक और सैन्य जवाबी कार्रवाई की विस्तृत योजना के साथ ही एक कूटनीतिक रास्ता अपनाने की कोशिश भी की है. अपनी मांगें नहीं माने जाने पर रूस की एक ‘सैन्य-तकनीकी’ जवाब की धमकी के जवाब में, अमेरिका ने उस ‘क़ीमत’ का ब्योरा  दिया है जो रूस को यूक्रेन पर आक्रमण की स्थिति में चुकानी होगी. इसमें पंगु कर देनेवाले आर्थिक, तकनीकी और सैन्य प्रतिबंध शामिल हैं, जिनमें रूस के मुख्य राजकीय बैंकों और वित्तीय संस्थानों पर प्रतिबंध भी है. लड़ाई के पाले इस दृष्टिकोण के साथ खींचे गये हैं कि सैन्य, आर्थिक, तकनीक क्षेत्रों तक फैले निर्णायक प्रतिक्रिया विकल्पों के साथ ही मोल-तोल की चाह भी उससे संलग्न रहे. 

रूस अगर यूक्रेन पर हमला करता है, तो रूस को इसकी ‘क़ीमत’ चुकानी होगी- इस ऐलान के ज़रिये बाइडेन ने युद्ध से दूर रहने का जो विकल्प पेश किया है, वह असल में मॉस्को के हाथों में खेलना हो सकता है.

पुतिन के सामने बाइडेन की लाचारी

जब अमेरिका अपने रणनीतिक उन्मुखीकरण को यूरो-अटलांटिक फोकस से हटाकर हिंद-प्रशांत केंद्रित दृष्टिकोण की ओर ले जाना चाहता है, तो रूस इसे अपने क्षेत्रीय और वैश्विक हितों को स्पष्ट रूप से सीमांकित और सुदृढ़ करने के मौक़े के रूप में देखता है. इस बार रूस के क़दमों में तात्कालिकता और निर्णायकता का एक एहसास भी है. इसकी बुनियाद में है, चीन द्वारा चीनी दबदबे के पारंपरिक दायरे के अपने संस्करण को सुदृढ़ करने के लिए मचायी जा रही वैश्विक होड़ की नक़ल. लेकिन इससे भी ज़्यादा अहम है कि यह सब अमेरिका के कमज़ोर दौर के एहसास से हो रहा है. घर में एक खंडित सामाजिक-राजनीतिक वातावरण, विभाजित कांग्रेस, राष्ट्रपति को कम स्वीकृति, अफ़ग़ानिस्तान से हटने के अमेरिकी निर्णय, और शायद विदेशों में अपनी सैन्य प्रतिबद्धता की न्यूनतम चाह – ये सभी ऐसे कारण लगते हैं जिन्होंने रियायती रणनीतिक गारंटियां हासिल करने के लिए सैन्य जमावड़े के रूसी फ़ैसले की प्रकृति और उसके वक़्त में योगदान किया है. रूस अगर यूक्रेन पर हमला करता है, तो रूस को इसकी ‘क़ीमत’ चुकानी होगी- इस ऐलान के ज़रिये बाइडेन ने युद्ध से दूर रहने का जो विकल्प पेश किया है, वह असल में मॉस्को के हाथों में खेलना हो सकता है. रूस की अमेरिका से खुली मांग- जो यह शर्त लगाती है कि यूक्रेन को नाटो से हमेशा के लिए बाहर रखा जायेगा, साथ ही साथ पूर्व सोवियत संघ राष्ट्रों को नाटो की तैनाती से मुक्त रखा जायेगा- मॉस्को में यह दृढ़ विश्वास होने का संकेत है कि बाइडेन के मातहत अमेरिका की सीमाबद्धता अमेरिका को कुछ क़ीमत चुकाने को बाध्य कर सकती है.

रूस से अस्थिर संकेतों और धमकियों के मिश्रण के द्वारा रूस के समक्ष बाइडेन के विकल्प लाचार रहे हैं. यूरोप की पूर्वी सीमाओं पर रूस के सैन्य जमावड़े, ‘सैन्य और सैन्य-तकनीकी जवाब’ की उसकी सीधी धमकियों के बीच, अमेरिका का यूक्रेन के कई शहरों से अपने राजनयिक कर्मियों और उनके परिवार के सदस्यों को बाहर निकालना एक वास्तविक और सामने मौजूद ख़तरे की सुस्पष्टता को दिखाता है, जबकि रूस का बार-बार यह ज़ोर देना कि यूक्रेन पर कोई आक्रमण नहीं होगा और उसकी साफ़ दिलचस्पी बातचीत के ज़रिये रियायतें हासिल करने में है, अनिश्चितता की रणनीति के कुशल संचालन को दिखाते हैं. इसे रूसी रणनीतिक अस्पष्टता के उस मूलभाव ने सबसे अच्छी तरह दर्शाया है जो पुतिन के इस कथन में निहित है कि रूस ‘सशस्त्र टकराव या ख़ून-ख़राबा नहीं चाहता’, लेकिन देश की सुरक्षा और संप्रभुता सुनिश्चित करने के लिए क़दम उठाने का उसे ‘हर अधिकार है’. इस तरह के ढके-छिपे आश्वासनों के बावजूद, यूक्रेन पर हालिया साइबर हमलों ने रूस की इस चेतावनी कि यह पश्चिम के लिए जोखिम पैदा करेगा- को पूरा करने की उसकी असल भूख को दिखाया है.

बाइडेन प्रशासन का आकलन यूक्रेन को नामंज़ूर

रूसी वर्चस्व की व्यापक यूरेशियाई होड़ ने बाइडेन की प्रतिक्रिया को लेकर उलझन में इजाफ़ा किया है. रूसियों ने हाल ही में सामूहिक सुरक्षा संधि संगठन (सीएसटीओ) की वचनबद्धता को लागू करते हुए, इसके संस्थानिक इतिहास में पहली बार, कज़ाख़स्तान संकट पर काबू पाने के लिए वहां सेना भेजने का मौक़ा लपक लिया. इस क़दम के ज़रिये, पुतिन ने न सिर्फ़ अपने ‘दबदबे के दायरे’ में दोबारा से पैर जमाये, बल्कि यूक्रेन समेत पूर्व सोवियत संघ क्षेत्र में किसी भावी संकट की स्थिति में त्वरित कार्रवाई की संभावना के प्रति पुन: आश्वस्त किया. 

रूसी वर्चस्व की व्यापक यूरेशियाई होड़ ने बाइडेन की प्रतिक्रिया को लेकर उलझन में इजाफ़ा किया है. रूसियों ने हाल ही में सामूहिक सुरक्षा संधि संगठन (सीएसटीओ) की वचनबद्धता को लागू करते हुए, इसके संस्थानिक इतिहास में पहली बार, कज़ाख़स्तान संकट पर काबू पाने के लिए वहां सेना भेजने का मौक़ा लपक लिया.

इसके अलावा, अमेरिका के लिए यूक्रेन पर यूरोपीय संघ से एक सम्मिलित दृष्टिकोण हासिल करना लगातार कठिन होता जा रहा है. अपनी ऊर्जा आपूर्ति के लिए यूरोप की रूस पर निर्भरता एक और कारक है, जो वर्तमान संकट में रूस के ख़िलाफ़ यूरोपीय संघ को एकसाथ लाने की अमेरिका की क्षमता को सीमित कर सकता है. कुछ देशों ने सेना और साजोसामान भेजकर रूस के ख़िलाफ़ साझे मोर्चे को मदद दी है, लेकिन अन्य महत्वपूर्ण देश, ख़ासकर जर्मनी, बीच सर्दी में रूसी गैस की सप्लाई रुक जाने के डर के बीच सतर्क मुद्रा में हैं. यूरोप के प्राकृतिक गैस के एक-तिहाई हिस्से की आपूर्ति रूस करता है. नॉर्ड स्ट्रीम 2 पाइपलाइन शुरू होने देने से रोकने की अमेरिकी धमकियों के बावजूद, सेना और जंगी साजो-सामान यूक्रेन भेजने की जर्मनी की अनिच्छा से जो संशय प्रकट हुए हैं वे ऐतिहासक संयम की उसकी नीति और उसकी वर्तमान ऊर्जा ज़रूरतों से उत्पन्न हुए हैं. शायद, यूक्रेन पर यूरोप में राजनीतिक विभाजन से ज़्यादा गंभीर समस्या रूस से दरपेश ख़तरे की गंभीरता पर अमेरिकी नैरेटिव के साथ ख़ुद कीव की असहमति है. रूस से आक्रमण के ख़तरे के बाइडेन प्रशासन के आकलन को यूक्रेन नामंज़ूर कर चुका है. पूर्वी यूरोप में मौजूदा गतिरोध पर यूरोपीय और अमेरिकी आकलनों में यह भिन्नता नाटो और अकेले अमेरिका द्वारा दिये जानेवाले सुरक्षा आश्वासनों पर केंद्रित दृष्टिकोण के मुक़ाबले यूरोप द्वारा व्यापक हित-आधारित दृष्टिकोण को प्राथमकिता देने को दिखाती है.

अभियानगत स्तर पर, बाइडेन दो मोर्चों पर दो विराट रणनीतियों के साथ, यूरेशिया में रूस और हिंद-प्रशांत में चीन के साथ, मुक़ाबला करने की सीमाबद्धताओं और क़ीमत को जानते हैं. रूस पर ज़्यादा फोकस करने से, हिंद-प्रशांत में चीन के लिए रणनीतिक अभियान की जगह छोड़ने की मजबूरी के दबाव को भी शायद बाइडेन प्रशासन महसूस कर रहा होगा. इस तरह की कुछ चिंताएं अमेरिका की हिंद-प्रशांत रणनीति में निहित हैं. अमेरिका की हिंद-प्रशांत नीति रूस के बजाय चीन के मुख्य रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी होने की ओर इशारा करती है. कुछ मायनों में, यूक्रेन संकट के दौरान चीन को ताइवान से ‘दूर रहने’ की वॉशिंगटन की हालिया चेतावनी इसी बात की स्वीकृति है, क्योंकि चीन एक ऐसे वक्त़ में जब अमेरिका रणनीतिक रूप से लाचार है, शायद इसे अपने ‘केंद्रीय हितों’ की रक्षा के लिए एक अवसर के रूप में देख रहा है.

अमेरिका की हिंद-प्रशांत नीति रूस के बजाय चीन के मुख्य रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी होने की ओर इशारा करती है. कुछ मायनों में, यूक्रेन संकट के दौरान चीन को ताइवान से ‘दूर रहने’ की वॉशिंगटन की हालिया चेतावनी इसी बात की स्वीकृति है

यूक्रेन को लेकर अमेरिका की अगुवाई वाले नाटो देशों और रूस की मांगों के बीच एक बुनियादी द्वि-विभाजन है. मॉस्को की एक अलग रूस-नाटो संधि की मांग अमेरिका द्वारा ‘व्यर्थ’ बताकर ठुकरायी जा चुकी है, क्योंकि अमेरिका समझता है कि नाटो ही यूरोप की भौगोलिक, जनसांख्यिकीय, आर्थिक, और सैन्य संसाधनों की गारंटी देता है. यूरोप में प्रभाव के सवाल से परे, रूस के यूक्रेन पर संभावित आक्रमण की स्थिति में अमेरिका की मज़बूत जवाब की तैयारी (ख़ासकर 2014 में क्रीमिया पर क़ब्ज़े के समय से ज्यादा मज़बूत) ज्यादा सशक्त ‘गठबंधन संकल्प’ और ‘आश्वासन’ का संकेत देने के लिए है. शायद ये दोनों द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के अमेरिकी प्रभुत्व के दो अहम बिल्डिंग ब्लॉक हैं. बाइडन प्रशासन के लिए ये महत्वपूर्ण मुद्दे हैं, क्योंकि पूर्व के ट्रंप प्रशासन की नीतियों ने अमेरिका की गठबंधन प्रणालियों के मर्म पर चोट की, चाहे वह प्रशांत क्षेत्र की रंगभूमि (पैसिफिक थियेटर) में हो या ट्रांस-अटलांटिक संबंधों में. अफ़ग़ानिस्तान से विनाशकारी ढंग से सेना हटाने के बाद, यूक्रेन पर रूस का संभावित आक्रमण बिना किसी शुब्हे के बाइडन की छवि कमज़ोर करेगा, अपने घर में भी और विदेश में भी. वैश्विक स्तर पर, यह अमेरिकी प्रभाव और ताक़त पर एक और बड़ी चोट होगी. घरेलू स्तर पर, यह बाइडेन की स्वीकार्यता की रेटिंग के लिए घातक साबित हो सकता है और, इसके चलते, इस साल के अंत में होनेवाले मध्यावधि चुनावों के लिए भी.

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