एशिया-प्रशांत (जिसे इंडो-पैसिफिक के रूप में भी जाना जाता है) क्षेत्र में बढ़ते सैन्य निर्माण का सबसे हालिया संकेत भारत द्वारा 15 दिनों की अवधि के लिए गोला बारूद और हथियारों के अपने भंडार (War Wastage Reserves) को बढ़ाने का निर्णय है. यह सीमा आमतौर पर 10 दिन की है. निस्संदेह रूप से यह इन सामरिक संसाधनों को स्थानीय स्तर पर तैयार करने और आयात के माध्यम से प्राप्त करने के लिए किए गए ज़रूरी व्यय को शामिल करता है, लेकिन यह रणनीतिक वातावरण को ले कर सरकार की धारणा का भी संकेत है, जिस का सामना देश को आने वाले समय में करना पड़ सकता है. इस क्षेत्र में, बड़े और छोटे देश घरेलू उत्पादन और आयात के माध्यम से अपनी सैन्य क्षमता का निर्माण कर रहे हैं.
यह समीकरण नए नहीं हैं. स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट, एसआईपीआरआई (Stockholm International Peace Research Institute, SIPRI) ने इस बात का खुलासा किया है कि 1980-84 से 2000-2004 के बीच हथियारों के कारोबार में लगातार गिरावट के बाद अब इस क्षेत्र में लगातार बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है, जिस से हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भी मुख्य रूप से वैश्विक रूप से बढ़ती इस प्रवृत्ति का प्रभाव पड़ा है. इस चर्चा के प्रयोजनों के लिए यह बात समझना बेहतर है कि “इंडो-पैसिफिक”, भारतीय परिभाषा के अनुसार, पूर्वी अफ्रीका से लेकर अमेरिका के पश्चिमी तटों तक फैला है.
साल 2015 में लिखते हुए, रिचर्ड ए बिट्ज़िंगर ने कहा था कि 1997 से ले कर लगभग दो दशकों तक हर साल, चीन ने अपने रक्षा बजट को दो अंकों के प्रतिशत में बढ़ाया था.
जबकि ऐतिहासिक रूप से उच्च तकनीक वाले हथियारों का व्यापार मध्य पूर्व की विशेषता रही है, हाल के दशकों में इसे चीन के उदय के साथ जोड़ा गया है. साल 2015 में लिखते हुए, रिचर्ड ए बिट्ज़िंगर ने कहा था कि 1997 से ले कर लगभग दो दशकों तक हर साल, चीन ने अपने रक्षा बजट को दो अंकों के प्रतिशत में बढ़ाया था. साल 2008 में, भारत जैसे देशों से आगे बढ़कर चीन दुनिया में नंबर दो रक्षा क्षेत्र बन गया. साल 1997 के बाद यह और भी अधिक स्पष्ट था क्योंकि चीन का आधिकारिक सैन्य व्यय जो तब तक प्रति वर्ष 10 बिलियन अमेरीकी डॉलर था और इस मायने में ताइवान के बराबर और दक्षिण कोरिया व जापान से काफ़ी कम था, साल 2012 तक बढ़कर 100 बिलियन अमेरीकी डॉलर से भी बढ़ गया.
हाल के वर्षों में यह स्थिति केवल बढ़ी ही है. बजट की कमी के कारण भारतीय ख़रीद जहां एक ओर धीमी हो गई है, वहीं मध्य पूर्व और पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में इस का विकास हुआ है. निक्केई द्वारा 68 देशों के एक विश्लेषण से पता चला है कि 2009-2018 की अवधि के दौरान हथियारों पर खर्च की गई धनराशि का उस देश के आर्थिक विकास और वृद्धि से सीधा व स्पष्ट संबंध था. लेकिन अपवाद रूप में इंडोनेशिया जैसे देश भी थे, जहां साल 2018 में रक्षा खर्च 2009 की तुलना में ढाई गुना अधिक था, जबकि उस अवधि में उस का सकल घरेलू उत्पाद केवल 81 प्रतिशत बढ़ा था.
रूस, चीन और इंडोनेशिया की बड़ी खरीद
दिसंबर 2020 की शुरुआत में स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा जारी साल 2019 से संबंधित आंकड़ों ने इस बात को रेखांकित किया कि साल 2019 में इस क्षेत्र की 25 सबसे बड़ी कंपनियों द्वारा हथियारों और सैन्य सेवाओं की कुल बिक्री 361 बिलियन अमेरिकी डॉलर थी, जिस में साल 2018 में 8.5 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई. इस सूची में शामिल शीर्ष पांच कंपनियां अमेरिका से हैं जिनकी बिक्री 166 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक रही. लेकिन रूस, इंडोनेशिया के लिए लड़ाकू विमानों का एक महत्वपूर्ण आपूर्तिकर्ता रहा है और उस ने वियतनाम के साथ साथ भारत को भी सामरिक महत्व वाली प्रणालियों की खेप उपलब्ध कराई है. काउंटरिंग अमेरिकाज़ एडवर्सरीज़ थ्रू सेक्शंस एक्ट (American Countering America’s Adversaries through Sanctions Act, CAATSA) यानी काट्सा क़ानून जो रूस से महत्त्वपूर्ण रक्षा उपकरणों की ख़रीद करने वाले देशों पर प्रतिबंध लगाता है, इस पर प्रभाव डाल सकता है. चीन के साथ अमेरिका की प्रतिस्पर्धा इसे दक्षिण पूर्व एशिया में हथियारों के आपूर्तिकर्ता के रूप में तेज़ी से एक बड़ा खिलाड़ी बनते हुए देख रही है. हाल के वर्षों में, हमने देखा है कि अमेरिका ने बांग्लादेश और श्रीलंका जैसे देशों तक पहुंचने का प्रयास किया है जहाँ चीन, हथियारों के मुख्य आपूर्तिकर्ता के रूप में रहा है.
साल 2020 में कई इंडो-पैसिफिक देशों द्वारा महत्वपूर्ण अधिग्रहण देखे गए. जबकि अमेरिका, जापान, दक्षिण कोरिया, चीन और रूस जैसे देशों ने घरेलू स्तर पर निर्मित हथियारों और प्रणालियों की एक पूरी खेप को मैदान में उतारा.
इस परिप्रेक्ष्य में अधिक खत़रनाक घटनाक्रमों की कड़ी के रूप में और जिसका इंडो-पैसिफिक के लिए पर्याप्त निहितार्थ है, एक नया रुझान सामने आया है जिस के तहत नई हथियार प्रणालियों, जैसे कि हाइपरसोनिक मिसाइलों (hypersonic missiles) और ग्लाइड वाहनों (glide vehicles) के प्रति रुझान देखा गया है. चीन ऐसे हथियारों को बनाने वाले पहले राष्ट्रों में से एक रहा है और अब अमेरिका, रूस, भारत और ऑस्ट्रेलिया जैसे अन्य देश इस दिशा में पहल करने की होड़ में हाथ पांव मार रहे हैं. पहले से ही अमेरिका और चीन के बीच प्रतिस्पर्धा तेज़ हो रही है, और इस के तहत अमेरिका अब इस क्षेत्र में लंबी दूरी की ज़मीन पर लॉन्च होने वाली क्रूज़ मिसाइलों (long-range ground launch cruise missiles) को तैनात करने के लिए तत्पर है ताकि वह चीन द्वारा तैनात की गई भूमि आधारित क्रूज़ और बैलिस्टिक मिसाइलों (land-based cruise and ballistic missiles) का मुक़ाबला कर सके.
साल 2020 में कई इंडो-पैसिफिक देशों द्वारा महत्वपूर्ण अधिग्रहण देखे गए. जबकि अमेरिका, जापान, दक्षिण कोरिया, चीन और रूस जैसे देशों ने घरेलू स्तर पर निर्मित हथियारों और प्रणालियों की एक पूरी खेप को मैदान में उतारा. वहीं दूसरी ओर कई अन्य देशों द्वारा महत्वपूर्ण आयात भी किए गए. इस दौरान भारत एक प्रमुख आयातक बना रहा और उसने अमेरिका और कोरियाई-निर्मित हॉवित्जर (howitzers), इसरायल के एंटी-टैंक गाइडेड मिसाइल (anti-tank guided missiles), फ्रेंच राफेल लड़ाकू विमानों (French Rafale fighters) और एक फ्रांसीसी डिज़ाइन की पनडुब्बी के अधिग्रहण को जारी रखा. लेकिन नवंबर 2020 में म्यांमार को एक किलो-वर्ग की पनडुब्बी (Kilo-class submarine) किराए पर देकर उसने निर्यात की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण क़दम उठाया. साथ ही ऑस्ट्रेलिया, जापान और दक्षिण कोरिया जैसे क्षेत्रीय देशों ने अमेरिका द्वारा निर्मित एफ-35 ए लाइटनिंग II संयुक्त स्ट्राइक लड़ाकू विमानों (F-35 A Lightening II joint strike fighters) को अपनी खेप में शामिल किया. वहीं, पाकिस्तान ने अपने चीनी डिज़ाइन वाले जेएफ-17 (JF-17) लड़ाकू विमानों को तैनात किया.
ऐसे में, साल 2021 के पिटारे में क्या होगा इस बात का अंदाज़ा लगाना आसान नहीं है, यह देखते हुए कि साल 2020 दुनिया के लिए किस हद तक असंभावित और आमूल-चूल परिवर्तन वाला साबित हुआ है.
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