Author : Hari Seshasayee

Published on Jul 26, 2023 Updated 17 Days ago

तीसरी बार राष्ट्रपति बनने के बाद लुला (Lula) ने ब्राज़ील की घरेलू और अंतरराष्ट्रीय नीतियों में बदलाव लाने का वादा किया है.

Lula 3.0- लुला की तीसरी पारी: विश्व मंच पर ब्राज़ील की वापसी
Lula 3.0- लुला की तीसरी पारी: विश्व मंच पर ब्राज़ील की वापसी

तीसरी बार ब्राज़ील (Brazil) के राष्ट्रपति पद का चुनाव (president-election) जीतने के बाद अपने पहले भाषण (Speech) में लुइज़ इनाशियो ‘लुला’ डा सिल्वा(Lula’ da Silva) ने हैरानी जताते हुए कहा था कि, ‘उन्होंने तो मुझे ज़िंदा ही दफ़्न करने की कोशिश की थी. फिर भी मैं आज आपके सामने हूं.’

ब्राज़ील की सियासत में लुला डा सिल्वा की वापसी बॉलीवुड के किसी सस्पेंस थ्रिलर लेखक को मात देने वाली नाटकीयता भरी है. दो बार राष्ट्रपति रह चुके लुला ने 2003 से 2010 तक ब्राज़ील पर राज किया था.

कई बार हक़ीक़त, कल्पनाओं से भी अजनबी लगती है. ब्राज़ील की सियासत में लुला डा सिल्वा की वापसी बॉलीवुड के किसी सस्पेंस थ्रिलर लेखक को मात देने वाली नाटकीयता भरी है. दो बार राष्ट्रपति रह चुके लुला ने 2003 से 2010 तक ब्राज़ील पर राज किया था. 2018 में उन्हें भ्रष्टाचार के आरोपों में गिरफ़्तार कर लिया गया था; 580 दिन जेल में बिताने के बाद लुला पर लगे सारे आरोप ये कहते हुए रद्द कर दिए गए कि सारे इल्ज़ाम राजनीतिक भावना से लगाए गए हैं. 2022 के चुनावों में पूरा माहौल लुला के ख़िलाफ़ था: उनके मुक़ाबले ब्राज़ील के राष्ट्रपति जायर बोल्सोनारो थे. जो एक विवादित शख़्सियत हैं. बोल्सोनारो, ब्राज़ील के रुढ़िवादी आंदोलन, ‘बीफ, बाइबिल और बुलेट’ के कद्दावर नेता हैं; इससे पहले 1990 के दशक में ब्राज़ील में लोकतंत्र की वापसी के बाद से कोई भी पद पर बैठा राष्ट्रपति चुनाव नहीं हारा था. बोल्सोनारो ने किसी भी सत्ताधारी राष्ट्रपति को मिलने वाले हर फ़ायदे का भरपूर उपयोग किया. फिर चाहे मतदाताओं को लुभाने के लिए सामाजिक क्षेत्र की शाहख़र्ची हो, या फिर राजनेताओं को अपने पाले में करने के लिए उन्हें फ़ायदा पहुंचाना हो. फिर भी चुनाव में लुला जीत गए. हालांकि उनकी जीत का अंतर, तुलनात्मक रूप से कम यानी महज़ दो लाख वोटों का था. 

लुला की निजी कामयाबी से भी ज़्यादा चमत्कार तो ब्राज़ील के लोकतंत्र ने कर दिखाया है. पूरी दुनिया का मीडिया और विश्लेषक ब्राज़ील के लोकतंत्र की स्थिरता पर सवालिया निशान लगा रहे थे: क्या ब्राज़ील में सैन्य तानाशाही के रूप में उसके स्याह इतिहास की वापसी होगी? क्या ब्राज़ील के लोकतंत्र को भी चुनावी धांधली के वैसे ही ज़ख़्म झेलने होंगे, जैसे नवंबर 2020 के बाद से अमेरिका झेल रहा है? क्या बोल्सोनारो, जिन्होंने चीख़ चीख़कर कहा था कि चुनाव के केवल तीन ही नतीजे निकलेंगे- वो गिरफ़्तार होंगे, उनका क़त्ल होगा या फिर वो चुनाव जीत जाएंगे- वही बोल्सोनारो, ब्राज़ील के संस्थानों को अस्थिर करने की कोशिश करेंगे.

हालांकि, अंत में इसमें से कुछ भी नहीं हुआ. अपनी तमाम कमज़ोरियों के बावुजूद ब्राज़ील का लोकतंत्र मज़बूती से खड़ा रहा. जब ब्राज़ील के सुपीरियर इलेक्टोरल कोर्ट (पुर्तगाली भाषा में TSE)ने चुनाव की तारीख़ यानी 30 अक्टूबर की रात 8 बजे लुला को विजेता घोषित किया, तब ब्राज़ील के लोकतांत्रिक संस्थानों ने तारीफ़ के क़ाबिल धैर्य और समझदारी का परिचय दिया था.

आख़िर बोल्सोनारो, अमेरिका में ट्रंप की तरह चुनाव में धांधली के इल्ज़ाम क्यों नहीं लगा रहे हैं? इस सवाल का जवाब, ब्राज़ील के लोकतंत्र में शक्तियों के संतुलित बंटवारे में छुपा हुआ है. 

फिर भी ये सवाल तो बना ही हुआ है कि: आख़िर बोल्सोनारो, अमेरिका में ट्रंप की तरह चुनाव में धांधली के इल्ज़ाम क्यों नहीं लगा रहे हैं? इस सवाल का जवाब, ब्राज़ील के लोकतंत्र में शक्तियों के संतुलित बंटवारे में छुपा हुआ है. ब्राज़ील के तमाम लोकतांत्रिक संगठन, जैस कि संसद, न्यायपालिका, सत्ता तंत्र चुनावी अधिकार और यहां तक कि सियासी दल भी आपस में ताक़त में बराबरी के अधिकार रखते हैं. वहीं अमेरिका में रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टियों के ज़रूरत से ज़्यादा ताक़तवर होने का असर सभी लोकतांत्रिक संस्थानों पर पड़ता है. फिर चाहे वो न्यायपालिका हो, राज्य के चुनाव अधिकारी हों, या फिर देश का मीडिया हो. ब्राज़ील के मामले में न्यायपालिका, विधायिका और ट्राइब्यूनल सुपीरियर इलेटोरल (TSE) और यहां तक कि बोल्सोनारो के कट्टर समर्थकों ने भी एकजुटता भरा रुख़ अपनाया: चुनाव के नतीजे अंतिम हैं और इनमें फ़र्ज़ीवाड़े का कोई भी आरोप बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. TSE के प्रमुख अलेग्ज़ांद्रे मोराएस ने ऐलान किया कि अगर कोई भी नागरिक चुनाव के नतीजों पर सवाल उठाता है या फिर सैन्य तख़्तापलट की मांग करता है, तो उसके साथ ‘अपराधियों जैसा बर्ताव किया जाएगा’ और उसे ‘सख़्त से सख़्त सज़ा’ दी जाएगी.ऐसे मंज़र में अगर बोल्सोनारो चुनाव में धांधली के आरोप लगाते, तो ये दांव उल्टा पड़ सकता था और ब्राज़ील की राजनीति में उनके भविष्य पर भी ख़तरे की तलवार लटक सकती थी.

लुला 3.0

राष्ट्रपति के तौर पर अपने तीसरे कार्यकाल के दौरान, लुला के सामने बड़ी बड़ी चुनौतियां खड़ी होंगी. इनमें शामिल हैं: 

  •  ध्रुवीकरण

    लुला ने बोल्सोनारो पर 49.1 के मुक़ाबले मामूली बहुमत यानी 50.9 वोट हासिल करके जीत हासिल की है. नतीजों से साफ़ है कि ब्राज़ील पूरी तरह बंटा हुआ है. फिर भी हमें ब्राज़ील के ध्रुवीकरण को लेकर किसी नतीजे पर पहुंचने की जल्दबाज़ी नहीं दिखानी चाहिए. ब्राज़ील में हत्याओं की वारदातें 25 साल में सबसे कम हो रही हैं. आर्थिक विकास भी धीरे धीरे पटरी पर लौट रहा है और सबसे बड़ी बात ये कि ब्राज़ील के नागरिकों ने किसी को भी अपना वोट दिया हो, वो लगभग एक दशक से चली आ रही सामाजिक आर्थिक अस्थिरता से उकता गए हैं और अब बेहतर भविष्य देखना चाहते हैं. लुला ने ‘दो ब्राज़ील’ होने की बात ख़ारिज करके अच्छी शुरुआत की है. लुला ने ऐलान किया है कि एक नरमपंथी मध्यमार्गी सरकार का गठन करके वो उनके लिए भी काम करेंगे, जिन्होंने उन्हें वोट नहीं दिया.

  •  कांग्रेस

    लुला की वर्कर्स पार्टी (पुर्तगाली भाषा में PT)के पास ब्राज़ील की संसद के किसी भी सदन में बहुमत नहीं है- ये अधिकार तो ब्राजील के सेंट्राओ (मध्यमार्गी) के पास है. जो तमाम दलों का एक ऐसा समूह है, जिसका कोई वैचारिक आधार नहीं है. सेंट्राओ के बारे में ब्राज़ील में कहा जाता है कि, ‘सेंट्राओ को कभी ख़रीदा नहीं जा सकता है. अलबत्ता उन्हें भाड़े पर लिया जा सकता है.’ ब्राज़ील की संसद में रूढ़िवादी दल सरकार पर दबाव बनाए रखेंगे. लेकिन, सुधाऱों को आगे बढ़ाने के लिए हमें अन्य दलों के साथ गठबंधन की सौदेबाज़ी करने में लुला की सियासी सौदेबाज़ी की ताक़त कम करके नहीं आंकनी चाहिए.

  • अर्थव्यवस्था

     2003 से 2010 के दौरान, लुला के पहले दो कार्यकालों की तुलना में ब्राज़ील की मौजूदा आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं है. ब्राज़ील की अर्थव्यवस्था 2014 से ही सुस्ती से जूझ रही है. कोविड-19 महामारी ने ये मुश्किल और बढ़ा दी है. आर्थिक विकास ने 2021 में ही जाकर रफ़्तार पकड़ी है, वो भी इसलिए क्योंकि 2020 में ब्राज़ील की अर्थव्यवस्था में 3.9 प्रतिशत की गिरावट आ गई थी. यूक्रेन युद्ध के चलते विश्व की अर्थव्यवस्था मुश्किल दौर से गुज़र रही है. खाने पीने के सामान के दाम सबसे ऊंचे स्तर तक पहुंच गए हैं और इनसे दुनिया भर की आपूर्ति श्रृंखला में ख़लल पड़ा है. लुला को एक व्यवहारिक वित्तीय नीति अपनाने को मजबूर होना पड़ सकता है, ताकि वो महंगाई दर को थाम कर रखने के साथ साथ आर्थिक विकास को भी रफ़्तार दे सकें.

इन बड़ी चुनौतियों के साथ साथ लुला को ‘बीफ, बाइबिल और बुलेट’ के उस रूढ़िवादी आंदोलन से भी निपटना होगा, जिसका ब्राज़ील के समाज पर गहरा असर है. इन मुश्किलों से उबरने में लुला का तजुर्बा उनके काफ़ी काम आने वाला है; लुला को मालूम है कि ये कार्यकाल उनके लिए सिर्फ़ राष्ट्रपति बनना नहीं है. इस बार सवाल लुला की विरासत को बचाए रखने का भी है. 2010 में अपने पिछले दो कार्यकाल ख़त्म होने के बाद जब लुला ने पद छोड़ा था, तो भी जनता के बीच वो बेहद लोकप्रिय थे. उनकी एप्रूवल रेटिंग्स 90 फ़ीसद थी. जिसे देखकर बराक ओबामा ने लुला को ‘धरती का सबसे लोकप्रिय नेता’ कहा था. इस बार तो लुला को ये नाम हासिल होने की उम्मीद कम है. फिर भी, लुला की कोशिश खुद को ब्राज़ील के सबसे अहम नेताओं में शामिल कराने की होगी.

इन बड़ी चुनौतियों के साथ साथ लुला को ‘बीफ, बाइबिल और बुलेट’ के उस रूढ़िवादी आंदोलन से भी निपटना होगा, जिसका ब्राज़ील के समाज पर गहरा असर है. इन मुश्किलों से उबरने में लुला का तजुर्बा उनके काफ़ी काम आने वाला है

वैसे तो हम लुला से इस बार भी, उनके पिछले दो कार्यकालों की तरह ही असरदार वैश्विक पहुंच बनाने की उम्मीद नहीं लगा सकते हैं. लेकिन ये बिल्कुल तय है कि ब्राज़ील की विदेश नीति में बड़ा बदलाव आने वाला है. लुला के पसंदीदा प्रोजेक्ट यानी लैटिन अमेरिका का क्षेत्रीय एकीकरण के एजेंडे को दोबारा अहमियत मिलेगी, ये तो पक्का कहा जा सकता है. लुला हमेशा ही भारत को पसंद करते रहे हैं. वो तीन बार भारत के दौरे पर आ चुके हैं. 2004 के गणतंत्र दिवस में लुला मुख्य अतिथि के तौर पर आए थे. सत्ता में लुला की वापसी से भारत और ब्राज़ील के रिश्तों को नई रफ़्तार ज़रूर मिलेगी. ख़ास तौर से तब और जबकि अब भारत G20 का अध्यक्ष बन चुका है. पिछले एक दशक के दौरान जहां ब्राज़ील की विदेश नीति छोटे देश जैसी रही है. लेकिन, लुला के राष्ट्रपति बनने के बाद इसकी चाल-ढाल बदलनी तय है और अब दुनिया बड़ी उत्सुकता से 2023 की शुरुआत में ब्राज़ील के विश्व मंच पर आने का इंतज़ार कर रही है.

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