Expert Speak Raisina Debates
Published on Apr 06, 2024 Updated 0 Hours ago

बहुध्रुवीय प्रतिस्पर्धा वाली वर्तमान विश्व व्यवस्था में विद्रोहियों का समर्थन करने वाली युक्तियां तेज़ी के साथ विकसित हो रही हैं. ज़ाहिर है कि विद्रोहियों को लेकर यह नई रणनीति आतंकवादी समूहों और उनका समर्थन करने वाले राष्ट्रों के बीच नज़दीकी बढ़ा सकती हैं.

एक बहुध्रुवीय विश्व में म्यांमार के ज़मीनी हालात और हिंसक संघर्ष!

अफ़ग़ानिस्तान की धरती छोड़ने वाले अमेरिका के आख़िरी सैनिक यानी मेजर जनरल क्रिस डोनाह्यू की 30 अगस्त, 2021 की काबुल से उड़ान भरने से पहले सी-17 ग्लोबमास्टर के टेल रैंप पर क़दम रखते हुए तस्वीर आज भी सभी के जेहन में है. ज़ाहिर है कि यह तस्वीर अमेरिका के दो दशक लंबेग्लोबल वार ऑन टेररयानी आतंकवाद के विरुद्ध वैश्विक युद्ध (GWOT) के बेनतीज़ा रहने की प्रतीक थी. साथ ही यह तस्वीर कहीं कहीं अफ़ग़ानिस्तान में विद्रोह या आतंकवाद के राजनीतिकरण के बाद उपजे हालातों की भी प्रतीक थी. देखा जाए तो पहले पूरे विश्व में जिस प्रकार से व्यापक रणनीतिक दायरे में आतंकवाद विरोधी माहौल था, अब उसकी जगह बहुध्रुवीय संघर्ष ने ले ली है. इतना ही नहीं, जिस विद्रोह या आतंकवाद ने एक समय ग्लोबल वार ऑन टेरर की परिकल्पना को आकार दिया था, आज उसे भी रणनीतिक नज़रिए से देखा जाने लगा है और कहा जा सकता है कि आज विद्रोह भी अंतर्राष्ट्रीय रणनीतिक परिस्थितियों से प्रभावित हो चुका है और आज विद्रोह को रोकने के बजाए अपने हितों के हिसाब से उसे हवा दी जा रही है.

 म्यांमार में विद्रोही गुटों द्वारा युद्ध के जो तौर-तरीक़े अपनाए गए हैं, वे न केवल इसकी बानगी पेश करते हैं कि बहुध्रुवीयता के बीच भविष्य में विद्रोह किस प्रकार का होगा, बल्कि आने वाले दिनों में किस तरह के रुझान सामने आ सकते हैं, उसकी झलक भी दिखाते हैं. 

आज के नए युग में विद्रोह किस प्रकार का दिखाई दे सकता है, म्यांमार का गृह युद्ध इसकी एक सटीक तस्वीर सामने लाता है. ज़ाहिर है कि भारत सरकार और भारतीय राजनेताओं के लिए म्यांमार के अंदरूनी हालात पहले से ही चिंता की वजह बने हुए हैं. वर्तमान दौर की बात करें तो यह पूरा क्षेत्र नई दिल्ली की एक्ट ईस्ट पॉलिसी के केंद्र बिंदु में है, ऐसे में म्यांमार के साथ भारत की साझा सीमा, दोनों देशों के लोगों के बीच मज़बूत रिश्ते और भारत के उत्तर पूर्वी इलाक़ों में सुरक्षा के लिहाज़ पैदा होने वाले ख़तरों के मद्देनज़र म्यांमार के घरेलू हालात कतई ठीक नहीं कहे जा सकते हैं. इसके अलावा, जिस तरह से चीन ने अपनी रणनीतिक पैंतरेबाज़ी में पाकिस्तान के बजाए म्यांमार को तवज्जो देना शुरू किया है, उससे भी नई दिल्ली की नीतियों का लक्ष्य और मकसद बदल रहा है. उल्लेखनीय है कि म्यांमार के सुरक्षा परिवेश में या कहा जाए कि सुरक्षा से जुड़े मामलों में चीन एक सक्रिय भागीदार बनकर उभरा है. चीन द्वारा म्यांमार में केवल सत्तासीन जुंटा यानी सैन्य शासन का सहयोग किया जा रहा है, बल्कि वहां युद्ध में संलग्न अलग-अलग विद्रोही गुटों की भी मदद की जा रही है. यही वजह है कि म्यांमार में विद्रोही गुटों द्वारा युद्ध के जो तौर-तरीक़े अपनाए गए हैं, वे केवल इसकी बानगी पेश करते हैं कि बहुध्रुवीयता के बीच भविष्य में विद्रोह किस प्रकार का होगा, बल्कि आने वाले दिनों में किस तरह के रुझान सामने सकते हैं, उसकी झलक भी दिखाते हैं. इतना ही नहीं, इससे इस बात का भी अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि निकट भविष्य में वैश्विक व्यवस्था को निर्धारित करने में ये रणनीतियां किस प्रकार से अपनी भूमिका निभा सकती हैं.

 

अलग क्या है?

पिछले दो दशकों के दौरान जिस प्रकार से आतंकवाद के खात्मे के लिए जज्बा दिखाई दिया, वो आज के दौर में उग्रवाद और विद्रोहों को समाप्त करने के अभियानों में भी बना हुआ है और इसके ज़ल्द समाप्त होने की संभावना भी नहीं है. इसकी वजह यह है कि इजराइलहमास संघर्ष जैसे ताज़ा उदाहरण पूरी दुनिया को समय-समय पर सबक सिखाते रहते हैं. इस सबके बावज़ूद, यह निश्चित है कि बहुध्रुवीयता की बेहद अहम और व्यापक परिस्थितियां स्वाभाविक तौर पर आने वाले वर्षों में विद्रोह की परंपरा और राजनीति पर बहुत ज़्यादा असर डालेंगी.

 

"वार ऑन टेरर" यानी आंतकवाद के विरुद्ध लड़ाई के हिस्से के रूप में होने वाले विद्रोहों के विपरीत, 'महाशक्ति का विद्रोह', जैसा की म्यांमार में दिखाई दे रहा है, कहीं कहीं बहुध्रुवीयता के नेटवर्क और ढांचे को सामने लाने का काम करता है. ज़ाहिर है कि यह बहु ध्रुवीयता ही मौज़ूदा दौर में आधुनिक अंतर्राष्ट्रीय राजनीति और विश्व व्यवस्था को निर्धारित कर रही है. अमेरिकी एजेंसियों द्वारा फरवरी में क्राइम सिंडिकेट याकुज़ा के प्रमुख ताकेशी एबिसावा पर म्यांमार से ईरानी सरकार को परमाणु सामग्री की तस्करी करने का आरोप लगाया गया था. इस सौदे से होने वाले फायदे को जापान के ताकेशी एबिसावा और म्यांमार के एक गुमनाम विद्रोही संगठन के बीच बांटा जाना था. यह इस बात को दिखाता है कि वैश्विक व्यवस्था किस प्रकार से बदल रही हैं और भविष्य में विद्रोहों का स्वरूप कैसा होने वाला है. एक महत्वपूर्ण बात यह है कि ईरान जैसी मध्यम दर्ज़े की और क्षेत्रीय ताक़तें विद्रोही गुटों के साथ मिलकर अपने दीर्घकालिक हितों को साधना चाहती हैं. ज़ाहिर है कि जैसे-जैसे मिडिल एवं रीजनल ताक़तों के विद्रोही गुटों के साथ पारस्परिक संबंधों में प्रगाढ़ता आती है, वैसे-वैसे इन देशों की व्यापक स्तर पर राजनीतिक लाभ हासिल करने की इच्छा और क्षमता बढ़ने लगती है. ऐसे में इस बात की प्रबल संभावना पैदा हो जाती है कि विद्रोहियों पर ऐसे देशों का प्रभाव बढ़ जाए, या कहा जाए विद्रोही समूह ऐसे देशों के निर्देशों पर ही चलने लग जाएं. ज़ाहिर है कि इस तरह के पारस्परिक गठबंधन में संगठित आपराधिक सिंडिकेट और असंतुष्ट आतंकी संगठन शामिल होंगे, जो किसी देश का समर्थन करने के एवज में उससे कुछ कुछ लाभ ज़रूर उठाना चाहेंगे.

 भारत और चीन दोनों ही देश म्यांमार में महत्वपूर्ण राष्ट्रीय इंफ्रास्ट्रक्चर एवं क्षेत्रीय कनेक्टिविटी से जुड़ी परियोजनाओं में निवेश कर रहे हैं और देखा जाए तो इसके ज़रिए वे अपना भू-राजनीतिक दबदबा क़ायम करने के लिए एक दूसरे से होड़ कर रहे हैं.

रीजनल कनेक्टिविटी से जुड़ी परियोजनाओं और क्रिटिकल नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर यानी महत्वपूर्ण राष्ट्रीय बुनियादी ढांचे (CNI) से जुड़ी परियोजनाओं तक पहुंच भी कहीं कहीं बहुध्रुवीय रणनीतिक होड़ के एक मंच के तौर पर काम करती है. म्यांमार जैसे विद्रोह भविष्य में क्या करवट लेंगे इसका निर्धारण भी ऐसी परियोजनाओं से होगा. म्यांमार में भारत और चीन के बीच रिश्तों में खटास तेज़ी से बढ़ती जा रही है. भारत और चीन दोनों ही देश म्यांमार में महत्वपूर्ण राष्ट्रीय इंफ्रास्ट्रक्चर एवं क्षेत्रीय कनेक्टिविटी से जुड़ी परियोजनाओं में निवेश कर रहे हैं और देखा जाए तो इसके ज़रिए वे अपना भू-राजनीतिक दबदबा क़ायम करने के लिए एक दूसरे से होड़ कर रहे हैं. वर्तमान में जो विश्व व्यवस्था है, उसमें बहुध्रुवीय प्रतिस्पर्धा सबसे अहम हो चुकी है. ऐसी विश्व व्यवस्था में विद्रोहियों का लाभ उठाने की रणनीति तेज़ी से आगे बढ़ रही है और इन हालातों में आतंकवादी गुटों एवं उनका समर्थन करने वाले देशों के बीच नज़दीकी संबंधों से भी इनकार नहीं किया जा सकता है. विद्रोहियों का साथ देने और उनका साथ लेने की इस रणनीति में ऐसी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में रोड़े अटकाना, या फिर विरोधियों को इनका उपयोग करने से रोकना भी शामिल होता है. आज की आधुनिक विश्व व्यवस्था के इस दौर में युद्ध ग्रस्त इलाक़ों में आपूर्ति श्रृंखलाओं और राष्ट्रीय महत्व के इंफ्रास्ट्रक्चरों पर विद्रोही गुटों के हमलों के व्यापक स्तर पर अलग-अलग तरह के नतीज़े हो सकते हैं. इस तरह के हमले दूसरे पक्ष या देश के लिए फायदेमंद साबित हो सकते हैं. उदाहरण के तौर पर म्यांमार में चीन समर्थक सशत्र विद्रोही संगठन अराकान सेना द्वारा भारत की ओर से वित्त पोषित कलादान मल्टी मॉडल ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर पर हमला किया गया. विद्रोही गुट द्वारा इस कॉरिडोर के आसपास के सभी रास्तों को बंद कर दिया और बाद में इन्हें दोबारा खोलने के लिए भारतीय अधिकारियों के साथ बातचीत की गई. अराकान सेना की यह कार्रवाई म्यांमार के गृहयुद्ध में एक और विद्रोही रणनीति को सामने लाने का काम करती है. सतही तौर पर तो यह रणनीति सामान्य सी लगती है, लेकिन निश्चित तौर पर भविष्य में यह रणनीति अनियमित या गैर पारंपरिक युद्ध का एक प्रमुख हथियार बन जाएगी

 

चीन की स्थिति

इसी प्रकार से म्यांमार में चल रहा गृहयुद्ध साफ तौर पर बताता है कि ज़मीन और समुद्र दोनों ही क्षेत्रों में सुरक्षा मुहैया कराने वाले एक राष्ट्र के तौर पर चीन किस तरह से अपनी स्थिति को मज़बूत कर रहा है. जिस प्रकार से चीन खुद को इंडो-पैसिफिक में आक्रामकता के साथ एक उभरती हुई समुद्री ताक़त के रूप में स्थापित करने में जुटा है, उसने वैश्विक सुरक्षा परिदृश्य में चीन को एक परिवर्तनकारी ताक़त के रूप में उभारा है. इसी के मद्देनज़र म्यांमार के गृह युद्ध में चीन की प्रभावशाली भूमिका ने पर्यवेक्षकों के समक्ष जो परिस्थितियां बनाई हैं, उनसे इसका साफ अंदाज़ा मिलता है कि बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था में ज़मीन आधारित विद्रोहों को लेकर बीजिंग की क्या रणनीति है और उसका क्या दृष्टिकोण है.

 

म्यांमार में चीन वहां की सत्ता पर काबिज जुंटा यानी सेना का समर्थन कर रहा है, साथ ही थ्री ब्रदरहुड अलायंस (TBA) के अंतर्गत जुंटा के विरुद्ध अभियान चलाने वाले विद्रोही समूहों की भी मदद कर रहा है. चीन की यह रणनीति स्पष्ट रूप से बताती है कि वो दोनों पक्षों के साथ अपने मधुर संबंधों के ज़रिए केवल अपने नुक़सान को कम करना चाहता है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि म्यांमार में जो भी घटनाक्रम चल रहा है, उस पर बीजिंग का कोई पुख्ता नियंत्रण नहीं है और इसी के चलते वो हर ओर हाथ-पैर मार कर अपनी स्थिति को मज़बूत करना चाहता है. थ्री ब्रदरहुड अलायंस द्वारा अक्टूबर 2023 में म्यांमार में ऑपरेशन 1027 की शुरुआत की गई थी. टीबीए में शामिल विद्रोही गुटों के सामूहिक प्रयासों से शुरू किए गए इस ऑपरेशन को चीन की भी स्वीकृत मिली हुई थी. इसका मकसद सैन्य शासन और उसके साथ साज़िश रचने वाले संगठित आपराधिक सिंडिकेट के ख़िलाफ़ कार्रवाई को तेज़ करना था. इस ऑपरेशन ने म्यांमार की लंबे समय तक अपनी राजनीतिक मौज़ूदगी सुनिश्चित करने की चीन की रणनीतिक सफलता को दर्शाया है. चीन का उद्देश्य एक तरफ म्यांमार में विद्रोही समूहों के साथ अपनी नज़दीकी को बढ़ाकर भविष्य में उनका फायदा उठाना है, वहीं दूसरी तरफ वह हथियारों की बिक्री, आर्थिक मदद और राजनयिक समर्थन के ज़रिए जुंटा यानी सैन्य शासन का सहयोग कर रहा है. म्यांमार में इस प्रकार की रणनीति केवल चीन की पैठ को दिखाती है, बल्कि यह भी बताती है वह किस तरह से अपनी भू-राजनीतिक बढ़त के लिए इसका फायदा उठाना चाहता है. सच्चाई यह है कि टीबीए ने म्यांमार की सरकार में आपराधिक संगठनों के बढ़ते प्रभाव को लेकर चिंता जताकर बीजिंग के साथ अपनी निकटता जताने की कोशिश की है. इसकी वजह यह है कि टीबीए को बखूबी पता था कि सीमावर्ती क्षेत्रों में आपराधिक गुटों द्वारा संचालित की जा रही अवैध गतिविधियों एवं सेना के साथ उन गुटों के प्रगाढ़ रिश्तों को लेकर चीन चिंतित है.

 चीन का उद्देश्य एक तरफ म्यांमार में विद्रोही समूहों के साथ अपनी नज़दीकी को बढ़ाकर भविष्य में उनका फायदा उठाना है, वहीं दूसरी तरफ वह हथियारों की बिक्री, आर्थिक मदद और राजनयिक समर्थन के ज़रिए जुंटा यानी सैन्य शासन का सहयोग कर रहा है.

यह रणनीतियां बताती हैं कि चीन अपनी राजनीतिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए किस प्रकार से विद्रोहों का लाभ उठा सकता है. विद्रोही गुटों का साथ देना और रणनीतिक लाभ हासिल करने के मकसद से दूसरे समूह को कमज़ोर करने के लिए एक गुट का दूसरे के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करना चीन की सोची-समझी रणनीति है. इसके साथ ही दो पक्षों के बीच समझौता कराने के दौरान अपने राजनीतिक प्रभाव को बरक़रार रखना और इसके लिए प्रतिद्वंद्वी राष्ट्रों की तुलना में वहां अपनी आर्थिक एवं राजनीतिक मौज़ूदगी को मज़बूत करना भी चीन की एक रणनीति है. चीन की यह स्ट्रैटेजी ऐसी है, जिसका वह भविष्य के विद्रोहों में भी अपने हित में इस्तेमाल कर सकता है. हाल ही में म्यांमार में जिस तरह से चीन ने अपनी मध्यस्थता में सैन्य शासन और टीबीए के बीच युद्धविराम समझौता कराया है, वो उसकी इस रणनीत को साबित करता है. ज़ाहिर है कि चीन की इस प्रकार की पॉलिसी भविष्य में इस तरह के युद्धों की राजनीति पर बहुध्रुवीयता के असर को भी सामने लाती है. उल्लेखनीय है कि ऐसे संघर्षों में अपना सक्रिय दख़ल देकर और बाद में युद्धरत दोनों पक्षों की सामरिक लिहाज़ से सहायता करके चीन अन्य देशों की तुलना में बेहतर तरीक़े से रणनीतिक कुशलता का इस्तेमाल कर हालात को अपने मुताबिक़ ढाल सकता है, साथ ही परिस्थितियों का अपने हित में फायदा उठा सकता है.

 

यद्यपि, जिस प्रकार से चीन ने म्यांमार में ऑपरेशन 1027 को समर्थन दिया है, वो सिर्फ़ उसकी रणनीतिक सीमाओं को ज़ाहिर करता है, बल्कि उसकी संभावित कमज़ोरियों को भी दिखाता है. चीन की यह रणनीति भविष्य में क्षेत्रीय स्तर पर होने वाले छोटे-छोटे युद्धों में उसके नज़रिए का केंद्र बनी रह सकती है. वास्तविकता यह है कि चीन द्वारा समर्थित विद्रोही गुटों के हमले यानी ऑपरेशन 1027 के पश्चात म्यांमार के सैन्य शासन ने संगठित आपराधिक सिंडिकेट से कुछ हद तक दूरी बना ली थी. जुंटा ने ऐसा बीजिंग के साथ अपनी घनिष्टता के बावज़ूद किया था. इतना ही नहीं, जुंटा ने इसके पश्चात म्यांमार में चीन के ख़िलाफ़ व्यापक विरोध प्रदर्शनों को भी मंजूरी दी थी. यह साबित करता है कि म्यांमार के स्थानीय विद्रोही गुटों में चीन का प्रभाव बना हुआ है और यह आगे बढ़ भी सकता है.

 

आख़िर में, म्यांमार में सैन्य शासन के ख़िलाफ संघर्ष इस बात का आभास कराता है कि भविष्य में विद्रोह की राजनीति किस प्रकार की होगी. कहने का मतलब यह है कि जिस प्रकार से "वार ऑन टेरर" अर्थात आतंकवाद के ख़िलाफ़ युद्ध तेज़ी के साथ गुजरे समय की बात होती जा रही है और बहुध्रुवीय होड़ आज की नई सच्चाई बनती जा रही है, इन परिस्थितियों में विद्रोहियों को और विद्रोहियों के विरुद्ध कार्रवाई करने वालों को समय के साथ एक अलग रणनीति को अमल में लाने की ज़रूरत होगी. हालांकि, दोनों पक्षों की संभावित क़ामयाबी और नाक़ामयाबी इस पर निर्भर करेगी कि वे समय के अनुकूल अपनाई गई अपनी इस रणनीति को कितनी शिद्दत के साथ अमल में लाते हैं.


अर्चिश्मान गोस्वामी पोस्ट ग्रेजुएट छात्र हैं और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में इंटरनेशनल रिलेशन्स में एमफिल कर रहे हैं.

 

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.