इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है जब भारत ने साल 2021-22 में 400 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक का वार्षिक निर्यात का आंकड़ा हासिल किया. हाल ही में भारत ने ऑस्ट्रेलिया और संयुक्त अरब अमीरात के साथ मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) पर हस्ताक्षर किया था और ब्रिटेन, यूरोपीय संघ और कनाडा के साथ जारी व्यापारिक वार्ताओं से भारतीय निर्यातकों को प्रोत्साहन ही मिलेगा. कई वर्षों के अंतराल के बाद नई दिल्ली की अधिक व्यापार समझौतों पर हस्ताक्षर करने की नीति बदली है – जबकि पहले भारत के लिए ऐसे समझौते बहुत ज़्यादा फ़ायदेमंद नहीं होते यह कह कर उन्हें छोड़ दिया गया था – अब दोबारा से इसकी शुरुआत करना स्वागत योग्य संकेत है. इन एफटीए पर उन देशों के साथ हस्ताक्षर किए जा रहे हैं जो भारत के लिए भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक रूप से काफी अहम हैं.
दुर्भाग्य से नई दिल्ली की भू-आर्थिक समीकरण में इस क्षेत्र की बहुत अहमिय़त नहीं है: लैटिन अमेरिका वो क्षेत्र रहा है जहां हमेशा से भारतीय राजनेताओं ने सबसे कम दौरा किया है और एशिया , अफ्रीका और यूरोप के मुक़ाबले इस क्षेत्र को लेकर दिल्ली के साउथ ब्लॉक में बहुत कम ध्यान दिया जाता है.
हालांकि लैटिन अमेरिका वो क्षेत्र है जिसे लेकर दिल्ली की सत्ता के गलियारों में काफी उत्साह नहीं दिखता है. हालांकि भारत चिली और मर्कोसुर के साथ प्रिफेरेंशियल ट्रेड एग्रीमेंट (पीटीए) का लाभ उठाता रहा है – लेकिन अर्जेंटीना, ब्राजील, पराग्वे और उरुग्वे जैसे दक्षिण अमेरिकी समूह – के साथ भारत के कारोबारी दायरे सीमित हैं और तो और इन देशों के साथ भारत के द्विपक्षीय व्यापार का हिस्सा बेहद कम है, जहां कारोबारी रिश्ते शुल्क मुक्त पहुंच के बजाए कम आयात शुल्क पर आधारित हैं. एफटीए या कंप्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप एग्रीमेंट्स (सीईपीए) के विपरीत पीटीए में निवेश, लोगों से लोगों के बीच आदान-प्रदान या सेवाएं शामिल नहीं होती हैं. अब तक नई दिल्ली ने लैटिन अमेरिका के साथ एफटीए पर बातचीत नहीं की है और ना ही ऐसा करने में भारत ने कोई दिलचस्पी दिखाई है. दुर्भाग्य से नई दिल्ली की भू-आर्थिक समीकरण में इस क्षेत्र की बहुत अहमिय़त नहीं है: लैटिन अमेरिका वो क्षेत्र रहा है जहां हमेशा से भारतीय राजनेताओं ने सबसे कम दौरा किया है और एशिया (या मध्य एशिया सहित किसी भी उप-क्षेत्र), अफ्रीका और यूरोप के मुक़ाबले इस क्षेत्र को लेकर दिल्ली के साउथ ब्लॉक (जिसमें प्रधान मंत्री कार्यालय और विदेश मंत्रालय हैं) में बहुत कम ध्यान दिया जाता है.
ऐसी बेरूख़ी के बावजूद भारतीय कंपनियों ने लैटिन अमेरिका के साथ भारत के कारोबारी संबंधों को बढ़ाने का बीड़ा उठाया है और इससे वो विचलित नहीं हुए हैं. इसके अलावा, भारत में लैटिन अमेरिका के प्रमुख विशेषज्ञ और राजदूत आर विश्वनाथन , जैसा कि फाइनेंशियल एक्सप्रेस में लिखते हैं, “कुछ दूरदराज़ वाले लैटिन अमेरिकी देशों के साथ भारत का निर्यात, उसके पड़ोसी देशों या पारंपरिक कारोबारी भागीदार जिनकी आबादी या तो बराबर है या उससे ज़्यादा है, उनके साथ अधिक है.” वास्तव में ब्राजील को भारत का 6.48 बिलियन अमेरिकी डॉलर का निर्यात जापान (6.1 बिलियन अमेरिकी डॉलर) या थाईलैंड (5.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर) के निर्यात से अधिक है – भारत के लिए ये दोनों ही एफटीए भागीदार हैं; मेक्सिको को 4.4 बिलियन अमेरिकी डॉलर का निर्यात कनाडा (3.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर) या रूस (3.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर) के निर्यात से अधिक है. लैटिन अमेरिकी देशों में भारत ज़्यादातर कार, मोटरसाइकिल, फार्मास्युटिकल उत्पाद, जैविक और गैर-कार्बनिक रसायन और कपड़ों का निर्यात करता है.
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लैटिन अमेरिका एक स्थिर और तेज़ी से बढ़ते हुए मध्यम वर्ग के साथ, उभरते हुए बाज़ारों में से एक है. इसका नतीज़ा यह है कि, यह क्षेत्र भारत के मूल्य वर्धित, उपभोक्ता उत्पादों के साथ-साथ कार, मोटरसाइकिल, फार्मास्यूटिकल्स और रासायनिक उत्पादों के लिए सबसे पसंदीदा निर्यात का गंतव्य है.
तालिका 1: भारत के निर्यात गंतव्य, चयनित देश और क्षेत्र, 2021-22
(INSERT TABLE 1 FROM ORIGINAL)
स्रोत: वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय, भारत सरकार.
इसके अलावा भारत लैटिन अमेरिका से महत्वपूर्ण संसाधनों का आयात भी करता है जिसमें भारत द्वारा सबसे ज़्यादा आयातित वस्तु (कच्चा पेट्रोलियम तेल) का 15 से 20 प्रतिशत, तांबा, चांदी और सोना जैसे खनिज और वनस्पति तेल भी शामिल हैं.
भारत का निजी क्षेत्र व्यापार के साथ-साथ निवेश के ज़रिए लैटिन अमेरिका में फल-फूल रहा है. इस क्षेत्र में भारतीय निवेश 12 बिलियन अमेरिकी डॉलर से 16 बिलियन अमेरिकी डॉलर के बराबर है और इसका अधिकांश हिस्सा फार्मास्यूटिकल्स, ऑटोमोबाइल, सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी), ऊर्जा और पावर ट्रांसमिशन और विनिर्माण जैसे क्षेत्रों में लगा हुआ है. लैटिन अमेरिका के साथ व्यापार करने के लिए भारतीय कंपनियां दो प्रमुख कारणों से प्रेरित होती हैं:
- लैटिन अमेरिका अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए ‘गोल्डीलॉक्स ज़ोन’ में आता है – यह संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) और यूरोप के सबसे ज़्यादा नियंत्रित बाज़ारों, जहां प्रतिस्पर्द्धा का स्तर और उत्पादों की गुणवत्ता के मानक बेहद ऊंचे हैं, और अफ्रीका जहां के लोगों की क्रय शक्ति कम है और बाज़ार भी कम व्यवस्थित है, उसके दरम्यान आता है. इस क्षेत्र का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (पीपीपी) 16,611 अमेरिकी डॉलर यूरोपीय संघ के 46.067 अमेरिकी डॉलर से बहुत कम है लेकिन यह भारत से दोगुना (6,997 अमेरिकी डॉलर) और सब-सहारा अफ्रीकी देशों से चार गुना (4,401 अमेरिकी डॉलर) ज़्यादा है; और अगर लैटिन अमेरिकी बाज़ार की तुलना दक्षिण पूर्व एशिया के बाज़ारों से की जाए तो यहां प्रति व्यक्ति जीडीपी (पीपीपी) 15,082 अमेरिकी डॉलर है.
2. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लैटिन अमेरिका एक स्थिर और तेज़ी से बढ़ते हुए मध्यम वर्ग के साथ, उभरते हुए बाज़ारों में से एक है. इसका नतीज़ा यह है कि, यह क्षेत्र भारत के मूल्य वर्धित, उपभोक्ता उत्पादों के साथ-साथ कार, मोटरसाइकिल, फार्मास्यूटिकल्स और रासायनिक उत्पादों के लिए सबसे पसंदीदा निर्यात का गंतव्य है. इस क्षेत्र की कोई भी भारतीय कंपनी लैटिन अमेरिकी बाज़ार में बड़ी हिस्सेदारी रखती है और अपने अंतर्राष्ट्रीय आय के एक बड़े हिस्से के लिए इस क्षेत्र पर निर्भर करती है. उदाहरण के लिए, यूनाइटेड फ़ॉस्फोरस लिमिटेड (यूपीएल) एक भारतीय कृषि रसायन कंपनी है जो ब्राजील में भारत से अधिक राजस्व प्राप्त करती है, जबकि कोलंबिया और मध्य अमेरिका में बजाज की कंपनी का बोलबाला है.
लैटिन अमेरिका में भारत बनाम चीन
लैटिन अमेरिका में भारत की पहुंच ऑटोमोबाइल, फार्मास्यूटिकल्स और आईटी जैसे कुछ क्षेत्रों में इतनी गहरी है कि यह अक्सर इन क्षेत्रों में चीन को पीछे छोड़ देता है – जो कि हैरान करने वाला है क्योंकि चीन कई लैटिन अमेरिकी देशों में सबसे बड़ा कारोबारी हिस्सेदार और निवेशक है. वुडरो विल्सन सेंटर की “लैटिन अमेरिकाज़ ट्रस्ट विद द अदर एशियन जाइंट, इंडिया” नामक रिपोर्ट में प्रकाशित आंकड़े और निष्कर्ष बताते हैं कि भारतीय कंपनियां लैटिन अमेरिका के चुनिंदा क्षेत्रों में चीन के मुक़ाबले अधिक निवेश, निर्यात और यहां तक कि रोज़गार प्रदान करती हैं.
फार्मास्युटिकल क्षेत्र में विशेष रूप से यह सच साबित होता है – 21वीं सदी के दौरान भारत ने चीन की तुलना में लैटिन अमेरिका को अधिक फार्मास्यूटिकल उत्पादों का निर्यात किया है, हालांकि साल 2021 के एकमात्र अपवाद के साथ, जब इस क्षेत्र में कोरोना टीकों का चीन से निर्यात का आंकड़ा भारत से अधिक था. इतना ही नहीं, भारतीय फार्मास्युटिकल निवेश भी यहां ज़्यादा देखे गए हैं: 27 भारतीय कंपनियां 13 मैन्युफैक्चरिंग प्लांट के साथ लैटिन अमेरिका में 72 सहायक कंपनियों का संचालन करती हैं. कई लैटिन अमेरिकी देश कैंसर और एचआईवी दवाओं और बहुत ज़रूरी टीकों के लिए भारत पर ही निर्भर हैं.
ऑटोमोबाइल क्षेत्र, इसमें भारत ज़्यादा कार निर्यात करता है तो वहीं चीन के मोटरसाइकिल और ऑटो पार्ट का निर्यात भारत के मुक़ाबले ज़्यादा है. हालांकि ऑटोमोबाइल और ऑटो पार्ट्स सेक्टर में भारतीय कंपनियां अधिक निवेश करती हैं और इस क्षेत्र में अपने चीनी समकक्षों की तुलना में अधिक रोज़गार प्रदान करती हैं – एक अकेली भारतीय कंपनी, मदरसन ग्रुप, सभी चीनी ऑटोमोबाइल और ऑटो पार्ट्स कंपनियों के मुक़ाबले लैटिन अमेरिका में 27 ऑटो पार्ट्स मैन्युफैक्चरिंग प्लांट के साथ, इस क्षेत्र में 25,000 लोगों को रोज़गार मुहैया कराती है.
आख़िर में, भारतीय आईटी कंपनियां, जो लैटिन अमेरिकी क्षेत्र में प्रवेश करने वाली भारत की पहली कंपनियों में से थीं, आज इस क्षेत्र में 38,000 से अधिक लोगों को रोज़गार देती हैं. हालांकि इन कंपनियों ने शुरू में ‘नियरशोरिंग’ मॉडल से लाभ उठाना चाहा था – अमेरिका और कनाडा में अपने ग्राहकों की सेवा के लिए – लेकिन यही कंपनियां आज लैटिन अमेरिकी ग्राहकों पर भरोसा करती हैं. भारतीय आईटी कंपनियों ने ग्वाटेमाला जैसे छोटे देशों में भी अपनी पैठ बनाई, जहां भारत की एचसीएल टेक्नोलॉजीज 2,230 लोगों को रोज़गार देती है. ये कंपनियां सेवा क्षेत्र में अहम योगदान देती हैं और कमोडिटी निर्यात पर लैटिन अमेरिका की निर्भरता को ख़त्म करने का एक ज़रिया है.
ऑटोमोबाइल और ऑटो पार्ट्स सेक्टर में भारतीय कंपनियां अधिक निवेश करती हैं और इस क्षेत्र में अपने चीनी समकक्षों की तुलना में अधिक रोज़गार प्रदान करती हैं – एक अकेली भारतीय कंपनी, मदरसन ग्रुप, सभी चीनी ऑटोमोबाइल और ऑटो पार्ट्स कंपनियों के मुक़ाबले लैटिन अमेरिका में 27 ऑटो पार्ट्स मैन्युफैक्चरिंग प्लांट के साथ, इस क्षेत्र में 25,000 लोगों को रोज़गार मुहैया कराती है.
फिर भी अन्य क्षेत्रों में, लैटिन अमेरिका में भारत की उपस्थिति चीन से कम है. लैटिन अमेरिका के साथ भारत का 30 से 50 अरब अमेरिकी डॉलर का वार्षिक व्यापार चीन के भारी भरकम 400 अरब अमेरिकी डॉलर के आंकड़े के मुक़ाबले बेहद कम है. इस क्षेत्र में लगभग 159 अरब अमेरिकी डॉलर के अनुमानित चीनी निवेश और 136 अरब अमेरिकी डॉलर के चीनी कर्ज़ के आंकड़े की तुलना केवल अमेरिका और यूरोप से की जा सकती है.
उम्मीदों भरा संबंध
इसके बावज़ूद, भारत-लैटिन अमेरिका संबंध कई उम्मीदों को अपने में समेटे हुए है. भारत के पास इस क्षेत्र में अच्छी छवि की ताक़त है और चीन के विपरीत, भारत एक ऐसा लोकतांत्रिक देश है जो लैटिन अमेरिकी देशों की तरह ही ग़रीबी उन्मूलन, बुनियादी ढांचे के विकास, निरंतर राजनीतिक संघर्ष और हमेशा होने वाले चुनावों की समस्याओं से जूझता रहा है.
हालांकि एक बड़ा अंतर जो लैटिन अमेरिका के लिए नई दिल्ली और बीजिंग के दृष्टिकोण को अलग करता है: चीन ने दो दशकों से आधिकारिक श्वेत पत्रों और विशेष दूतों के ज़रिए अपनी लैटिन अमेरिका नीति को तैयार किया और आगे बढ़ाया है, जबकि भारत के पास लैटिन अमेरिका के लिए कोई आधिकारिक नीति नहीं है और यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसे भारतीय विदेश नीति में कोई महत्व भी नहीं दिया जाता है.[1] एफटीए और बाहर से दिखने वाली इसकी आर्थिक नीतियों में भारत की दिलचस्पी को देखते हुए कहा जा सकता है कि नई दिल्ली के लिए यह उपयुक्त समय है जब भारत एक लैटिन अमेरिका नीति तैयार करे, जो भारत की ऑटोमोबाइल, फार्मास्युटिकल, आईटी, ऊर्जा और कृषि कंपनियों के लिए बेहतर साबित हो, और तो और लैटिन अमेरिका के कमोडिटी निर्यातकों और इस क्षेत्र की मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों और सेवा क्षेत्र को भी इससे फ़ायदा मिल सके.
***
[1]India’s foreign policy is often framed as operating in three concentric circles. The first circle refers to the neighbourhood (thus India’s ‘Neighbourhood first’ policy), the second includes the extended neighbourhood, particularly Asia, as well as strategic partners like the US and Russia, and the third and final circle includes the rest of the world, including Latin America.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.