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Published on Oct 09, 2024 Updated 0 Hours ago

भारत के शहरी निकायों के संचालन से जुड़ी गतिविधियों में और वहां ज़िम्मेदार पदों पर महिलाओं की संख्या में लगातार इज़ाफा हुआ है. लेकिन इन महिला जनप्रतिनिधियों को अनुभव की कमी, सामाजिक पूर्वाग्रहों एवं राजनीति में पुरुषों के वर्चस्व जैसी दिक़्क़तों से जूझना पड़ता है.

भारत के शहरों में नेतृत्व का ज़िम्मा उठाती महिलाएं; भूमिका और प्रभाव का आकलन!

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भारत में हाल के दशकों में सहभागी लोकतंत्र यानी ऐसा लोकतंत्र जिसमें नागरिक जनसरोकार से जुड़ी नीतियों के फैसलों में शामिल होते हैं, में महिलाओं की भूमिका उल्लेखनीय रूप से बढ़ी है. भारत में लोकसभा एवं विधानसभा चुनावों में महिला मतदाताओं की भागीदारी में पिछले कुछ वर्षों के ज़बरदस्त बढ़ोतरी देखने के मिली है. चुनावों में मतदाता के रूप में अपनी ज़िम्मेदारी को बखूबी निभाने वाली महिलाएं स्थानीय निकायों के चुनाव में भी बढ़चढ़ कर हिस्ला ले रही हैं. इसी वजह से स्थानीय निकायों में महिला जनप्रतिनिधियों की संख्या में भी वृद्धि हुई है और वैश्विक स्तर पर भारत आज एक ऐसा देश है, जहां लोकल बॉडीज़/स्थानीय निकायों में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों की संख्या सबसे अधिक है. ज़ाहिर है कि स्थानीय निकायों में लैंगिक आधार पर महिलाओं के लिए आरक्षण सुनिश्चित करने वाले देशों में भारत अग्रणी राष्ट्र है. भारत में ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में स्थानीय निकायों में महिलाओं की भागीदारी का आंकड़ा बहुत अधिक है. जिस प्रकार से वर्ष 2023 में भारत की संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए कोटा सुनिश्चित करने के लिए महिला आरक्षण विधेयक को मंजूरी दी गई है, ऐसे में पिछले तीन दशकों में भारत के शहरी स्थानीय निकायों यानी नगर निगमों एवं नगर पालिकाओं में लैंगिक आधार पर महिलाओं के आरक्षण के असर की पड़ताल करना आज बेहद ज़रूरी हो जाता है.

 भारत में लोकसभा एवं विधानसभा चुनावों में महिला मतदाताओं की भागीदारी में पिछले कुछ वर्षों के ज़बरदस्त बढ़ोतरी देखने के मिली है. चुनावों में मतदाता के रूप में अपनी ज़िम्मेदारी को बखूबी निभाने वाली महिलाएं स्थानीय निकायों के चुनाव में भी बढ़चढ़ कर हिस्ला ले रही हैं. 

शहरी स्थानीय निकायों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व

 

भारत में हो रहे तेज़ आर्थिक विकास ने देश में शहरीकरण को भी बढ़ाने का काम किया है. अनुमान है कि वर्ष 2035 तक भारत की लगभग आधी आबादी शहरी इलाक़ों में बस जाएगी. तेज़ी से होते शहरीकरण और जलवायु परिवर्तन के बढ़ते दुष्प्रभावों के मद्देनज़र इस बात की प्रबल संभावना है कि आने वाले वर्षों में शहरी क्षेत्र में रहने वाली महिलाओं की संख्या में भी ख़ासी बढ़ोतरी होगी. शहरों में रहने वाले पुरुषों एवं महिलाओं की ज़रूरतें भिन्न होती हैं, साथ ही उनके रहन-सहन की जगह और तौर-तरीक़े भी अलग-अलग होते हैं. इसके अलावा, शहरों में घर-मकान, आवागमन के साधनों, पानी और स्वच्छता, स्वास्थ्य व पर्यावरण संसाधन, जीवनयापन के साधनों एवं आर्थिक अवसरों तक पहुंच बनाने में भी पुरुषों व महिलाओं की प्राथमिकताएं अलग-अलग होती हैं. वैश्विक स्तर पर किए गए तमाम शोधों के मुताबिक़ महिलाओं की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने में दुनिया के ज़्यादातर शहर नाक़ाम रहते हैं. इस वजह से शहरों में महिलाओं की सामाजिक स्थिति पर असर पड़ता है, साथ उन्हें आर्थिक अवसरों को तलाशने में भी रुकावटें आती हैं. देखा जाए तो, इन हालातों की वजह से शहरों में लैंगिक असमानता बढ़ती है, यानी पुरुषों की तुलना में महिलाओं की हालत बदतर होती जाती है.

 

भारत के शहरों में वर्तमान में समावेशी वातावरण नहीं है, साथ ही महिलाओं के साथ समानता का व्यवहार नहीं किया जाता है. इन चुनौतियों का मुक़ाबला करने के साथ-साथ भारतीय शहरों को बढ़ती आबादी और उसमें भी महिलाओं की संख्या में हो रही बढ़ोतरी की वजह से जो बदलाव आए हैं एवं जिन चीज़ों की ज़रूरत बढ़ रही हैं, उनसे निपटने के लिए मुकम्मल तौर पर कोशिश करने की आश्यकता है. ज़ाहिर है कि इन चुनौतियों का समाधान करने के लिए शहरी प्रशासन या कहा जाए की शहरी स्थानीय निकायों में अधिक समावेशी जनप्रतिनिधित्व ज़रूरी है, क्योंकि इसके ज़रिए ही लोगों की आवश्यकताएं पूरी की जा सकती है. 1993 में 74वें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से भारत में शहरी स्थानीय निकायों (ULBs) या नगर पालिकाओं व नगर निगमों में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित की गई थीं. 30 वर्षों के दौरान भारत के 20 राज्यों ने धीरे-धीरे ग्रामीण एवं शहरी स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों की संख्या बढ़ाकर 50 प्रतिशत कर दी है.

 

महिला प्रतिनिधित्व के प्रभाव का आकलन

 

भारत में शहरी स्थानीय निकाय (ULBs) यानी नगर निगमों या नगर पालिकाओं में सबसे बड़ा पद मेयर का होता है और रिसर्च के मुताबिक भारत में बड़ी संख्या में महिलाओं द्वारा मेयर के पद पर कार्य किया जा रहा है. उदाहरण के तौर पर वर्ष 2022 में तमिलनाडु के शहरी स्थानीय निकाय चुनाव में 20 नगर निगमों में से 11 में महिला मेयर चुनी गई थीं. इन महिला मेयरों द्वारा शहरों में किए गए कार्यों का मूल्यांकन करने पर पता चलता है कि इन्होंने शहरों में स्वच्छता, पेयजल, सफाई, स्वास्थ्य देखभाल, सुरक्षा और परिवहन जैसे क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्य किया है. 1957 में तारा चेरियन मद्रास की पहली महिला मेयर बनी थीं, जिन्होंने झुग्गी बस्तियों की दशा सुधारने और नगर निगम के स्कूलों में मिड डे मील की शुरुआत की थी. इसके साथ ही महिलाओं के मेयर बनने के ताज़ा उदाहरणों को देखें, तो अजीता विजयन वर्ष 2018 में मेयर बनी थीं, जो कि मेयर बनने से पहले एक आंगनवाड़ी वर्कर थीं. अजीता विजयन ने अपने कार्यकाल के दौरान पानी की कमी से जूझ रहे और सूखा प्रभावित कनीमंगलम क्षेत्र में पानी की आपूर्ति को सुधारने का काम किया था. तमिलनाडु में चुनी गई कई महिला मेयर प्रभावशाली राजनीतिक परिवारों से थीं, इससे यह ज़ाहिर होता है कि स्थानीय निकायों में जनप्रतिनिधि के रूप में चुनाव जीतने में सामाजिक पहुंच होना अहम भूमिका निभाता है. लेकिन इन चुनी गई महिला मेयरों में से कई बेहद सामान्य परिवारों से भी थीं और उनका राजनीति से भी कुछ ख़ास लेना देना नहीं था. कहने का मतलब है कि ये महिला प्रत्याशी अपने बल पर मेयर का चुनाव जीतने में क़ामयाब हुई थीं.

 

कुछ राज्यों में स्थानीय निकायों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को लेकर किए गए अध्ययनों से काफ़ी अहम तथ्य सामने आते हैं, साथ ही यह भी पता चलता है चुनाव जीतने के बाद और पद संभालने के बाद महिला जनप्रतिनिधियों ने किस प्रकार सफलतापूर्वक सामाजिक रूढ़ियों व पूर्वाग्रहों को तोड़ा है. राजस्थान में शहरी स्थानीय निकायों को लेकर किए गए इसी प्रकार के एक अध्ययन में सामने आया कि स्थानीय निकायों में महिला प्रतिनिधि तभी अपनी प्रशासनिक ज़िम्मेदारियों को बेहतर तरीक़े से संभाल पाती हैं, जब इसमें उन्हें अपने परिवारों का पूरा सहयोग मिलता है. इसके अलावा, इस अध्ययन के मुताबिक़ अनुभव व आत्मविश्वास की कमी की वजह से ULBs में महिला प्रतिनिधियों को अक्सर चुनौतियों से जूझना पड़ता है. लेकिन कई निर्वाचित महिला सदस्यों ने चुनाव जीतने के बाद ज़िम्मेदारियां निभाने में दिलचस्पी दिखाई है और साबित किया है कि उनमें इसकी योग्यता है. 

 तमिलनाडु में चुनी गई कई महिला मेयर प्रभावशाली राजनीतिक परिवारों से थीं, इससे यह ज़ाहिर होता है कि स्थानीय निकायों में जनप्रतिनिधि के रूप में चुनाव जीतने में सामाजिक पहुंच होना अहम भूमिका निभाता है. लेकिन इन चुनी गई महिला मेयरों में से कई बेहद सामान्य परिवारों से भी थीं और उनका राजनीति से भी कुछ ख़ास लेना देना नहीं था.

इसी प्रकार से अमस में शहरी स्थानीय निकायों में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के बारे में किए गए एक अध्ययन के अनुसार चुनाव जीतने के बाद वे न केवल आत्मनिर्भर बन गईं, बल्कि उनकी सोच भी काफ़ी सकारात्मक हो गई. जयपुर नगर निगम द्वारा किए गए एक अध्ययन के मुताबिक़ चुनी गई महिला प्रतिनिधियों ने सामाजिक स्तर पर ही नहीं, बल्कि नगर निगम में लैंगिक पूर्वाग्रहों को कम करने में मदद की. इसी प्रकार से कोलकाता नगर निगम में निर्वाचित महिला पार्षदों के कामकाज को लेकर तैयार की गई एक रिपोर्ट में सामने आया है कि उन्होंने योजनाओं को ज़मीनी स्तर पर लागू करने और सामुदायिक सेवाओं को आगे बढ़ाने व सामाजिक हितों की रक्षा के लिए बढ़चढ़ कर अपनी भागीदारी निभाई. यह भी सामने आया कि महिला जनप्रतिनिधियों की इन्हीं खूबियों की वजह से जनता ने शहरी स्थानीय निकाय के चुनावों में उन्हें बार-बार जिताया. इनता ही नहीं, ये महिला पार्षद तब भी चुनाव जीतीं, जब उनकी सीटों से आरक्षण हटा दिया गया और उन्हें सामान्य सीट में बदल दिया गया.

 

ULBs में महिला प्रतिनिधियों के सामने आने वाली चुनौतियाँ

 

शहरी स्थानीय निकायों में जो महिला प्रतिनिधि निर्वाचित होती हैं, उन्हें पुरुष प्रतिनिधियों के तुलना में अधिक और अलग दिक़्क़तों से जूझना पड़ता है. एक और बात यह है कि ULBs में जो भी महिलाएं चुनी जाती हैं, अक्सर उन्हें राजनीतिक और प्रशासनिक कामकाज का कोई ज़्यादा अनुभव नहीं होता है. इसकी वजह यह है कि स्थानीय स्तर पर ज़्यादातर राजनीतिक दलों में पुरुषों का ही दबदबा होता है और वहां फैसले लेने में महिला नेताओं को बहुत तवज्जो नहीं दी जाती है. इसके अलावा, चाहे महिला पार्षद हों या फिर महिला मेयर सभी अपने दफ़्तर की ज़िम्मेदारियों के साथ ही घरेलू ज़िम्मेदारियों को भी निभाती हैं. ज़ाहिर है कि समाज में परंपरागत रूप से पुरुषों की तुलना में महिलाओं को परिवार और बच्चों की देखभाल जैसे अवैतनिक कार्य करने पड़ते हैं और इससे कहीं न कहीं महिला जनप्रतिनिधियों के कामकाज पर असर पड़ता है.

 

समाज में महिलाओं को लेकर जो भेदभाव एवं असमानता है, उससे देखा जाए तो महिला जनप्रतिनिधियों के प्रदर्शन पर भी असर पड़ता है. महिला पार्षदों के मुताबिक़ जब वे शहरी निकायों में किसी ज़िम्मेदार पद पर बैठी होती हैं, तो उन्हें अक्सर महिलाओं के प्रति फैले सामाजिक पूर्वाग्रहों एवं बंदिशों से जूझना पड़ता है. समाज का एक बड़ा हिस्सा मानता है कि महिला पार्षदों में आत्मविश्वास नहीं होता है, उन्हें चीजों की समझ नहीं होती है और वे किसी कार्य की अगुवाई करने के काबिल नहीं होती हैं. इसके अलावा, भारत में हर स्तर के चुनावों में धनबल और बाहुबल की ज़रूरत बढ़ती जा रही है, साथ ही चुनाव में खड़ी होने वाली महिला प्रत्याशियों पर ओछे हमले किए जाते हैं, उनकी योग्यता पर सवाल उठाए जाते हैं. इन सारी वजहों से राजनीति में महिलाओं की भागीदारी में अड़चनें पैदा होती हैं और वे हतोत्साहित होती हैं. इतना ही नहीं, स्थानीय निकाय के चुनावों में सभी को मौक़ा मिले, इसके लिए हर पांच साल में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों को बदल दिया जाता है. इस वजह से आरक्षित सीट से एक बार चुनाव जीत चुकीं महिलाओं को दोबार वहां से चुनाव लड़ने में काफी दिक़्क़त होती है और वे अपने अनुभव का आगे उपयोग नहीं कर पाती हैं. दूसरी तरफ, पुरुष जनप्रतिनिधि अक्सर लगातर चुनाव लड़ते हैं, जबकि महिलाओं को राजनीतिक दलों या फिर परिवार के पुरुषों द्वारा अनारक्षित सीटों से चुनाव नहीं लड़ने दिया जाता है.

 

शहरों में महिला नेतृत्व का सशक्तिकरण

 

तमाम अध्ययनों से यह भी सामने आया है कि शहरी स्थानीय निकायों में निर्वाचित होने वाली महिला जनप्रतिनिधि समाज की ज़रूरतों, ख़ास तौर पर महिलाओं एवं बच्चों की ज़रूरतों को प्राथमिकता देती हैं और उनकी बेहतरी के लिए कार्य करती हैं, जिसके अच्छे नतीज़े देखने को मिलते हैं. इसके अलावा, महिला मतदाताओं के लिए निर्वाचित महिला पार्षदों से मिलना और उनके सामने अपने क्षेत्र के लिए पानी, सफाई, स्कूल एवं स्वास्थ्य सेवा से संबंधित मुद्दों को उठाना काफ़ी सहज होता है.

 महिला पार्षदों के मुताबिक़ जब वे शहरी निकायों में किसी ज़िम्मेदार पद पर बैठी होती हैं, तो उन्हें अक्सर महिलाओं के प्रति फैले सामाजिक पूर्वाग्रहों एवं बंदिशों से जूझना पड़ता है. समाज का एक बड़ा हिस्सा मानता है कि महिला पार्षदों में आत्मविश्वास नहीं होता है, उन्हें चीजों की समझ नहीं होती है और वे किसी कार्य की अगुवाई करने के काबिल नहीं होती हैं.

अगर कुछ पहलों को गंभीरता से अमल में लाया जाता है, तो यह शहरी स्थानीय निकायों में महिला प्रतिनिधियों के हाथों को मज़बूत करने में काफ़ी कारगर सिद्ध होगा. सबसे पहले तो महिला प्रतिनिधियों की क्षमता निर्माण पर ध्यान दिया जाना चाहिए और इसके लिए विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जाने चाहिए. ऐसा होने पर वे शहरी स्थानीय निकायों में अपनी ज़िम्मेदारी निभाने के दौरान जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण संरक्षण और प्रौद्योगिकी से संबंधित नई चुनौतियों का सामना कर पाएंगी. इसके अलावा, महिला प्रतिनिधियों के लिए आयोजित किए जाने वाले ऐसे कार्यक्रमों की पूरी निगरानी होनी चाहिए और इनकी गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं किया जाना चाहिए. दूसरा, जो सबसे बड़ा क़दम उठाया जाना चाहिए, वो यह है कि शहरी स्थानीय निकायों में इस तरह की व्यवस्था बनाई जाए कि महिला जनप्रतिनिधियों के कामकाज में पुरुषों का कोई दख़ल न हो और वे अपने हिसाब से अपनी ज़िम्मेदारियों को निभा पाएं. इसके साथ ही राजनीति में महिलाओं के नेतृत्व एवं उनकी क्षमताओं को लेकर जो भी पूर्वाग्रह हैं, उन्हें दूर करने के लिए व्यापक स्तर पर जागरूकता अभियान भी चलाए जाने की ज़रूरत है. तीसरा, इस प्रकार के संस्थागत सुधारों को लागू किया जाना चाहिए, जिनसे राजनीतिक दल स्थानीय स्तर की राजनीति में महिलाओं की अधिक से अधिक भागीदारी के लिए विवश हों. इसके साथ ही महिलाओं को चुनाव लड़ने या अपने सामाजिक कार्यों के लिए पैसा जुटाने के नए-नए तरीक़ों के बारे में जानकारी दी जानी चाहिए और उस नेटवर्क तक उनकी पहुंच सुनिश्चित की जानी चाहिए. निस्संदेह तौर पर स्थानीय निकायों में महिला जनप्रतिनिधियों की भागीदारी बढ़ने से बेहतर नतीज़े सामने आते हैं और सामाजिक स्तर पर लैंगिक समानता को भी बढ़ावा मिलता है, इसलिए शहरी निकायों की राजनाति में महिलाओं के नेतृत्व को सशक्त करने के लिए हर स्तर पर गंभीरता से प्रयास किए जाने चाहिए.


सुनयना कुमार ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं.

अंबर कुमार घोष ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में एसोसिएट फेलो हैं.

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Authors

Sunaina Kumar

Sunaina Kumar

Sunaina Kumar is a Senior Fellow at ORF and Executive Director at Think20 India Secretariat. At ORF, she works with the Centre for New Economic ...

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Ambar Kumar Ghosh

Ambar Kumar Ghosh

Ambar Kumar Ghosh is an Associate Fellow under the Political Reforms and Governance Initiative at ORF Kolkata. His primary areas of research interest include studying ...

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