Published on Jun 01, 2022 Updated 6 Hours ago

भारत में घरेलू गैस की क़ीमत में बढ़ोतरी और उसके उत्पादन और ख़पत पर इसका असर

भारत में प्राकृतिक गैस सेक्टर: मूल्य पर नियंत्रण पानी की कोशिश और अदा की जाने वाली क़ीमत

घरेलू गैस की क़ीमतों में संशोधन

31 मार्च 2022 को भारत सरकार ने घरेलू गैस की क़ीमत 2.9/एमएमबीटीयू अमेरिकी डॉलर (मीट्रिक मिलियन ब्रिटिश थर्मल यूनिट) से बढ़ाकर 6.10/एमएमबीटीयू अमेरिकी डॉलर कर दिया, जो 110 प्रतिशत से अधिक की बढ़ोतरी है. इतना ही नहीं सरकार ने गहरे पानी, ज़्यादा गहरे पानी, उच्च तापमान और उच्च दबाव वाली गैस के लिए भी मूल्य सीमा को 9.92/एमएमबीटीयू अमेरिकी डॉलर से बढ़ाकर 6.13/एमएमबीटीयू अमेरिकी डॉलर कर दिया, जो 61 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि है. गैस क़ीमतों में बढ़ोतरी को लेकर जो तर्क सामने दिए जा रहे हैं उसमें घरेलू उत्पादकों के फ़ायदे से लेकर गैस की क़ीमतों में बढ़ोतरी को गैर-जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल के लिए प्रेरित करने तक शामिल है. हालांकि, इसकी व्यापक नीतिगत निहितार्थ ऊर्जा सुरक्षा में बढ़ोतरी और खपत में संभावित वृद्धि है, जो भारत के गैस आधारित अर्थव्यवस्था के नीतिगत लक्ष्य की प्राप्ति में योगदान दे सकता है. हालांकि, इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भारत के प्राथमिक एनर्जी बास्केट में साल 2030 तक 15 फ़ीसदी तक प्राकृतिक गैस की हिस्सेदारी को बढ़ाना होगा.

अगर भारत 25 प्रतिशत एलएनजी को 35 अमेरिकी डॉलर/एमएमबीटीयू से अधिक की स्पॉट प्राइस पर प्राप्त कर लेता है तो इसकी लागत 9.8 अरब अमेरिकी डॉलर से अधिक होगी. हालांकि, अगर यह मांग घरेलू गैस से पूरी की जाती है, तो भले ही जटिल गहरे पानी वाले क्षेत्रों से इसे प्राप्त करना पड़े लेकिन इसकी लागत एक तिहाई से भी कम होगी.

उत्पादन और आयात

Source: PPAC

स्रोत: PPACप्राकृतिक गैस की क़ीमतों में संशोधन के ऐलान से पहले ही प्राकृतिक गैस का घरेलू उत्पादन विशेष रूप से निजी और संयुक्त उद्यम (जेवी) कंपनियों द्वारा उत्पादन पहले से काफी बढ़ गया था. हालांकि, शुद्ध घरेलू प्राकृतिक गैस का उत्पादन साल 2011-12 में 46,453 एमएमएससीएमडी (मीट्रिक मिलियन स्टैंडर्ड क्यूबिक मीटर प्रति दिन) से गिरकर साल 2021-22 में 33,131 एमएमएससीएमडी हो गया, यह आंकड़ा कोरोना महामारी से पहले 30,257 एमएमएससीएमडी के उत्पादन के आंकड़े से लगभग 10 प्रतिशत अधिक है. जबकि राज्य के स्वामित्व वाली कंपनियों का उत्पादन साल 2019-20 में 25,726 एमएमएससीएमडी से गिरकर 2021-22 में 22,774 एमएमएससीएमडी हो गया, जबकि निजी और ज्वाइंट वेंचर की कंपनियों का उत्पादन 128 प्रतिशत अधिक हो गया, जो साल 2019-20 में 4531 एमएमएससीएमडी से बढ़कर साल 2021-22 में 10,357 एमएमएससीएमडी हो गया. एलएनजी (तरलीकृत प्राकृतिक गैस) का आयात 2011-12 में 17,997 एमएमएससीएमडी से बढ़कर 2021-22 में 31,906 एमएमएससीएमडी हो गया.

प्राकृतिक गैस क्षेत्र में नियंत्रण में ज़्यादातर वो निर्णय शामिल हैं जो गैस ख़पत के मौज़ूदा पैटर्न से बहुत ज़्यादा प्रभावित हैं. जिन उद्योगों के पास प्राकृतिक गैस के लिए विशेष अधिकार हैं उन्होंने इसका उपयोग इस तरह से किया है जो आर्थिक रूप से फ़ायदेमंद नहीं हैं क्योंकि उन्हें जो मूल्य संकेत मिले हैं वो भ्रामक हैं.


एलएनजी के आयात का मतलब है कि मूल्य निर्धारण में बेइंतहा उतार-चढ़ाव का सामना करना. एलएनजी के लिए जापान-कोरिया की क़ीमत, जो एशियाई स्पॉट एलएनजी आयात के लिए बेंचमार्क है, वह कोरोना महामारी से प्रभावित आर्थिक मंदी के कारण अप्रैल 2020 में लगभग 2/एमएमबीटीयू अमेरिकी डॉलर तक गिर गया लेकिन यही आंकड़ा यूक्रेन संकट और प्राकृतिक गैस सप्लाई से संबंधित जोख़िमों के चलते मार्च 2022 में 35/एमएमबीटीयू अमेरिकी डॉलर से अधिक हो गया, मतलब इसमें 1650 फ़ीसदी की बढ़ोतरी दर्ज़ की गई. अगर भारत 25 प्रतिशत एलएनजी को 35 अमेरिकी डॉलर/एमएमबीटीयू से अधिक की स्पॉट प्राइस पर प्राप्त कर लेता है तो इसकी लागत 9.8 अरब अमेरिकी डॉलर से अधिक होगी. हालांकि, अगर यह मांग घरेलू गैस से पूरी की जाती है, तो भले ही जटिल गहरे पानी वाले क्षेत्रों से इसे प्राप्त करना पड़े लेकिन इसकी लागत एक तिहाई से भी कम होगी. हालांकि तर्क का दूसरा पहलू यह है कि घरेलू उत्पादकों ने कम उत्पादन के ज़रिए आयात में सब्सिडी दी है जिसका मतलब ना केवल पर्याप्त राजस्व का नुक़सान है, बल्कि घरेलू रोज़गार सृजन में भी इसका नकारात्मक असर होगा.

उत्पादन पर प्रभाव

भारत में प्राकृतिक गैस पर मूल्य नियंत्रण लगभग वैसा ही है जैसा कि किराए पर नियंत्रण करना होता है, और इसका प्रभाव शहरी किराये के घरों – की कमी से अलग नहीं है. यह आपूर्ति को समर्थन दिए बगैर ही मांग को कृत्रिम रूप से बढ़ाता है. तेल और गैस की खोज का यह मतलब नहीं होता है कि निवेश में वृद्धि का मतलब आपूर्ति में वृद्धि ही होगा जैसा कि दूसरे उद्योगों में देखा जाता है. गैस की खोज मौक़ा और संभावनाओं का खेल है जिसके लिए जोख़िम लेना पड़ता है, ज़मीन के नीचे हाइड्रोकार्बन संसाधन लगातार घटते जा रहे हैं. इसलिए बाज़ार में इसकी अतिरिक्त आपूर्ति का मतलब है कि इसकी सीमांत लागत हमेशा औसत लागत से अधिक होगी. हालांकि, वर्तमान दृष्टिकोण जो अतिरिक्त आपूर्ति लाने की सीमांत लागत को नज़रअंदाज़ करता है, उसने जोख़िम लेने और खोज के रास्ते को बाधित कर दिया है. नियंत्रित मूल्य व्यवस्था के तहत, राजस्व और प्रतिस्थापन की लागत के बीच का अंतर समय के साथ और बढ़ता जाता है, इससे उत्पादकों के लिए ‘पुरानी’ क़ीमत पर नए भंडार के लिए अनुबंध करना फ़ायदे का सौदा नहीं रह गया है. यहां तक कि अगर नियंत्रित कीमतें उच्च स्तर पर ही निर्धारित की जाती हैं और इसमें लचीलेपन की गुंजाइश भी ऱखी जाती है, तो भी यह सीमांत कीमतों का ना तो अनुमान लगा सकती है और ना ही सीमांत क्षेत्रों में निवेश को बढ़ावा दे सकती है जहां जोख़िम ज़रूरत से ज़्यादा है.

ख़पत पर असर

कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस उद्योग बाज़ार अस्थिरता के प्रति संवेदनशील होते हैं, और यही वज़ह है कि दुनिया भर में इस पर नियंत्रण रखा जाता है. हालांकि कोयला उद्योग में हस्तक्षेप की मांग मूल रूप से कोयला श्रमिकों द्वारा की गई थी और तेल उद्योग क्षेत्र में नियंत्रण की मांग तेल कंपनियों द्वारा की गई थी, जबकि प्राकृतिक गैस क्षेत्र में हस्तक्षेप की मांग हमेशा प्राकृतिक गैस के उपभोक्ताओं द्वारा की जाती रही है, जो इसे बिक्री के स्तर पर कुदरती तौर पर एकाधिकार की वस्तु बना देती है और इस नियम के लिए भारत अपवाद नहीं है. लगभग तीन दशक पहले प्राकृतिक गैस का उत्पादन शुरू होने के बाद से इस उद्योग में उपभोक्ताओं के पक्ष में लगातार क्षतिपूरक नियंत्रण को शामिल किया जाता रहा है. इसका नतीज़ा यह हुआ है कि इस उद्योग क्षेत्र के भीतर और बाहर संसाधन आवंटन में कई तरह की विकृतियों ने अपनी जड़ें जमा ली हैं.

प्राकृतिक गैस क्षेत्र में नियंत्रण में ज़्यादातर वो निर्णय शामिल हैं जो गैस ख़पत के मौज़ूदा पैटर्न से बहुत ज़्यादा प्रभावित हैं. जिन उद्योगों के पास प्राकृतिक गैस के लिए विशेष अधिकार हैं उन्होंने इसका उपयोग इस तरह से किया है जो आर्थिक रूप से फ़ायदेमंद नहीं हैं क्योंकि उन्हें जो मूल्य संकेत मिले हैं वो भ्रामक हैं. वे उद्योग जिनके पास गैस की पहुंच नहीं है लेकिन बजाए अन्य ईंधन का इस्तेमाल करने के वे उच्च क़ीमतों का भुगतान करने के लिए तैयार हैं, तो ऐसे उद्योग अपने उत्पादित सामान का बाज़ार ख़राब कर लेते हैं. कम समय के दौरान जिन तक गैस की पहुंच होती है उन्हें फ़ायदा हो जाता है लेकिन लंबे समय में देखा जाता है कि सभी उपभोक्ताओं को संभावित आपूर्तिकर्ताओं की अनिच्छा की वज़ह से नुक़सान उठाना पड़ता है और इसकी वज़ह यह होती है कि क़ीमत नियंत्रण द्वारा जो सौदेबाज़ी तय होती है, वह प्रतिस्पर्द्धी स्थितियों में जो तय हो सकता है, उसके मुक़ाबले नए गैस की क़ीमतें ज़्यादा तय हो जाती हैं.

ऊर्जा क्षेत्र में सुधार के संदर्भ में, भारत के पूर्व प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि ‘प्रतिस्पर्द्धी राजनीति’ और ‘खंडित जनादेश’ की वज़ह से ‘स्पष्ट नीतियों’ को लागू कर पाना मुश्किल है. प्रतिस्पर्द्धात्मक राजनीति और खंडित जनादेश का यहां यह मतलब हुआ कि आज ऊर्जा क्षेत्र को नियंत्रित करने वाली ‘नीतियां’ केवल क्रमागत फैसलों का एक समूह हैं, जो कुछ सरकार द्वारा और कुछ तो उद्योग क्षेत्र के बड़े खिलाड़ियों द्वारा लिए जाते हैं लेकिन ये सभी फैसले ऊर्जा आपूर्ति के मौज़ूदा पैटर्न और ख़पत से प्रभावित होते हैं. सब्सिडी की तरह, जिसे लेकर जनता भूल भी जाती है और जिसके लिए किसी राजनीतिक प्रक्रिया की ज़रूरत नहीं होती, क़ीमतों पर नियंत्रण और प्राकृतिक गैस तक पहुंच को बार-बार अंजाम दिया जाना चाहिए, जो राजनीतिक हितों के लिए ज़्यादा सुलभ है. ऐसी व्यवस्था में व्यावसायिक संस्थाओं को न्यूनतम संभव क़ीमतों पर अतिरिक्त आपूर्ति के लिए दूसरों के साथ प्रतिस्पर्द्धा करने के बजाय सरकार के साथ वरीयता की स्थिति के लिए लड़ने की असहज स्थिति का सामना करना पड़ सकता है. हालांकि लंबे समय में, यह उन लक्ष्यों को प्राप्त करने की देश की क्षमता को कम कर देता है जिसकी बदौलत व्यवस्था को बनाया जाता है, ताकि सबसे लंबे समय तक न्यूनतम लागत पर ऊर्जा की भरपूर आपूर्ति सुनिश्चित हो सके.

Source: PPAC for domestic Price, BP for JK Marker
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Akhilesh Sati

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Akhilesh Sati is a Programme Manager working under ORFs Energy Initiative for more than fifteen years. With Statistics as academic background his core area of ...

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Lydia Powell

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Ms Powell has been with the ORF Centre for Resources Management for over eight years working on policy issues in Energy and Climate Change. Her ...

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Vinod Kumar Tomar

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Vinod Kumar, Assistant Manager, Energy and Climate Change Content Development of the Energy News Monitor Energy and Climate Change. Member of the Energy News Monitor production ...

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