दो वर्षों के अंतराल के बाद 8 और 9 जुलाई को हुए रूस और भारत के 22वें वार्षिक शिखर सम्मेलन ने सभी का काफ़ी ध्यान आकर्षित किया. तो, रूस में इस शिखर सम्मेलन को लेकर क्या राय रही और इससे भारत और उसकी व्यापक महत्वाकांक्षाओं के संदर्भ में रूस की विदेश नीति के बर्ताव के बारे में हमें क्या पता चलता है?
नैरेटिव का निर्माण
प्रधानमंत्री मोदी लगातार तीसरी बार चुनाव जीतने के बाद अपने पहले पहले द्विपक्षीय दौरे में रूस गए थे. इस वजह से रूस की परिचर्चाओं में इसे काफ़ी अहमियत दी गई थी. हालांकि, इससे भी ज़्यादा ख़बरें मोदी के इस दौरे को लेकर पश्चिमी मीडिया में आई प्रतिक्रियाओं से जुड़ी थीं. इनमें ब्लूमबर्ग और दि वॉशिंगटन पोस्ट की ख़बरें शामिल थीं, जिनमें मोदी के दौरे को रूस के नज़रिए को मज़बूती मिलने के तौर पर देखा गया था. रूस के लिए इस शिखर सम्मेलन की व्यापक पृष्ठभूमि पश्चिमी देशों के साथ टकराव का नैरेटिव थी. क्रेमलिन के प्रवक्ता दिमित्री पेस्कोव ने कहा कि इस दौरे को लेकर पश्चिमी देश ‘ईर्ष्यालु’ हो रहे हैं. अमेरिका का ये बयान कि उसने रूस के साथ रिश्तों को लेकर भारत से अपनी चिंताएं जताई थी. ये बयान भी रूस के इसी नैरेटिव को बढ़ाने वाला है.
रूस के लिए इस शिखर सम्मेलन की व्यापक पृष्ठभूमि पश्चिमी देशों के साथ टकराव का नैरेटिव थी. क्रेमलिन के प्रवक्ता दिमित्री पेस्कोव ने कहा कि इस दौरे को लेकर पश्चिमी देश ‘ईर्ष्यालु’ हो रहे हैं.
इन बयानों की तह में रूस के दो मुख्य संदेश छुपे हुए हैं: पश्चिम, अन्य देशों की विदेश नीति के मामले में स्वतंत्रता को सीमित करने की कोशिश कर रहा है, और भारत ने इस दबाव का कामयाबी से विरोध किया है. ये बातें रूस की विदेश नीति के दो व्यापक विचारों का हिस्सा हैं: रूस के मुताबिक़ ‘वैश्विक बहुमत’ के विरोध के बीच पश्चिमी देश रूस को अलग थलग करने की अपनी कोशिशों में नाकाम रहे हैं और इसका बहुध्रुवीय विश्व के निर्माण पर असर पड़ रहा है. इस व्याख्या के तहत, यूक्रेन में चल रहा युद्ध भी दुनिया के बहुध्रुवीय होने की दिशा में बढ़ने का एक हिस्सा है. इस तरह से रूस ख़ुद को इन घटनाओं में एक अहम खिलाड़ी के तौर पर पेश कर पाता है.
इसी से जुड़ा एक पहलू पूर्व के उभार पर ध्यान केंद्रित करने का भी है, जो ब्रिक्स और शंघाई सहयोग संगठन (SCO) जैसे संगठनों को नई व्यवस्था के बुनियादी स्तंभ समझने वाले रूस के आधिकारिक दृष्टिकोण से मिलता जुलता है; इसके अंतर्गत भारत और चीन के साथ रूस के रिश्तों पर रौशनी पड़ती है. रूस, सुरक्षा के जिस यूरेशियाई ढांचे के निर्माण की बात करता है, वो भी इसी से मेल खाती है, जिसके तहत अहम पूर्वी देशों पर अधिक ध्यान केंद्रित करने की ज़रूरत आती है.
नतीजों की व्याख्या
मोदी के दौरे को इस तरह से प्रस्तुत किए जाने का अर्थ ये है कि इस दौरे के आख़िर में कोई ठोस सौदा न होने को एक फ़ौरी नकारात्मक नज़रिए से नहीं देखा गया. इसके बजाय रूस ने ये राय क़ायम की कि इस शिखर सम्मेलन ने द्विपक्षीय संबंधों को स्थिरता प्रदान की है. राष्ट्रपति के सलाहकार मैक्सिम ओरेशकिन ने एलान किया कि मोदी और पुतिन की वार्ता का प्रमुख आर्थिक नतीजा तो 2030 तक रूस और भारत के बीच सहयोग के सामरिक क्षेत्रों के विकास से जुड़ा बयान था, जिसने भविष्य की योजना की एक रूप-रेखा स्थापित कर दी है. विदेश मंत्री सर्जेई लावरोव ने इस तथ्य पर ज़ोर दिया कि एक अच्छी बुनियाद रख दी गई है और सहयोग की सभी प्रमुख दिशाओं को रेखांकित कर दिया गया है, और उन्हें लागू करने की वार्ताएं भी होंगी.
राष्ट्रपति के सलाहकार मैक्सिम ओरेशकिन ने एलान किया कि मोदी और पुतिन की वार्ता का प्रमुख आर्थिक नतीजा तो 2030 तक रूस और भारत के बीच सहयोग के सामरिक क्षेत्रों के विकास से जुड़ा बयान था, जिसने भविष्य की योजना की एक रूप-रेखा स्थापित कर दी है.
ये स्पष्ट है कि तमाम चुनौतियों के बावजूद रूस ने इसका अर्थ एक सकारात्मक संकेत के तौर निकाला है. तेल के रिकॉर्ड आयात, संभावित परमाणु ऊर्जा केंद्रों को लेकर वार्ताओं, कनेक्टिविटी, सैन्य और तकनीकी सहयोग (MTC और रूस के सुदूर पूर्व के साथ संपर्क बढ़ाने की वजह से भारत, रूस का एक अहम व्यापारिक साझीदार बनकर उभरा है. इसके अलावा, भविष्य में आर्थिक सहयोग को लेकर परिचर्चाएं भी हौसला बढ़ाने वाली रही हैं. चूंकि पूर्व की ओर रुख़ करने की प्रक्रिया में समय लगने की संभावना है, और एक रिपोर्ट में तो ये कहा गया है कि इसमें 10-15 वर्ष लग सकते हैं. ऐसे में ये मुमकिन है कि रूस, भारत के साथ रिश्तों की इस रूप-रेखा में मोदी के दौरे को इस प्रक्रिया के एक क़दम के तौर पर देखता है. इसीलिए, शिखर सम्मेलन के दौरान सौदों के स्पष्ट रूप से ज़िक्र न होने को भी पूरी तरह नकारात्मक नज़रिए से नहीं देखा गया.
इसके अतिरिक्त, तमाम बहुपक्षीय मंचों पर भारत के साथ संवाद से रूस को जो लाभ हुए हैं उन्हें भी रिश्तों के एक फ़ायदे के तौर पर देखा गया. सच तो ये है कि विदेश मंत्री सर्जेई लावरोव ने तो इस शिखर सम्मेलन को लेकर हुई परिचर्चाओं में इस बात को रेखांकित किया कि रूस, G20 के एजेंडे के यूक्रेनीकरण से बचने में भारत की भूमिका और संयुक्त राष्ट्र में एक दूसरे से काफ़ी मेल खाने वाली भूमिकाओं को काफ़ी मूल्यवान मानता है.
रूस की विदेश नीति का संचालन
यहां पर भारत के साथ रिश्तों की अहमियत को, विशेष रूप से पश्चिमी देशों के साथ संबंध टूटने और चीन के ऊपर बढ़ती निर्भरता के चलते अन्य देशों के साथ एक संतुलित संपर्क के निर्माण के प्रयासों के हिस्से के तौर पर भी देखा जाना चाहिए. 2021 में अपनी संशोधित राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति में अपनी विदेश नीति के लक्ष्य हासिल करने के प्रयासों के तौर पर रूस ने पहली बार भारत और चीन के साथ रिश्तों के निर्माण का ज़िक्र एक साथ किया (न कि चीन के बाद भारत का नाम था). 2023 की विदेश नीति की परिकल्पना में भी चीन और भारत को अलग अलग शीर्षकों के तहत एक साथ रखा गया था, जिसका लक्ष्य यूरेशिया में ‘दोस्ताना ताक़तों’ के साथ संबंधों का निर्माण करना था.
जहां चीन रूस का एक अहम रणनीतिक साझीदार बनकर उभरा है, वहीं इसी वजह से रूस को अन्य ग़ैर पश्चिमी देशों के साथ भी रिश्तों में विविधता लाने की ज़रूरत भी महसूस हुई है; इस वजह से भारत के साथ सामरिक साझेदारी ख़ास तौर से अहम हो गई है. लेकिन, यहां पर एक गंभीर चुनौती, भारत और चीन के बीच बढ़ते तनाव की वजह से पैदा हो गई है, जिसमें भारत और रूस के रिश्तों के बहुत उम्मीद भरे मूल्यांकनों में भी चीन और रूस के संपर्क को लेकर चिंताएं जताई जाती हैं. भारी व्यापार के बावजूद भविष्य में सहयोग को लेकर अनिश्चितताओं के बीच विशेषज्ञ तो नियमित रूप से भारत और रूस के एक दूसरे के विरोधी खेमों में शामिल होने और नई बुनियादों के निर्माण की ज़रूरत पर बल देते रहे हैं.
भले ही ये कामयाबी का सटीक नुस्ख़ा न हो. पर इससे ये तो पता चलता ही है कि एक ‘उभरती हुई बहुध्रुवीय और बहुपक्षीय विश्व व्यवस्था में’ रूस अपनी हैसियत और इसके अंतर्गत भारत की भूमिका को किस नज़रिए से देखता है.
वैसे तो हालात में कोई तब्दीली नहीं आई है. पर ये तर्क दिया जाता रहा है कि ग़ैर पश्चिमी देशों के बीच ऐसे विरोधाभासों के चलते हर देश के लिए रूस को अलग नीति अपनाने की ज़रूरत है. इसीलिए, ज़ोर इस बात पर है कि रूस और भारत अपने ख़ास मक़सदों को हासिल करने के लिए, अपने राष्ट्रीय हितों के मुताबिक़ अन्य ताक़तों के साथ अपने रिश्तों से समझौता किए बग़ैर वो एक दूसरे को कितना अहम मानते हैं. अस्थिर अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को देखते हुए दोनों देशों की तरफ़ से ऐसे दांव पेंच जारी रहने की अपेक्षा की जा सकती है. ये तर्क भी रूस के उस नैरेटिव में फिट बैठता है कि ‘दुनिया का बहुमत’ विदेश नीति के मामले में (अमेरिका और उसके साथियों के उलट) स्वतंत्र रुख़ अपनाता है; ये बात भारत और रूस द्वारा आपसी हितों के मामले में सहयोग करने के तौर पर भी दिखाई देती है.
इस तरह हम देख सकते हैं कि मोदी का मॉस्को दौरा किस तरह से रूस की विदेश नीति के पुनर्निर्माण का हिस्सा बन गया, व्यवहारिक तौर पर भी और वैचारिक संदर्भ में भी. भले ही कई बार इनमें से कुछ पहलू दूसरे पर हावी हो जाते हैं. फिर भी रूस दोनों पहलुओं पर भारत के साथ संपर्क को मूल्यवान मानता है. भले ही ये कामयाबी का सटीक नुस्ख़ा न हो. पर इससे ये तो पता चलता ही है कि एक ‘उभरती हुई बहुध्रुवीय और बहुपक्षीय विश्व व्यवस्था में’ रूस अपनी हैसियत और इसके अंतर्गत भारत की भूमिका को किस नज़रिए से देखता है. जबकि ‘विश्व बहुमत’ और यूरेशिया को लेकर रूस की नीति अभी बनने की प्रक्रिया से ही गुज़र रही है. अब भारत किस हद तक रूस के दृष्टिकोण का अपने विज़न से मिलान देखता है, ये ज़ाहिर होना बाक़ी है.
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