Author : Kabir Taneja

Published on May 17, 2023 Updated 0 Hours ago
पोखरण II के समय से पश्चिम एशिया में परमाणु बहस

ये लेख पोखरण-II के 25 साल: भारत की परमाणु यात्रा की समीक्षा सीरीज़ का हिस्सा है. 


राजस्थान के रेगिस्तान में स्थित पोखरण में भारत के द्वारा परमाणु परीक्षणों के दूसरे दौर के 25 साल पूरे होने के बाद परमाणु शक्ति, बचाव के उपाय और प्रसार (प्रोलिफरेशन) के इर्द-गिर्द बहस में महत्वपूर्ण रूप से बदलाव हो चुका है. वैसे तो मूलभूत परमाणु ख़तरा अभी भी बना हुआ है और कुछ लोग ये दलील भी दे सकते हैं कि पहले के मुक़ाबले ख़तरे में बढ़ोतरी हुई है लेकिन परमाणु ख़तरे के इर्द-गिर्द भू-राजनीति भी बदल चुकी है

पाकिस्तान के द्वारा परमाणु शक्ति से संपन्न होने के ऐलान को लेकर लोगों और समूहों ने अलग-अलग, ज़्यादातर पॉज़िटिव, और अक्सर उम्मीद से भरा रुख़ अपनाया लेकिन अलग-अलग देशों ने संप्रभुता और बचाव के उपाय के इर्द-गिर्द नपे-तुले रवैये के साथ पाकिस्तान का समर्थन किया.

परमाणु शक्ति के लिए पश्चिम एशिया (मिडिल ईस्ट) की चाह लगातार बनी हुई है. ये चाह व्यवहार में भले हो लेकिन कम-से-कम बातों में ज़रूर है. 1998 में भारत के द्वारा पोखरण में परमाणु परीक्षण के क़रीब 10 दिनों के बाद पाकिस्तान ने भी परमाणु परीक्षण किया. इस तरह पाकिस्तान के दावे के मुताबिक़ दक्षिण एशिया के दो बड़े देशों के बीच एक ‘भरोसेमंद न्यूनतम परमाणु बचाव के उपाय’ को स्थापित किया गया. इसके साथ ही पाकिस्तान पहला इस्लामिक देश बन गया जिसकी सेना के पास परमाणु हथियार है. इसको कुछ लोगों के द्वारा इस्लामिक बम के रूप में भी पेश किया गया. मिडिल ईस्ट और व्यापक अरब विश्व में इस सोच को मानने वाले कई लोग थे. उनके नज़रिए से इज़रायल के व्यापक रूप से स्वीकृत परमाणु हथियारों के जवाब का मक़सद इज़रायल के बराबर परमाणु क्षमता को विकसित करना था. लेकिन ये ध्यान देने की बात है कि इज़रायल ने कभी भी आधिकारिक रूप से परमाणु हथियारों का परीक्षण या सार्वजनिक रूप से इसका ऐलान नहीं किया है. “इस्लामिक बम” की सोच 90 के दशक में नई नहीं थी और मिडिल ईस्ट के कुछ वर्गों, जिनमें सरकार और उनके अधिकारियों के अलावा ग़ैर-सरकारी उग्रवादी किरदार (नॉन-स्टेट मिलिटेंट एक्टर्स) शामिल हैं, में ये 60 के दशक से मौजूद थी. फिलिस्तीन के आतंकवादी संगठन हमास के आध्यात्मिक नेता शेख़ अहमद यासिन, जिनकी मौत हो चुकी है, ने कहा था, “पाकिस्तान के पास परमाणु शक्ति होने को अरब और मुस्लिम देशों के लिए एक संपत्ति की तरह माना जाना चाहिए. पाकिस्तान के द्वारा परमाणु शक्ति से संपन्न होने के ऐलान को लेकर लोगों और समूहों ने अलग-अलग, ज़्यादातर पॉज़िटिव, और अक्सर उम्मीद से भरा रुख़ अपनाया लेकिन अलग-अलग देशों ने संप्रभुता और बचाव के उपाय के इर्द-गिर्द नपे-तुले रवैये के साथ पाकिस्तान का समर्थन किया. 

परमाणु महत्वाकांक्षा रखने वाले मिडिल ईस्ट के दूसरे देशों जैसे कि सीरिया, सऊदी अरब और ईरान ने पाकिस्तान के परमाणु परीक्षण को प्रेरणा के साथ-साथ इस संकेत के तौर पर भी देखा कि भविष्य में परमाणु आधारित बचाव का उपाय कितना अहम है. कुछ विचारों के मुताबिक़ पाकिस्तान के बम का मतलब है कि अगर ज़रूरत हुई तो सऊदी अरब अपनी इच्छा के मुताबिक़ पाकिस्तान के ज़रिए इसे हासिल कर सकता है. इस विचार के दूसरी तरफ़ पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री गौहर अयूब ख़ान का ये दावा था कि भारत के परमाणु परीक्षण में इज़रायल ने इलेक्ट्रॉनिक स्विच मुहैया करा के मदद की थी. सीरिया के सरकार समर्थक मीडिया ने पाकिस्तान के परमाणु परीक्षण को सुरक्षा, अधिकार और संप्रभुता का लक्ष्य रखने वाले हर देश की इच्छा और हक़ बताया. मिडिल ईस्ट में भू-राजनीतिक बंटवारे के बीच परमाणु हथियार से रक्षा करने की क्षमता हासिल करने का विचार यहां के देशों के बीच काफ़ी लोकप्रिय है, विशेष रूप से अमेरिका के द्वारा समर्थित इज़रायल से कथित ख़तरे की वजह से. मिडिल ईस्ट में परमाणु ख़्वाहिश रखने वाले देश के रूप में सीरिया एक अच्छा उदाहरण है. 1979 के बाद से सीरिया ने परमाणु क्षमता हासिल करने की कोशिशें शुरू कर दी. 1991 में चीन ने सीरिया को एक न्यूट्रॉन सोर्स रिएक्टर की सप्लाई की जो अंतत: 2007 में इज़रायल के ‘ऑपरेशन आउटसाइड बॉक्स’ के रूप में ख़त्म हुआ. इस ऑपरेशन के तहत इज़रायल की वायु सेना ने सीरिया के दीर एज़-ज़ोर क्षेत्र में परमाणु रिएक्टर को निशाना बनाया जिसे कथित तौर पर उत्तर कोरिया की मदद से बनाया जा रहा था. ये इस तरह के हमले का कोई पहला उदाहरण नहीं था. 1981 में इज़रायल ने ऑपरेशन ओपेरा के तहत इराक़ में एक परमाणु केंद्र पर हमला किया था जिसे फ्रांस की मदद से बनाया जा रहा था. भारत में भी कई लोग ये दलील देते हैं कि किसी भी क़ीमत पर पाकिस्तान को परमाणु शक्ति बनने से रोकने के लिए भारत को भी इस तरह की सामरिक कार्रवाई करनी चाहिए थी

मौजूदा परमाणु बहस

2010 के आस-पास की बात करें तो परमाणु हथियारों और उनकी उपलब्धता क्षेत्रीय भू-राजनीति और तनावों के केंद्र में थी. परमाणु बम के मामले में पाकिस्तान की तरफ़ से भारत की पूरी तरह बराबरी को अक्सर एक रणनीति के तौर पर देखा जाता है जिसने सफलतापूर्वक दोनों देशों के बीच बड़े पैमाने पर युद्ध को नाकाम कर दिया. पोखरण-II के ठीक एक साल बाद मई 1999 में भारत और पाकिस्तान के बीच कारगिल युद्ध हुआ. दूसरी बड़ी घटनाएं जैसे कि 2001 में भारतीय संसद पर हमला, मुंबई पर 26/11 का आतंकी हमला, कश्मीर में पुलवामा आतंकी हमला और पाकिस्तान के भीतर भारतीय वायु सेना द्वारा जवाबी बालाकोट एयर स्ट्राइक परमाणु शक्ति से संपन्न देशों में परंपरागत और आतंकवाद, उग्रवाद या प्रॉक्सी वॉर जैसे तनावों में बढ़ोतरी को उजागर करते हैं. इस तनाव का मिडिल ईस्ट की क्षेत्रीय शक्तियों जैसे कि इज़रायल, सऊदी अरब और ईरान ने काफ़ी उत्सुकता के साथ अध्ययन किया है

परमाणु हथियार से संपन्न ईरान की वजह से जहां इज़रायल, सऊदी अरब और दूसरे अरब देश बेचैन हो जाते हैं, वहीं ईरान ने अपने परमाणु कार्यक्रम का इस्तेमाल चालाकी से किया है.

इस बीच पिछले दशक के दौरान ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर कूटनीतिक बातचीत मौजूदा मिडिल ईस्ट में इस तरह की बहस के लिए एक मानदंड (बेंचमार्क) बन गया है. परमाणु हथियार से संपन्न ईरान की वजह से जहां इज़रायल, सऊदी अरब और दूसरे अरब देश बेचैन हो जाते हैं, वहीं ईरान ने अपने परमाणु कार्यक्रम का इस्तेमाल चालाकी से किया है. एक तरफ़ तो ईरान परमाणु कार्यक्रम के ज़रिए वैश्विक ताक़तों के साथ बातचीत में रणनीतिक मोल-तोल करता है, दूसरी तरफ़ कूटनीति के नाकाम होने की स्थिति में अर्ध रणनीतिक औज़ार के तौर पर. लंबे समय में इसके सैन्य और राजनीतिक बचाव के उपाय के तौर पर काम करने की काफ़ी संभावना है. 2015 में P5+1 समूह (यानी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांचों स्थायी सदस्य देश और जर्मनी) और ईरान एक समझौते के लिए सहमत हुए (जिसे ज्वाइंट कॉम्प्रिहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन या JCPOA के नाम से जाना जाता है) जो अंतरराष्ट्रीय समुदाय को अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) के नेतृत्व में जांच-पड़ताल के मामले में ज़्यादा निगरानी को सुनिश्चित करती. इसके बदले में ईरान पर आर्थिक पाबंदियां कम होती और अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में ईरान की अर्थव्यवस्था मुख्यधारा में जाती. इस कूटनीतिक सफलता को मिडिल ईस्ट में दूसरे विवादित मुद्दों के समाधान की दिशा में महत्वपूर्ण पहला क़दम माना गया था लेकिन इज़रायल ज़ोरदार ढंग से इस समझौते के ख़िलाफ़ बना रहा और उसने पूरी कोशिश की कि अमेरिका, जिसके राष्ट्रपति उस वक़्त बराक ओबामा थे, ईरान के वादों पर इतना भरोसा करने से बचे. इज़रायल (और दूसरे देशों को) उस वक़्त सफलता मिली जब 2018 में नये राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की अगुवाई में अमेरिका ने एकतरफ़ा ढंग से JCPOA से अलग होने का ऐलान किया. इसके साथ ही ईरान में अमेरिका विरोधी शक्तियां मज़बूत हो गईं. ईरान के उदारवादी राष्ट्रपति हसन रूहानी ने अपना राजनीतिक असर काफ़ी हद तक गंवा दिया और उनकी जगह 2021 में रूढ़िवादी इब्राहिम रईसी राष्ट्रपति बन गए

पोखरण-II ने वास्तव में पूरे मिडिल ईस्ट में परमाणु बम से बचाव के उपाय को लेकर बहस को फिर से शुरू किया. इस क्षेत्र में परमाणु हथियार की ख़्वाहिश बहुत पुरानी है.

ईरान के परमाणु कार्यक्रम को नियंत्रित करने की कूटनीतिक कोशिशें आख़िरकार नाकाम रहीं. हालांकि कूटनीतिक कोशिशों में कमी ने भी ईरान के द्वारा अपने परमाणु कार्यक्रम को मोल-भाव के तौर पर इस्तेमाल करने की योजना पर असर डाला और कूटनीतिक रास्ता अब काफ़ी हद तक अनिश्चितता की स्थिति में है. अमेरिका के अंडर सेक्रेटरी ऑफ डिफेंस (पॉलिसी) कॉलिन कहल ने अनुमान लगाया है कि ईरान परमाणु हथियार के लिए फिसाइल मटेरियल (विखंडनीय सामग्री) 12 दिनों के भीतर तैयार कर सकता है. इस वास्तविकता ने क्षेत्र के कुछ देशों को जोखिम कम करने के लिए प्रेरित किया है. पिछले दिनों चीन के द्वारा सऊदी अरब और ईरान के बीच संबंध सुधारने की जो कोशिश की गई है, उससे आमने-सामने के संघर्ष की आशंकाएं कम हुई हैं. इसकी वजह से परमाणु हथियार से संपन्न ईरान को लेकर इज़रायल की चिंताओं से सऊदी अरब दूर हुआ है. हालांकि इज़रायल ने ये रुख़ बरकरार रखा है कि वो ईरान को परमाणु हथियार हासिल करने से रोकने के लिए सभी संभावित तरीक़ों का इस्तेमाल करेगा. सऊदी अरब और ईरान जहां इस बात की कोशिश कर रहे हैं कि वो अच्छे रिश्ते बनाएं और एक कामकाजी समझ को फिर से शुरू करें, वहीं ईरान के द्वारा गुपचुप ढंग से परमाणु क्षमता हासिल करने का मुद्दा क्षेत्रीय स्तर पर एक बेहद बेचैन करने वाली आशंका बनी हुई है. सऊदी अरब के कॉलमनिस्ट रमी अल ख़लीफ़ा अल अली ने अप्रैल 2021 में लिखा कि अरब देशों के लिए परमाणु बम की ज़रूरत तेज़ हो रही है क्योंकि अरब देश तेज़ी से परमाणु शक्ति से संपन्न देशों से घिरते जा रहे हैं जिनमें भारत और पाकिस्तान से लेकर इज़रायल और अब संभवत: ईरान शामिल हैं. तुर्किए ने भी नेटो (नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन) की सदस्यता की वजह से अमेरिका के परमाणु हथियारों को अपने पास रखा है. अली ने ये दावा भी किया है कि इस तरह की क्षमता को लेकर एक गतिविधि की शुरुआत पहले ही हो चुकी है.  

पोखरण-II ने वास्तव में पूरे मिडिल ईस्ट में परमाणु बम से बचाव के उपाय को लेकर बहस को फिर से शुरू किया. इस क्षेत्र में परमाणु हथियार की ख़्वाहिश बहुत पुरानी है. हालांकि उत्तर कोरिया और अब संभवत: ईरान की सफलता और परमाणु अप्रसार का मुक़ाबला करने में अंतरराष्ट्रीय नियमों की कथित नाकामी के बाद भविष्य में परमाणु हथियार की क्षमता हासिल करना ज़्यादा महत्व की समझ के साथ सकता है. मिडिल ईस्ट की इस ख़्वाहिश को वैश्विक सुरक्षा व्यवस्था को लेकर बढ़ते झगड़े की वजह से और ज़्यादा बल मिला


कबीर तनेजा ORF के स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में फेलो हैं.

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