Author : Nicole Rocque

Published on Jul 02, 2021 Updated 0 Hours ago

भारत की 130 करोड़ आबादी में से 71 प्रतिशत अपने आप को मांसाहारी बताती है और इनमें से 60 प्रतिशत कभी-कभी मांस खाती है

भारत की संपूर्ण आबादी के लिए पौष्टिक भोजन की चुनौती — स्मार्ट प्रोटीन का ‘विकल्प’

सामान्य ग़लतफ़हमी के विपरीत भारत की 130 करोड़ आबादी में से 71 प्रतिशत अपने आप को मांसाहारी बताती है (सैंपल रजिस्ट्रेशन सर्वे, 2014) और इनमें से 60 प्रतिशत कभी-कभी मांस खाती है. जवाब देने वालों ने अक्सर मांस न खाने की बड़ी वजह धार्मिक बाध्यता से ज़्यादा आमदनी की मजबूरी को बताया. ये बात समझ में आती है क्योंकि कम और मध्यम आमदनी वाले देशों में आय में बढ़ोतरी को परंपरागत तौर पर अनाज के मुक़ाबले मांस, फल और सब्ज़ी की ज़्यादा खपत की तरफ़ बदलाव से जोड़ा गया है. संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन के ‘पशु स्रोत वाले आहार  की आपूर्ति और मांग का पता लगाने वाली’ 2011 की रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में प्रति व्यक्ति मांस की खपत में अभी भी बढ़ोतरी हो रही है. 2040 तक भारत में पॉल्ट्री मांस की मांग में 850 प्रतिशत बढ़ोतरी होने का अनुमान है (1.05 मिलियन टन से बढ़कर 9.92 मिलियन टन प्रतिवर्ष). ये दुनिया के किसी भी क्षेत्र में सबसे ज़्यादा बढ़ोतरी में से एक है. 

भारत के दुनिया में सबसे ज़्यादा आबादी वाला देश बनने का पूर्वानुमान है. इसके साथ दूसरी वजहों जैसे आमदनी में बढ़ोतरी और सामाजिक आवागमन में तेज़ी को जोड़ दिया जाए तो भारत मांस और डेयरी उत्पादों की खपत में सबसे ज़्यादा योगदान वाले देशों में से एक होगा. मांग में बढ़ोतरी को उत्पादन में इज़ाफ़ा करके पूरा किए जाने की संभावना है जिसके लिए पैदावार में पर्याप्त लोगों की ज़रूरत होगी. पशु स्रोत वाले आहार की मांग में बढ़ोतरी के इस स्वरूप का संबंध पशुधन के क्षेत्र में आमूल-चूल बदलाव से है: विशाल, तेज़ बढ़ोतरी के लिए पशु उत्पाद के औद्योगिक मॉडल की तरफ़ बदलाव करने की ज़रूरत पड़ेगी जो लागत और उत्पादन के लिए तो सबसे अनुकूल तरीक़ा है लेकिन कम होते प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ाएगा. 

प्रोटीन विविधता की सख़्त ज़रूरत

प्रोटीन सप्लाई चेन में विविधता का संबंध भारत में अलग-अलग चुनौतियों से है

भारत में क्षेत्र विशेष में पोषण की कमी की दिक़्क़त है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे 2015-16 के मुताबिक़ पोषण के कई सूचकों में भारत का प्रदर्शन ख़राब है जिनमें पांच साल से कम उम्र के बच्चों में विकास में कमी (38 प्रतिशत) और लंबाई के मुताबिक़ वज़न में कमी (21 प्रतिशत) और वयस्क महिलाओं में एनीमिया (53 प्रतिशत) शामिल हैं. विशाल आबादी के साथ ज़्यादा कुपोषण के फैलाव का मतलब है कि भारत दुनिया भर में बाल और मातृ कुपोषण का सबसे ज़्यादा बोझ उठाता है. कम विकास वाले बच्चों की संख्या 2012 के 16.5 करोड़ की तुलना में 2025 तक 9 करोड़ 90 लाख करने के वैश्विक लक्ष्य यानी 40 प्रतिशत की कमी भारत के प्रदर्शन पर निर्भर है. ये इस पर निर्भर करता है कि भारत 2030 तक हर तरह के कुपोषण को मिटाने के लिए पोषण पर अपने टिकाऊ विकास लक्ष्य को हासिल करने में कितना आगे बढ़ पाता है. 

सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के भागीदारों को पूरे देश में प्रोटीन की खपत बढ़ाने की दिशा में पूंजी लगाने की ज़रूरत पड़ेगी. वैसे तो पौधे प्रोटीन के विश्वसनीय और पौष्टिक स्रोत हैं लेकिन इस दशक में उनके द्वारा मांस की खपत में बढ़ोतरी की जगह लेने के आसार नहीं हैं.

सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के भागीदारों को पूरे देश में प्रोटीन की खपत बढ़ाने की दिशा में पूंजी लगाने की ज़रूरत पड़ेगी. वैसे तो पौधे प्रोटीन के विश्वसनीय और पौष्टिक स्रोत हैं लेकिन इस दशक में उनके द्वारा मांस की खपत में बढ़ोतरी की जगह लेने के आसार नहीं हैं. सामाजिक-आर्थिक पिरामिड के हर स्तर पर, ख़ास तौर पर पिरामिड के निचले स्तर पर, भोजन की आदत और अलग-अलग जनसंख्या के वर्ग में खपत के प्रकार में मांग की महत्वपूर्ण संभावना लगती है. 

इस मांग को मौजूदा प्रोटीन आपूर्ति के सिस्टम से पूरा करने में बड़ा ख़तरा है. दुनिया भर में इकोसिस्टम को नुक़सान और पर्यावरण की ख़राब स्थिति के लिए पशु कृषि सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार है. इस असर को दिखाने में कई रिसर्च की गई है जिनमें साइंस जर्नल में प्रकाशित एक ताज़ा व्यापक अध्ययन बताता है कि मांस और डेयरी 83 प्रतिशत खेती की ज़मीन का इस्तेमाल करते हैं और कृषि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 60 प्रतिशत का योगदान देती है. इसमें कोई शक नहीं है कि भारत इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता- वर्तमान में भारत दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन के मामले में पांचवां अतिसंवेदनशील देश है. भारत प्राकृतिक संसाधनों पर काफ़ी ज़्यादा दबाव का सामना कर रहा है- इसमें अभी तक का सबसे ख़राब पानी का संकट शामिल हैं जहां 60 करोड़ भारतीय ज़्यादा से लेकर बहुत ज़्यादा तक पानी के संकट का सामना कर रहे हैं. 

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट “अगली महामारी की रोकथाम” बताती है कि इंसानों के लिए ख़तरा बनी 60 प्रतिशत ज्ञात संक्रामक बीमारी और 75 प्रतिशत नए संक्रामक रोग जानवरों से होते हैं. हमारी अभी तक की जानकारी के मुताबिक़ कोविड-19 महामारी पशुओं से जानवरों तक पहुंची. जैसे-जैसे पशु स्रोत वाले प्रोटीन की मांग बढ़ेगी, वैसे-वैसे पशु से इंसान तक पहुंचने वाली या पशुओं से होने वाली बीमारी और ज़्यादा होगी क्योंकि इससे पशु कृषि का विस्तार होगा. औद्योगिक जानवर फार्म बैक्टीरिया और वायरल रोगाणुओं के फलने-फूलने की जगह हैं. ये रोगाणु लगातार जानवरों के भीतर अपना रूप बदलते रहते है और ऐसा रूप अख्तियार कर लेते हैं जिसमें महामारी फैलाने की क्षमता होती है. 

वैकल्पिक प्रोटीन या “स्मार्ट प्रोटीन” ऐसे खाद्य उत्पाद हैं जो विश्वसनीय ढंग से जानवरों से मिलने वाले मांस, अंडे और डेयरी उत्पादों की जगह ले सकते हैं क्योंकि वो खाने वालों को पूरी तरह से उसी तरह के स्वाद का अनुभव देते हैं और उत्पादकों के लिए सप्लाई चेन में कई तरह के फ़ायदे देते हैं.

पशुधन उद्योग को क्षेत्र विशेष और फिर से उभरने वाले जानवरों के संक्रामक रोगों से भी ख़तरा है. जिस वक़्त पूरे देश में महामारी तेज़ी से फैल रही थी, उसी वक़्त पशुधन उद्योग असम राज्य में अफ्रीकी स्वाइन फीवर की चपेट में भी था जिसकी वजह से क़रीब 14,000 सुअरों को 15 दिन के भीतर मारना पड़ा. पशुधन उद्योग से जुड़े लोगों को अक्सर बीमारी के ख़तरे पर लगाम लगाने के लिए एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल करना पड़ता है. जानवरों में ज़रूरत से ज़्यादा एंटीबायोटिक्स के इस्तेमाल की वजह से अब उनके ऊपर एंटीबायोटिक्स का असर कम होता जा रहा है. चिकित्सा विशेषज्ञों के अनुमान के मुताबिक़ एंटीबायोटिक्स का असर नहीं होने से दुनिया भर में 2050 तक हर साल 1 करोड़ जानवरों की मौत होगी जो मौजूदा सालाना मौत से 14 गुना ज़्यादा है. 

कोविड-19 महामारी और उसके बाद प्रोटीन की आपूर्ति में आई रुकावट ने हमारी मौजूदा खाद्यान्न प्रणाली की श्रृंखला की कमज़ोरियों को उजागर किया है. पशुओं को पालने वाले किसानों को मजबूरन लंबे समय तक के लिए जानवरों को अपने पास रखना पड़ा, उन्हें लंबे समय तक खिलाना पड़ा जिसकी वजह से किसानों को भारी आर्थिक नुक़सान का सामना करना पड़ा. इसके अलावा पशु कृषि फसल की विशाल मात्रा को लोगों की सीधी खपत से दूर करके उन्हें जानवरों के चारे के रूप में इस्तेमाल करती है. इसकी वजह से कम और मध्यम आमदनी वाले समुदायों में खाद्य असुरक्षा में बढ़ोतरी होती है. 

स्मार्ट प्रोटीन एक बहुआयाम हल पेश करता है

वैकल्पिक प्रोटीन या “स्मार्ट प्रोटीन” ऐसे खाद्य उत्पाद हैं जो विश्वसनीय ढंग से जानवरों से मिलने वाले मांस, अंडे और डेयरी उत्पादों की जगह ले सकते हैं क्योंकि वो खाने वालों को पूरी तरह से उसी तरह के स्वाद का अनुभव देते हैं और उत्पादकों के लिए सप्लाई चेन में कई तरह के फ़ायदे देते हैं. अगली पीढ़ी के ये खाद्य पदार्थ सोया से बनने वाली बड़ी और कृत्रिम मांस से आगे हैं जो कि लोगों के लिए लंबे वक़्त से मौजूद हैं और जिनका मक़सद उपभोक्ताओं और उत्पादकों को जानवरों से मिलने वाले खाद्य उत्पादों का विश्वसनीय विकल्प मुहैया कराना है. उत्पादन, लागत और बुनियादी ढांचे के दृष्टिकोण से स्मार्ट प्रोटीन तीन तरह की श्रेणी में आते हैं: वनस्पति आधारित प्रोटीन; उबालने से बने प्रोटीन जिसमें पूर्ण जैव ईंधन और ख़मीर उठाने की तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है; और सेल कल्चर तकनीक के इस्तेमाल से बना मांस.
ये सभी स्मार्ट प्रोटीन ज़मीन के इस्तेमाल, जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण प्रदूषण और लोगों की सेहत को जोख़िम के मामले में पशु कृषि के मुक़ाबले काफ़ी ज़्यादा फ़ायदेमंद हैं क्योंकि ये पूरी प्रक्रिया में पशुओं को पालने और उनकी हत्या को ख़त्म करते हैं. उदाहरण के लिए सीधे पौधों से मांस के उत्पादन और सेल्स से सीधे मांस विकसित करने में परंपरागत मांस उत्पादन के मुक़ाबले 35 से 99 प्रतिशत कम ज़मीन का इस्तेमाल होता है. 

दाल, मोटे अनाज और पटसन जैसी फसल पूरी दुनिया के स्मार्ट प्रोटीन क्षेत्र के लिए अलग-अलग कच्चा माल मुहैया कराने का भरोसा देती है. वनस्पति आधारित और सेल्स से विकसित मांस बनाने के लिए अलग-अलग तरह की फसलों का इस्तेमाल होता है और ये ज़्यादा जैव-विविध और लचीले खाद्यान्न की आपूर्ति में मदद करेंगे.

भारतीय संदर्भ में भी स्मार्ट प्रोटीन का विशिष्ट महत्व है. 2019 में फ्रंटियर्स इन सस्टेनेबल फूड सिस्टम्स में प्रकाशित 3000 लोगों के एक सर्वे में बाथ यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं, गुड फूड इंस्टीट्यूट और सेंटर फॉर लॉन्ग टर्म प्रायोरिटीज़ ने मिलकर चीन, भारत और अमेरिका में वनस्पति आधारित और सेल्स से विकसित मांस को लेकर उपभोक्ताओं के रवैये पर पहली तुलना की (ब्रायंट और अन्य, फ्रंटियर्स इन सस्टेनेबल फूड सिस्टम्स, 2019 और स्वतंत्र रूप से इप्सॉस, 2019). सर्वे के नतीजे से पता चला कि भारत के लोगों में वनस्पति आधारित और सेल्स से विकसित मांस की स्वीकार्यता कथित ज़रूरत से मेल खाती है. भारत के 62.8 प्रतिशत और 56.3 प्रतिशत लोग क्रमश: ज़्यादा और बहुत ज़्यादा वनस्पति आधारित और सेल्स से विकसित मांस का इस्तेमाल करने के लिए तैयार हैं. सर्वे में शामिल लोगों की औसत उम्र 35 साल थी, उनमें से 83 प्रतिशत बड़े शहरों में रहते थे और 84 प्रतिशत उपभोक्ता मांसाहारी थे जो कम-से-कम प्रोटीन वाला एक मांसाहारी व्यंजन (पॉल्ट्री, बकरे का मांस, सुअर का मांस, बीफ, मछली) कभी-कभी खाते थे. भारत के युवा, कभी-कभी मांस या मछली खाने वाले, शहरी, तेज़ी से पैसा कमाने वाले, इंटरनेट से जुड़े, आकांक्षापूर्ण, नैतिक लोगों की सेवा करने का अवसर मौजूद है और उनकी भी मांग दुनिया के दूसरे देशों के लोगों की तरह है. 

इसके अलावा मांस खाने को लेकर पाप और विवाद की धारणा पहले से मौजूद है क्योंकि धर्म में कहा गया है कि हफ़्ते में कोई ख़ास दिन या साल में कोई ख़ास महीना पवित्र है और उस दौरान जानवरों का मांस खाना ठीक नहीं है. इन सभी धारणाओं की वजह से भारतीय युवाओं का एक बड़ा हिस्सा घर के बाहर मांस खाता है और उन्हें इस बात का पछतावा भी रहता है. इस जटिल सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में इस बात पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि जानवरों के मांस के बदले में किसी और उचित खाद्य पदार्थ की ज़रूरत पहले से मौजूद हैं, चाहे इसकी वजह पर्यावरण की सेहत सुधारना हो या धार्मिक या सामाजिक दबाव हो. 

वैश्विक स्मार्ट प्रोटीन के क्षेत्र में भारत की भूमिका

स्मार्ट प्रोटीन जैसा उभरता हुआ क्षेत्र ज़बरदस्त आर्थिक संभावना भी दिखाता है. वित्तीय क्षेत्र की कंपनियों यूबीएस और जेफ़रीज़ के अध्ययन में ये उम्मीद जताई गई है कि अगले 15 वर्षों में अकेले वनस्पति आधारित मांस का वैश्विक उद्योग 100 अरब अमेरिकी डॉलर से 370 अरब अमेरिकी डॉलर के बीच होगा. सही ढंग से इस उद्योग को बढ़ावा मिले तो भारत को इसका भरपूर फ़ायदा मिलने की उम्मीद है. भारत में फसलों की भरपूर जैवविविधता है. दाल, मोटे अनाज और पटसन जैसी फसल पूरी दुनिया के स्मार्ट प्रोटीन क्षेत्र के लिए अलग-अलग कच्चा माल मुहैया कराने का भरोसा देती है. वनस्पति आधारित और सेल्स से विकसित मांस बनाने के लिए अलग-अलग तरह की फसलों का इस्तेमाल होता है और ये ज़्यादा जैव-विविध और लचीले खाद्यान्न की आपूर्ति में मदद करेंगे. इन कम इस्तेमाल होने वाली, विविध और ज़्यादा प्रोटीन वाली फसल की किस्मों का उपयोग ज़्यादा असरदार, पोषण के मामले में पूर्ण और स्वच्छ उत्पादों को बनाने में किया जा सकता है. एक वितरण प्रणाली, उत्पादन का एक व्यापक नेटवर्क बनाकर तूफ़ान, अकाल, जंगल की आग, बाढ़ और बीमारियों के प्रकोप की वजह से सप्लाई चेन में रुकावट की स्थिति में हमारे खाद्यान्न सिस्टम को और ज़्यादा लचीला बना सकती है. 

प्रोटीन या किसी और पोषक तत्व के लिए अलग-अलग तरह की फसल उगाने वाले किसानों को ज़्यादा क़ीमत मिलने की उम्मीद नहीं है. क़ीमत बढ़ाने के लिए खेत के नज़दीक प्रसंस्करण को बढ़ावा देने में विशेष हस्तक्षेप ज़रूरी होगा.

भारत में समृद्ध कृषि परिदृश्य के अलावा यहां खाद्य प्रसंस्करण का व्यापक बुनियादी ढांचा और उत्पादन क्षमता भी है. घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय- दोनों तरह के बाज़ारों में किसानों को उपभोक्ताओं से जोड़ने में खाद्य प्रसंस्करण की महत्वपूर्ण भूमिका है. साथ ही खाद्यान्न की बर्बादी कम करने में भी खाद्य प्रसंस्करण की भूमिका है क्योंकि प्रसंस्करण से खाद्य उत्पादों के जीवनकाल को बढ़ाने में मदद मिलती है. विकेंद्रित खाद्य प्रसंस्करण के बुनियादी ढांचे और खेत के नज़दीक प्रसंस्करण के लिए बहुत ज़्यादा अवसर मौजूद हैं. सही काम-काज, कम लागत और ज़्यादा अनुकूलता के लिए फसल को पीसने, उन्हें अलग करने और इकट्ठा करने से आख़िरी उत्पाद के इनोवेशन के मामले में निचले स्तर पर ज़्यादा अवसर सुनिश्चित होंगे. 

बायो-फार्मास्यूटिकल उत्पादन और फर्मेंटेशन क्षमता के मामले में भारत के मौजूदा सामर्थ्य को वैकल्पिक प्रोटीन के क्षेत्र में कच्चे माल और सामग्री मुहैया कराने या आख़िरी उत्पाद के आपूर्तिकर्ता के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है. फर्मेंटेशन अपनी लागत, पैमाने और कूड़ा समेत अलग-अलग कच्चे माल से अनुकूलता की वजह से ख़ास तौर पर कम और मध्यम आमदनी के संदर्भ में दमदार हो सकती है. अलग-अलग उद्योगों के कूड़े के फिर से इस्तेमाल के मामले में इनोवेशन वैकल्पिक प्रोटीन उद्योग के जोखिम को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा क्योंकि इससे सप्लाई चेन लचीला होगा और पर्यावरणीय निरंतरता में सुधार होगा. उदाहरण के लिए खेत में कृषि कूड़े को पोषक प्रोटीन में बदलने के लिए सूक्ष्मजीव फर्मेंटेशन का इस्तेमाल करना. 

श्रम की कम लागत और शिक्षित कामगारों की ज़्यादा उपलब्धता का मतलब है कि सिद्धांत: भारत में प्रयोग करने की लागत विकसित बाज़ारों की तुलना में कम है. हुनरमंद लोगों को स्मार्ट प्रोटीन के क्षेत्र में आने के लिए प्रेरित करना और समस्याओं के समाधान के लिए ईज़फ़-डूइंग बिज़नेस और इंफ्रास्ट्रक्चर का इस्तेमाल करना इस संभावना को साकार करने के लिए महत्वपूर्ण है. 

स्मार्ट प्रोटीन के क्षेत्र में भारत के नेतृत्व को स्थापित करना

वनस्पति आधारित मांस, अंडा और डेयरी स्टार्टअप्स के लिए उत्पादन के अवसर के साथ कृषि स्रोत के केंद्र के रूप में भारत को बढ़ावा देने में अपार संभावनाएं हैं. साथ ही सेल्स से विकसित मांस और फर्मेंटेशन से हासिल प्रोटीन के उत्पादन केंद्र के रूप में भी गुंजाइश है. लेकिन विज्ञान, इनोवेशन और तकनीक में इसे वास्तविकता में बदलने के लिए बहुत कुछ किया जाना अभी बाक़ी है. 

अभी तक वैकल्पिक प्रोटीन को लेकर रिसर्च में निजी क्षेत्र के निवेश से इस सेक्टर में इनोवेशन के व्यावसायीकरण की ओर काफ़ी हद तक प्रगति हुई है. लेकिन ये सेक्टर जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है और जो अवसर बना सकता है, उसके आगे निवेश का मौजूदा स्तर बेहद कम है. वनस्पति आधारित, सेल्स से विकसित मांस और फर्मेंटेशन से हासिल प्रोटीन में सबके लिए सुलभ रिसर्च, इनोवेशन और तकनीक के ट्रांसफर, और आधारभूत ढांचे के विकास में सरकार की तरफ़ से फंडिंग होने पर कौशल विकास, कृषि मूल्य चेन में क़ीमत में बढ़ोतरी, बड़े पैमाने पर नौकरी के सृजन और निर्यात- सभी के लिए अवसर का निर्माण होगा. ऐसा होने से टिकाऊ विकास के लक्ष्यों को लेकर भारत के वादों को पूरा किया जा सकेगा और हमारी बढ़ती आबादी को पोषण मिल सकेगा. भारत के ख़ास सामरिक क्षेत्रीय बढ़त की वजह से कई विशेष क्षेत्रों में रिसर्च की फंडिंग वैश्विक वैकल्पिक प्रोटीन सेक्टर को अतिरिक्त सुविधाएं देगी जो कि निम्नलिखित हैं: 

  • वनस्पति आधारित प्रोटीन के लिए सामग्री का सर्वश्रेष्ठ इस्तेमाल ख़ास तौर पर देसी फसलों का इस्तेमाल;
  • सेल्स से विकसित मांस के लिए सेल कल्चर मीडिया और जैव प्रक्रिया का सर्वश्रेष्ठ इस्तेमाल;
  • उपज में सुधार और फर्मेंटेशन से हासिल प्रोटीन के लिए कच्चे माल का सर्वश्रेष्ठ इस्तेमाल

फसल पर शोध करने वाले संगठनों जैसे अंतर्राष्ट्रीय अर्ध-शुष्क उष्णकटिबंधीय फसल शोध संस्थान (आईसीआरआईएसएटी) ने फसल को बेहतर करने की नई तरह की तकनीक का इस्तेमाल करके छोले जैसी फसल में प्रोटीन की मात्रा सुधारने पर काम शुरू किया है. आईसीआरआईएसएटी जैसे रिसर्च और इनोवेशन के केंद्र पूरे वनस्पति आधारित क्षेत्र के द्वारा व्यावसायीकरण और बेहद व्यावहारिक और टिकाऊ दाल सामग्री को अपनाने को प्रेरित कर सकते हैं. इसी तरह फर्मेंटेशन और कोशिकीय कृषि पर ध्यान देने वाले शोध संस्थान सेल्स से विकसित मांस और फर्मेंटेशन से हासिल प्रोटीन के लिए शोध करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. इस तरह वो वैश्विक स्तर पर इस क्षेत्र में आधुनिकीकरण ला सकते हैं. सरकार ने पहले ही इस दिशा में शुरुआती क़दम उठाए हैं- सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मोलिक्यूलर बायोलॉजी (सीसीएमबी हैदराबाद) और नेशनल रिसर्च सेंटर ऑन मीट (एनआरसीएम हैदराबाद) ने गुड फूड इंस्टीट्यूट इंडिया (जीएफआई इंडिया) के साथ काम करके 2019 में सेल्स से विकसित मांस पर रिसर्च की फंडिंग के लिए 4.6 करोड़ रुपये हासिल किए. वहीं इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल टेक्नोलॉजी (आईसीटी मुंबई) और जीएफआई इंडिया ने सेल्स से विकसित मांस और फर्मेंटेशन से हासिल प्रोटीन पर केंद्रित एक रिसर्च सेंटर की स्थापना के लिए साझेदारी की है. 

इससे भी बढ़कर नये उत्पादों पर शोध और विकास के लिए अलग-अलग विषय के दृष्टिकोण की ज़रूरत है ताकि स्मार्ट प्रोटीन सेक्टर के लिए सही बाज़ार की तलाश की जा सके. हमें ज़्यादा जीवविज्ञानियों की ज़रूरत है जो प्रोटीन के उत्पादन के लिए वनस्पति, फफुंद और कीटाणु को विकसित कर सकें. ज़्यादा जीव रसायनज्ञ और बायोकेमिकल इंजीनियर की भी ज़रूरत है जो सामग्रियों का सर्वश्रेष्ठ इस्तेमाल कर सकें, ज़्यादा खाद्य वैज्ञानिक भी चाहिए जो इन सामग्रियों को अलग तरीक़े से मिलाकर वनस्पति आधारित ऐसे खाद्य पदार्थ का उत्पादन कर सकें जो जाना-पहचाना होने के साथ उपभोक्ताओं को बेहतर क़ीमत पर ज़्यादा अच्छे स्वाद के साथ मिल सके. प्रोटीन या किसी और पोषक तत्व के लिए अलग-अलग तरह की फसल उगाने वाले किसानों को ज़्यादा क़ीमत मिलने की उम्मीद नहीं है. क़ीमत बढ़ाने के लिए खेत के नज़दीक प्रसंस्करण को बढ़ावा देने में विशेष हस्तक्षेप ज़रूरी होगा. इसको रफ़्तार देने के लिए सरकार, उद्योग, किसान उत्पादक संगठनों और स्टार्टअप्स की मिलीजुली कोशिश ज़रूरी होगी. 

नीदरलैंड्स, कनाडा और सिंगापुर जैसे देश इस रास्ते पर पहले ही काफ़ी आगे बढ़ चुके हैं. इस दशक में स्मार्ट प्रोटीन की रेस में भारत नहीं पिछड़े इसके लिए यहां के सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की ओर से काफ़ी ज़ोर लगाने की ज़रूरत पड़ेगी. इससे भी बढ़कर, विविधता को समर्थ बनाने के लिए हमें ऐसे खाद्य पदार्थ बनाने की ज़रूरत है जिसका स्वाद पशुओं से हासिल खाद्य पदार्थों की तरह या उससे बेहतर हो और क़ीमत उतनी ही हो या उससे कम हो. ऐसा नहीं होने पर हम लोगों या दुनिया के लिए स्वास्थ्य का लक्ष्य हासिल करने में कामयाब नहीं हो पाएंगे. और हमें ये जल्दी करने की ज़रूरत है!

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