Author : Sameer Patil

Published on Jul 30, 2023 Updated 0 Hours ago

जैसा कि यूक्रेन संघर्ष ने उन मोर्चों को खोल दिया है जिसे लेकर भविष्य में जंग लड़ी जा सकती है लिहाज़ा भारत के लिए अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा को मज़बूत करना ज़रूरी हो गया है.

रूस-यूक्रेन संघर्ष से भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा प्रबंधन को मिली कुछ अहम सीख!
रूस-यूक्रेन संघर्ष से भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा प्रबंधन को मिली कुछ अहम सीख!

तमाम कयासों के बाद 24 फरवरी 2022 को रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमिर पुतिन ने आख़िरकार यूक्रेन के ख़िलाफ़ स्पेशल मिलिट्री ऑपरेशन चलाने का आदेश दे दिया. नतीज़तन रूस की सेना ने यूक्रेन पर उत्तर, पूर्व और दक्षिण की तरफ से हमला बोल दिया और तेजी से आगे बढ़ने लगी. रूसी सैनिकों ने यूक्रेन की राजधानी कीव को घेर लिया है और इस पर रूस का कब्ज़ा होना अब लगभग तय है. इसकी प्रतिक्रिया में यूरोप और अमेरिका ने  युद्ध और ना भड़क जाए इस डर से रूस के ख़िलाफ़ सैन्य ऑपरेशन से बचने का फैसला लिया लेकिन उन्होंने पुतिन, उनके अधिकारियों समेत रूस की वित्तीय ताक़त और तकनीकी सेक्टर पर ज़बर्दस्त पाबंदियां लगा दी हैं. हालांकि इन पाबंदियों के बावजूद रूस अपनी सैन्य कार्रवाई से पीछे नहीं हटा है.

यूक्रेन पर रूसी सैनिकों के हमले के पहले भी रूस के हैकर्स यूक्रेन पर साइबर अटैक करते रहे हैं. इस तरह के हमलों का मक़सद – दहशत फैलाना, संचार को बाधित करना और यूक्रेन को नीचा दिखाना है – साल 2007 में एस्टोनिया पर साइबर हमले के बाद से ही रूस ने इस तरह की हाइब्रिड वॉरफेयर की रणनीति अपनाई हुई है. 

21 वीं सदी के सबसे पहले और अहम अंतर-राज्य संघर्ष के तौर पर रूस-यूक्रेन के बीच जंग भारत का राष्ट्रीय सुरक्षा प्रबंधन- जो हाइब्रिड वॉरफेयर, तकनीकी प्रतिबंध और गठबंधन से जुड़ा है, उसके लिए अहम सबक सिखाते हैं.

हाइब्रिड वॉरफेयर

यूक्रेन संघर्ष, साइबर और दुष्प्रचार के गैर-परिचित मोर्चों पर व्यापक हो चुका है, जो इस तरफ इशारा करती है कि कैसे ज़मीन, वायु, समुद्र, साइबर और सूचना की निरंतरता के मोर्चे पर भविष्य की लड़ाई लड़ी जाएगी. वैसे भी साइबर युद्ध और दुष्प्रचार अभियान रूस की पारंपरिक सैन्य अभियानों के लिए ज़मीन तैयार करने में अहम भूमिका निभाते रहे हैं.

यूक्रेन पर रूसी सैनिकों के हमले के पहले भी रूस के हैकर्स यूक्रेन पर साइबर अटैक करते रहे हैं. इस तरह के हमलों का मक़सद – दहशत फैलाना, संचार को बाधित करना और यूक्रेन को नीचा दिखाना है – साल 2007 में एस्टोनिया पर साइबर हमले के बाद से ही रूस ने इस तरह की हाइब्रिड वॉरफेयर की रणनीति अपनाई हुई है. 15 फरवरी 2022 को, यूक्रेन के अधिकारियों का दावा था कि देश के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ था जब सरकार के मंत्रालय से लेकर बैंक तक सबसे बड़े साइबर हमले का शिकार हुए थे, जिसके चलते कुछ घंटों तक सारी सेवाएं बाधित रही थीं. इसके साथ ही साइबर सिक्युरिटी से जुड़े शोधकर्ताओं ने बताया कि डेटा वाइपिंग मालवेयर जिसे हरमेटिक वाइपर कहा जाता है, वो यूक्रेन की संस्थाओं को निशाना बना रहे थे.

भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा संस्थान इस बात पर ध्यान दें कि साइबर और दुष्प्रचार क्षमताएं जो हाइब्रिड वॉरफेयर का हिस्सा हैं – कैसे जंग के मैदान के लिए बनाई गई रणनीति में सहायता पहुंचाते हैं ताकि ज़मीनी लड़ाई में अपना असर जमाया जा सके. 

इन ज़बर्दस्त साइबर हमलों के साथ ही रूस के दुष्प्रचार अभियान, जिसने ज़मीनी लड़ाई की वास्तविक हालत को लेकर ज़बर्दस्त भ्रम फैलाने में अहम भूमिका निभाई है. उदाहरण के लिए, आक्रमण से पहले रूस ने दावा किया था कि यूक्रेन अलगाववादी डोनबास इलाक़े में रूसी भाषा बोलने वाले नागरिकों पर बमबारी कर नरसंहार कर रहा है. रूस ने यहां तक आरोप लगाया कि यूक्रेन  रूस पर हमले की योजना बना रहा है. इसके ठीक उलट अमेरिका ने रूस पर कथित तौर पर एक फर्जी वीडियो के ज़रिए डोनबास इलाक़े में नागरिकों की हत्या करने की झूठी ख़बर के बहाने यूक्रेन पर हमला करने का आरोप लगाया. हमले के महज़ एक सप्ताह पहले रूस ने दावा किया कि वो अपने सैनिकों, टैंक और दूसरी हथियारबंद गाड़ियों को यूक्रेन की सीमा से हटा रहा है – यह एक ऐसा दावा था जिसे अमेरिकी अधिकारियों ने सिरे से ख़ारिज़ कर दिया. इस तरह की नकारात्मक ख़बरें तेजी से फैलने वाली ऑनलाइन कवरेज़ का लगातार हिस्सा बनती रहीं और इससे ‘युद्ध का माहौल’ तैयार होता गया और सैन्य कार्रवाई को लेकर अनिश्चितताओं के चलते रूस के सैनिकों को फायदा हुआ. जैसे-जैसे राजधानी कीव की घेराबंदी सख़्त होती गई इस तरह के दुष्प्रचार के तरीक़े और तेज होते गए.

भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा संस्थान इस बात पर ध्यान दें कि साइबर और दुष्प्रचार क्षमताएं जो हाइब्रिड वॉरफेयर का हिस्सा हैं – कैसे जंग के मैदान के लिए बनाई गई रणनीति में सहायता पहुंचाते हैं ताकि ज़मीनी लड़ाई में अपना असर जमाया जा सके. भविष्य की लड़ाइयों में पारंपरिक क्षमताओं की प्रासंगिकता बनी रहेगी (ज़मीनी सेना के साथ) लेकिन इससे भी ज़्यादा साइबर हमलों के लिए सूचना, वॉरफेयर क्षमता, मनोवैज्ञानिक और दुष्प्रचार अभियान प्रसांगिक रहेंगे. यह ख़ासकर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के लिए सही है जहां ‘सिटिजन जर्नलिस्ट’ वो हथियार हैं जिसके ज़रिए झूठी बातों को फैलाया जाता है.

अपने अनुभव और यूक्रेन संघर्ष से सीखते हुए भारत को अपनी सुरक्षा नीति को निर्धारित करने और अपने विरोधियों को रोकने में तकनीकी प्रतिबंधों की भूमिका और तकनीकी आपूर्ति श्रृंखलाओं पर उनके प्रभाव पर विचार करने की आवश्यकता है.

चीन में मौजूद हैकर लगातार प्रमुख बुनियादी ढांचे को निशाना बना रहे हैं और पाकिस्तान भारत विरोधी दुष्प्रचार अभियानों का समर्थन कर रहा है, ऐसे में भारत को साइबर सुरक्षा को मज़बूत करने के साथ-साथ आक्रामक साइबर नीति पर आगे बढ़ना चाहिए. ख़ास कर दुष्प्रचार को लेकर, भारत को संस्थागत और सामुदायिक ताक़त विकसित करने की ज़रूरत है. यह भारत को दुश्मनों के दुष्प्रचार अभियान को रोकने में मदद करने के साथ ही दुश्मनों को नीति और समाज के बीच के अंतर का फायदा उठाने का मौक़ा नहीं देगा. भारत ने साइबर सुरक्षा को मज़बूत करने और आक्रामक साइबर ऑपरेशन को बढा़वा देने में सफलता पाई है लेकिन दुष्प्रचार का सामना करने के लिए भारत को अपनी क्षमताओं को एक साथ लाना होगा.

तकनीकी प्रतिबंध और आर्थिक दबंगई

हाइब्रिड युद्ध का एक अन्य तत्व जो इस संघर्ष में सामने आया है वह है प्रतिबंध और आर्थिक ज़बर्दस्ती. किसी देश को सजा देने के लिए प्रतिबंधों का काफी इस्तेमाल हो चुका है. हालांकि, नए अमेरिकी प्रतिबंधों के चलते अमेरिका की उन्नत तकनीकों तक रूस की पहुंच को ख़त्म करने में इसका अहम योगदान होगा. रूस अपने तेजी से बढ़ते घरेलू तकनीकी क्षेत्र, औद्योगिक निर्माण और एयरोस्पेस सेक्टर के लिए अमेरिका के सेमी कन्डक्टर उद्योग पर निर्भर है और जैसा कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा, अमेरिकी प्रतिबंध रूस की “आर्थिक रूप से प्रतिस्पर्द्धा करने की क्षमता” को कम कर देंगे और “पुतिन की दीर्घकालिक रणनीतिक महत्वाकांक्षाओं पर सख़्त प्रहार करेंगे”. हालांकि रूस उन्नत तकनीक के लिए चीन के साथ मिलकर काम कर रहा है, लेकिन सेमीकंडक्टर के क्षेत्र में चीन के साथ तुरंत सहयोग मिलने की संभावना कम है क्योंकि इससे चीन के उद्योगों के लिए आपूर्ति की समस्या खड़ी हो जाएगी.

ये घटनाक्रम राष्ट्रीय सुरक्षा नीति के निर्धारण में तकनीक के महत्व को रेखांकित करते हैं. इसलिए युद्ध की स्थिति में प्रौद्योगिकियों तक पहुंच एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. अमेरिकी तकनीकी प्रतिबंध इसके उन्नत तकनीकी क्षेत्र और वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में प्रभुत्व का लाभ उठा रहे हैं. भारत के पास इस तरह का तकनीकी इन्फ्रास्ट्रक्चर कौशल और वर्चस्व भले ना हो लेकिन इसके पास एक बड़ा वित्तीय बाज़ार और एक समृद्ध स्टार्ट-अप का आधार है. इसका इस्तेमाल विरोधियों की सैन्य कार्रवाइयों को रोकने के लिए किया जा सकता है. जून 2020 में गालवान घाटी में झड़प के बाद भारत ने चीनी ऐप्स पर प्रतिबंध और तकनीकी क्षेत्र में चीनी निवेश को कम कर के इसी दिशा में एक कदम उठाया है. अपने अनुभव और यूक्रेन संघर्ष से सीखते हुए भारत को अपनी सुरक्षा नीति को निर्धारित करने और अपने विरोधियों को रोकने में तकनीकी प्रतिबंधों की भूमिका और तकनीकी आपूर्ति श्रृंखलाओं पर उनके प्रभाव पर विचार करने की आवश्यकता है.

सुरक्षा गठबंधन

आख़िर में यूक्रेन संघर्ष ने ‘स्व सहायता’ के महत्व को रेखांकित किया है. अमेरिका के यूक्रेन की संप्रभुता और क्षेत्रीय एकता को समर्थन देने के बार-बार ऐलान के बावजूद कड़वी सच्चाई यही है कि यूक्रेन को ख़ुद की रक्षा करने के लिए छोड़ दिया गया है. अमेरिका और नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन ( नेटो ) सदस्यों ने यूक्रेन को अतिरिक्त सैन्य सहायता और हथियार उपलब्ध कराया है लेकिन किसी ने भी सीधे संघर्ष में हिस्सा लेने की इच्छा नहीं जताई है और यह भविष्य के जंग की सच्चाई बयां करती है: विदेशी भूमि पर जंग में घसीटे जाने का ख़ामियाज़ा राष्ट्र की सुरक्षा नीति को निर्धारित करेगी. जब राष्ट्र के मुख्य हित दांव पर होंगे तभी वे इसमें शामिल होंगे. जैसा कि डॉ. तारा कार्था का तर्क है कि , “बिना किसी गारंटी और मज़बूत स्वार्थ के आपकी सहायता के लिए किसी के आने की संभावना नहीं है.”

यूक्रेन संघर्ष ने हाल के तकनीक और राष्ट्रीय सुरक्षा के क्षेत्र में उभरते स्वरूपों को सामने लाने का काम किया है. इस वक़्त यह स्पष्ट नहीं है कि दोनों देशों के बीच दुश्मनी क्या मोड़ लेगी लेकिन विश्व की प्रमुख शक्तियों के बीच शक्ति संबंधों के प्रारूप तय करने में इसका प्रभाव महत्वपूर्ण होगा.

ऐसी स्थिति में भारत को ख़ुद को देखने की ज़रूरत है. हालांकि, बिना किसी औपचारिक सुरक्षा गठबंधन के और भविष्य में भी इसके मुमकिन होने की संभावना नहीं होने पर भारत के लिए हमेशा से सुरक्षा साझेदारी और रक्षा सहयोग को लेकर सीमितताएं रहेंगी. इसलिए नई दिल्ली को आज या कल एक ऐसे रास्ते पर चलना ही पड़ेगा जो इसके सुरक्षा हितों को सुरक्षित कर सके और बढ़ावा दे सके.

निष्कर्ष

यूक्रेन संघर्ष ने हाल के तकनीक और राष्ट्रीय सुरक्षा के क्षेत्र में उभरते स्वरूपों को सामने लाने का काम किया है. इस वक़्त यह स्पष्ट नहीं है कि दोनों देशों के बीच दुश्मनी क्या मोड़ लेगी लेकिन विश्व की प्रमुख शक्तियों के बीच शक्ति संबंधों के प्रारूप तय करने में इसका प्रभाव महत्वपूर्ण होगा. तेज़ी से खेमे में बंटती दुनिया और ध्रुवीकृत वैश्विक व्यवस्था का असर आने वाले दिनों में ज़रूर होगा ख़ासकर राष्ट्रीय सुरक्षा नीति के मोर्चे पर इसे महसूस किया जाएगा.

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