मालदीव में पिछले चार चुनावों में छह राष्ट्रपति बने. जनता ने इनमें से किसी को भी दोबारा मौक़ा नहीं दिया. इससे साबित हो गया है कि मालदीव का लोकतंत्र का तजुर्बा भले ही महज़ डेढ़ दशक पुराना हो, मगर उसको हलके में क़तई नहीं लिया जा सकता है. सत्ताधारी पार्टी के ख़िलाफ़ मतदान के चलन को बनाए रखते हुए, मालदीव के मतदाताओं ने एक कड़ा संदेश दिया है कि देश के मालिक मुख़्तार वो ही हैं. और वो, चुनाव से ठीक पहले बड़ी बड़ी घोषणाओं, मुफ़्त की योजनाओं और लुभावने वादों के जाल में नहीं फंसने वाले. ख़ास तौर से तब और जब सियासी स्थिरता और नैतिकता को लेकर उनकी सोच, राजनेताओं के बर्ताव के ठीक उलट हो. पिछले महीने दो दौर में हुए राष्ट्रपति चुनावों के दौरान मालदीव की जनता ने अपने नेताओं को एक बार फिर से यही संदेश दिया है. राष्ट्रपति चुनाव में विपक्षी पीपीएम–पीएनसी के गठबंधन के साझा उम्मीदवार,45 बरस के माले शहर के मेयर डॉक्टर मुहम्मद मुइज़्ज़ू ने सत्ताधारी, मालदीव डेमोक्रेटिक पार्टी (MDP) के प्रत्याशी और राष्ट्रपति इब्राहिम मुहम्मद सोलिह को सम्मानजनक अंतर से शिकस्त दे दी.
चुनावों के दौरान सत्ताधारी इब्राहिम सोलिह की सरकार ने जेल में क़ैद विपक्षी नेता और पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन के भ्रष्टाचार के पुराने मामलों को ख़ूब उछाला. लेकिन, मतदाताओं ने उनके आरोपों पर आंख मूंदकर यक़ीन करने के बजाय, राष्ट्रपति चुनाव में मतदान के लिए अपना अलग पैमाना अपनाया.
चुनावों के दौरान सत्ताधारी इब्राहिम सोलिह की सरकार ने जेल में क़ैद विपक्षी नेता और पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन के भ्रष्टाचार के पुराने मामलों को ख़ूब उछाला. लेकिन, मतदाताओं ने उनके आरोपों पर आंख मूंदकर यक़ीन करने के बजाय, राष्ट्रपति चुनाव में मतदान के लिए अपना अलग पैमाना अपनाया. हालांकि, जिस तरह इब्राहिम सोलिह ने पहले निर्वाचित राष्ट्रपति मुहम्मद मुइज़्ज़ू से निजी तौर पर सत्ता के सहज हस्तांतरण का वादा किया, और फिर चुनाव के बाद अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस में सार्वजनिक रूप से इसकी घोषणा की, उसकी भी तारीफ़ की जानी चाहिए. संविधान के मुताबिक़, मुइज़्ज़ू को 17 नवंबर को संसद के सामने राष्ट्रपति पद की शपथ दिलाई जाएगी. सोलिह और मुइज़्ज़ू, दोनों ने पहले की तरह सत्ता के आसान हस्तांतरण की ‘प्रक्रिया’ तय करने के लिए ‘ट्रांज़िशन टीमें’ भी घोषित कर दी हैं. इब्राहिम सोलिह ने उन अटकलों पर भी विराम लगा दिया है कि वो देश छोड़कर भागने वाले हैं. सोलिह ने बयान दिया है कि वो अपनी मालदीव डेमोक्रेटिक पार्टी को मज़बूत करने के लिए काम करते रहेंगे. हालांकि, वो दोबारा चुनाव लड़ने के लिए पार्टी का टिकट नहीं मांगेंगे. उन्होंने ख़ास तौर से इस बात पर ज़ोर दिया है कि वो अपनी सरकार के हर क़दम की जवाबदेही के लिए तैयार हैं.
वहीं, अपनी तरफ़ से मुहम्मद मुइज़्ज़ू ने भी पुराने मतभेद भुलाकर, एकजुटता और देश को प्राथमिकता देने की बातें कही हैं. जब एमडीपी ने कहा कि वो सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करेगी, तो मुइज़्ज़ू ने भी उम्मीद जताई कि एमडीपी एक ‘ज़िम्मेदार विपक्ष’ की भूमिका निभाएगी. ऐसी अफ़वाहें चल रही थीं कि मुहम्मद मुइज़्ज़ू, अब्दुल्ला यामीन के हाथों की कठपुतली होंगे. लेकिन, इनको ख़ारिज करते हुए मुइज़्ज़ू ने कहा कि ‘मेरे ऊपर किसी की हुकूमत नहीं चलेगी’. इस बात की अहमियत को ऐसे समझ सकते हैं कि इब्राहिम सोलिह ने कहा था कि एमडीपी में कोई भी शख़्स पार्टी से बड़ा नहीं है. सोलिह का ये बयान, उनके दोस्त से दुश्मन बने मुहम्मद नशीद के लिए था, जो संसद के स्पीकर थे. नशीद ने पहले तो इकतरफ़ा फ़ैसला लेते हुए एमडीपी को अलविदा कहकर डेमोक्रेट्स के नाम से नई पार्टी बना ली थी. लेकिन, बाद में उन्होंने दोबारा एमडीपी में शामिल होने का प्रस्ताव रखा था. 9 सितंबर को पहले दौर के चुनाव के बाद डेमोक्रेट्स वैसे तो बेहद कम यानी 7.5 प्रतिशत वोटों के साथ तीसरे नंबर पर आई थी. लेकिन, ये अंतर भी जीत हार का फ़ैसला करने में निर्णायक साबित हुआ. इब्राहिम सोलिह ने कहा था कि एमडीपी के 99 फ़ीसद सदस्य नशीद की पार्टी में फिर से वापसी के ख़िलाफ़ थे.
अपनी प्रेस कांफ्रेंस में इब्राहिम सोलिह ने प्रशासनिक व्यवस्था में किसी बदलाव के प्रति अपना विरोध भी जताया. मोहम्मद नशीद ने इस बदलाव का प्रस्ताव संसद से पारित कराकर चुनाव आयोग के पास भेजा था. लेकिन, सोलिह ने मीडिया से कहा कि जनादेश के तहत, निर्वाचित राष्ट्रपति को एक अवसर मिलना चाहिए. लेकिन, नशीद जिस संसदीय व्यवस्था की वकालत कर रहे थे, वो लागू होने पर निर्वाचित राष्ट्रपति को वो मौक़ा नहीं मिल पाता, जो 2008 में देश में लोकतांत्रिक संविधान लागू होने के बाद से मिल रहा है. इस सवाल पर भी जनता ने 38 के मुक़ाबले 62 प्रतिशत के बहुमत से राष्ट्रपति प्रणाली लागू करने के पक्ष में मतदान किया था.
जब मुइज़्ज़ू की पार्टी प्रोग्रेसिव नेशनल कांग्रेस (PNC) ने उनको भारी बहुमत से उम्मीदवार बनाया, तो ऐसा लग रहा था कि वो अब अब्दुल्ला यामीन की सरपरस्ती में काम करने के बजाय अलग रास्ते पर चल पड़े हैं. क्योंकि, पीएनसी का गठन अब्दुल्ला यामीन ने राष्ट्रपति पद से हटने के बाद किया था.
वहीं, चुनाव आयोग ने इस मामले पर 29 अक्टूबर को जनमत संग्रह कराने का फ़ैसला किया है. हालांकि, संसद ने अब तक चुनाव आयोग के इस सवाल का जवाब नहीं दिया है कि जनमत संग्रह किस नाम से कराया जाएगा. इस पूरे विवाद के दौरान मुइज़्ज़ू और उनका गठबंधन राष्ट्रपति प्रणाली बनी रहने का समर्थन करता रहा है. देश के दो प्रमुख दलों द्वारा संसदीय व्यवस्था लागू करने का प्रस्ताव ख़ारिज करने की वजह से नशीद की पार्टी ने मजलिस से गुज़ारिश की थी कि वो इस पर जनमत संग्रह को बाद के लिए स्थगित कर दे, ताकि जनता के बीच संसदीय व्यवस्था का ख़ूबियों का अच्छे से प्रचार किया जा सके.
ऐतिहासिक जीत
मुइज़्ज़ू के लिए ये ऐतिहासिक जीत है. एकदम आख़िरी मौक़े पर चुनाव मैदान में उतरना और वो भी इस तरह कि लोगों को लगे कि वो पार्टी के मुखिया यामीन की नाफ़रमानी कर रहे हैं. लेकिन, स्ट्रक्चरल इंजीनियरिंग में पीएचडी करने वाले 45 बरस के मुइज़्ज़ू के पास चुनाव प्रचार के लिए बमुश्किल तीन हफ़्ते का वक़्त था. जबकि उनके मुक़ाबले खड़े राष्ट्रपति इब्राहिम सोलिह को तो पूरे पांच साल के कार्यकाल का समय मिला था. चुनाव लड़ रहे बाक़ी छह उम्मीदवारों को भी पहले दौर के प्रचार के लिए काफ़ी, यानी कुछ महीनों से लेकर कई सालों तक का समय मिला था. हालांकि, वो सब के सब हार गए.
वहीं, जब सुप्रीम कोर्ट ने जब जेल में क़ैद अब्दुल्ला यामीन के चुनाव लड़ने पर चुनाव आयोग द्वारा लगाई गई पाबंदी (या फिर उनकी क़ैद पूरी होने के तीन साल बाद तक) पर मुहर लगाई, तो यामीन चाहते थे कि उनका गठबंधन चुनाव का बहिष्कार करे. जब मुइज़्ज़ू की पार्टी प्रोग्रेसिव नेशनल कांग्रेस (PNC) ने उनको भारी बहुमत से उम्मीदवार बनाया, तो ऐसा लग रहा था कि वो अब अब्दुल्ला यामीन की सरपरस्ती में काम करने के बजाय अलग रास्ते पर चल पड़े हैं. क्योंकि, पीएनसी का गठन अब्दुल्ला यामीन ने राष्ट्रपति पद से हटने के बाद किया था. यामीन को प्रोग्रेसिव पार्टी ऑफ मालदीव (PPM) की कमान भी विरासत में मिली थी. ये पार्टी उनसे अलग हो चुके सौतेले भाई और पूर्व राष्ट्रपति मामून अब्दुल गयूम ने बनाई थी. ऐसा लगा था कि यामीन ने कोई चारा न बचने पर, आख़िरी विकल्प के तौर पर मुइज़्ज़ू की उम्मीदवारी का समर्थन किया था.
राष्ट्रपति के तौर पर यामीन ने शुरुआत तो ‘इंडिया फर्स्ट’ की विदेश नीति से की थी. क्योंकि दोनों देशों को पहले तो घरेलू सियासी माहौल में बढ़ते टकराव को रोकना और फिर अब पीपीएम-पीएनसी गठबंधन के नेतृत्व में भारत विरोधी माहौल बनने से रोकना होगा.
अब्दुल्ला यामीन ने 2018 के राष्ट्रपति चुनाव में अपने दम पर 42 प्रतिशत वोट हासिल किए थे. हालांकि, तब इब्राहिम सोलिह ने विपक्ष के साझा प्रत्याशी के तौर पर सबसे ज़्यादा 58 फ़ीसद वोट हासिल किए थे. 2023 के चुनावों ने दिखा दिया है कि मुइज़्ज़ू ने संभवत: वो सारे वोट तो हासिल किए ही, इसके साथ साथ उन्होंने दोनों दौर के चुनावों में अपना वोट प्रतिशत और बढ़ाया, जबकि राष्ट्रपति सोलिह के वोट लगातार कम होते रहे. इसकी शुरुआत उनके ख़िलाफ़ ख़ामोश नाराज़गी से हुई, जिसकी वजह से पहले दौर में मतदान का प्रतिशत भी कम रहा था. इनमें वो वोट भी शामिल थे, जो सोलिह ने अपने उन नए और पुराने गठबंधन साझीदारों के हाथ गंवा दिए, जिन्होंने पहले या दूसरे दौर में उनका साथ छोड़ दिया था. उनकी पार्टी से टूटकर अलग हुए डेमोक्रेट्स के प्रत्याशी इलियास हबीब ने भी पहले दौर में 7.5 फ़ीसद वोट हासिल किए थे. मगर उम्मीद के उलट ये वोट भी वापस सोलिह की झोली में नहीं गिरे.
वादे और उन पर अमल
मुइज़्ज़ू ने चुनाव के बाद अपनी राजनीति की शुरुआत अब्दुल्ला यामीन को जेल से ‘घर में नज़रबंदी’ की निजी और सार्वजनिक गुज़ारिश के साथ की. इसको लेकर यामीन की अर्ज़ी कई हफ़्तों से विचाराधीन पड़ी थी. इब्राहिम सोलिह ने अपने बाद बनने वाले राष्ट्रपति की इस गुज़ारिश को मानने में ये कहते हुए ज़रा भी देर नहीं की कि वो जनादेश का सम्मान करते हुए ‘राष्ट्रहित में’ ये फ़ैसला कर रहे हैं. पूरे अभियान के दौरान मुइज़्ज़ू ये बात दोहराते रहे थे कि राष्ट्रपति बनने के बाद उनका पहला काम अब्दुल्ला यामीन को इंसाफ़ और आज़ादी दिलाना होगा. जब चुनाव के बाद यामीन के क़ानूनी सलाहकारों ने उनको क़ैद से आज़ाद कराने की मांग उठाई, तो मुइज़्ज़ू ने अपनी विजय रैली में कहा कि सड़कों पर उतरने से पहले जनता उन्हें थोड़ा वक़्त दे दे.
अब्दुल्ला यामीन का रुख़ और रवैया न केवल घरेलू राजनीतिक मामलों में अहम होगा, बल्कि विदेश नीति के मामलों पर भी उनका गहरा असर रहेगा. इसकी शुरुआत पार्टी के भीतरी समीकरणों और अभी से लेकर राष्ट्रपति पद संभालने तक मुइज़्ज़ू के साथ उनके रिश्तों की रूप–रेखा से होगी. इब्राहिम सोलिह और यामीन के निजी झगड़ों का असर मालदीव के सबसे नज़दीकी पड़ोसी भारत के साथ रिश्तों पर भी पड़ता रहा था. इसका अंजाम पीपीएम–पीएनसी गठबंधन द्वारा पिछले कई वर्षों के दौरान चलाए गए ‘इंडिया आउट/ इंडिया मिलिट्री आउट’ अभियान के तौर पर देखने को मिला था.
राष्ट्रपति के तौर पर यामीन ने शुरुआत तो ‘इंडिया फर्स्ट’ की विदेश नीति से की थी. क्योंकि दोनों देशों को पहले तो घरेलू सियासी माहौल में बढ़ते टकराव को रोकना और फिर अब पीपीएम–पीएनसी गठबंधन के नेतृत्व में भारत विरोधी माहौल बनने से रोकना होगा. अपने प्रचार अभियान के दौरान, मुइज़्ज़ू ने भी अपने देश की ‘स्वतंत्रता’ और विदेशी सैनिकों को हटाने की ज़रूरत पर लगातार बल दिया था. उनका इशारा, मालदीव में तथाकथित रूप से मौजूद भारतीय सैनिकों की तरफ़ था. जीत के बाद अपनी रैली में मुइज़्ज़ू ने पहली बार नाम लेकर भारत का ज़िक्र किया था और कहा था कि जब वो ‘राजदूत से मिलेंगे तो उनसे बात करेंगे’ और राष्ट्रपति बनने के पहले दिन ही इस दिशा में आगे क़दम बढ़ाएंगे.
अगले पांच साल में वो क्या, कैसे, कब और किसके साथ ये काम करते हैं, इसी पर भारत और मालदीव के रिश्ते निर्भर करेंगे. ख़ास तौर से तब और जब देश के सभी राजनीतिक दल और नेता अगले साल अप्रैल में होने वाले संसदीय चुनावों की तैयारी में जुटने वाले हैं.
मुइज़्ज़ू ने ये बयान तब दिया, जब सत्ताधारी इब्राहिम सोलिह ने चुनाव के बाद अपनी प्रेस कांफ्रेंस में दोहराया था कि उनकी सरकार ‘किसी एक देश पर निर्भर नहीं थी’, और उन्होंने भारत के साथ अपने रिश्तों को लेकर कोई अफ़सोस न जताते हुए, इस बात की तारीफ़ की कि भारत ने उनके कार्यकाल में भारत की बहुत मदद की थी.
वक़्त के जांचे परखे रिश्ते
पहले की तरह इस बार फिर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुइज़्ज़ू को राष्ट्रपति चुनाव जीतने की बधाई देने वाले पहले विश्व नेता थे. मोदी ने सोशल मीडिया पर संकेतों से भरपूर मगर हक़ीक़त जताने वाले अपने बधाई संदेश में कहा कि, ’भारत हमेशा की तरह मालदीव के साथ ऐतिहासिक रिश्तों को और मज़बूती देने और हिंद प्रशांत में व्यापक सहयोग को बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध है.’
दो देशों के तौर पर निश्चित रूप से कुछ मसले तो हैं. भले ही ये मसले दो देशों के तौर पर मालदीव और भारत के बीच न हों, मगर उनके चुने हुए नेतृत्वों के आपसी संस्थागत रिश्तों में तो हैं ही. पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान को छोड़ दें, तो, चीन के हवाले से पूरे दक्षिण एशियाई क्षेत्र के सभी दोस्त पड़ोसी देशों के साथ भारत के रिश्तों में ऐसी असमानता देखने को मिलती है, जिनको दुरुस्त करने की आवश्यकता है. ये ठीक उसी तरह है जैसे शीत युद्ध के दौरान अमेरिका के संदर्भ में देखा जाता था. लेकिन, चीन के मामले में भारत के लिए ख़तरा वास्तविक है.
ये बात मालदीव पर भी लागू होती है. ख़ास तौर से चीन के प्रति झुकाव रखने वाले अब्दुल्ला यामीन के कार्यकाल में तो ये और देखने को मिला था. मुइज़्ज़ू का चीन से संपर्क, चीन के पूंजी निवेश से चल रही परियोजनाओं, जैसे कि माले– हुलहुले समुद्री पुल और देश के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से उस दौर का था, जब वो यामीन सरकार में निर्माण और आवास मंत्री थे. फिर भी, भारत और अंतरराष्ट्रीय मीडिया की ख़बरों और विश्लेषणों में उन्हें ‘चीन समर्थक’ (और इसीलिए भारत विरोधी?) बताया गया है. ये एक ऐसी चीज़ है, जिस पर मुइज़्ज़ू को सत्ता संभालने के बाद काम करना होगा. अगले पांच साल में वो क्या, कैसे, कब और किसके साथ ये काम करते हैं, इसी पर भारत और मालदीव के रिश्ते निर्भर करेंगे. ख़ास तौर से तब और जब देश के सभी राजनीतिक दल और नेता अगले साल अप्रैल में होने वाले संसदीय चुनावों की तैयारी में जुटने वाले हैं.
अब से लेकर तब तक, मुइज़्ज़ू की नई सरकार को एमडीपी के नियंत्रण वाली संसद या अवाम की मजलिस से निपटना होगा. नई कैबिनेट के लिए उसकी मंज़ूरी लेनी होगी और एक जनवरी 2024 से शुरू हो रहे वित्त वर्ष के लिए नई सरकार का बजट पारित कराना होगा. इसके अलावा, राष्ट्रपति मुइज़्ज़ू के पहले संसदीय भाषण पर भी मजलिस में परिचर्चा होगी. इन्हीं से आने वाले महीनों और वर्षों में रिश्तों की दशा दिशा तय होगी.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.