नेपाल (Nepal) में 20 नवंबर को केंद्रीय संसद और प्रांतीय विधानसभाओं के लिए आम चुनाव हुए. वर्ष 2015 में संविधान पारित होने के पश्चात राजनीतिक तौर पर उतार-चढ़ाव से गुजरने वाले इस हिमालयी गणराज्य में यह दूसरा लोकतांत्रिक चुनाव (elections) है. चुनाव में नेपाली संसद के 275 सदस्यों और सात प्रांतीय विधानसभाओं के 330 सदस्यों को चुनने के लिए वोट डाले गए. प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा के नेतृत्व वाली नेपाली कांग्रेस, केपी शर्मा ओली के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट यूनिफाइड मार्क्सवादी-लेनिनवादी (यूएमएल) पार्टी और पुष्प कमल दहल के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ नेपाल माओइस्ट सेंटर चुनावी मैदान में प्रमुख राजनीतिक पार्टियां हैं. विश्लेषकों ने 2017 के चुनावों की तरह एक त्रिशंकु संसद की भविष्यवाणी की है. उस समय देश की जनता ने ओली के सीपीएन-यूएमएल और प्रचंड की माओवादी पार्टी को शासन करने के लिए निर्णायक जनादेश दिया था. संयोग से, यह निर्णायक जनादेश काफ़ी हद तक ओली और उनके गठबंधन सहयोगियों द्वारा नई दिल्ली द्वारा कथित रूप से छह महीने लंबी नाकाबंदी के ख़िलाफ़ नेपाली लोगों की शिकायतों और भावनाओं को अपने पक्ष में भुनाकर हासिल किया गया था. तब से, विशेष रूप से देउबा के प्रधानमंत्री बनने के बाद दोनों पड़ोसी देशों के बीच संबंधों में सुधार हुआ है. हालांकि, ओली के नेतृत्व वाला गठबंधन अभी भी भारत विरोधी बयानबाजी कर रहा है. इस प्रकार से देखा जाए तोकाठमांडू के साथ कुछ भी करे, हिमालयी गणतंत्र की घरेलू राजनीति से इंडिया फैक्टर को दरकिनार करना बहुत मुश्किल है.
नेपाल के चुनावों में ‘इंडिया फैक्टर’
अक्सर देखने में आता है कि लोकतांत्रिक राजनीति में चुनाव जीतने की मज़बूरी की वजह से किसी बाहरी देश से अपने देश के ‘राष्ट्रीय हित’ की रक्षा का मुद्दा ज़ोरशोर से उछाला जाता है. भारत (और हाल ही में चीन) ने नेपाल की राजनीतिक चर्चाओं में अक्सर उस ‘बाहरी फैक्टर’ की भूमिका निभाई है. यह मुख्य रूप से दो विरोधाभासी और साथ ही पारस्परिक संबंधित कारकों की वजह से है. सबसे पहले, भारत और नेपाल को अक्सर एक बेहद अनोखे भूगोल के कारण ‘दुनिया के सबसे क़रीबी पड़ोसी’ के रूप में जाना जाता है. नेपाल और भारत 1800 किलोमीटर लंबी खुली सीमा को साझा करते हैं और दोनों देशों के नागरिकों को बॉर्डर के दोनों ओर यात्रा करने, काम करने और स्वतंत्र रूप से रहने की अनुमति है. इसके अतिरिक्त सीमा के दोनों तरफ के लोग गहरे ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और धार्मिक संबंधों से जुड़े हुए हैं.नेपाल की गोरखा आबादी का एक बड़ा हिस्सा भारतीय सेना में सैनिकों के रूप में अपनी सेवाएं दे रहा है. सद्भावना दर्शाने के रूप में नेपाल के सेना प्रमुख को भारतीय सेना के मानद जनरल के रूप में नामित किया जाता है और बदले में भारतीय सेना प्रमुख को भी ऐसा ही सम्मान नेपाली सेना द्वारा दिया जाता है.
विश्लेषकों ने 2017 के चुनावों की तरह एक त्रिशंकु संसद की भविष्यवाणी की है. उस समय देश की जनता ने ओली के सीपीएन-यूएमएल और प्रचंड की माओवादी पार्टी को शासन करने के लिए निर्णायक जनादेश दिया था.
दूसरा, भू-रणनीतिक तौर पर देखा जाए तो नेपाल में भारत की मज़बूत और प्रभावी उपस्थिति है, क्योंकि नेपाल पूर्व, पश्चिम और दक्षिण दिशा में भारत के साथ सीमा साझा करता है. इसके अलावा, वर्ष 1950 की भारत-नेपाल शांति एवं मैत्री संधि, दोनों देशों के बीच संबंधों को लेकर लंबे समय से विवाद का मुद्दा रही है. इसकी वजह यह है कि नेपाल इस संधि को अपने घरेलू मामलों को प्रभावित करने या उनमें हस्तक्षेप करने के लिए भारत के एक हथियार के रूप में मानता है, विशेष रूप से विदेश नीति और सुरक्षा से जुड़े अहम मसलों में. यहीं पर विरोधाभास दिखाई देता है. भारतअपनी सैन्य, भू-राजनीतिक और आर्थिक शक्ति के साथ-साथ इस क्षेत्र में सीमा पार के लोगों के बीच प्रगाढ़ संबंधों के कारण अक्सर नेपाल के विकास में मदद करने के लिए एक ज़िम्मेदार ताकत के रूप में देखा जाता है. दूसरी ओर, नेपाल की ओर से इसकी लगातार आशंका प्रकट की जाती है कि भारत अपनी मज़बूत स्थिति का फायदा उठाकर नेपाल की संप्रभुता और स्वतंत्रता को ख़तरे में डालते हुए उसके आंतरिक राजनीतिक-आर्थिक निर्णयों में हस्तक्षेप कर सकता है. अक्सर देखने में आता है कि नेपाल अपनी कूटनीतिक प्राथमिकताओं में भारत की व्यापक उपस्थिति को रोकने के लिए, कई बार विकास से जुड़ी ज़रूरतों और आर्थिक मदद के मामले में एक और शक्तिशाली एशियाई पड़ोसी देश चीन की ओर देखता है. जैसा कि भारत और चीन दक्षिण एशियाई क्षेत्र में अपना दबदबा बढ़ाने के लिए क्षेत्रीय संघर्षों और भू-रणनीतिक प्रतिस्पर्धा में उलझे हुए हैं, ऐसे में नेपाल की भारत और चीन के बीच संतुलन बनाने की रणनीति कई बार, भारत सरकार के मन में संदेह पैदा करती है.
नेपाल के प्रमुख राजनीतिक दलों के बड़े नेताओं पर एक बड़े शक्तिशाली देश के ख़िलाफ, दूसरे बड़े ताक़तवर देश का पक्ष लेने का आरोप लगाया जाता है. इतना ही नहीं पड़ोस के ताक़तवर देशों के साथ अपने संबंधों को मज़बूत करने के लिए अक्सर राष्ट्रीय हितों से समझौता करने के लिए इन नेताओं की आलोचना भी की जाती है. के पी ओली जहां चीन की ओर झुकाव के लिए जाने जाते हैं, वहीं शेर बहादुर देउबा भारत के क़रीबी माने जाते हैं. नेपाल के चुनावों में ‘इंडिया फैक्टर’ की मौज़ूदगी का मुद्दा हमेशा से वहां की लोकतांत्रिक राजनीति का एक हिस्सा रहा है. यही वजह है कि नेपाल के चुनावों में ‘राष्ट्रीय हित और संप्रभुता’ का मुद्दा वहां के राजनेताओं के लिए लोगों का समर्थन जुटाने में बेहद भावनात्मक भूमिका निभाता है. ज़ाहिर है कि के पी ओली और उनकी सहयोगी पार्टियों ने वर्ष 2015 की नाकाबंदी के मुद्दे पर भारत विरोधी अभियानों को चलाकर ज़बरदस्त राजनीतिक फायदा उठाया था.
चुनाव में ‘इंडिया फैक्टर’ को आकार देने वाले प्रमुख कारक
नेपाल के चुनाव में कई क्षेत्रीय, भू-रणनीतिक मुद्दों के साथ ही जातीय-सांस्कृतिक घटनाओं से जुड़े इस’इंडिया फैक्टर’ का असर दिखने की उम्मीद है, ज़ाहिर है कि इन मुद्दों ने पिछले कुछ वर्षों में भारत-नेपाल संबंधों पर असर डाला है. सबसे पहले बात करते हैं दोनों देशों के बीच असाधारण सीमा विवाद के मुद्दे की. दोनों देशों के बीच लंबित सीमा विवाद वर्ष 2020 में तब एक बार फिर से उठ खड़ा हुआ, जब नेपाल ने भारत द्वारा लिपुलेख दर्रे के पास हिमालय क्षेत्र में 80 किलोमीटर लंबी एक नई सड़क के निर्माण पर चिंता जताते हुए दावा किया कि यह सड़क उस भूमि को अलग करती है, जिसे नेपाल अपना क्षेत्र मानता है. नेपाल ने इसको लेकर अपना विरोध दर्ज़ कराने के लिए कई क़दम उठाए, जिसमें क्षेत्र में पुलिस बल की तैनाती, नेपाल में भारतीय दूत को बुलाना और सीमा क्षेत्र में लगभग 400 किलोमीटर के अपने दावे को दोहराने के लिए एक संशोधन पारित करना शामिल था. भारत के नज़रिए से इस सड़क का निर्माण बेहद अहम था, क्योंकि यह सामरिक रूप से बहुत महत्त्वपूर्ण सड़क है और दिल्ली से तिब्बत की दूरी को कम करने वाली है. यह सड़क भारत की प्राथमिकता भी है, क्योंकि यह भारत के हिंदू तीर्थयात्रियों के लिए पवित्र कैलाश पर्वत की यात्रा के लिए एक महत्त्वपूर्ण मार्ग है.इस क्षेत्र पर दावे से जुड़ा विवाद उस समय और बढ़ गया, जब भारत सरकार द्वारा एक नया राजनीतिक मानचित्र प्रकाशित किया गया, जिसमें नेपाल द्वारा दावा किए गए क्षेत्रों को शामिल किया गया था. इस पर नेपाल ने नाराज़गी जताई और वहां भारत के विरुद्ध जबरदस्त आक्रोश पनपने लगा. नेपाली जनता का यह गुस्सा वहां सोशल मीडिया पर #BackoffIndiaके रूप में भी सामने आया.
नेपाल की गोरखा आबादी का एक बड़ा हिस्सा भारतीय सेना में सैनिकों के रूप में अपनी सेवाएं दे रहा है. सद्भावना दर्शाने के रूप में नेपाल के सेना प्रमुख को भारतीय सेना के मानद जनरल के रूप में नामित किया जाता है और बदले में भारतीय सेना प्रमुख को भी ऐसा ही सम्मान नेपाली सेना द्वारा दिया जाता है.
दूसरा, विकास से जुड़ी परियोजनाओं और आर्थिक सहायता को लेकर भारत और चीन के बीच प्रतिस्पर्धी भू-रणनीतिक संघर्ष नेपाल में राजनीतिक को बड़े स्तर पर निर्धारितकरता है और प्रभावित करता है. नेपाल के राजनीतिक अभिजात वर्ग यानी वहां के बड़े राजनेताओं के लिए दोनों देशों के बीच सावधानी के साथ संतुलन बनाना प्रमुख चुनौतियों में से एक रहा है, जिसमें चीन का बढ़ता प्रभाव व्यापक तौर पर दिखाई देता है. वर्ष 2018 में नेपाल ने बिम्सटेक आतंकवाद-रोधी अभ्यास में भाग लेने से परहेज किया था, क्योंकि उसे डर था कि इसे उसका चीन विरोधी रुख़ माना जाएगा. नेपाल को अपने इलेक्ट्रिसिटी ट्रांसमिशन सिस्टम को विकसित करने और इसे भारतीय पावर ग्रिड से जोड़ने के लिए अमेरिका से अनुदान प्राप्त करने के लिए कथित तौर पर चीन के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा है. ऐसी भी आशंकाएं जताई गई हैं कि नेपाल के राजनीतिक गलियारों में कम्युनिस्ट ताक़तों की स्थिरता और मज़बूती सुनिश्चित करने के लिए चीन ने नेपाल की गठबंधन राजनीति में भी अपनी दख़लंदाज़ी की है.
तीसरा, सीमा पार सांस्कृतिक और जातीय संबंधों का भी नेपाल के चुनावों पर दो तरह से असर पड़ सकता है. सबसे पहले, मधेसी आंदोलन और उसके बाद वर्ष 2015 में भारत द्वारा की गई नाकाबंदी का भारत-नेपाल संबंधों पर गहरा प्रभाव पड़ा है. इस पूरे प्रकरण ने साबित किया है कि दोनों देशों के भौगोलिक रूप से निकट एवं सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के बीच मज़बूत सीमा पार जातीय संबंध कैसे हो सकते हैं और नेपाल के घरेलू राजनीतिक मामलों को किस प्रकार प्रभावित कर सकते हैं.माना जाता है कि उस नाकाबंदी ने नेपाल में भारत विरोधी भावना को ना सिर्फ़ भड़काने का काम किया, बल्कि नेपाली सरकार को सहायता के लिए चीन की ओर देखने के लिए भी मज़बूर किया. दूसरा, यह भी समझा जाता है कि पड़ोसी देश भारत में हिंदू समर्थक भारतीय जनता पार्टी के राजनीतिक उदय और उसके बढ़ते प्रभाव ने नेपाल में हिंदू पहचान एवं संस्कृति से जुड़ी राजनीति को हवा देने का काम किया है. हालांकि, नेपाल की लोकतांत्रिक राजनीति में अभी तक धार्मिक आधार पर स्पष्ट तौर पर किसी प्रकार की राजनीतिक लामबंदी नहीं देखी गई है. लेकिन अब वहां भी धर्म आधारित राजनीति का मुद्दा ज़ोर पकड़ता दिखाई दे रहा है, क्योंकि शीर्ष नेताओं ने चुनावी एजेंडे में मंदिरों के निर्माण का वादा किया है, वो भी एक ऐसे देश में, जहां 80 प्रतिशत आबादी हिन्दू है.
दशकों की अशांति और उठापटक के बाद नेपाल में एक स्थिर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को स्थापित करने के लिए भारत का संयमित और ज़िम्मेदारी भरा नज़रिया ना केवल इस पूरे क्षेत्र में दूसरों के प्रति भारत के सद्भाव को बढ़ाएगा, बल्कि नेपाल और उसके बाहर भी स्थिरता प्रदान करेगा.
निष्कर्ष
कुल मिलाकर संक्षेम में कहा जाए तो, नेपाल की राजनीति ना केवल भारत के साथ सीमा-पार ऐतिहासिक और सांस्कृतिक गतिशीलता या पारस्परिक विशिष्ट संबंधों से जुड़ी हुई है, बल्कि इस क्षेत्र में भारत और चीन के बीच भू-राजनीतिक संघर्ष से भी निर्धारित होती है. एक तरफ नेपाल का राजनीतिक अभिजात वर्ग पार्टी लाइन से ऊपर उठकरहमेशा अपनी राजनीतिक रणनीति में ‘इंडिया फैक्टर’ के महत्त्व और योगदान को मानने के लिए मज़बूर होगा, क्योंकि प्रतिस्पर्धी लोकतांत्रिक लामबंदी और राष्ट्रवादनेपाल की राजनीति का अहम हिस्सा बन चुका है. हालांकि, भारत के साथ भौगोलिक-सांस्कृतिक निकटता को देखते हुएनेपाल में लोकतांत्रिक मज़बूती और विकास से जुड़ी प्राथमिकताओं में भारत की रचनात्मक भूमिका के महत्त्व को कम करके नहीं आंका जा सकता है और नई सरकार भी इस सच्चाई को ध्यान में रखेगी. दूसरी तरफ, दशकों की अशांति और उठापटक के बाद नेपाल में एक स्थिर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को स्थापित करने के लिए भारत का संयमित और ज़िम्मेदारी भरा नज़रिया ना केवल इस पूरे क्षेत्र में दूसरों के प्रति भारत के सद्भाव को बढ़ाएगा, बल्कि नेपाल और उसके बाहर भी स्थिरता प्रदान करेगा.
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