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Published on Mar 11, 2024 Updated 0 Hours ago

बोझ कही जाने के बावजूद, बुज़ुर्ग महिलाएं ख़ास तौर से कम आमदनी वाले परिवारों की बुज़ुर्ग महिलाएं बिना पैसे और काफी कम पैसे वाले काम से बहुत योगदान देती हैं और उनके इस योगदान को स्वीकार भी नहीं किया जाता. 

बुज़ुर्ग महिलाएं: ‘छुपी हुई कामगार’ हैं; बोझ तो हर्गिज़ नहीं...

ये लेख- इंटरनेशनल विमेन्स डे सीरीज़ का हिस्सा है


ये साल का वो वक़्त है, जब सब लोग लैंगिक समानता को लेकर सालाना कोरस गीत गाएंगे. इनमें वो कॉस्मेटिक ब्रांड भी शामिल होंगे जो महिला कामगारों का शोषण करते हैं. जिनके यहां अगुवाई करने वालों में महिलाओं की तादाद बेहद कम होती है, और जो माइका (ज़्यादातर ब्यूटी प्रोडक्ट बनाने में इस्तेमाल होने वाला ज़रूरी तत्व) को झारखंड की अवैध खदानों से हासिल करते हैं, जहां महिलाएं और बच्चे बेहद ख़तरनाक हालात में मेहनत करते हैं और उसकी पगार भी उन्हें बहुत कम मिलती है. महिलाओं के लिए उनकी ये झूठी फ़िक्र बस महिलाओं के उस समूह तक सीमित रहती है, जो उनके महंगे ब्यूटी प्रोडक्ट ख़रीदने का ख़र्च उठा सकती हैं. ये कहने की ज़रूरत नहीं कि झूठे महिलावाद का ये स्वरूप भारत जैसे विकासशील देशों की बुज़ुर्ग महिलाओं के संरचनात्मक शोषण को लेकर ज़रा भी चिंतित नहीं होता, जो उनके महंगे कॉस्मेटिक उत्पाद ख़रीदने की सामर्थ्य नहीं रखती हैं. अफ़सोस की बात ये है कि लैंगिक समानता को लेकर दुनिया भर में होने वाली परिचर्चाओं में भी बुज़ुर्ग महिलाओं की परेशानियों की अनदेखी की जाती है. ऐसी परिचर्चाओं का ज़्यादातार ज़ोर छोटी लड़कियों को शिक्षित करने और और किशोरियों और गर्भवती महिलाओं की सेहत और पोषण को प्राथमिकता देने पर रहता है, जो बिल्कुल वाजिब भी है. लेकिन, इस वजह से नीतिगत परिचर्चाओं में बुज़ुर्ग महिलाओं से जुड़ी समस्याओं पर शायद ही कभी बात होती हो. लैंगिक समानता तभी हक़ीक़त में तब्दील हो सकेगी, जब हर उम्र की औरतें सशक्त होंगी और सम्मानजनक जीवन जी सकेंगी.

 ये कहने की ज़रूरत नहीं कि झूठे महिलावाद का ये स्वरूप भारत जैसे विकासशील देशों की बुज़ुर्ग महिलाओं के संरचनात्मक शोषण को लेकर ज़रा भी चिंतित नहीं होता, जो उनके महंगे कॉस्मेटिक उत्पाद ख़रीदने की सामर्थ्य नहीं रखती हैं. 

ये लेख, बुज़ुर्ग महिलाओं की स्थिति पर रौशनी डाल कर अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस को दोबारा हासिल करने की एक छोटी सी कोशिश है, जिनके बारे में ब्रिटिश समाजशास्त्री डायेन एल्सन ने कहा था कि उम्र और उनका स्त्री होना, दोनों ही उनके ख़िलाफ़ जाता है. बुज़ुर्ग महिलाएं, ख़ास तौर से ग़रीब घरों की ऐसी स्त्रियों को परिवार और देश के लिए समस्या माना जाता है. लेकिन, उन्हें ऐसा बोझ माना जाता है, जिनकी बहुत देख-भाल करने की ज़रूरत होती है. हालांकि, दुनिया भर की बुज़ुर्ग महिलाएं अपने काम से, जिसके उन्हें कभी पैसे मिलते हैं, तो कभी नहीं भी मिलते. फिर भी वो अपने परिवारों, समुदायों और देश की अर्थव्यवस्था में योगदान देती हैं. ज़्यादातर विकासशील देशों में बुज़ुर्ग महिलाएं कई तरह की ज़िम्मेदारियां उठाती हैं. इनमें अपने नाती-पोतों की देख-भाल करने, फ़सल उगाने, खाना पकाने, साफ़-सफ़ाई करने और पानी लाने जैसे तमाम घरेलू काम निबटाती हैं. यहां तक कि कई बार बुज़ुर्ग महिलाएं असंगठित क्षेत्र में काम करके, और छोटे मोटे उत्पादन का काम करते हुए पैसे कमाती हैं और इस तरह अपना और अपने परिवार का ख़र्च चलाने में मददगार बनती हैं. कई बार ऐसी कामकाजी बुज़ुर्ग महिलाएं सेहत की तमाम तक़लीफ़ों और कमज़ोरियों से जूझते हुए भी ये ज़िम्मेदारियां निभाती हैं.

 एज इंटरनेशनल की एक हालिया रिपोर्ट में बुज़ुर्ग महिलाओं को ‘छुपी हुई कामगार’ कहा गया है. बुज़ुर्ग महिलाएं दिन में औसतन 4.3 घंटे ज़रूरी घरेलू काम और देख-भाल की ज़िम्मेदारियां निभातीं, जिसके उन्हें कोई पैसे नहीं मिलते. 

एज इंटरनेशनल की एक हालिया रिपोर्ट में बुज़ुर्ग महिलाओं को ‘छुपी हुई कामगार’ कहा गया है. बुज़ुर्ग महिलाएं दिन में औसतन 4.3 घंटे ज़रूरी घरेलू काम और देख-भाल की ज़िम्मेदारियां निभातीं, जिसके उन्हें कोई पैसे नहीं मिलते. जैसे जैसे युवा महिलाएं कामगार तबक़े में शामिल हो रही हैं, वैसे वैसे दादियां और नानियां, बच्चों की देख-भाल की ज़्यादा ज़िम्मेदारियां भी उठा रही हैं. बहुत से ग़रीब परिवारों में बुज़ुर्ग महिलाएं असंगठित क्षेत्र में अपने काम से जो थोड़े बहुत पैसे कमाती हैं, वो रक़म भी परिवार को खाना-पीना और दूसरे ज़रूरी सामान जुटाने में काफ़ी अहम भूमिका अदा करती है. ज़्यादातर विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में बुज़ुर्ग महिलाएं खेती में भी बेहद अहम भूमिका अदा करती हैं. आज जब ज़्यादा से ज़्यादा युवा मर्द और औरतें गांवों से शहरों की तरफ़ पलायन कर रही हैं, तब उम्रदराज़ महिलाओं पर खेती-बाड़ी की ज़िम्मेदारियों का बोझ भी बढ़ता जा रहा है. एज इंटरनेशनल की रिपोर्ट के मुताबिक़, कोविड-19 महामारी से पहले, निम्न और मध्यम आमदनी वाले देशों में 65 साल की हर सात में से एक महिला छोटी मोटी तनख़्वाह वाले काम कर रही थीं. वहीं, उच्च आमदनी वाले देशों में 65 बरस या ज़्यादा उम्र की हर दस महिलाओं में से सिर्फ़ एक को ही इस तरह भुगतान वाला काम करना पड़ रहा था. कामगार बुज़ुर्ग महिलाओं की ये तादाद सहारा क्षेत्र के देशों में ख़ास तौर से बहुत अधिक थी, जहां 65 साल की पांच में से हर दो यानी 40 प्रतिशत बुज़ुर्ग महिलाएं काम करके थोड़े बहुत पैसे कमा रही थीं.

 

बिना भुगतान का काम

 

अपने बिना भुगतान वाले और कमाई वाले काम के ज़रिए बुज़ुर्ग महिलाएं असंगठित क्षेत्र में जो बहुमूल्य योगदान देती हैं, उसकी सरकार के नीति नियंता अक्सर अनदेखी कर देते हैं. क्योंकि, सरकार के आंकड़े उनके आर्थिक योगदान को शामिल करने के लिहाज़ से तैयार ही नहीं किए जाते. सरकारें अक्सर महिलाओं द्वारा किए जाने वाले ऐसे काम की गिनती नहीं करतीं, जिसके बदले में उन्हें कोई पैसे नहीं मिलते. यही नहीं, कामकाजी लोगों की उम्र अक्सर 15 से 60 साल के बीच की मानी जाती है. इसका नतीजा ये होता है कि ज़्यादातर सरकारी रिपोर्टों और सर्वेक्षणों में भी असंगठित क्षेत्र की का ठीक से मूल्यांकन नहीं होता और इसी क्षेत्र में ज़्यादातर बुज़ुर्ग महिलाएं काम करती हैं.

 

भारत में सार्वजनिक चर्चाओं का ज़ोर अक्सर डेमोग्राफिक डिविडेंड पर होता है, क्योंकि भारत की आबादी में युवाओं की हिस्सेदारी काफ़ी अधिक है. लेकिन, देश में बड़ी संख्या में बुज़ुर्ग भी हैं, जिनकी तादाद बढ़ती जा रही है. पर, बुज़ुर्गों पर न तो समाज पर्याप्त रूप से ध्यान देता है और न ही नीतियां बनाने वाले. ये मान लिया जाता है कि उम्रदराज़ महिलाओं का ख़याल परिवार और समाज के सदस्य कर ही लेंगे. अब ये बात शायद उतनी सच न हो. क्योंकि, आधुनिक विश्व की जटिलताओं की वजह से परिवार और समुदायों के पारंपरिक संबंधों में बदलाव आता जा रहा है. उम्र के बाद के पड़ाव पर महिलाओं का सम्मान और उनकी बेहतरी सुनिश्चित करने की दिशा में पहला क़दम तो ये हो सकता है कि उनके प्रति सोच को बदला जाए. सबसे पहले, बुज़ुर्ग महिलाओं को समाज में योगदान देने वाली सदस्य माना जाना चाहिए, न कि बोझ. दूसरा, परिवार में देख-भाल की जो ज़िम्मेदारियां वो बिना किसी भुगतान के निभाती हैं, ख़ास तौर से नाती-पोतों की रखवाली का काम, वो ज़्यादातर बुज़ुर्ग महिलाओं को ख़ुशी देने वाला होता है. फिर भी, उनके आर्थिक योगदान का सम्मान होना चाहिए. तीसरा, बुज़ुर्ग महिलाओं की मेहनती कमाई की आर्थिक अहमियत का भी हिसाब जोड़ा जाना चाहिए.

आधुनिक विश्व की जटिलताओं की वजह से परिवार और समुदायों के पारंपरिक संबंधों में बदलाव आता जा रहा है. उम्र के बाद के पड़ाव पर महिलाओं का सम्मान और उनकी बेहतरी सुनिश्चित करने की दिशा में पहला क़दम तो ये हो सकता है कि उनके प्रति सोच को बदला जाए.

बुज़ुर्ग महिलाएं जो काम करके पैसे कमाती हैं, उसका सही आकलन करने के लिए कामकाजी लोगों की उम्र की परिभाषा में आवश्यक बदलाव किया जाना चाहिए. यही नहीं, वैसे तो उम्रदराज़ महिलाओं के लिए आर्थिक स्वतंत्रता फ़ायदेमंद होती है. लेकिन, ये भी स्पष्ट है कि बुज़ुर्ग महिलाएं जो काम करती हैं, उनमें से ज़्यादातर सम्मानजनक कार्य नहीं होता और अक्सर वो काम बेहद हताशा की स्थिति में करने को मजबूर होती हैं. इसीलिए, कामकाज की जगह में बुज़ुर्ग महिलाओं की शोषण से हिफ़ाज़त करना भी बेहद अहम है. आख़िर में, सरकार को उम्रदराज़ लोगों के लिए सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार करना चाहिए और बुज़ुर्ग महिलाओं की सेहत और सामाजिक सुरक्षा के लिए बेहतर प्रावधान करने चाहिए.

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