Author : Rishith Sinha

Expert Speak Raisina Debates
Published on Mar 20, 2024 Updated 0 Hours ago

वैसे तो MDB में बदलाव लाने की हालिया कोशिशें स्वागतयोग्य हैं और सुधारों की सख़्त ज़रूरत है. लेकिन स्वतंत्र विशेषज्ञों के समूह (IEG) की रिपोर्ट में जो सुझाव दिए गए हैं उनका अधिक आलोचनात्मक मूल्यांकन होना चाहिए.

बहुपक्षीय विकास बैंकों में सुधार: ज़रूरतें, तरीक़े और ग़लत क़दम

बहुपक्षीय विकास बैंक (MDB) बहुत बुरी स्थिति में हैं. एक दौर में ये बैंक आर्थिक विकास को तेज़ करने और ग़रीबी उन्मूलन के ख़िलाफ़ दुनिया की लड़ाई में बड़ा औज़ार थे. लेकिन, आज जलवायु परिवर्तन जैसी स्थायी वैश्विक चुनौतियों के सामने बहुपक्षीय विकास बैंकों के अनुपयोगी हो जाने का ख़तरा मंडरा रहा है. इस साल की शुरुआत में दुनिया के 13 बड़े नेताओं ने एक खुले ख़त पर दस्तख़त करके बहुपक्षीय विकास बैंकों के सुधार कोबड़ी प्राथमिकताबताने पर ज़ोर दिया था. इस मक़सद से G20 ने भारत की अध्यक्षता में बहुपक्षीय विकास बैंकों को मज़बूत बनाना: त्रिपक्षीय एजेंडा के नाम से एक व्यापक रिपोर्ट तैयार करने को मंज़ूरी दी थी. ये रिपोर्ट विशेषज्ञों के स्वतंत्र समूह (IEG) ने तैयार की, जिसमें MDB की व्यवस्था को नए ढांचे में ढालने की बात कही गई है.

रिपोर्ट के कई पहलू ऐसे भी हैं, जिनसे कोई अर्थपूर्ण परिवर्तन आने की उम्मीद कम ही है. इनमें ग़ैर रियायती क़र्ज़ देने पर ज़ोर निजी क्षेत्र के साथ संवाद बढ़ाने के लिए जोखिम ख़त्म करने वाला नज़रिया शामिल है.

IEG की इस रिपोर्ट ने बहुपक्षीय विकास बैंकों की दुनिया में तूफ़ान उठा दिया है. विश्व बैंक के अध्यक्ष अजय बंगा ने 2023 में विश्व बैंक/ अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की सालाना बैठकों में दिए गए अपने भाषण में इस रिपोर्ट में सुझाए गए कई नुस्खों को शामिल किया था. हालांकि, इस रिपोर्ट का विश्लेषणात्मक अध्ययन करने पर मिले जुले निष्कर्ष ही निकलते हैं. कुल मिलाकर कहें तो, वैसे तो इस रिपोर्ट में ऐसी कई बाते हैं, जो MDB में ठोस सुधारों की उम्मीद जगाने वाले हैं. लेकिन, रिपोर्ट के कई पहलू ऐसे भी हैं, जिनसे कोई अर्थपूर्ण परिवर्तन आने की उम्मीद कम ही है. इनमें ग़ैर रियायती क़र्ज़ देने पर ज़ोर निजी क्षेत्र के साथ संवाद बढ़ाने के लिए जोखिम ख़त्म करने वाला नज़रिया शामिल है. 

इस रिपोर्ट के सुझावों में तीन व्यापक तत्व यानी ट्रिपल एजेंडा हैं.

एक तिहरी ज़िम्मेदारी

अपने व्यक्तिगत मक़सदों में अलग अलग रुख़ अपनाने के बावजूद, आम तौर पर बहुपक्षीय विकास बैंक विकास की दो ज़िम्मेदारियों पर सहमत होते हैं- यानी राष्ट्रीय आर्थिक विकास को बढ़ावा देना और भयंकर ग़रीबी का उन्मूलन. यहां IEG की रिपोर्ट कहती है कि इन बैंकों को अपने एजेंडे में एक तीसरा पहलू भी औपचारिक तौर पर शामिल करना चाहिए, जो जलवायु परिवर्तन से निपटने और उसके मुताबिक़ ढालने से जुड़े वैश्विक जनहित की वस्तुएं हों. इसके अलावा, इन बैंकों को खाने और पानी की सुरक्षा और जैव विविधता के संरक्षण को भी अपने एजेंडे का हिस्सा बनाना चाहिए.

इस तिहरी ज़िम्मेदारी को स्वीकार करना, सही दिशा में उठाया गया पहला क़दम होगा. वैश्विक जनहित की चीज़ें (GPG) को अपनाने से MDB व्यवस्था को अपने आप को इक्कीसवीं सदी में विकास के लक्ष्यों के साथ अधिक नज़दीकी से तालमेल बिठाने में मदद मिलेगी. ऐसा करके, स्थायी विकास के लक्ष्यों (SDGs), पेरिस समझौते और कुनमिंग मॉन्ट्रियल ग्लोबल बायोडायवर्सिटी फ्रेमवर्क को इन विकास बैंकों के मक़सद की धुरी बनाया जा सकेगा. इससे जलवायु परिवर्तन से निपटने के वैश्विक प्रयासों में और तालमेल बिठाने की उम्मीद जगेगी. इसके अतिरिक्त, चूंकि GPGs बहुपक्षीय विकास बैंकों की दो मुख्य ज़िम्मेदारियों से जुड़े हैं. ऐसे में एक तीसरी ज़िम्मेदारी पर काम करके बहुपक्षीय विकास बैंक तालमेल वाले लाभ हासिल कर सकेंगे. हवा, पानी और ज़मीन में निवेश किए बग़ैरह बहुआयामी ग़रीबी से नहीं निपटा जा सकता है; जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन और लचीलेपन में निवेश के बग़ैर, जलवायु परिवर्तन के प्रति नाज़ुक स्थिति वाली जनता के रहन सहन में अच्छा बदलाव नहीं लाया जा सकता है.

मगर, अतीत में कई वादों को पूरा किए जाने की वजह से बहुपक्षीय विकास बैंकों में किसी तरह के वास्तविक सुधार की संभावना पर शक जताया जा रहा है. अब ये इन बैंकों की ज़िम्मेदारी है कि वो अपने इन वालों पर ईमानदारी से अमल करें. एक तिहरा उत्तरदायित्व तब तक खोखली नारेबाज़ी बना रहेगा, जब तक बहुपक्षीय विकास बैंक इसे लागू करने के लिए ठोस क़दम नहीं उठाते हैं. IEG की रिपोर्ट ने एक बड़ा योगदान ये दिया है कि उसमें क्रियान्वयन के लिए एक ठोस समय-सीमा बताई गई है. G20 जैसे संगठनों को चाहिए कि वो इस टाइमलाइन को लेकर बहुपक्षीय विकास बैंकों से जवाब तलब करें.

MDB की वार्षिक फंडिंग

बहुपक्षीय विकास बैंकों से आम तौर पर वित्त अस्थायी तौर पर ही लिया जाता रहा है. IEG की रिपोर्ट ने सुझाव दिया है कि क़र्ज़ का तालमेल देशों द्वारा अपने विकास के एजेंडे पर काम करने के लिए ज़रूरी पूंजी के साथ बिठाया जाना चाहिए. विशेष तौर पर इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 2030 तक MDB के वित्त को मौजूदा वार्षिक दर के तीन गुने तक ले जाया जाए. इसका मतलब है कि नियमित क़र्ज़ देने की रक़म 300 अरब डॉलर सालाना हो. वहीं, 90 अरब डॉलर सालाना दान और रियायती दरों क़र्ज़ के तौर पर दिया जाए. इसके अतिरिक्त स्वतंत्र विशेषज्ञों के समूह (IEG) की रिपोर्ट में रियायती वित्त की अहमियत पर काफ़ी ज़ोर दिया गया है. क्योंकि फंडिंग का ये रास्ता कम आमदनी वाले देशों को मुनाफ़ा देने वाली परियोजनाएं चलाने की इजाज़त देता है. इस मक़सद से अंतरराष्ट्रीय विकास सहायता (IDA) को 2030 तक तीन गुना करने की अपील की गई है, जिसके लिए दानदाताओं के योगदान में तेज़ी से इज़ाफ़ा करना होगा.

MDG द्वारा दिए जाने वाले ग़ैर रियायती क़र्ज़ को बढ़ाने का तब तक उम्मीद के मुताबिक़ असर नहीं होगा, जब तक क़र्ज़ के संकट को स्वीकार नहीं किया जाता है.

MDB के वित्त में ग़ैर रियायती क़र्ज़ को तीन गुना करने के सुझाव में निम्न और मध्यम आमदनी वाले देशों पर क़र्ज़ के बोझ के संकट का ख़याल नहीं रखा गया है. आज दुनिया के लगभग 80 देश या तो क़र्ज़ में डूब गए हैं, या फिर दिवालिया होने की कगार पर खड़े हैं. 2010 से 2021 बीच, देशों के ऊपर कुल बाहरी क़र्ज़ दोगुना हो गया है. इससे देश के ज़्यादातर वित्तीय संसाधन क़र्ज़ लौटाने की मदद में ही ख़र्च हो जा रहे हैं: 2010 अब तक निम्न आमदनी वाले देशों के लिए GDP के अनुपात में ब्याज का भुगतान 300 प्रतिशत तक बढ़ चुका है. बहुत से देश बर्दाश्त किए जा सकने वाले विदेशी क़र्ज़ के दुष्चक्र में फंसे हुए हैं: ऐसे में उनके पास जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुक़सान की भरपाई और परिवर्तन के अनुकूल ख़ुद को ढालने के संसाधन ही नहीं बचे हैं. इस वजह से उन्हें अक्सर दूसरे देशों से ऋण लेना पड़ता है; इसकी वजह से क़र्ज़ चुकाने की क़ीमत और बढ़ जाती है, फिर जलवायु परिवर्तन, सेहत और शिक्षा जैसे अहम मसलों से निपटने के मद में ख़र्च करने के लिए रक़म और कम हो जाती है; ज़रूरी ख़र्च में इस कमी से किसी देश द्वारा टिकाऊ विकास और जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन के लिए पैसे जुटाने की क्षमता और कम हो जाती है; फिर उस देश को बाहर से और अधिक क़र्ज़ लेना पड़ता है; और फिर क़र्ज़ का ये दुष्चक्र चलता रहता है. क़र्ज़ के बोझ तले दबने के इस दुष्चक्र का सीधा असर स्थायी विकास के लक्ष्य हासिल करने में कमी के तौर पर नज़र आता है. ऐसे में MDG द्वारा दिए जाने वाले ग़ैर रियायती क़र्ज़ को बढ़ाने का तब तक उम्मीद के मुताबिक़ असर नहीं होगा, जब तक क़र्ज़ के संकट (और इसको बढ़ाने में विश्व बैंक की भूमिका) को स्वीकार नहीं किया जाता है.

समस्या पर नियमित क़र्ज़ के ज़रिए और रक़म फूंकने से इसका हल नहीं निकलने वाला. IEG द्वारा रियायती वित्त की अहमियत को स्वीकार करना एक अच्छी बात है और IDA को तीन गुना करना भी अच्छी शुरुआत है. हालांकि, जलवायु परिवर्तन के मुताबिक़ ढालने और स्थायी विकास के अन्य लक्ष्य प्राप्त करने के लिए पर्याप्त क़दम उठाने हैं, तो इसके लिए और रियायती पूंजी जुटानी होगी; दान के रूप में दी जाने वाली रक़म में काफ़ी इज़ाफ़ा करने की ज़रूरत है, ताकि क़र्ज़ के दुष्चक्र को तोड़ा जा सके. ऐसे वित्त को अपनाना बढ़ाने के लिए देशों को ग़ैर उसी अनुपात में ग़ैर रियायती क़र्ज़ देकर उन पर बोझ बढ़ाने का सिलसिला रोकना होगा; इस सोच को बदलना होगा कि रियायती पूंजी को लेकर एक ग़लत संकेत है.

निजी क्षेत्र के साथ जुड़ाव

दुनिया के जलवायु संबंधी और स्थायी विकास के लक्ष्यों (SDGs) को हासिल करने के लिए काफ़ी मात्रा में निजी क्षेत्र की पूंजी की भी दरकार होगी. इसे देखते हुए, IEG की रिपोर्ट में कहा गया है कि निजी क्षेत्र की पूंजी जुटाने (PCM) का अनुपात MDB के प्रति एक डॉलर के क़र्ज़ की तुलना में 1.5 डॉलर के स्तर तक ले जाना होगा. इसके अलावा सालाना निजी वित्त उपलब्ध कराने को कम से कम 740 अरब डॉलर तक बढ़ाना होगा. रिपोर्ट में कहा गया है कि ये लक्ष्य हासिल करने के लिए, MDB को राष्ट्रीय सरकारों के साथ अपने रिश्तों का लाभ उठाना चाहिए, ताकि निवेश का माहौल बेहतर हो. MDB के लिए जोखिम घटाने और जोखिम साझा करने के लिए उपाय भी सुझाए गए हैं. इनमें वित्त के संरचनात्मक तरीक़ों को MDB के निचले स्तर पर लागू करना शामिल है, जिससे अधिक वरिष्ठ निजी निवेशकों का जोखिम कम किया जा सकेगा; सीधे क़र्ज़ देने की जगह गारंटी वाले तौर तरीक़े अधिक अपनाने होंगे; और शुरुआती जोखिम वाले चरणों में निवेश के लिए निजी क्षेत्र के साथ सहयोग बढ़ाना होगा.

हाल के वर्षों में एक नया नीतिगत आयाम- वॉल स्ट्रीट कंसेंसस (WSC) उभरा है, जो निजी पूंजी को विकास के प्रयासों की धुरी बनाने वाला है. WSC, 2015 के बिलियन्स टू ट्रिलियंस एजेंडा और 2017 के कैस्केड एप्रोच में दिखाई देता है. इन दोनों को विश्व बैंक ने मैग्ज़िमाइज़िंग फाइनेंस फॉर डेवेलपमेंट एजेंडा के तहत अपनाया था. IEG के सुझाव भी WSC के यथास्थिति वाद के दायरे में ही आते हैं. जबकि ख़ुद WSC ही उपयोगी साबित होने में नाकाम रहा है: बिलियन्स टू ट्रिलियन्स लागू किए जाने के छह साल बाद 2021 में भी हर एक सार्वजनिक डॉलर की तुलना में निजी क्षेत्र का पूंजी निवेश चवन्नी के बराबर रहा है. जोखिम हटाने, गारंटी और शुरुआती दौर में ही मिलकर परियोजनाएं निर्मित करने जैसे उपाय, जोखिम का समाजीकरण, और मुनाफ़े का निजीकरण कर देते हैं. यही नहीं, PCM को लेकर आलोचना और गहरी है: निजी पूंजी बुनियादी तौर पर जोखिम लेने से बचती है. अपने निवेश पर मुनाफ़े की चाहत रखने वाले निजी निवेशक अपने निजी हित ही देखते हैं. ऐसे में इस बात की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि निजी फ़ायदे और जनहित के बीच किसी एक को चुनने की ज़रूरत पड़ती है.

हरित निवेशों के जोखिम कम करके तुलनात्मक क़ीमतों को हासिल करने के बजाय, सार्वजनिक पूंजी का इस्तेमाल उन देशों की मदद के लिए किया जाना चाहिए, जो जनता को आगे रखकर हरित परिवर्तन लाने में अधिक सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं.

ये तो सच है कि जलवायु वित्त की कमी को पूरा करने में निजी पूंजी एक अहम भूमिका निभा सकती है और ऐसा होना भी चाहिए. लेकिन, ये पूंजी एक ख़ास तरीक़े से जुटाई जानी चाहिए. मज़बूत बैंकिंग व्यवस्था और प्रभाव के मूल्यांकन जैसे IEG के सुझावों को इस तरह लागू किया जाना चाहिए कि निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की पूंजी दोनों जुटाई जा सके.

यही नहीं, निजी क्षेत्र की पूंजी को केवल मूलभूत ढांचे, ऊर्जा और सार्वजनिक परिवहन की आमदनी देने वाली योजनाओं में निवेश के लिए जुटाया जाना चाहिए. इसको स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी ज़रूरी सेवाओं से दूर ही रखना चाहिए, क्योंकि इन क्षेत्रों में मुनाफ़े और जनहित में से एक का चुनाव अधिक गंभीर हो जाता है. हालांकि, आख़िर में विश्व बैंक को अपनेजोखिम हटानेके तरीक़े से आगे बढ़ना होगा. हरित निवेशों के जोखिम कम करके तुलनात्मक क़ीमतों को हासिल करने के बजाय, सार्वजनिक पूंजी का इस्तेमाल उन देशों की मदद के लिए किया जाना चाहिए, जो जनता को आगे रखकर हरित परिवर्तन लाने में अधिक सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं. क्योंकि जोखिम कम करने पर ज़ोर देने वाला नज़रिया तो वैसे भी अधिक कार्बन उत्सर्जन वाली परियोजनाओं में पूंजी निवेश के प्रवाह को बदलने में सफल नहीं हुआ है. निजी निवेश का विनियमन किसी देश की विकास की ज़रूरतों के मुताबिक़ होना चाहिए. इस तरह से इसके फ़ायदे बड़ी कंपनियों के बजाय नागरिकों तक पहुंचाए जा सकेंगे.

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