Published on Jul 29, 2023 Updated 0 Hours ago

क्या 2023 के चुनाव से पहले अब्दुल्ला यामीन की अगुवाई वाले विपक्ष को अपनी रणनीति पर फिर से विचार करना चाहिए, वरना कहीं बहुत देर न हो जाए?

मालदीव: अब्दुल्ला यामीन के ‘भारत भगाओ’ अभियान के ख़िलाफ़ सोलिह सरकार के गठबंधन साझीदारों की एकजुटता
मालदीव: अब्दुल्ला यामीन के ‘भारत भगाओ’ अभियान के ख़िलाफ़ सोलिह सरकार के गठबंधन साझीदारों की एकजुटता

जब मालदीव के राष्ट्रपति इब्राहिम सोलिह के सत्ताधारी गठबंधन के सभी चार साझीदारों ने पूर्व राष्ट्रपति और प्रतिद्वंदी अब्दुल्ला यामीन के ‘भारत भगाओ’ पर अलग-अलग कड़ा विरोध जताया, तो सरकार ने भी कहा कि ऐसे राजनीतिक अभियानों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. प्रतीकात्मक रूप से पुलिस ने पहले ही ‘इंडिया आउट’ लिखी हुई टी-शर्ट पहनने वाले चार लोगों को गिरफ़्तार कर लिया था. उसके बाद से ही सवाल उठ रहे हैं कि क्या अब्दुल्ला यामीन का पीपीएम-पीएनसी गठबंधन अपने एक सूत्रीय कार्यक्रम वाले चुनावी अभियान की तुर्शी को दो साल बाद होने वाले राष्ट्रपति चुनावों तक क़ायम रख पाने में क़ामयाब हो सकेगा? या फिर, आने वाले दिनों में जनता की रोज़ी-रोटी से जुड़े मसले इस पर हावी हो जाएंगे?

पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद पिछले एक साल से अपने समर्थन से चल रही इब्राहिम सोलिह सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर उसे निशाने पर लिए हुए हैं. हालांकि, नशीद को इसका मिला जुला फ़ायदा ही हुआ है.

यामीन के अभियान के विरोध की अगुवाई सत्ताधारी गठबंधन की मालदीव डेमोक्रेटिक पार्टी के अध्यक्ष मोहम्मद नशीद ने की, जो संसद के स्पीकर भी हैं. नशीद ने सबसे पहले ऐलान किया था कि विपक्ष के इस अभियान को जारी रखने की इजाज़त नहीं दी जाएगी. उसके बाद से, सत्ताधारी गठबंधन के अन्य तीन साझीदारों, जम्हूरियत पार्टी (JP), धार्मिक अदालत पार्टी (AP) और पूर्व राष्ट्रपति मामून अब्दुल गयूम की मामून रिफॉर्म मूवमेंट (MRM) ने भी ऐसे ही कड़े बयान दिए हैं. इसी बीच राष्ट्रपति कार्यालय के चीफ ऑफ स्टाफ और अदालत पार्टी के प्रतिनिधि अली ज़हीर ने बयान दिया कि, ‘सरकार विपक्ष के अभियान को क़तई बर्दाश्त नहीं करेगी.’ हो सकता है कि सत्ताधारी गठबंधन की इस एकजुटता ने विपक्षी खेमे में हलचल मचा दी हो. क्योंकि विपक्षी दल अपने इस अभियान से सत्ताधारी गठबंधन की दरारों का फ़ायदा उठाना चाहते थे. पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद पिछले एक साल से अपने समर्थन से चल रही इब्राहिम सोलिह सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर उसे निशाने पर लिए हुए हैं. हालांकि, नशीद को इसका मिला जुला फ़ायदा ही हुआ है. अब्दुल्ला यामीन ने इस मौक़े का फ़ायदा उठाने के लिए, हो सकता है ये सोचा हो कि अगर वो इब्राहिम सोलिह सरकार को अपने भारत विरोधी अभियान से घेरें, तो शायद 2023 के राष्ट्रपति चुनाव के लिए ये उनका सबसे बड़ा सियासी अभियान बन जाए.

जब हथियारबंद लोगों ने तत्कालीन राष्ट्रपति मामून अब्दुल गयूम का तख़्तापलट करने की कोशिश की थी, तब भारत ने फ़ौरन अपने सैनिक भेजकर इस साज़िश को नाकाम कर दिया था

मालदीव सरकार ने यामीन गुट द्वारा विकास के मोर्चे पर की जा रही आलोचना का कड़ा प्रतिरोध किया है. अलग अलग द्वीपों की अलग-अलग सामाजिक और नागरिक ज़रूरतें हैं, जिनके हिसाब से मूलभूत ढांचे का विकास किया जा रहा है. इन विकास कार्यों में से कई भारत की मदद से चलाए जा रहे हैं. राष्ट्रपति सोलिह ने जिस तरह से कोविड-19 महामारी से निपटने की कोशिश की है, उसकी भी तारीफ़ की जा रही है. सरकार ने महामारी के बीच मालदीव की आमदनी के सबसे बड़े स्रोत पर्यटन क्षेत्र को बहुत पहले ही यानी 15 जुलाई 2020 को खोल दिया था. ये वो दौर था जब पर्यटन पर आधारित अन्य देश महामारी से उबरने की कोशिश ही कर रहे थे. अपने इस क़दम से सोलिह सरकार ने अपनी प्रतिष्ठा और राजनीतिक स्थिरता को दांव पर लगाने का जोखिम लिया था.

इन सब बातों के बीच, मालदीव में ज़्यादातर लोग ये मानते हैं कि भारत ने महामारी से उबरने में बहुत मदद की. भारत ने कई बार तो अपनी घरेलू ज़रूरतों की अनदेखी करते हुए मालदीव को कोविड-19 टेस्ट किट और वैक्सीन उपलब्ध कराई थीं. मालदीव को महामारी के बाद भी भारत से मदद मिल रही है. वहीं, दुनिया भर से मालदीव पहुंचने वाले सैलानियों में भारत के लोग अव्वल हैं. इससे देश पर्यटन पर आधारित अर्थव्यवस्था में नई जान आई है. कहा जाता है कि अब्दुल्ला यामीन के गठबंधन की दूसरी और तीसरी पंक्ति के नेताओं को जनता के मूड का अच्छी तरह से एहसास है. ये नेता अक्सर बड़ी ख़ुशी से ये बताते हैं कि भारत ने किस तरह मालदीव के लिए अपने निर्यात और वीज़ा के नियमों में ढील दी है. इससे पर्यटन उद्योग को बढ़ावा मिला है. मालदीव के बहुत से नागरिकों को पास ही में स्थित भारत की सस्ती स्वास्थ्य सेवा और उच्च शिक्षा सुविधाओं का भी लाभ मिला है.

मालदीव में राष्ट्रीय गौरव का भाव सबसे पहले तब पैदा हुआ था, जब सोलहवीं सदी में उसे क़रीब तेरह साल तक चले पुर्तगाल के क़ब्ज़े से आज़ादी मिली थी. उसके बाद, मालदीव ने ख़ुद को अंग्रेज़ों का ग़ुलाम होने से बचाने में भी कामयाबी हासिल की थी

मालदीव की जनता को इस बात के लिए भी राज़ी करना होगा कि भारत के विमानों, पायलटों और तकनीकी कर्मचारियों की मौजूदगी से आख़िर ख़तरा क्या है. जबकि ये सभी तो प्राकृतिक आपदा और स्वास्थ्य के संकट के वक़्त इंसानियत के नाते मालदीव के लोगों की मदद के लिए आए हैं. मालदीव के लोग उन दिनों को भी याद करते हैं, जब हथियारबंद लोगों ने तत्कालीन राष्ट्रपति मामून अब्दुल गयूम का तख़्तापलट करने की कोशिश की थी, तब भारत ने फ़ौरन अपने सैनिक भेजकर इस साज़िश को नाकाम कर दिया था (1988 का ‘ऑपरेशन कैक्टस’)

सियासी अभियान की रणनीति

अब्दुल्ला यामीन ने बड़ी चालाकी दिखाई और अपने सियासी अभियान का रुख़, देश की चालीस फ़ीसद आबादी वाली राजधानी माले के शहरी इलाक़े से दूर उन द्वीपों की तरफ़ मोड़ दिया, जिन पर बहुत कम लोग बसते हैं. जहां की जनता, राजधानी की चहल-पहल से कटी हुई रहती है. राजधानी माले में अपनी प्रेस कांफ्रेंस की तरह ही रैलियों में भी अब्दुल्ला यामीन ने कहा कि, ‘मालदीव में भारतीय सेना की मौजूदगी की ज़रूरत नहीं है’. उन्होंने इस बारे में जनमत संग्रह (?) या जनता के मत जानने की बात कही, और उसके साथ साथ ये उम्मीद भी जताई कि ‘जैसे ही भारत की सेना मालदीव से विदा होगी, तो इब्राहिम सोलिह सरकार का भी पतन हो जाएगा’. चीन द्वारा बार बार कही जाने वाली बात दोहराते हुए अब्दुल्ला यामीन ने ये भी कहा कि, ‘हिंद महासागर, भारत का महासागर नहीं है.’

अब्दुल्ला यामीन जिस तरह से अपने भारत विरोधी एक सूत्रीय एजेंडे पर अड़े हुए हैं, उससे सत्ताधारी गठबंधन के सभी दलों को एक साथ बने रहने की ज़रूरत और बढ़ गई है, और वो अपने लिए शायद 2018 में मिले जनादेश से भी मज़बूत स्थिति देख रहे हैं.

इन बातों के बावजूद, मालदीव के सियासी लीडर और ख़ास तौर से अब्दुल्ला यामीन के नेतृत्व वाले विपक्षी गठबंधन के नेता ये मानने को तैयार नहीं हैं कि पिछले एक दशक में टीवी न्यूज़ चैनलों और सब तक पहुंच बना चुके सोशल मीडिया ने हालात को बिल्कुल बदल दिया है. मालदीव के लोग ख़ुद भी भारत की अपने यहां मौजूदगी के फ़ायदों से वाकिफ़ हैं और उसे ख़ुद से महसूस करते हैं. उनके लिए, मालदीव में भारतीय सेना की मौजूदगी का मतलब, प्राकृतिक आपदा या सेहत की इमरजेंसी के वक़्त आसानी से हेलीकॉप्टर या विमान सेवा का उपलब्ध होना है. यही कारण है कि अब्दुल्ला यामीन की ‘भारत भगाओ’ रैलियों से भीड़ नदारद रह रही है.

मालदीव के विपक्षी दलों का मौजूदा अभियान, अब्दुल्ला यामीन की अगुवाई वाले ‘दिसंबर 23 आंदोलन’ का ही एक नया रूप है, जो उन्होंने 2011-12 में चलाया था. उस विरोध प्रदर्शन के चलते एक तरफ़ तो मोहम्मद नशीद को राष्ट्रपति पद छोड़ना पड़ा था. वहीं, दूसरी तरफ़ भारत के GMR ग्रुप को मालदीव में अपनी कई परियोजनाएं रद्द करनी पड़ी थीं. एक दशक पहले के वो विरोध प्रदर्शन ‘इस्लामिक राष्ट्रवाद’ के सिद्धांत पर आधारित थे. वो आंदोलन इसलिए कामयाब हो गया था, क्योंकि तब सोशल मीडिया का युग नहीं आया था. वो आंदोलन दो मुख्य बातों पर आधारित था. पहली बात तो उस मज़हब पर आधारित थी, जिसने क़रीब 800 साल पहले मालदीव को अपने शिकंजे में लिया था. दूसरा कारण, ‘राष्ट्रीय गौरव’ के नारे था. मालदीव में राष्ट्रीय गौरव का भाव सबसे पहले तब पैदा हुआ था, जब सोलहवीं सदी में उसे क़रीब तेरह साल तक चले पुर्तगाल के क़ब्ज़े से आज़ादी मिली थी. उसके बाद, मालदीव ने ख़ुद को अंग्रेज़ों का ग़ुलाम होने से बचाने में भी कामयाबी हासिल की थी. वो उस दौर में भी ब्रिटिश साम्राज्य के संरक्षण वाला देश ही रहा था, जबकि उसके पास-पड़ोस के बड़े देश जैसे कि श्रीलंका और भारत सदियों तक अंग्रेज़ों के ग़ुलाम रहे थे.

अब्दुल्ला यामीन जो भारत विरोधी अभियान चला रहे हैं, उसे लेकर लोगों की राय बंटी हुई है. कुछ लोग इसे एक कामयाब सियासी रणनीति को दोहराने के तौर पर देखते हैं. वहीं, कुछ विश्लेषकों का मानना है कि यामीन के इस बार के अभियान में नयापन नहीं है. हो सकता है कि इसका चुनावी फ़ायदा उठा पाना भी आसान न हो. क्योंकि, यामीन ख़ेमा पहले की तरह इस बार जनता से उसी शिद्दत से जुड़ने में सफल नहीं हो पाया है. पहले और अब में बड़ा अंतर तो ये है कि मौजूदा राष्ट्रपति, संसद में बहुमत के लिए उस तरह अब्दुल्ला यामीन के सांसदों के भरोसे नहीं हैं, जैसे पूर्व राष्ट्रपति नशीद थे. तब राजनीतिक अस्थिरता का डर था. अभी वैसी स्थिति नहीं है. हो सकता है कि इसी वजह से अब्दुल्ला यामीन इस बार अपने सियासी अभियान को पहले की तरह धारदार बनाए रखने में कामयाब न हो पाएं. तीसरी बात ये भी है कि इस बार सोशल मीडिया की गहरी पैठ एक दुधारी तलवार साबित हो सकती है.

गठबंधन की पहेलियां

विपक्ष के अभियान ने भविष्य में विरोधी पार्टियों के बीच नए गठबंधन की संभावनाओं के दरवाज़े खोल दिए हैं. सत्ताधारी गठबंधन की बात करें, तो जिस तरह स्पीकर मोहम्मद नशीद ने अब्दुल्ला यामीन के अभियान के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की, उससे कम से कम फौरी तौर पर यामीन और नशीद के बीच गठबंधन और नशीद द्वारा उठाई जा रही संसदीय प्रशासन की मांग को यामीन से समर्थन मिलने की उम्मीद कम ही है. मालदीव डेमोक्रेटिक पार्टी के सहयोगी दल भी इस प्रस्ताव के ख़िलाफ़ हैं और अगर वो इस पर आगे बढ़ते हैं, तो ये सहयोगी दल नशीद का साथ छोड़ सकते हैं. अंदरूनी विरोध के अलावा भी मोहम्मद नशीद की अगुवाई वाली मालदीव डेमोक्रेटिक पार्टी, संवैधानिक आधार पर जनमत संग्रह का सामना करने की स्थिति में नहीं है. क्योंकि अगर उसके नतीजे उम्मीद से उलट रहे, तो उनका असर बाद में होने वाले राष्ट्रपति चुनावों पर भी पड़ सकता है.

अब ये बात बिल्कुल साफ़ हो चली है कि अब्दुल्ला यामीन जिस तरह से अपने भारत विरोधी एक सूत्रीय एजेंडे पर अड़े हुए हैं, उससे सत्ताधारी गठबंधन के सभी दलों को एक साथ बने रहने की ज़रूरत और बढ़ गई है, और वो अपने लिए शायद 2018 में मिले जनादेश से भी मज़बूत स्थिति देख रहे हैं. इसके अलावा पीपीएम-पीएनसी गठबंधन में जो बात खुलकर नहीं कही जा रही है, वो ये है कि अपने स्थानीय विरोधी इब्राहिम सोलिह को बाहरी मददगार भारत के साथ जोड़ देने से, ख़ुद सोलिह के गुनाहों पर पर्दा पड़ जाएगा. सुप्रीम कोर्ट के हालिया फ़ैसले के बावजूद सत्ताधारी गठबंधन को अपने ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों से छुटकारा नहीं मिल सका है. ऐसे में एमडीपी के मोहम्मद नशीद के उलट अब्दुल्ला यामीन गुट, इब्राहिम सोलिह की सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाने का इच्छुक नहीं दिख रहा है.

सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले ने ये सुनिश्चित कर दिया है कि पीपीएम-पीएनसी खेमे के पास राष्ट्रपति चुनाव ‘जीतने लायक़’ एक ऐसा उम्मीदवार है, जो पार्टी का निर्विरोध नेता भी है. भ्रष्टाचार के दो लंबित मामलों में अगर भविष्य में अब्दुल्ला यामीन को सज़ा होती है और वो चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहरा दिए जाते हैं, तो उनकी पार्टी की दूसरी पंक्ति के कई नेताओं में राष्ट्रपति उम्मीदवार बनने की महत्वाकांक्षाएं जाग सकती हैं. यामीन के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के एक मामले की सुनवाई नए साल की शुरुआत में ही होने वाली है. ऐसे में उनकी पार्टी की एकजुटता में दरार आ सकती है और भितरघात शुरू हो सकती है. वैसे तो अब्दुल्ला यामीन बार बार ये कहते रहते हैं कि उन्होंने अब तक राष्ट्रपति चुनाव लड़ने या न लड़ने के बारे में कोई फ़ैसला नहीं लिया है. लेकिन ये साफ़ नहीं है कि यामीन ये बयान अपने ऊपर चल रहे मुक़दमों और उनके नतीजों को लेकर आशंका के चलते दे रहे हैं, या फिर इसकी कोई और वजह है.

2018 में जब अब्दुल्ला यामीन राष्ट्रपति चुनाव हारे थे, तब उन्हें 42 प्रतिशत वोट मिले थे. तमाम लोकतांत्रिक कमियों के बावजूद, उन्हें ये वोट ‘विकास पुरुष’ के नाम पर मिले थे

मालदीव की सियासत में तनाव का एक और मोर्चा तब खुल गया, जब हाल ही में मालदीव नेशनल पार्टी बनाने वाले और यामीन सरकार में मंत्री रहे कर्नल (रिटायर्ड) मोहम्मद नसीम ने अपने पुराने बॉस यामीन पर हमले करने शुरू कर दिए. इससे पहले जब सुप्रीम कोर्ट ने यामीन के हक़ में फ़ैसला दिया था, तो नसीम कुछ दिनों तक ख़ामोश रहे थे. चूंकि, मोहम्मद नसीम ख़ुद भी राष्ट्रपति बनने की महत्वाकांक्षा रखते हैं, तो नसीम को लगता है कि भविष्य में अगर यामीन पर चल रहे मुक़दमों का फ़ैसला उनके ख़िलाफ़ जाता है, तो इसका सियासी और चुनावी फ़ायदा उन्हें हो सकता है.

रणनीति में कुशलता की कमी

यामीन की रणनीति में कुशलता की कमी भी दिख रही है. पहली बात तो ये कि उनके लिए अपने मौजूदा अभियान को लंबे समय तक जारी रख पाना मुश्किल होगा. अगर कोई दूसरा उम्मीदवार बनता है, तो वो यामीन के निजी सियासी एजेंडे को उस तरह लोकप्रिय बनाकर आगे नहीं बढ़ा पाएगा. चूंकि, अभी चुनाव में काफ़ी वक़्त है, तो यामीन के लिए अपनी पार्टी को अपनी पसंद के उम्मीदवार के नाम पर राज़ी करने के लिए बहुत मशक़्क़त करनी पड़ेगी; और अगर बात वहां तक पहुंची, तो यामीन के पास ऐसा एजेंडा तैयार करने का बहुत कम समय बचेगा, जो जनता को उनकी तरफ़ आकर्षित कर सके.

इसमें एक और बात भी है. 2018 में जब अब्दुल्ला यामीन राष्ट्रपति चुनाव हारे थे, तब उन्हें 42 प्रतिशत वोट मिले थे. तमाम लोकतांत्रिक कमियों के बावजूद, उन्हें ये वोट ‘विकास पुरुष’ के नाम पर मिले थे. पिछली बार उन्हें वोट करने वालों को लगता है कि यामीन घरेलू राजनीति को बाहरी मसलों से जोड़कर अपना वक़्त भी बर्बाद कर रहे हैं, और भारत विरोधी अभियान चलाकर ठीक उसी तरह, देश का नुक़सान कर रहे हैं, जिस तरह उन्होंने पहले 2011-13 में विरोध प्रदर्शन करके और फिर राष्ट्रपति के तौर पर (2013-2018) के दौरान किया था.

2018 में यामीन के प्रति वफ़ादार रहे मतदाताओं में से बड़ी तादाद, उससे पहले के तीन बहुदलीय राष्ट्रपति चुनावों के ‘स्विंग वोट’ की थी. उन्हें लगता है कि एक अर्थशास्त्री राजनेता के तौर पर यामीन महामारी के बाद विकास की योजना लेकर आएंगे, जबकि मौजूदा राष्ट्रपति सोलिह ने इस मुश्किल दौर में देश को बचाकर रखा. मालदीव के लोग मानते हैं कि महामारी के दौरान भारत ने एक क़रीबी पड़ोसी और पुराने भरोसेमंद साझीदार के रूप में लगातार मालदीव की मदद की है. लेकिन, ऐसे मतदाताओं की देश की अर्थव्यवस्था और मददगारों को लेकर जो सोच है, यामीन का मौजूदा सियासी दांव उसके उल्टी दिशा में जा रहा है.

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