केंद्र में नई सरकार के गठन की तस्वीर साफ हो गई है. नरेन्द्र मोदी लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बनेंगे. हालांकि दो कार्यकाल में पूर्ण बहुमत की सरकार चलाने के बाद इस बार उन्हें कुछ हद तक सहयोगी दलों के भरोसे रहना पड़ेगा, लेकिन चुनाव नतीजों के बाद मोदी के पहले संबोधन में यह झलका कि सुधारों की गति पर कोई असर नहीं पड़ेगा. राजनीतिक परिदृश्य पर जनादेश की अलग-अलग व्याख्या हो सकती है, मगर विदेश नीति और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की सक्रियता को लेकर कुछ विशेष नहीं बदलेगा.
विदेश नीति के मोर्चे पर निरंतरता ही दिखाई पड़ेगी, जिसमें प्रधानमंत्री मोदी की छाप भी दिखेगी. भारतीय शासन प्रणाली विदेश नीति में प्रधानमंत्री कार्यालय की सक्रियता की विशेष गुंजाइश देती है. यही कारण है कि प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू से लेकर पीएम मोदी तक यह सिलसिला लगातार कायम रहा है. प्रधानमंत्री मोदी ने विदेश नीति में विशेष रुचि लेते हुए उसे और जीवंत एवं गतिशील बनाया. उन्होंने अतीत की कई हिचक तोड़कर भविष्य की दृष्टि से कई साहसिक एवं सकारात्मक फैसले भी लिए, जिनका भारत को व्यापक रूप से लाभ मिला.
राजनीतिक दबावों से मुक्त विदेश नीति
विदेश नीति मुख्यत: राजनीतिक दबावों से मुक्त रहती है. गठबंधन की सरकारों में भी यही रवैया देखने को मिला है. अपवाद सरीखी स्थितियों में गठबंधन के सहयोगियों के दबाव में कुछ समायोजन या तात्कालिक समझौते करने पड़ते हैं. जैसे मनमोहन सिंह सरकार के दौरान भारत बांग्लादेश के साथ नदी जल से जुड़े एक समझौते को लेकर आगे बढ़ना चाहता था, लेकिन गठबंधन में सहयोगी तृणमूल कांग्रेस के दबाव के चलते सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पड़े. कभी-कभार द्रमुक जैसे दल के दबाव का असर भारत की श्रीलंका नीति पर भी देखने को मिला है, लेकिन ऐसा कोई संभावित दबाव मोदी सरकार पर दिखने के आसार नहीं हैं. एक तो भाजपा बहुमत से बहुत ज्यादा दूर नहीं है और वह समर्थन के लिए जदयू और तेलुगु देसम जैसे जिन दलों के समर्थन पर कुछ हद तक निर्भर रहेगी, उनके किसी पड़ोसी देशों के साथ हितों का ऐसा कोई टकराव नहीं कि सरकार को अपना रुख-रवैया बदलना पड़े.
भाजपा बहुमत से बहुत ज्यादा दूर नहीं है और वह समर्थन के लिए जदयू और तेलुगु देसम जैसे जिन दलों के समर्थन पर कुछ हद तक निर्भर रहेगी, उनके किसी पड़ोसी देशों के साथ हितों का ऐसा कोई टकराव नहीं कि सरकार को अपना रुख-रवैया बदलना पड़े.
भारत की विदेश नीति में चीन और पाकिस्तान हमेशा से महत्वपूर्ण पहलू रहे हैं. इन देशों के साथ दृढ़ता से निपटना मोदी सरकार की एक विशेषता रही है. इसमें पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक से लेकर एयर स्ट्राइक और चीन के खिलाफ डोकलाम और लद्दाख जैसे उदाहरण गिनाए जा सकते हैं. चूंकि मोदी का राजनीतिक आधार मामूली रूप से सिकुड़ा है तो देखना होगा कि इस मोर्चे पर कैसी परिस्थितियां आकार लेती हैं. चीन और पाकिस्तान संभवत: इसका आकलन मोदी के कमजोर होने के रूप में करें और भारत को परेशान करने का प्रयास करें, लेकिन उनके किसी भी दुस्साहस का पूर्व की तरह कड़ा जवाब ही मिलेगा.
पाकिस्तान और चीन के मसले पर
पाकिस्तान और चीन के मसले पर भारत में किसी भी सरकार को सदैव व्यापक राजनीतिक समर्थन मिलता रहा है. चाहे पूर्वी पाकिस्तान के बांग्लादेश बनने के लिए छिड़ा संघर्ष हो या कारगिल युद्ध, उस समय के विपक्ष ने भी तत्कालीन सरकारों का पूरा-पूरा सहयोग किया. ऐसे में यही उम्मीद है कि चीन और पाकिस्तान के मामले में मोदी के निर्णायक फैसलों वाली नीति कायम रहेगी.
इस कार्यकाल में प्रधानमंत्री मोदी की एक चुनौती अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रमों से तालमेल बिठाने की होगी. विदेश नीति ऐसा संवेदनशील विषय है कि इसमें कई कारकों पर आपका कोई नियंत्रण नहीं रहता और संतुलन के ऐसे समीकरण बनाने पड़ते हैं कि एक पक्ष को साधने के फेर में कहीं दूसरा साथी न छिटक जाए. वैश्विक नेताओं के साथ अपने सहज रिश्तों के माध्यम से मोदी राष्ट्रीय हितों को पोषित करने में सफल रहे हैं, लेकिन निरंतर बदलती एवं विभाजित दुनिया में उनके लिए यह काम और कठिन होगा.
चीन और पाकिस्तान के मामले में मोदी के निर्णायक फैसलों वाली नीति कायम रहेगी.
जहां रूस और यूक्रेन के बीच छिड़ा युद्ध थमने का नाम नहीं ले रहा है, वहीं पश्चिम एशिया में टकराव के नए मोर्चे खुल गए हैं. अमेरिका और चीन के बीच भी तल्खी निरंतर बढ़ने पर है. इस बीच भारत ने रूस के साथ ही उसके विरोधी पश्चिमी देशों के साथ भी अपने संबंधों को बेहतर बनाए रखा. पश्चिम एशिया के संघर्ष में उसने इजरायल को भी अकेला नहीं छोड़ा और उसके विरोधी देशों के साथ भी संबंध बढ़िया बनाए रखे. ऐसी स्थितियों में मोदी के लिए भारत-पश्चिम एशिया-यूरोप के आर्थिक गलियारे के निर्माण को गति देने के लिए अतिरिक्त प्रयास करने होंगे, जिस पर सहमति गत वर्ष नई दिल्ली के जी-20 सम्मेलन में बनी थी.
चुनावों के दौरान ही सरकार ने ईरान से चाबहार बंदरगाह के लिए अनुबंध को अंतिम रूप दिया. वह भी तब जब अमेरिका ने ईरान पर तमाम प्रतिबंध लगा रखे हैं. इसे लेकर भारत ने अपने हितों को प्राथमिकता दी, क्योंकि वह चाबहार की महत्ता को समझता है और यदि भारत उसके लिए आगे नहीं आता तो चीन इस अवसर की ताक में ही बैठा था. इस अनुबंध का श्रेय मोदी की दूरदर्शी एवं व्यावहारिक विदेश नीति को जाता है.
एक ऐसे समय में जब सरकारों को पांच साल के सत्ता विरोधी रुझान के चलते बाहर का रास्ता देखना पड़ता है, उस दौर में भारत जैसे विविधतापूर्ण एवं विशाल देश में दस साल की सत्ता के बाद लगातार तीसरी बार सरकार बनाने से जुड़ा मोदी का यह करिश्मा उनके अंतरराष्ट्रीय प्रभाव में और बढ़ोतरी करने जा रहा है. चुनौतीपूर्ण वैश्विक आर्थिक परिदृश्य में उनके कुशल आर्थिक प्रबंधन की भी खूब वाहवाही हुई है. कोविड महामारी से लेकर विभिन्न वैश्विक घटनाओं के समय सक्रिय रहे मोदी ने अपनी गतिविधियों से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने लिए प्रतिष्ठा अर्जित की है.
संकेत अच्छे
अब तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने की उनकी उपलब्धि दुनिया के कई लोकतांत्रिक देशों को चमत्कृत करेगी. इससे उनका कद एवं रुतबा और बढ़ेगा. इसका लाभ भारत को भी उसी अनुपात में मिलेगा. तीसरे कार्यकाल में मोदी ने भारत को दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बनाने का वादा किया है और वह भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के प्रति भी संकल्पबद्ध हैं. इन संकल्पों के तार अंतरराष्ट्रीय सक्रियता से भी जुड़े हुए हैं. मोदी के प्रभाव का लाभ भारत को व्यापार, रक्षा उत्पादन और तकनीकी हस्तांतरण पर भी मिलने की उम्मीद है.
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