Published on Sep 02, 2022 Updated 25 Days ago

पिछले कई दिनों से मध्य एशियाई देशों में सामरिक और कुटनीतिक हलचल हो रही है. पश्चिमी एशिया के देशों के संबंध आपस में सुधर रहे हैं, जिसका भारत पर क्या असर पड़ेगा और इसके क्या समाधान होंगे, इन सब मुद्दों पर आधारित ओआरएफ़ के वीडियो मैगज़ीन “गोलमेज’’ के ताज़ा एपिसोड में ओआरएफ़ के पूर्व राजनयिक और मध्य एशिया मामलों के जानकार नवदीप सूरी और सीनियर फ़ेलो नग़मा सह़र ने बात की, उसी बातचीत पर आधारित है ये लेख, जिसका शीर्षक है: ‘पश्चिमी एशिया में कूटनीतिक हलचल’

पश्चिम एशिया के कूटनीतिक हल्कों में नये समीकरण; देशों के आपसी रिश्ते हो रहे हैं बेहतर!

नग़मा – हाल ही में अब्राहम समझौते को दो वर्ष पुरे हुए है, ऐसे में पश्चिम एशिया के देशो में संबंधो को लेकर क्या बदलाव हुए है?

नवदीप सूरीयदि हम पांच वर्ष पहले ऐसा सोचते की इज़रायल और संयुक्त अरब अमीरात के मध्य, बेहतर संबंध स्थापित होंगे तो यह संभव नहीं था. लेकिन अब्राहम समझौते के बाद इज़रायल और संयुक्त अरब अमीरात के बिच 2 साल के दौरान हमने देखा कि इज़रायल कि कंपनियां दुबई में खुल रही हैं, हर हफ़्ते एक नया व्यापार बढ़ते देखने को मिल रहा है, दोनों देशो के मध्य वायुयान सेवाएं भी बढ़ी है. प्रधानमंत्री ने भी अबु-धाबी की यात्रा की है. लगभग पचास वर्षों तक दोनों के मध्य शत्रुता रही और यहूदियों को लेकर जो भ्रम था उनको हटाया जाये और व्यवस्थित किया जाये. डोनाल्ड ट्रंप के सबसे बेहतरीन कार्यो में अब्राहम समझौता (2020) सबसे महत्वपूर्ण कार्य माना जाता है, जिसने पश्चिम एशिया का नक्शा ही बदल दिया.

अब्राहम समझौते के बाद इज़रायल और संयुक्त अरब अमीरात के बिच 2 साल के दौरान हमने देखा कि इज़रायल कि कंपनियां दुबई में खुल रही हैं, हर हफ़्ते एक नया व्यापार बढ़ते देखने को मिल रहा है, दोनों देशो के मध्य वायुयान सेवाएं भी बढ़ी है.

नग़मा – अब्राहम समझौते कि क्षमता को पूर्ण रूप से लागू किया गया है या उसमे कुछ रुकावटें भी आयीं?

नवदीप सूरी यदि हम दो वर्ष में गौर करें तो इज़रायल के संयुक्त अरब अमीरात, मोरक्को, बहरीन और सूडान के साथ अच्छे संबंध हो गए हैं एवं जॉर्डन और मिस्त्र के साथ इज़रायल के पहले से संबंध अच्छे थे. शेष जो लगभग 15 मध्य एशियाई देश हैं उनके आज भी इज़रायल के साथ संबंध अच्छे नहीं है, और इनमें सबसे प्रमुख सऊदी अरब है. एक अपेक्षा है कि इज़रायल भी फ़लिस्तीनी लोगों के लिए कुछ करेगा जो आज की स्थिति है. इज़रायल को आगे आकर फलिस्तीनी लोगों के अधिकारों के लिए कुछ करना चाहिए जो कि एक अहम कदम है.

नग़मा – रूस-युक्रेन युद्ध एवं अफगानिस्तान पर तालिबान का आधिपत्य के दौरान मध्य एशिया में एक अस्थिरता रही और I2U2 जैसे संगठन में भारत एवं उसके हितों एवं भारत कि मौजूदगी से क्या बदलाव आया ?

नवदीप सूरी यदि हम अफ़ग़ानिस्तान कि बात करे तो तालिबान को 2.0 कहा जाता है. जब यह पहले आये थे तब 1.0 कहा जाता था और इस दौरान इसे सऊदी अरब, सयुंक्त अरब अमीरात और पाकिस्तान ने मान्यता दी थी. हालांकि, तालिबान 2.0 को पाकिस्तान अभी भी मान्यता देता है, लेकिन इसके अलावा किसी भी देश ने तालिबानियों को मान्यता नहीं दी है. और यह बहुत महत्वपूर्ण है कि सऊदी अरब और सयुंक्त अरब अमीरात में धर्म को लेकर बहुत बड़ा बदलाव आ गया है, और यह ऐसा मानते हैं कि तालिबानियों कि सोच बेहद संकीर्ण है. तालिबान यह चाहता है कि सऊदी अरब जैसा देश उनको मान्यता दे किन्तु ऐसा नहीं हुआ और ऐसा इसलिए नहीं हुआ क्योंकि पश्चिम एशिया में काफी बदलाव हुआ है और यह लहर बहुत मज़बूत है. वहीं हम गौर करें रूस-युक्रेन युद्ध पर तो अमेरिका के पश्चिमी देशों के साथ अच्छे संबंध रहे हैं फिर भी युद्ध के दौरान पक्षपात का समय आया तो उन्होंने अमेरिका का समर्थन नहीं किया. क्योंकि वह ऐसा मानते हैं कि एक तो यह रूस और अमेरिका का झगड़ा है, हमें इसमें नहीं फंसना है, और दूसरा अमेरिका कि प्रवृत्ति ही ऐसी है कि यूरोप में युद्ध हुआ है, इसलिए वह इतना सक्रिय हो रहा है लेकिन जब मध्य एशिया में ऐसा होता है तो अमेरिका की कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं होती. वहीं हम बात करें I2U2 (भारत, इज़रायल,अमेरिका, संयुक्त अरब अमीरात) की, जिसका बाइडेन की यात्रा के पहले सम्मेलन भी हुआ. क्योकि आज के समय इज़रायल और यूएई के मध्य दोस्ताना संबंध है और भारत के लिए यदि पश्चिमी एशिया में कोई मित्र देश है तो वह इज़रायल और यूएई हैं. यूएई के साथ भारत के आर्थिक संबंध है एवं कश्मीर मुद्दे पर भी समर्थन किया था. वहीं इज़रायल के साथ हमारे कृषि, पानी एवं रक्षा क्षेत्र में अच्छे संबंध है. और यदि भारत के दो करीबी (इज़रायल और यूएई) देशों के साथ अच्छे संबंध हो जाए तो उससे नयी संभावनाए पैदा होती है. वहीं I2U2 एवं अब्राहम समझौते के बाद एक नयी संभावनाओं की शुरुआत हुई है.

भारत के लिए यदि पश्चिमी एशिया में कोई मित्र देश है तो वह इज़रायल और यूएई हैं. यूएई के साथ भारत के आर्थिक संबंध है एवं कश्मीर मुद्दे पर भी समर्थन किया था. वहीं इज़रायल के साथ हमारे कृषि, पानी एवं रक्षा क्षेत्र में अच्छे संबंध है.

I2U2 ने पहले सम्मेलन में ही दो बड़े प्रोजेक्ट की घोषणा कर दी. पहला खाद्य सुरक्षा, जो खाड़ी देश है क्योंकि यहाँ पर रेगिस्तान है और ज्य़ादा अनाज पैदा नहीं होता, अत: खाद्य संबंधी हमेशा कमी रहती है, इसलिए भारत वहां खाद्य निर्यात कर रहा है (चावल, गेहूं आदि). भारत से सऊदी अरब जैसे देशो में खाद्य निर्यात करना भारत के किसानों के लिए लिए भी लाभदायक है. यूएई ने घोषणा की है कि 2-3 वर्षों में लगभग 16000 करोड़ रूपये भारत में निवेश करेंगे. जिसमें नेटवर्क का विकास और खाद्य क्षेत्र में निवेश करेंगे जिसमें सब्जियां, मांस व अनाज का भारत से आसानी से निर्यात हो सके. दूसरा बड़ा प्रोजेक्ट क्लीन एनर्जी का है. वर्तमान में जलवायु परिवर्तन एक बहुत बड़ा मुद्दा बना हुआ है. यह एक बड़ा प्रोजेक्ट है जिसमे पवन ऊर्जा और सौर ऊर्जा भी होगी. लेकिन इसमें ख़ास बात यह है कि इसमें 100 मेगावाट की बैटरी लगी हुई है जो कि एक अमेरिकन कंपनी की तकनीक है. यदि यह पायलट प्रोजेक्ट सफल हो जाता है तो यह वास्तव में यह बहुत महत्वपूर्ण होगा. I2U2 के यह दो बड़े प्रोजेक्ट बहुत महत्वपूर्ण हैं और भारत की विदेश नीति को प्रखर साबित करता है. यह भारत के लिए काफी फायदेमंद भी रहेगा.

नग़मा – इज़रायल और टर्की के मध्य संबंध पहले से बेहतर हुए हैं, पश्चिमी एशिया में इनके संबंधो का क्या असर पड़ेगा?

नवदीप सूरी इन संबंधो के दो कारण हैं. पहला यह कि जब अमेरिका ने यह घोषणा की, कि हमारा ज्य़ादा ध्यान हिन्द-प्रशांत क्षेत्र और चीन पर रहेगा. तब पश्चिमी एशियाई देशों ने सोचा कि अमेरिका पर अब तक तो हमारी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी थी किन्तु अब क्या होगा. अत: पश्चिमी एशियाई देशों ने सोचा कि अमेरिका का रुख़ उनकी तरफ नहीं है, तो बेहतर होगा कि हम ही आपस में सहयोग करें. दूसरा कारण यह है कि तुर्की के राष्ट्रपति रजब तईब अर्दुगान बहुत ज्य़ादा महत्वकांक्षी हो गए थे. उनको इस्लामिक समूह देशों ने सपोर्ट भी किया लेकिन उनकी अर्थव्यवस्था उतनी उन्नत नहीं है जितनी होनी चाहिए. यदि अर्थव्यवस्था ठीक नहीं हो तो अपनी राजनीतिक नीति को बदलना आवश्यक हो जाता है. टर्की की जीडीपी काफी धीमी हुई है. फलस्वरूप वहां चर्चा हुई कि यदि हम आपस में ही तनाव रखेंगे सऊदी अरब, यूएई जैसे बड़े देशों से तो यह हमारे लिए ही उचित नहीं है. पिछले वर्ष यह मुहीम शुरू हुई और यूएई अपनी तरफ से तुर्की में 10 बिलियन डॉलर निवेश करने के लिए तैयार है. पश्चिमी एशिया में यह बहुत बड़ा वदलाव आया है कि राजनीतिक खींचतान को दरकिनार किया जाये और अर्थव्यवस्था के बारे में सोचा जाए. और शायद इसका मुख्य कारण है कि अमेरिका वहां से पीछे हट रहा है क्योंकि खाड़ी देशों से अमेरिका को तेल कि आवश्यकता नहीं है. 

पिछले वर्ष यह मुहीम शुरू हुई और यूएई अपनी तरफ से तुर्की में 10 बिलियन डॉलर निवेश करने के लिए तैयार है. पश्चिमी एशिया में यह बहुत बड़ा वदलाव आया है कि राजनीतिक खींचतान को दरकिनार किया जाये और अर्थव्यवस्था के बारे में सोचा जाए

नग़मा – अरब देशों के साथ ईरान के साथ रिश्ते सुधर रहे हैं और ईरान के साथ न्यूक्लियर समझौते कि भी बात चल रही है, इसकी क्या वजह है ?

नवदीप सूरी जब बराक ओबामा के समय पहली न्यूक्लियर डील हुई तब खाड़ी के देश खासकर यूएई, बहरीन और सऊदी अरब बहुत नाराज़ थे. इसके तीन कारण है. पहला कारण यह रहा कि न्यूक्लियर डील में केवल ईरान की बात की गयी, उसके मिसाइल प्रोग्राम की बात नहीं की गई, क्योंकि उसका हमें सीधा भय है. दूसरा यह कि उनका हस्तक्षेप जो इराक़, बहरीन, सऊदी, लेबनान और सीरिया में कर रहे है. अपने राजनीतिक लाभ के लिए ईरान में जो शिया मुस्लिम है उनकी भी चर्चा नहीं हुई है. तीसरी वजह यह है कि यूरोप में बैठकर बनाई रणनीति से खाड़ी देश को कोई विशेष लाभ होने वाला नहीं था और उनसे पूछा भी नहीं गया कि इस रणनीति से इन देशों को क्या लाभ होगा. इस गुस्से के कारण ट्रंप ने सबसे पहले न्यूक्लियर डील को निरस्त किया. अब बाइडेन आये तब फिर से कोशिश हो रही है कि पुनः उसे शुरू किया जाए और काफी करीब भी पहुँच गए हैं, न्यूक्लियर डील को शुरू करने में. साथ ही साथ ईरान एक नीति को अपनाता है जिसमें यदि यमन में बैठे यहूदी को सऊदी के खिलाफ़ इस्तेमाल करता है. सऊदी अरब और यूएई को यह ख्य़ाल आया कि, जब तक यह तनाव बना रहेगा, इसमें नुकसान ही होगा. अत: इराक ने काफी सकारात्मक भूमिका निभाई है. पांच बार चर्चा हो चुकी सऊदी और ईरान के बीच और सभी चर्चाएँ बग़दाद में हुई हैं. जहां तक न्यूक्लियर डील कि बात है यदि यह समझौता दो या चार सप्ताह में हो जाता है तो इसका भारत को काफी फायदा होगा. दो तरह से – एक तो ईरान प्रतिबंध से पहले लगभग तीन मिलियन बैरल प्रतिदिन निर्यात कर रहा था, अब जब तेल बाजार में नहीं है तो तेल की कीमतें बढ़ जाती है और लगभग सभी देश बढ़ती कीमतों से परेशान हैं. यदि ईरान पुनः तेल निर्यात करेगा तो कीमत में गिरावट आएगी. अत:यदि न्यूक्लियर डील हो जाती है तो ईरान और अमेरिका के संबंधो में सुधार होगा जिससे भारत कि अर्थव्यवस्था में सुधार आएगा. निष्कर्ष के रूप में हम यह कह सकते हैं कि पश्चिमी एशियाई देशों के आपस में संबंध अच्छे हुए हैं. 

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