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Published on Jan 12, 2024 Updated 4 Hours ago

छोटे से देश मालदीव के सामने पर्यटन और इंडिया आउट से भी बड़ी चुनौतियां हैं. आज मालदीव कट्टर इस्लाम और चीन के दो पाटों के बीच पिस रहा है.

भारत-मालदीव विवाद: मुइज़्‍ज़ू का मालदीव, भू-राजनीति के ‘भूगोल’ को नहीं समझ पा रहा है!

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लक्षद्वीप दौरे के बाद जब वहां की कुछ तस्वीरें ट्वीट कीं, तो छोटे छोटे द्वीपों वाले देश मालदीव के मंत्रियों ने भारत के बारे में नस्लवादी टिप्पणियां कर डालीं. मालदीव के मंत्रियों की इन घटिया टिप्पणियों के जवाब में बहुत से भारतीय नागरिकों ने मालदीव घूमने जाने से इनकार कर दिया. ये एक उभरते हुए देश द्वारा आर्थिक राष्ट्रवाद की खोज करने की अभिव्यक्ति था. मालदीव वो देश है जिसने हाल ही में डॉक्टर मुहम्मद मुइज़्ज़ू को उनके ‘इंडिया आउट’ अभियान के बाद अपना राष्ट्रपति चुना है. उसे भारतीय सैलानियों की नाराज़गी और मालदीव से दूरी बनाने का फ़ौरी तौर पर नुक़सान उठाना पड़ेगा. मध्यम अवधि में भारत के सैलानियों की भरपाई चीन के पर्यटक कर देंगे. कुछ महीनों भी नहीं, बल्कि महज़ कुछ हफ़्तों में हम इस विवाद को भुलाकर आगे बढ़ चुके होंगे.

मालदीव वो देश है जिसने हाल ही में डॉक्टर मुहम्मद मुइज़्ज़ू को उनके ‘इंडिया आउट’ अभियान के बाद अपना राष्ट्रपति चुना है. उसे भारतीय सैलानियों की नाराज़गी और मालदीव से दूरी बनाने का फ़ौरी तौर पर नुक़सान उठाना पड़ेगा.

वैसे तो मालदीव की अर्थव्यवस्था इससे उस तरह तबाह नहीं होगी, जिस तरह वो 2020 में मेड इन चाइना महामारी कोविड-19 से बर्बाद हो गई थी. तब मालदीव की GDP में 35 प्रतिशत की भारी गिरावट आई थी और वो कम होकर 3.71 अरब डॉलर रह गई थी, जो लगभग मिज़ोरम के सकल घरेलू राज्य उत्पाद (GSDP) के बराबर है. 2022 में मालदीव की अर्थव्यवस्था बहाल होकर 6.17 अरब डॉलर तक पहुंच पाई थी, जो पुड्डुचेरी की GSDP के बराबर है. मगर, भारतीय पर्यटकों के दूरी बनाने से मालदीव को घातक चोट ज़रूर पहुंचेगी. क्योंकि, मालदीव की एक चौथाई GDP अकेले पर्यटन उद्योग से आती है और वहां सबसे ज़्यादा पर्यटन भारत से ही जाते हैं. इनमें से ज़्यादातर सैलानी, अगले दो टूरिस्ट सीज़न में मालदीव से ग़ायब हो जाएंगे. 2023 में दो लाख से ज़्यादा भारतीय नागरिक, मालदीव घूमने गए थे. मगर ये बात यहीं ख़त्म हो जाती है.

मालदीव से भारतीय सैलानियों का दूरी बनाना, उसके लिए महज़ एक झटका होगा. फिर भी ये उस देश के ताबूत में एक कील होगा, जो हाल के दिनों में हर संकट में भारत की दयानतदारी का फ़ायदा उठाने के बावजूद, उसका अपमान करता रहा है. फिर चाहे, 2014 में पीने का पानी उपलब्ध कराना हो और 2020 में महामारी से निपटने के लिए कोविड के अहम टीके मुहैया कराना होग या फिर देश के मूलभूत ढांचे की परियोजनाओं के लिए 1.2 अरब डॉलर की मदद और 1988 में तख़्तापलट की एक कोशिश को नाकाम करना हो. मालदीव, गहरे समंदर में ऐसा तूफ़ान बन गया है, जो किसी घाट के किनारे लगने की कोशिश कर रहा है. कुछ मुट्ठी भर लोगों को छोड़ दें, तो भारत के पर्यटक अब समुद्र के किनारे छुट्टियां मनाने के लिए अपने देश के नौ राज्यों और चार केंद्र शासित प्रदेशों में फैली 7500 किलोमीटर से भी ज़्यादा लंबी तटरेखा की संभावनाएं तलाशना ज़्यादा पसंद करेंगे.

एक महीने से भी कम समय में, मालदीव का ये विवाद भारत के लिए अप्रासंगिक हो जाएगा. क्योंकि फरवरी में देश आम बजट का हिसाब-किताब लगाने में व्यस्त होगा. इसके बाद देश बेहद महत्वपूर्ण आम चुनावों से लेकर मई तक उनके नतीजे आने में बिज़ी हो जाएगा. इस दौरान और उसके बाद भारत, आर्थिक विकास करने, रोज़गार के मौक़े बढ़ाने, अपने तेज़ी से बढ़ते शेयर बाज़ार में निवेश करके संपत्ति अर्जित करने, अर्थव्यवस्था को सुधारने और सांस्कृतिक विरासतों को दोबारा संजोने सहेजने पर अपना ध्यान केंद्रित करेगा. मालदीव तो माले तक पहुंचने वाली आख़िरी उड़ान से भी कम समय में ख़बरों और नज़रों से ओझल हो जाएगा.

लेकिन, पांच लाख लोगों की आबादी वाले इस देश को जो जानने, समझने और फिर उससे निपटने की ज़रूरत है, वो दो ख़तरनाक बातें हैं, जो मिलकर इस छोटे से देश को तबाह कर रही हैं- धार्मिक आतंकवाद और भयानक सामरिक ग़लती. एक छोटे से द्वीपीय देश के लिए भू-अर्थशास्त्र की क़ीमत पर भू-राजनीति के खेल खेलना बहुत जोखिम भरा क़दम हो सकता है. किसी के लिए भी हिंसक विचारधाराओं को अपनाना, ख़ुद उसके हितों को नुक़सान पहुंचाता है और उसका राजनीतिक बचकानापन दिखाता है, जिससे नया नया घमंड पालने वाला मालदीव निपटना तो दूर, उसको समझ पाने में भी नाकाम है. भारत पर थूकना और उसको अपनी भू-राजनीतिक ताक़त दिखाने के प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल करना आसान है. लेकिन, राष्ट्रपति मुइज़्ज़ू अरब सागर के बीचोबीच आग से खेल रहे हैं. भारत को कुछ करने की ज़रूरत नहीं है. मालदीव की इस नफ़रत से ख़ुद उसके यहां ही सियासी विस्फोट होगा.

धार्मिक कट्टरपंथ

मालदीव जिस पहली चुनौती का सामना कर रहा है, वो इस्लामिक आतंकवाद के प्रति उसका बढ़ता नैतिक और धार्मिक लगाव है. प्रति व्यक्ति को आधार बनाएं तो इस्लामिक स्टेट को सबसे ज़्यादा आतंकवादी मालदीव ने मुहैया कराए हैं. 2014 से 2018 के बीच सीरिया और इराक़ में इस्लामिक स्टेट की तरफ़ से लड़ने के लिए मालदीव से 250 से ज़्यादा औरतें और मर्द गए थे. ये हर दो हज़ार नागरिकों पर एक का औसत है. इस्लामिक स्टेट के इस्तेमाल करो और फेंको वाले रवैये की वजह से मालदीव के इन 250 नागरिकों में से ज़्यादातर की मौत हो गई थी, और लगभग 50 अभी भी वहां के शिविरों में हैं. इसके बावजूद, मालदीव के कई नागरिक अभी भी आतंकवादी बनने और इस्लामिक स्टेट की ख़िदमत करने के लिए बेताब हैं. ये भारत के लिए भी एक ख़तरा है, जिससे मौजूदा सरकार हर क़ीमत पर रोकने या निपटने की कोशिश करेगी. चूंकि अब मुइज़्ज़ू ने अपने ‘इंडिया आउट’ अभियान की वजह से दोनों देशों की जनता के बीच संपर्क का रास्ता बंद कर दिया है, तो अब मुइज़्ज़ू को चाहिए कि वो आतंकवाद के प्रति ज़ीरो टॉलरेंस की नीति के तहत भारत द्वारा आतंकवादियों का निर्यात रोकने और कड़ी कार्रवाई वाले क़दमों का सामना करने के लिए तैयार रहें.

मुइज़्ज़ू को ये समझने की भी ज़रूरत है कि पर्यटन और आतंकवाद अच्छे साझीदार नहीं हैं. देर सबेर ब्रिटेन, अमेरिका, जर्मनी इटली और फ्रांस से उसके यहां घूमने आने वाले लोग- जहां से कुल मिलाकर हर साल 530,000 यानी शीर्ष के तीन देशों (भारत, रूस और चीन) से भी ज़्यादा पर्यटक आते हैं- वो यू-टर्न लेंगे और सुरक्षित छुट्टियां मनाने के लिए मालदीव के पड़ोस में स्थित मॉरीशस, सेशेल्स, श्रीलंका और लक्षद्वीप का रुख़ करेंगे. और अगर चीन के पर्यटक ये समझते हैं कि तब उनके लिए राह आसान हो जाएगी, तो उन्हें याद रखना चाहिए कि अगर आतंकवाद का कोई मज़हब नहीं होता, तो उसके शिकार बनाने में भी कोई प्राथमिकता नहीं तय होती. जब कोई बम धमाका होता है, तो उसके टुकड़े राष्ट्रीयताओं या फिर नस्लों के इर्द-गिर्द बौद्धिक बहस में नहीं पड़ते हैं.

आतंकवाद और पर्यटन के बीच ये टकराव मालदीव की नसों के भीतर घुसपैठ कर चुका है. विस्फोटों से लेकर, बौद्ध खंडहरों में तोड़-फोड़ और योग दिवस के जश्न में खलल डालने तक आज वहां के आतंकवादी अपने ही मुल्क के पर्यटन के ठिकानों को आग के हवाले कर रहे हैं.

ये बम तो ख़ुद अपने लोगों को माफ़ नहीं करते. मई 2021 में एक धमाके में मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति मुहम्मद नशीद ज़ख़्मी हो गए थे. इससे पहले 2007 में मालदीव में पहला आतंकवादी हमला हुआ था, जब वहां जाने वाले हर सैलानी के एक अड्डे सुल्तान पार्क में धमाका हुआ था. 1978 से 2008 तक मालदीव के राष्ट्रपति रहे मामून अब्दुल गयूम ने इसके लिए पाकिस्तान को ज़िम्मेदार ठहराते हुए कहा था कि, ‘दुनिया में जो कुछ हो रहा है उससे मालदीव के लोग भी प्रभावित हो रहे हैं. वो पाकिस्तान जाते हैं. वहां के मदरसों में पढ़ते हैं और फिर कट्टरपंथी धार्मिक ख़यालात लेकर अपने देश लौटते हैं.’ ऐसे में मालदीव के लिए अगर अंदरूनी कलह का शिकार पाकिस्तान ही एक मिसाल है, तो उसकी अर्थव्यवस्था का डूबना तय है. कोई भी पर्यटक किसी ऐसे देश में घूमने नहीं जाना चाहेगा, जहां आतंकवाद और पर्यटन के बीच कोई टकराव दिखता हो.

आतंकवाद और पर्यटन के बीच ये टकराव मालदीव की नसों के भीतर घुसपैठ कर चुका है. विस्फोटों से लेकर, बौद्ध खंडहरों में तोड़-फोड़ और योग दिवस के जश्न में खलल डालने तक आज वहां के आतंकवादी अपने ही मुल्क के पर्यटन के ठिकानों को आग के हवाले कर रहे हैं. मुइज़्ज़ू की सरकार ने अपने मंत्रियों की नस्लवादी टिप्पणी का ये कहकर बचाव करने की कोशिश की थी कि मालदीव में बोलने की आज़ादी है. हालांकि, मालदीव की कस्टम सर्विस के मुताबिक़, आप वहां भगवत गीता, बाइबिल या ‘ऐसी कोई भी धार्मिक सामग्री लेकर नहीं जा सकते, जो इस्लाम के लिए अपमानजनक हो.’ शायद मुइज़्ज़ू सरकार की अभिव्यक्ति की आज़ादी का मतलब केवल उग्रवादियों को खुली छूट देने से है.

अगर धार्मिक कट्टरवाद उसकी राष्ट्रीय नीति का हिस्सा है, तो वो मालदीव को मुबारक हो; और अगर ऐसा नहीं है, तो इस मोर्चे पर राष्ट्रपति मुइज़्ज़ू की ज़िम्मेदारी बिल्कुल स्पष्ट है- वो आतंकवाद की आपूर्ति श्रृंखलाओं को तहस-नहस करें और आतंकवाद के इकोसिस्टम का ख़ात्मा करें. वरना, उसका भी भविष्य वैसा ही होगा, जो आज के पाकिस्तान का दिख रहा है.

चीन को गले लगाने की भयंकर सामरिक ग़लती करना

मालदीव को तबाह करने वाला जो दूसरा भयानक क़दम है, वो मुइज़्ज़ू सरकार का अपने देश को चीन के हाथों का खिलौना बनाना है. उनका कामयाब चुनावी अभियान ‘इंडिया आउट’ के नारे के इर्द गिर्द केंद्रित था. उसी अभियान को आगे बढ़ाते हुए, मुइज़्ज़ू ने अपनी विदेश नीति की शुरुआत पांच दिन के चीन दौरे से की है. वो चीन को ‘मूल्यवान साथी और अटूट सहयोगी’ बताते हैं. अगर, वो ऐसा चीन को लेकर अपनी कमज़ोर समझ की वजह से कर रहे हैं, तो उन्हें बस श्रीलंका के हालात का अध्ययन कर लेना चाहिए, जो चीन द्वारा वित्त को हथियार बनाने का खामियाज़ा भुगत रहा है और जहां पर चीन, श्रीलंका को क़र्ज़ के बोझ से राहत देने की राह में रोड़ा बनकर खड़ा हुआ है.

शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन, एक अराजक देश बन गया है, जिसके सबसे क़रीबी दोस्त उसके रहम-ओ-करम पर निर्भर देश जैसे कि पूरब में उत्तर कोरिया, और पश्चिम में पाकिस्तान हैं. जैसा कि पाकिस्तान के उदाहरण से स्पष्ट है कि ये ध्रुव अराजकता की ओर अग्रसर है. अब अगर मालदीव भी इसी समूह का हिस्सा बनना चाहता है, तो ये उसका अपना फ़ैसला है. लेकिन, इस फ़ैसले के गंभीर नतीजे निकलेंगे. इसमें से एक तो भारत को नाराज़ करने का होगा. ये ऐसी बात है, जो चीन को भी पता है और वो इसकी साज़िश रच रहा है.

चीन की कम्युनिस्ट पार्टी जो अब ‘चेयरमैन ऑफ एवरीथिंग’ शी जिनपिंग के शिकंजे में है, उसके लिए मालदीव में पैर टिकाने का ठिकाना मिलना, भारत की घेरेबंदी की उसकी बड़ी योजना का ही एक हिस्सा है. मुइज़्ज़ू एक ऐसी सरकार के मुखिया के तौर पर याद किए जाएंगे, जिन्होंने इस साज़िश में मदद की और अपने देश को चीन का ग़ुलाम बनाकर उसे शी जिनपिंग के रहम-ओ-करम पर छोड़ दिया. तब मालदीव की जनता की क़िस्मत बीजिंग से तय हुआ करेगी और वो महज़ एक सामरिक मोहरा बनकर रह जाएगा, जिसे चीन की सेना इस्तेमाल करके फेंक देगी. 

चीन की कम्युनिस्ट पार्टी जो अब ‘चेयरमैन ऑफ एवरीथिंग’ शी जिनपिंग के शिकंजे में है, उसके लिए मालदीव में पैर टिकाने का ठिकाना मिलना, भारत की घेरेबंदी की उसकी बड़ी योजना का ही एक हिस्सा है.

मुइज़्ज़ू का चीन से नज़दीकी बढ़ाने का एक नतीजा उनके देश के दिवालिया होने की शक्ल में सामने आएगा. निश्चित रूप से दिवालिएपन का ख़तरा तब तक नज़रों से ओझल रहता है, जब तक क़र्ज़ देने वाले देश उस पर सवाल नहीं होंगे. पैसा तब तक आकर्षक लगता है, जब तक उसे देने के पीछे लगाई गई अस्पष्ट शर्तें टकराव की स्थिति तक नहीं पहुंच जातीं. पाकिस्तान और कीनिया से लेकर ज़ैम्बिया और मंगोलिया तक, दुनिया के कई देश चीन के क़र्ज़ के बोझ तले दबकर कराह रहे हैं. श्रीलंका भी इसका एक उदाहरण है. चीन की वजह से न केवल श्रीलंका में 500,000 नौकरियां अचानक गुम हो गईं, बल्कि उसको भयंकर महंगाई के ऐसे दौर से भी जूझना पड़ा, जो 2023 में 60 फ़ीसद तक पहुंच गई थी. इसके बाद चीन ने श्रीलंका को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से क़र्ज़ की रिस्ट्रक्चरिंग की राहत लेने से भी रोक दिया. अगर, श्रीलंका को भारत से वित्तीय मदद और क़र्ज़ में रियायत की सहायता नहीं मिली होती, तो वो अब तक पूरी तरह तबाह हो चुका होता.

अगर मालदीव सुधार नहीं करता, तो दुनिया भर से आने वाले पर्यटकों से गुलज़ार रहने वाले इसके ख़ूबसूरत द्वीप जल्दी ही सुनसान हो जाएंगे. लेकिन, मालदीव की डूबती सामरिक क़िस्मत की ये तो महज़ एक मामूली सी झलक होगी. मालदीव को चाहिए कि वो इस्लामिक कट्टरपंथ और चीन के दो पाटों में फंसने पर विचार करे और उससे बचने पर ध्यान केंद्रित करे. अंतरराष्ट्रीय सामरिक समुदाय को ये बात लंबे समय से पता है. अब ज़्यादातर भारतीय भी ये समझ रहे हैं. आख़िर में ‘बौद्धिक जन’ जो मोदी सरकार से ये मांग कर रहे हैं कि वो मालदीव को अलग-थलग करने वाली कंपनियों को रोकें, वो सामरिक ग़लतफ़हमी और कारोबार करने की आज़ादी को लेकर एक अज्ञानता के दौर में जी रहे हैं- कि अगर एक कंपनी कारोबार करने से मना कर देती और दूसरी नहीं करती, तो सरकार इस मामले में दखल नहीं देती और उसे देना भी नहीं चाहिए.

भारत को ये भी समझना चाहिए कि आज मालदीव की कमान एक ऐसे नेता के हाथ में है, जो साफ़ तौर से भारत से दूरी बनाना चाहते हैं. ये तो बस एक संकट आने की बात है, मसलन सुनामी, और मुइज़्ज़ू सरकार को अपनी भू-राजनीति का ‘भूगोल’ बहुत आसानी से से समझ में आ जाएगा.

जहां तक भारत की बात है, तो उसे मालदीन की इन हरकतों पर बारीक़ी से नज़र रखनी चाहिए, अच्छा पड़ोसी बने रहना चाहिए और ज़रूरत पड़ने पर मदद भी करनी चाहिए. लेकिन, भारत को ये भी समझना चाहिए कि आज मालदीव की कमान एक ऐसे नेता के हाथ में है, जो साफ़ तौर से भारत से दूरी बनाना चाहते हैं. ये तो बस एक संकट आने की बात है, मसलन सुनामी, और मुइज़्ज़ू सरकार को अपनी भू-राजनीति का ‘भूगोल’ बहुत आसानी से से समझ में आ जाएगा. बीजिंग से माले की दूरी 5,800 किलोमीटर है. वो जिबूती से 3,500 किलोमीटर दूर स्थित है, कराची से 3,400 किलोमीटर और कोलंबो से 766 किलोमीटर की दूरी पर आबाद है; वहीं, तिरुवनंतपुरम से मालदीव की दूरी केवल 600 किलोमीटर है. अब अगर तमाम मसलों को इस ‘भूगोल’- स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा की लागत; व्यापार की क़ीमत; ज़्यादा दूरी से आने पर सामान की ज़्यादा क़ीमत; और जल्दी ही दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी बनने जा रही 4 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था तक पहुंच से जोड़ कर देखिए. अगर मुइज़्ज़ब की ‘इंडिया आउट’ की राजनीति भारत को इस ‘भूगोल’ में पराजित करती है, तो मालदीव की जनता के अपने हितों को समझने और जनभावना के ‘मुइज़्ज़ू आउट’ में तब्दील होने में बस अगले चुनाव तक का वक़्त लगेगा.

200 आबाद द्वीपों वाले इस देश के अगले चुनाव के मुद्दे, तबाह होती अर्थव्यवस्था, हिंसक उग्रवाद और ‘इंडिया इन’ के होंगे. मोदी उसी नीति पर चल रहे हैं, जिस पर भारत दशकों से चलता आया है. अभी तो भारत की दोस्ती का पैग़ाम लेकर आया जहाज़, मालदीव के बंदरगाह पर ही खड़ा है; अब मुइज़्ज़ू इस पैग़ाम का क्या जवाब देते हैं, वो ही आने वाले कुछ समय तक भारत और मालदीव के रिश्तों को तय करेगा. छोटे देशों का बड़े देशों की होड़ का मोहरा बनना तब तक मज़ा देता है, जब तक दिवालियापन और अपने हितों की राजनीति दरवाज़े पर दस्तक नहीं देने लगती.

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