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मालदीव के नाज़ुक लोकतांत्रिक परिदृश्य में राष्ट्रपति मुइज़्ज़ू व्यापक चुनाव सुधार को आगे ले जा रहे हैं जो 2028 से पहले सत्ता का संतुलन उनके पक्ष में झुका सकता है.
एक नए-नवेले लोकतंत्र के रूप में मालदीव के लोग इन दिनों राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज़्ज़ू की तरफ से प्रमुख चुनाव सुधारों के लिए संसदीय समर्थन मांगने का अनुभव कर रहे हैं. इन सुधारों में राष्ट्रपति पद के चुनाव के प्रारूप (फॉर्मेट) में बदलाव, ‘एक साथ’ राष्ट्रपति एवं संसदीय चुनाव कराना और प्रतिनिधि लोकतंत्र के ज़मीनी स्तर पर प्रवालद्वीप (अटोल) परिषदों को समाप्त करने का प्रस्ताव शामिल है.
मुइज़्ज़ू की तरफ से पहल के बाद दल-बदल विरोधी कानून पहले से ही लागू है और ये कानून सुनिश्चित करेगा कि PNC का कोई भी सदस्य स्वतंत्र रूप से सोचने की हिम्मत न करे नहीं तो निर्वाचित सांसद के रूप में वो अपना दर्जा खो देगा.
मौजूदा समय में संसदीय चुनाव राष्ट्रपति चुनाव होने के छह महीने के बाद होते हैं. पिछली बार इस अवधि के दौरान ‘विपक्ष के नियंत्रण’ वाले सदन ने ‘दुश्मन’ खेमे के राष्ट्रपति की राह में बाधाएं खड़ी की थी. इसी तरह अटोल और द्वीप परिषद के चुनाव- जो राष्ट्रपति के कार्यकाल के मध्य में कराए जाते हैं- आने वाले राष्ट्रपति चुनाव की दिशा तय करते हैं और ये चुनाव कई बार सत्ताधारी पार्टी के लिए नुकसानदेह भी साबित होते हैं.
आंकड़ों के हिसाब से देखें तो सत्ताधारी पीपुल्स नेशनल कांग्रेस (PNC) के पास 93 सदस्यों की संसद में ज़ोरदार बहुमत है. राष्ट्रपति मुइज़्ज़ू के प्रस्तावों को जब नए संवैधानिक बिल के रूप में तैयार किया जाएगा तो उसे पास करने के लिए उनके पास आवश्यक दो-तिहाई बहुमत होगा. इसके अलावा, मुइज़्ज़ू की तरफ से पहल के बाद दल-बदल विरोधी कानून पहले से ही लागू है और ये कानून सुनिश्चित करेगा कि PNC का कोई भी सदस्य स्वतंत्र रूप से सोचने की हिम्मत न करे नहीं तो निर्वाचित सांसद के रूप में वो अपना दर्जा खो देगा.
इस तरह महत्वपूर्ण बात ये है कि संवैधानिक बिल को संसद में पेश करने और पारित करने के बाद क़ानून बनने से पहले ‘राष्ट्रीय जनमत संग्रह’ का सामना करना पड़ेगा. इस मामले में ये मतपत्र पर सवाल से हटकर मुइज़्ज़ू के नेतृत्व को लेकर ‘मध्यकालीन जनमत संग्रह’ भी होगा. जनमत संग्रह पर सरकार की तरफ से मालदीव की मुद्रा में 5.5 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है.
जैसे-जैसे प्रतिस्पर्धी अभियान तेज़ होता जाएगा, वैसे-वैसे मुइज़्ज़ू की पहल का समर्थन करने वालों और विरोधियों की तरफ से खर्च बढ़ेगा. विपक्ष- विशेष रूप से मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी (MDP)- इस मामले के साथ-साथ राजनीतिक मोर्चे पर भी स्वाभाविक रूप से पिछड़ा हुआ है. पूर्व राष्ट्रपति और डेमोक्रेट्स पार्टी (जो 2023 के राष्ट्रपति चुनाव से पहले MDP से अलग होकर बनी) के संस्थापक मोहम्मद ‘अन्नी’ नशीद ने पहले ही वरीयता प्राप्त (प्रेफरेंशियल) मतदान प्रणाली के लिए मुइज़्ज़ू के प्रस्ताव का समर्थन किया है. लेकिन एक साथ चुनाव पर वो अभी भी चुप हैं.
मूल रूप से नशीद सत्ता में आने से पहले, अपने राष्ट्रपति कार्यकाल के दौरान और सबसे ताज़ा 2023 में MDP को तोड़कर डेमोक्रैट्स पार्टी की स्थापना करते समय संसदीय लोकतंत्र की स्थापना के लिए अभियान चलाते थे. तत्कालीन MDP के प्रमुख और नशीद के पुराने दोस्त इब्राहिम ‘इबू’ सोलिह को 2023 के राष्ट्रपति चुनाव में इसलिए हार का सामना करना पड़ा क्योंकि डेमोक्रेट्स पार्टी ने पहले चरण में 7 प्रतिशत वोट हासिल किए. मतदान के अंतिम आंकड़ों से पता चला कि दूसरे चरण में डेमोक्रेट्स के चुनाव से दूर रहने का महत्वपूर्ण असर पड़ा.
राष्ट्रपति चुनाव में सुधार को लेकर मुइज़्ज़ू के प्रस्ताव में क्या है? 2008 के बहुदलीय लोकतंत्र पर आधारित संविधान की शुरुआत के समय से 50 प्रतिशत कट-ऑफ पर आधारित दो चरणों के मतदान की जगह मुइज़्ज़ू ने वरीयता प्राप्त मतदान के मॉडल पर आधारित एक चरण के चुनाव, संभवत: पड़ोसी देश श्रीलंका की तरह, को अपनाने का प्रस्ताव दिया है. उनका कहना है कि ये बदलाव सरकार, अलग-अलग राजनीतिक दलों और उनके उम्मीदवारों के लिए चुनाव के खर्च को कम करेगा. इससे चुनाव अभियान के दूसरे चरण पर लगने वाला समय भी बचेगा जिसकी वजह से बेचैनी बढ़ जाती है क्योंकि सरकार का काम-काज लगभग पूरी तरह से ठप हो जाता है.
दोनों प्रणालियों के बीच प्रमुख अंतर ये है: दो चरणों के मतदान की योजना के तहत पहले दौर में सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाले दो उम्मीदवारों की भिड़ंत दूसरे चरण के मतदान में होती है जहां दोनों में से एक उम्मीदवार के लिए 50 प्रतिशत वोट हासिल करना ज़रूरी हो जाता है. दूसरी तरफ वरीयता प्राप्त योजना, जिसका उदाहरण श्रीलंका है, के तहत 50 प्रतिशत कट-ऑफ अनिवार्य है. इसकी गिनती दो या अधिक चरणों की मतगणना के माध्यम से की जाती है जो मतदाताओं के द्वारा उम्मीदवार के लिए 1, 2 और 3 वरीयता- भले ही उम्मीदवार कितने भी हों- देने की प्रणाली पर आधारित होती है.
दोनों में बुनियादी कमियां हैं. दो चरणों की योजना किसी लोकतंत्र में ‘बहुमत की राय’ का प्रतिनिधित्व करने का दावा करती है लेकिन पहले चरण की तुलना में दूसरे चरण के मतदान में बहुत कम मतदाताओं के वोट डालने, संभवत: कुल मतदाताओं के आधे से कम, की स्थिति में ये अपने दावों पर खरा नहीं उतर पाती है.
संविधान के एक सुरक्षा वाल्व वाले प्रावधान का सहारा लेते हुए चुनाव अधिकारियों ने मौजूदा राष्ट्रपति अनुरा कुमारा दिसानायके को विजेता घोषित कर दिया जो पहले दौर में सबसे आगे थे.
‘वरीयता प्राप्त मतदान प्रणाली’ पर विचार करें तो पिछले साल श्रीलंका के राष्ट्रपति चुनाव ने एक बुनियादी कमी को उजागर किया. संख्या प्रणाली और वरीयता वोट की दो चरणों की गिनती के बाद भी कोई असली विजेता नहीं निकला क्योंकि किसी भी उम्मीदवार ने जीत के लिए ज़रूरी आधे वोट हासिल नहीं किए. संविधान के एक सुरक्षा वाल्व वाले प्रावधान का सहारा लेते हुए चुनाव अधिकारियों ने मौजूदा राष्ट्रपति अनुरा कुमारा दिसानायके को विजेता घोषित कर दिया जो पहले दौर में सबसे आगे थे. लेकिन इस तरह अच्छी तरह से सोच कर बनाई गई एक योजना का उद्देश्य ही विफल हो गया.
2018 के चुनाव को छोड़ दें तो हर पांच वर्षों में होने वाले मालदीव के राष्ट्रपति चुनाव में संस्थागत स्तर पर खुलेआम ख़रीद-बिक्री होती रही है. इसका संदर्भ ये है कि अंतिम चरण के दो उम्मीदवार सार्वजनिक रूप से पहले दौर में हारने वाले उम्मीदवारों को लुभाने का प्रयास करते रहे हैं. निजी वादों और प्रतिबद्धताओं, जिनमें से कई को पूरा नहीं किया जाता है, के माध्यम से इस तरह लुभाने से जीतने वाले उम्मीदवार को दूसरे चरण में आधे से ज़्यादा मत हासिल करने में मदद मिलती है.
2008 और 2013 में पहले चरण के उप-विजेता, विशेष रूप से जम्हूरी पार्टी (JP) के गासिम इब्राहिम, को क्रमश: 15 प्रतिशत और 24 प्रतिशत ‘ट्रांसफर करने वाला वोट’ हासिल हुआ. नशीद (2008) और अब्दुल्ला यामीन (2013) की जीत में उनके खेमे का योगदान निर्णायक रहा. 2008 में पहले चरण के चुनाव में नशीद तत्कालीन राष्ट्रपति मामून अब्दुल गयूम से काफी पीछे थे लेकिन दूसरे चरण में गासिम के 15 प्रतिशत वोट के अलावा उन्हें हसन सईद (16 प्रतिशत वोट) का भी समर्थन था जिसकी वजह से वो 46 के मुकाबले 54 प्रतिशत वोट हासिल कर चुनाव जीत गए.
2013 में यामीन ने 49 की तुलना में 51 प्रतिशत वोट हासिल कर पिछली बार के निर्वाचित राष्ट्रपति मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी (MDP) के मोहम्मद ‘अन्नी’ नशीद से सत्ता हासिल की. इस बार जम्हूरी पार्टी के गासिम इब्राहिम ने यामीन का साथ दिया. दोनों चुनावों में अंतिम विजेता पहले चरण के चुनाव में काफी पीछे रहे जो ‘पूर्ण बहुमत’ और वैधता को लेकर बुनियादी सवाल खड़ा करता है. 2008 में ये आंकड़ा 40-25 था जबकि 2013 में 45-25.
इसके बाद के दो चुनावों में और अधिक ध्रुवीकरण हुआ. 2018 में चुनाव से पहले गठबंधन के माध्यम से ये ध्रुवीकरण हुआ जो न पहले हुआ था और न बाद में. 2018 में सभी विपक्षी पार्टियों ने MDP के इब्राहिम ‘इबू’ सोलिह का समर्थन किया जिससे वो पहले और एकमात्र राष्ट्रपति बन गए जिन्होंने पहले चरण के सीधे चुनाव में मौजूदा राष्ट्रपति यामीन के 42 प्रतिशत वोट की तुलना में 58 प्रतिशत वोट हासिल कर जीत हासिल की. ये अभी तक का सबसे बड़ा अंतर भी है.
पांच साल बाद 2023 में मुइज़्ज़ू ने पहले चरण के चुनाव में जीत हासिल नहीं की बल्कि उन्हें जीत के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी. मौजूदा राष्ट्रपति सोलिह के ख़िलाफ़ वो दोनों चरणों में जीते क्योंकि पहले चरण के बाद कुछ उम्मीदवार रेस से बाहर हो गए और ये उम्मीदवार दूसरे चरण में किसी भी उम्मीदवार की बहुत ज़्यादा मदद करने की स्थिति में नहीं थे.
मुइज़्ज़ू के द्वारा प्रस्तावित चुनाव सुधार का दूसरा पहलू ‘एक साथ चुनाव’ कराने से जुड़ा है यानी राष्ट्रपति और मजलिस के लिए संसदीय चुनाव एक ही समय में. दस्तावेजों के मुताबिक, जैसा कि अन्य जगहों पर दलील दी गई है, एक साथ चुनाव कराने से सरकार, उम्मीदवारों और उनके राजनीतिक दलों के लिए खर्च कम हो जाता है. लंबे चुनाव अभियान को देखते हुए इससे समय की भी बचत होगी.
एक साथ चुनाव कराने से देश हमेशा चुनावी माहौल में नहीं रहेगा और इसलिए तात्कालिक चुनावी मजबूरियों के कारण पॉलिसी-पैरेलिसिस की स्थिति यानी नीतिगत निर्णय लेने में देरी नहीं होगी, विशेष रूप से मौजूदा नेतृत्व को. ये तकनीकी रूप से मालदीव के लिए सही है जहां नियमों के तहत नहीं बल्कि संयोगवश राष्ट्रपति चुनाव के लगभग छह महीने के बाद संसदीय चुनाव होते हैं.
लेकिन यहां और दूसरे देशों में कुछ नेताओं और राजनीतिक दलों के द्वारा ‘एक साथ चुनाव’ को प्राथमिकता देने के पीछे बड़ा, बल्कि छिपा हुआ कारण है. दूसरे देशों के अनुभवों ने दिखाया है कि एक करिश्माई और लोकप्रिय नेता, भले ही वो सत्ता में हो या नहीं, संसदीय चुनाव साथ होने पर ख़ुद के लिए और अपनी पार्टी/गठबंधन के लिए राष्ट्रपति चुनाव जीत सकता है.
दूसरे देशों के अनुभवों ने दिखाया है कि एक करिश्माई और लोकप्रिय नेता, भले ही वो सत्ता में हो या नहीं, संसदीय चुनाव साथ होने पर ख़ुद के लिए और अपनी पार्टी/गठबंधन के लिए राष्ट्रपति चुनाव जीत सकता है.
वैसे मुइज़्ज़ू और नशीद- दोनों ख़ुद को सबसे करिश्माई और लोकप्रिय नेता के तौर पर पेश करते हैं. लेकिन दूसरे लोग इस सोच का विरोध करते हैं, चाहे वो करीबी हों या अन्य. मुइज़्ज़ू के द्वारा संसद के स्पीकर और PNC अध्यक्ष अब्दुल रहीम अब्दुल्ला ‘अधूरे’ को नीचा दिखाना और नशीद के द्वारा अपने पुराने दोस्त और एक समय के राजनीतिक सहयोगी इबू सोलिह से अलग राह पकड़ना, ऐसी ही स्वतंत्र धारणाओं से उपजा है.
वरीयता प्राप्त मत और एक साथ चुनाव के साथ-साथ मुइज़्ज़ू ने निर्वाचित अटोल और द्वीप परिषद, जिसकी शुरुआत राष्ट्रपति रहते हुए नशीद ने लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण परियोजना के एक हिस्से के रूप में की थी, को ख़त्म करने की मांग की है. इस परिषद की जगह मुइज़्ज़ू संभवत: नामित निकायों को बहाल करना चाहते हैं जैसा कि लोकतंत्र से पहले के ज़माने में राष्ट्रपति गयूम के समय था. दोनों का उद्देश्य ज़मीनी स्तर पर वफादार लोगों को इनाम देना था लेकिन दोनों ही तरीकों से कुछ अच्छे काम किए गए.
मौजूदा संकेतों के हिसाब से देखें तो अगले साल अटोल परिषद का चुनाव नहीं होगा. इस तरह केवल एक संवैधानिक जनमत संग्रह ही 2028 में मुइज़्ज़ू की फिर से राष्ट्रपति चुनाव की दावेदारी से पहले उनके कार्यकाल के आधे समय में उनके लिए एक लोकप्रिय विश्वास मत के रूप में काम करता है. सत्ता में रहने वाले के पास संस्थागत लाभ उपलब्ध है जो दूसरे पक्ष के पास नहीं है.
वैसे इसके बिना भी विपक्षी MDP का नेतृत्व हताश और कार्यकर्ता निराश नज़र आते हैं. इसका प्रमाण रमज़ान के दौरान ‘लोकतंत्र की रक्षा’ के नाम पर राजधानी माले में हफ्ते भर तक शाम के समय आयोजित मुइज़्ज़ू विरोधी रैलियों में लोगों की कम उपस्थिति से मिलता है. नशीद अब घाना में एक अंतर्राष्ट्रीय जलवायु अभियान का नेतृत्व कर रहे हैं और उन्हें अंशकालिक (पार्ट-टाइम) राजनेता माना जाता है भले ही वो कई बार मालदीव की यात्रा करते हैं या सोशल मीडिया पर अपनी राय पोस्ट करते हैं.
विपक्ष में एक तीसरा चेहरा भी है. लेकिन लंबित ट्रायल के अलावा कोर्ट में चल रहे मामलों और सज़ा को देखते हुए मुइज़्ज़ू से अलग होने वाले उनके राजनीतिक गुरु यामीन पिछली बार की तरह अगले राष्ट्रपति चुनाव में भी भाग लेने की अनुमति को लेकर अभी भी निश्चिंत नहीं हैं. ये ऐसी बात है जिसे मुइज़्ज़ू के विरोधी मौजूदा चर्चा में समझने से चूकते प्रतीत होते हैं. मुइज़्ज़ू के विरोधी उनके प्रस्तावों, चाहे वो उनका समर्थन कर रहे हों या विरोध कर रहे हों, के दर्शन पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, व्यावहारिक स्तर पर उसके संभावित परिणामों पर नहीं.
चेन्नई में रहने वाले एन सत्यामूर्ति नीति विश्लेषक और राजनीतिक समीक्षक हैं.
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N. Sathiya Moorthy is a policy analyst and commentator based in Chennai.
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