Author : Kabir Taneja

Published on Jul 18, 2023 Updated 0 Hours ago
क़ाहिरा में मोदी: भारत और मिस्र के रिश्तों में गर्मजोशी लाने की कोशिश

पिछले कुछ वर्षों के दौरान, भारत और मिस्र के बीच आपसी सहयोग में तेज़ी से बढ़ोत्तरी की जा रही है. इसकी ज़मीन तो भारत के विदेश और रक्षा मंत्रियों के साथ साथ सैन्य प्रमुखों के दौरे ने तैयार की थी. लेकिन, प्रधानमंत्री मोदी जब पिछले महीने काहिरा पहुंचे, तो वो 1997 के बाद मिस्र का दौरा करने वाले भारत के पहले प्रधानमंत्री बन गए. मौजूदा सरकार के तहत ये भारत द्वारा अपनी पश्चिमी एशिया नीति में किया जा रहा एक और सुधार है. मोदी सरकार पश्चिमी एशिया को आर्थिक, राजनीतिक और अप्रवासी भारतीयों के नज़रिए से प्राथमिकता दे रही है.

भारत ने सितंबर में होने वाले G20 शिखर सम्मेलन में भी मिस्र को आमंत्रित किया है.

मिस्र के राष्ट्रपति अब्देल फतेह अल-सिसी इसी साल जनवरी में गणतंत्र दिवस की परेड में मुख्य अतिथि के तौर पर भारत आए थे. भारत ने सितंबर में होने वाले G20 शिखर सम्मेलन में भी मिस्र को आमंत्रित किया है. भारत और मिस्र के बीच गुटनिरपेक्ष आंदोलन के दिनों से ही ऐतिहासिक रूप से नज़दीकी रिश्ते रहे हैं, जब पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और मिस्र के राष्ट्रपति गमाल अब्देल नासिर एक दूसरे के क़रीबी माने जाते थे. हालांकि, बाद के वर्षों में भारत और मिस्र के बीच दूरी आती गई. इसकी वजह एक तरफ़ तो मिस्र में लगातार सियासी उठा-पटक का बने रहना और दूसरी तरफ़ भारत द्वारा 1990 के दशक में उदारीकरण के बाद अपनी विदेश नीति में दूसरे क्षेत्रों को प्राथमिकता देना रहा था.

पश्चिमी एशिया की भू-राजनीति में मिस्र की स्थिति

भारत और मिस्र के रिश्तों में आ रहे इस सुधार के पीछे वैसे तो कई कारण हैं. लेकिन, जिस एक वजह के बारे में लोगों को कम ही पता है, उसका संबंध अपने पड़ोसी देशों और इस्लामिक मुल्कों से मिस्र के रिश्तों से है. मिस्र 2010 में शुरू हुई अरब क्रांति का प्रमुख केंद्र रहा था, जिसकी वजह से वहां के राष्ट्रपति होस्नी मुबारक का 30 बरस का शासनकाल समाप्त हो गया था. इस दौरान ख़ुद मिस्र के राजनीतिक भविष्य पर सवाल खड़े हो गए थे. क्योंकि, 1928 में एक स्कूल अध्यापक और इमाम हसन अल-बन्ना द्वारा शुरू किया गया मुस्लिम ब्रदरहुड और उसका सियासी इस्लाम बेहद ताक़तवर होकर मिस्र पर हावी हो गया था.

पश्चिमी एशिया में ये बदले हुए सियासी हालात, भारत जैसे देशों के लिए एक अच्छा मौक़ा हैं, जिनका लाभ उठाकर वो मिस्र के साथ अपने रिश्तों में नई जान डाल सकता है.

अरब क्रांति के बाद के दौर में मिस्र में कुछ वक़्त तक चुनावी लोकतंत्र का प्रयोग भी किया गया था. हालांकि, इलाक़ाई नज़रिए से देखें तो 2012 में मिस्र के चुनाव के नतीजे बहुत से लोगों के लिए स्वीकार्य नहीं थे. क्योंकि, मुस्लिम ब्रदरहुड के मुहम्मद मोरसी चुनाव जीत गए थे. वो किसी भी अरब देश के अगुवा बनने वाले पहले इस्लामिक नेता थे. इस वैचारिक चुनाव ने बहुत से लोगों को चिंता में डाल दिया. भारत के लिए भी ये वैचारिक विकल्प पसंदीदा नहीं था. मुहम्मद मोरसी अपने सैन्य तख़्तापलट से केवल तीन महीने पहले, 2013 में भारत के दौरे पर आए ज़रूर थे. जबकि भारत आम तौर पर सियासी इस्लाम के हर स्वरूप को उग्रवाद और ‘आतंकवाद’ के एक रूप के तौर पर देखता है. मज़े की बात तो ये है कि मोरसी के उस एक दिन के दौरे में बहुलतावाद एक प्रमुख एजेंडा था. उस वक़्त विदेश मंत्रालय में पश्चिमी एशिया और उत्तरी अफ्रीका के संयुक्त सचिव रहे राजी शहारे ने कहा था कि, ‘ये (बहुलतावाद) एक प्रमुख मसला है, जिसके बारे में मिस्र विचार करता रहा है.’ वैसे तो भारत दूरी बनाते हुए इस मुद्दे पर मिस्र से परिचर्चा कर सकता था. लेकिन, मिस्र के नज़दीकी पड़ोसी देशों के लिए मुस्लिम ब्रदरहुड का सियासत पर हावी होना बर्दाश्त के क़ाबिल नहीं था. अल-सिसी के नेतृत्व में मिस्र में मुस्लिम ब्रदरहुड पर पाबंदी लगी हुई है, और मिस्र ने सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) के साथ अपने रिश्ते काफ़ी हद तक सुधार लिए हैं. पश्चिमी एशिया में ये बदले हुए सियासी हालात, भारत जैसे देशों के लिए एक अच्छा मौक़ा हैं, जिनका लाभ उठाकर वो मिस्र के साथ अपने रिश्तों में नई जान डाल सकता है.

आगे की राह

जनवरी में मिस्र के राष्ट्रपति अल-सिसी का भारत दौरा और उसके बाद अब मोदी का मिस्र दौरा निश्चित रूप से दोनों देशों के रिश्ते के एक नए दौर के लिए मज़बूत बुनियाद मुहैया कराता है. वैसे तो आज मिस्र एक बड़े आर्थिक संकट का सामना कर रहा है. लेकिन, इस संकट में भी आपसी रूप से फ़ायदेमंद और उदारीकृत आर्थिक और व्यापारिक व्यवस्थाओं से पैदा हुए अवसरों का लाभ उठाकर सहयोग करने का मौक़ा है. इस दौरान दोनों देश मिलकर कुछ ऐसे बुनियादी ढांचे खड़े कर सकते हैं, जिससे आने वाले समय में हासिल किए जा सकने वाले मक़सदों पर काम किया जा सके. दोनों देशों के बीच कृषि, तकनीक, रक्षा, हरित वित्त, विकासशील देशों के बीच आपसी सहयोग, आतंकवाद और हिंसक उग्रवाद से मुक़ाबले के अलावा आपसी सहयोग के दूसरे कई मुद्दे पहले से ही उपलब्ध हैं. उन्हें केवल राजनीतिक इरादों और संसाधनों की दरकार है.

आज मिस्र की सेना रूसी और चीनी हथियार भी इस्तेमाल करती है, जिससे भविष्य में भारतीय कंपनियों के लिए भी अच्छे अवसर पैदा होने की उम्मीद जगती है.

हालांकि, दोनों देशों को आपसी सहयोग के लिए व्यवहारिक रूप से स्वीकार्य एजेंडा ही तय करना चाहिए. भारत ने हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) द्वारा स्वदेश में बनाए गए तेजस को बेचने के लिए जिस तरह पुरज़ोर कोशिश की गई, वो बड़े रक्षा सौदे करने के भारत के लक्ष्य को हासिल कर पाने में नाकाम रही. क्योंकि, घरेलू स्तर पर मिली कामयाबी को विदेश में व्यवहारिक तरीक़े से बेचने के बजाय, उसे कुछ ज़्यादा ही भुनाने की कोशिश की जा रही थी. वैसे तो इसका ये मतलब बिल्कुल नहीं है कि भविष्य में ऐसा सौदा नहीं हो सकता. लेकिन, बेहतर होगा कि रक्षा संबंधों को टुकड़ों में विकसित किया जाए और गैर शस्त्रीय औज़ारों, तकनीकों, सूचना प्रौद्योगिकी के समाधानों और यहां तक कि छोटे हथियार और सैन्य साज़-ओ-सामान के सौदे करने जैसे हासिल किए जाने वाले लक्ष्यों से शुरुआत की जाए, तो मिस्र की सेना का भरोसा जीतने और भारत के हथियारों की स्वीकार्यता बढ़ाने जैसे हासिल किए जा सकने वाले लक्ष्यों में कामयाबी मिल सकती है. मिस्र की सेनाएं, ऐतिहासिक रूप से रक्षा के क्षेत्र में अमेरिका से मिलने वाली मदद पर निर्भर रही हैं और वो आज भी अमेरिकी रक्षा तकनीकों जैसे कि F-15 लड़ाकू विमानों को इस्तेमाल करती रही हैं. इसका ये मतलब बिल्कुल नहीं है कि काहिरा ने अपने सैन्य संसाधनों में विविधता लाने की कोशिश नहीं की है. आज मिस्र की सेना रूसी और चीनी हथियार भी इस्तेमाल करती है, जिससे भविष्य में भारतीय कंपनियों के लिए भी अच्छे अवसर पैदा होने की उम्मीद जगती है.

आख़िर में भारत और मिस्र दोनों ही एक ऐसी दुनिया में दाख़िल हो रहे हैं, जहां उनके कुछ हित आपस में मेल खाते हैं. जैसे कि अमेरिका और चीन के बीच आगे चलकर दो-ध्रुवीय वैश्विक संघर्ष के बीच अपने लिए कुछ सुरक्षित जगह बनाना और यूक्रेन के साथ रूस के संघर्ष के बीच अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा करना. हालांकि, ये बात कहना जितना आसान है, करना उतना ही मुश्किल है. क्योंकि, अगर दक्षिणी एशिया में भारत कुछ मामलों में बहुध्रुवीय व्यवस्था का एक ध्रुव बनना चाहता है, तो वहीं पश्चिमी एशिया में सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) भी यही अपेक्षा रखते हैं. आज इनमें से बहुत से द्विपक्षीय और बहुपक्षीय संबंध ऐसे तालमेल से बंधे हुए हैं, जहां वो बड़ी ताक़तों के मुक़ाबले में अपने हितों की रक्षा कर सकें. ज़ाहिर है इन समीकरणों की वजह से आने वाले समय में इन देशों के बीच और वैश्विक व्यवस्था में भी कुछ प्रतिद्वंदिता पैदा होगी. भले ही कुछ लोगों की नज़र में ये नुक़सानदेह बात हो, लेकिन ये एक स्वस्थ परिकल्पना है, जिससे नुक़सान के बजाय फ़ायदा होने की उम्मीद ज़्यादा है.

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