अफ्रीका में अमेरिका की आतंकवाद विरोधी नीति के बारे में कहा जाता है कि वो लंबे समय से सोमालिया की अनदेखी करता आया है. यूनाइटेड टास्क फ़ोर्स (UNITAF) नाम वाली बहुराष्ट्रीय सेना के नाकाम अभियान ‘ऑपरेशन रिस्टोर होप’ की असफलता के ख़ौफ़ और 2001 की अमर हो चुकी दास्तान ब्लैक हॉक डाउन ने सोमालिया में अमेरिकी दख़ल की विरासत को जकड़कर रखा है, फिर चाहे वो अमेरिका की जनता हो या उसके नेता.
हाल ही में राष्ट्रपति जो बाइडेन ने एक आदेश पर दस्तख़त करके अमेरिकी सेना को लंबे समय से संघर्ष के शिकार सोमालिया में स्पेशल ऑपरेशन फोर्स के जवान तैनात करने की इजाज़त दे दी. बाइडेन का ये फ़ैसला मोटे तौर पर डोनाल्ड ट्रंप के 2020 में दिए गए आदेश के उलट है, जिसके तहत अमेरिका ने सोमालिया से अपने 700 सैनिक वापस बुला लिए थे. इस फ़ैसले के बाद सोमालिया में अमेरिकी सैनिकों की तैनाती सोमालिया और अफ्रीकी संघ के सैनिकों के प्रशिक्षण और उन्हें सलाह देने के लिए कभी–कभार रुकने तक सीमित रह गई थी. हालांकि, सैनिकों को बार–बार लाने ले जाने और हमेशा सफर में रहने को ख़तरनाक, महंगा और बेअसर तरीक़ा माना गया था. सैनिकों को कभी तैनात करने और कभी वापस बुलाने से अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के सैनिकों को काफ़ी जोखिम से गुज़रना पड़ता था. इससे पहले राष्ट्रपति ओबामा ने ‘स्पेशल ऑपरेशंस के सैनिकों, हवाई हमलों, निजी ठेकेदारों और अफ्रीकी सहयोगियों’ की मदद से सोमालिया में दखल का मक़सद पूरा किया था.
हाल ही में जब ये ख़बर आई कि अल शबाब के आतंकवादियों के हमले में 71 फ़ीसद का इज़ाफ़ा हो गया है, तो बाइडेन, सोमालिया में अमेरिका की सेना तैनात करने का फ़ैसला करने को मजबूर हो गए.
अमेरिका और साथी देशों की सेनाओं की सुरक्षा और उनके असरदार होने के लिए टिकाऊ रूप से ज़मीन पर सेना की तैनाती ज़रूरी थी, जिससे ‘अल शबाब के ख़िलाफ़ असरदार जंग लड़ी जा सके.’ हाल ही में जब ये ख़बर आई कि अल शबाब के आतंकवादियों के हमले में 71 फ़ीसद का इज़ाफ़ा हो गया है, तो बाइडेन, सोमालिया में अमेरिका की सेना तैनात करने का फ़ैसला करने को मजबूर हो गए. अल क़ायदा के सबसे बड़े और अमीर सहयोगी के तौर पर अल शबाब के पास इतनी क्षमता बनी हुई है कि वो पड़ोसी देशों पर भी हमला कर सके और अमेरिका के नागरिकों और उसके हितों के लिए ख़तरा पैदा कर सके. ये बात उस वक़्त साफ़ हो गई थी, जब 2020 में अल शबाब के आतंकवादियों ने केन्या के मांडा बे में अमेरिकी हवाई सैनिक अड्डे पर भयानक हमला किया था.
सोमालिया के चुनाव और AMISOM का ATMIS के रूप में बदलाव
अमेरिका ने सोमालिया में अपने सैनिक तैनात करने का फ़ैसला, वहां हुए चुनाव के बाद लिया है. इस चुनाव में राष्ट्रपति हसन शेख़ मोहम्मद एक बार फिर सत्ता में लौट आए हैं. हसन शेख़ मोहम्मद इससे पहले 2012 से 2017 के दौरान सोमालिया के राष्ट्रपति रह चुके हैं. हसन मुहम्मद, क्षेत्र के बाहर की ताक़तों के साथ साझेदारी करने में इच्छा ज़ाहिर करते रहे हैं. उनकी यही दिलचस्पी शायद अमेरिका की पूर्वी अफ्रीका संबंधी रणनीति में बदलाव का कारण बनी है. राष्ट्रपति हसन शेख़ मोहम्मद ने सोमालिया में अमेरिकी सेना तैनात करने के बाइडेन प्रशासन के फ़ैसले का स्वागत किया है.
हसन शेख़ मोहम्मद इससे पहले 2012 से 2017 के दौरान सोमालिया के राष्ट्रपति रह चुके हैं. हसन मुहम्मद, क्षेत्र के बाहर की ताक़तों के साथ साझेदारी करने में इच्छा ज़ाहिर करते रहे हैं. उनकी यही दिलचस्पी शायद अमेरिका की पूर्वी अफ्रीका संबंधी रणनीति में बदलाव का कारण बनी है
सोमालिया में अमेरिकी सैनिकों की दोबारा तैनाती उस वक़्त होने जा रही है, जब 1 अप्रैल 2022 को सोमालिया में अफ्रीकी संघ के अभियान (AMISOM) का नाम बदलकर सोमालिया में अफ्रीकी संघ का परिवर्तन अभियान (ATIMIS) कर दिया गया है. ATMIS की गतिविधियां, अल शबाब के अभियान को रोकना, सोमालिया की सेना को प्रशिक्षण और मार्ग दर्शन देना और उनके साथ मिलकर योजना बनाने की होंगी. इसमें कोई शक नहीं है कि अल शबाब के ख़तरे से निपटने के लिए सोमालिया की सरकार को राष्ट्रीय सुरक्षा का ढांचा खड़ा करने के लिए एक व्यापक राजनीतिक समझौता करना होगा, जिससे आगे चलकर सोमालिया के नेतृत्व और उसके नियंत्रण वाली सुरक्षा व्यवस्था बनाई जा सके. ये लक्ष्य हासिल करने के लिए पैसे के नियमित स्रोत, हथियारों की ख़रीद और ख़ास तौर से हवाई सामरिक सहयोग जुटाना ज़रूरी होगा.
कुछ चुनौतियां बनी हुई हैं
सोमालिया की धरती पर अमेरिकी सैनिकों की तैनाती को लेकर बहुत सी चिंताएं बनी हुई हैं. इनमें सेना की तैनाती का कोई नियत समय न होने से लेकर 1990 के दशक के अभियान जैसी नाकामी वाली आशंकाएं बनी हुई हैं. इसके अलावा अमेरिकी सैनिकों की तैनाती से आतंकवादी संगठन के उस दावे को मज़बूती मिल जाती है जो इस क्षेत्र में अमेरिका की दख़लंदाज़ी को लेकर सवाल उठाता रहा है. इसके अलावा, अमेरिका द्वारा सोमालिया के लिए संसाधन उपलब्ध कराने का सवाल भी खड़ा किया जा सकता है. क्योंकि, यूरोप के मोर्चे पर एक जंग चल रही है, वहीं सोमालिया में अमेरिकी सेना की तैनाती अपने आप में उसके ‘अंतहीन सैन्य अभियानों’ के जारी रहने का सबूत है.
लंबे समय से चले आ रहे संघर्ष की वजह से सोमालिया ख़ुद भी युद्ध, सूखे और जलवायु परिवर्तन की वजह से लोगों के बेघर होने जैसी तमाम चुनौतियों का सामना कर रहा है, जिनके समाधान के लिए ज़्यादा विकल्प मौजूद नहीं हैं, जबकि इन चुनौतियों से निपटने के लिए संस्थागत व्यवस्था बनाने की ज़रूरत है.
इसके अलावा, सोमालिया में अल शबाब एक ताक़तवर राजनीतिक शक्ति है, और इसीलिए उससे निपटने में बहुत समझदारी की दरकार है. इस समस्या से कुछ हद तक इस तरह निपटा गया है कि अमेरिकी सेना की तैनाती, ‘सोमालिया की नई सरकार की क्षमता के निर्माण और अन्य साझीदारों के साथ ख़ुफिया जानकारी साझा करके अभियान चलाए जाएंगे’. इन बातों से इतर, लंबे समय से चले आ रहे संघर्ष की वजह से सोमालिया ख़ुद भी युद्ध, सूखे और जलवायु परिवर्तन की वजह से लोगों के बेघर होने जैसी तमाम चुनौतियों का सामना कर रहा है, जिनके समाधान के लिए ज़्यादा विकल्प मौजूद नहीं हैं, जबकि इन चुनौतियों से निपटने के लिए संस्थागत व्यवस्था बनाने की ज़रूरत है. ऐसी संस्थाओं की कमी के अभाव में आतंकवादी संगठनों को जगह बनाने का मौक़ा मिल गया है और इसी वजह से अमेरिका को वहां अपनी सेना तैनात करने को मजबूर होना पड़ा है.
राष्ट्रपति जो बाइडेन ने ड्रोन हमलों के ज़रिए निशाना साधने के उन नियमों को भी निलंबित कर दिया है, जिन्हें ट्रंप प्रशासन ने लागू किया था. इसके बजाय अब ड्रोन हमलों के लिए राष्ट्रपति कार्यालय से मंज़ूरी लेनी होगी. इसका मतलब ये है कि अमेरिका की सेना और खुफिया एजेंसियों द्वारा खुफिया मिशन की योजना बनाकर उन्हें लागू करने की क्षमता पर राष्ट्रपति कार्यालय का शिकंजा और कसेगा. इसके अलावा, जब से जो बाइडेन ने सत्ता संभाली है, तब से अमेरिका के हवाई हमले मोटे तौर पर उन लक्ष्यों तक सीमित रह गए हैं, जिनके तहत अपने साझीदारों को फ़ौरी ख़तरे से बचाना हो या फिर जिनसे सोमालिया की सेनाओं को ‘सामूहिक’ रूप से रक्षा की ज़रूरत हो. व्यवहारिक तौर पर इसका तमलब ये है कि अब ड्रोन और हवाई हमले तभी होंगे, जब कोई अमेरिकी सलाहकार सोमालिया की सेना के साथ खड़ा होगा. ऐसे तरीक़े से केवल अस्थायी और रफ़ू लगाने जैसा समाधान मिलेगा, जो इस संघर्ष की जड़ तक जाने वाला नहीं है.
सोमालिया में अमेरिका के नए युद्ध पर बहस
अमेरिका पिछले 15 सालों से सैन्य अभियान के बल पर अल शबाब पर क़ाबू पाने की कोशिश कर रहा है, जिसमें उसे बहुत कामयाबी नहीं मिल पाई है. सोमालिया और अफ्रीकी संघ की सेनाओं को प्रशिक्षण देने, हथियार मुहैया कराने में अरबों डॉलर ख़र्च हो चुके हैं और अमेरिकी नागरिकों की जान गई है, जिसका कोई लाभ अमेरिका को नहीं हुआ है. अफ़ग़ानिस्तान में राष्ट्र निर्माण की नाकाम अमेरिकी कोशिश तालिबान की वापसी के तौर पर ख़त्म हुई और अमेरिका को वहां से अपनी सेना वापस बुलानी पड़ी. अफ़ग़ानिस्तान के तजुर्बे से सबक़ लेते हुए अमेरिका को सोमालिया में वही राह नहीं अख़्तियार करनी चाहिए.
अफ़ग़ानिस्तान में राष्ट्र निर्माण की नाकाम अमेरिकी कोशिश तालिबान की वापसी के तौर पर ख़त्म हुई और अमेरिका को वहां से अपनी सेना वापस बुलानी पड़ी. अफ़ग़ानिस्तान के तजुर्बे से सबक़ लेते हुए अमेरिका को सोमालिया में वही राह नहीं अख़्तियार करनी चाहिए.
अमेरिकी सैनिक दोबारा तैनात करने का फ़ैसला ये दिखाता है कि आतंकवाद से निपटने को अमेरिका अभी भी बहुत प्राथमिकता देता है. सोमालिया में आतंकवाद निरोधक अभियानों की अगुवाई कर रही उसकी दानाब एडवांस्ड इन्फैंट्री ब्रिगेड के साथ तालमेल करना ज़रूरी होगा. इसे सोमालिया के नेतृत्व से भी पूरी ईमानदारी वाले सहयोग की दरकार होगी. सोमालिया में कामयाबी के लिए अमेरिका को उसके पड़ोसी देशों जैसे कि जिबूती और केन्या के साथ–साथ अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सहयोग की भी ज़रूरत होगी. सोमालिया में सेना भेजने का फ़ैसला स्थायी नहीं टिकाऊ क़दम है. इससे ये ज़ाहिर होता है कि वो अल शबाब के चलते पैदा हुए ख़तरे को सीमित रखने का इच्छुक है, जिससे वो पूर्वी अफ्रीकी देशों में अस्थिरता ख़त्म करने का दूरगामी मक़सद भी हासिल कर सके.
हालांकि, ये कहना मुश्किल है कि सोमालिया को अमेरिका के और सैनिकों की ज़रूरत है. इसके बजाय सोमालिया को सामुदायिक स्तर पर चलाए जाने वाले ज़मीनी अभियानों के लिए निवेश की ज़रूरत है, जो भरोसा क़ायम करने और स्थानीय लोगों से संपर्क मज़बूत करने पर निर्भर है. राष्ट्रपति बाइडेन का सोमालिया में अमेरिका सैनिक दोबारा तैनात करने का फ़ैसला ये दिखाता है कि अमेरिका अभी भी सैन्य विकल्प को तरज़ीह देता है, जबकि ये तरीक़ा पहले कोई ठोस और उम्मीद के मुताबिक़ नतीजा देने में नाकाम रहा है. विदेशी दख़ल या सेना को प्रशिक्षण देने से सोमालिया की सरकार की विश्वसनीयता नहीं बढ़ने वाली है. इसके लिए मज़बूती से कूटनीतिक प्रयास करने की आवश्यकता है, ताकि सोमालिया की अस्थिरता और संघर्ष की समस्या को जड़ से ख़त्म किया जा सके.
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