जापान की राजनीति की छाया से बाहर निकलने और प्रधानमंत्री के दफ़्तर में क़दम रखने के क़रीब एक साल के बाद योशिहिदे सुगा ने अपना पद छोड़ने का इरादा जताया है. पिछले कुछ महीने से टोक्यो में सत्ता के हॉल में परेशानियों से घिरे जापान के प्रधानमंत्री के भविष्य को लेकर अटकलें तेज़ थीं क्योंकि सुगा एक राजनीतिक संकट के ख़त्म होते ही दूसरे संकट में घिर रहे थे. भ्रष्टाचार के बड़े मामले और कोरोना वायरस संकट के दौरान सरकार की कथित बदइंतज़ामी 72 वर्ष के सुगा के लिए नुक़सानदायक साबित हुए. जापान की सत्ताधारी एलडीपी का नेतृत्व एक बार फिर हासिल करने के अपने इरादे का एलान करने के कुछ ही हफ़्तों के बाद उनके अचानक इस्तीफ़े ने एक खुली रेस की शुरुआत कर दी है.
जब ये पता चला कि एक ब्रॉडकास्टिंग कंपनी में काम करने वाले सुगा के बेटे ने संचार मंत्रालय के अधिकारियों के साथ पार्टी की जो कि नैतिकता के क़ानूनों का सीधा उल्लंघन है. स्वाभाविक रूप से सवाल खड़े होने लगे कि क्या सुगा के बेटे ने अपने पिता की हैसियत का इस्तेमाल कर मंत्रालय के अधिकारियों से लाइसेंस और दूसरी सहायता हासिल करने की कोशिश की.
घोटाले में फंसे प्रधानमंत्री
शिंज़ो आबे के मुख्य राजनीतिक बिचौलिए और दाहिने हाथ के तौर पर काम करने के दौरान सुगा चालाक और कठोर राजनीतिक लड़ाके के तौर पर मशहूर थे, लेकिन प्रधानमंत्री के दफ़्तर में जाने के बाद उन्होंने कांटों भरा ताज पहना. शुरुआत में ही उनका प्रशासन भ्रष्टाचार और रौब जमाने के कई घोटालों में फंस गया. ये उस वक़्त हुआ जब ये पता चला कि एक ब्रॉडकास्टिंग कंपनी में काम करने वाले सुगा के बेटे ने संचार मंत्रालय के अधिकारियों के साथ पार्टी की जो कि नैतिकता के क़ानूनों का सीधा उल्लंघन है. स्वाभाविक रूप से सवाल खड़े होने लगे कि क्या सुगा के बेटे ने अपने पिता की हैसियत का इस्तेमाल कर मंत्रालय के अधिकारियों से लाइसेंस और दूसरी सहायता हासिल करने की कोशिश की. कुछ ही महीनों के बाद सरकार एक और विवाद में उस वक़्त फंस गई जब बड़ी कंपनी तोशिबा से विदेशी निवेशकों को दूर रखने के लिए नियम तय करने को लेकर तोशिबा के साथ कथित सांठगांठ के आरोप लगे. लेकिन ऐसे देश में जिसने कई लुटेरे प्रधानमंत्रियों को देखा है, वहां घोटालों के साथ सुगा के अपेक्षाकृत साधारण प्यार ने लोगों को बहुत ज़्यादा नहीं चौंकाया. लेकिन दूसरी तरफ़ कोविड-19 महामारी से निपटने में उनके प्रशासन की कथित अक्षमता ने लोगों के बीच उनकी विश्वसनीयता को काफ़ी चोट पहुंचाई. पाबंदियों से भरे जापान के वैक्सीन मंज़ूरी के नियमों का ये नतीजा निकला कि वहां टीकाकरण की शुरुआत इस साल फरवरी से हुई यानी अमेरिका जैसी दूसरी औद्योगिक अर्थव्यवस्थाओं के मुक़ाबले कई महीनों के बाद. प्रशिक्षित मेडिकल प्रोफेशनल, जो आम लोगों को टीका लगा सकते थे, की कमी के कारण हालात और ख़राब हुए. जापान की विकेंद्रित हेल्थकेयर प्रणाली ने भी केंद्र सरकार के लिए बेहद स्वतंत्र प्रांतीय और स्थानीय सरकारों पर राष्ट्रीय हेल्थकेयर रणनीति को लेकर ज़ोर डालने को मुश्किल बना दिया. वैसे हाल के दिनों में वैक्सीनेशन की रफ़्तार तेज़ हुई है लेकिन 2 सितंबर तक जापान की सिर्फ़ 47 प्रतिशत आबादी को पूर्ण रूप से टीका लग सका है जबकि यूके में ये आंकड़ा 63 प्रतिशत और अमेरिका में 52 प्रतिशत है. टीकाकरण में इस अंतर की जापान के मतदाताओं ने आलोचना की. जापान के 75 प्रतिशत मतदाताओं ने जापान में वैक्सीन लगाने की रफ़्तार को “धीमा” बताया जबकि एक छोटे से ही हिस्से (18 प्रतिशत) ने टीकाकरण को “बाधारहित” बताया.
टोक्यो में संक्रमण के बढ़ते दर ने भी सुगा को चौथी बार आपातकाल का एलान करने के लिए मजबूर किया. देश के थके हुए लोग इससे और भी झुंझला गए. इस वक़्त तक एक पैटर्न सामने आ गया था: सुगा सरकार ग़लत सलाह पर आधारित सार्वजनिक फ़ैसले की तरफ़ लापरवाही से बढ़ती थी और उसके बाद फ़ौरन जल्दबाज़ी में पलट जाती थी. इस पैटर्न ने उस सोच को मज़बूत किया कि जापान का सत्ताधारी वर्ग भटक गया है.
सुगा के राजनीतिक फ़ैसलों पर खड़े होते सवाल
सुगा की मुश्किलें उनके एक-के-बाद-एक उन राजनीतिक फ़ैसलों से और बढ़ गई जिन पर सवाल खड़े हुए. उन्होंने सार्वजनिक रूप से “गो टू ट्रैवल” अभियान का समर्थन किया जिसके तहत लोगों को अपने घरों से बाहर निकलने के लिए प्रोत्साहित किया गया. इसका मक़सद कोविड संक्रमण के दौरान अर्थव्यवस्था को सामान्य बनाए रखना था. लेकिन आख़िर में लोगों की तीखी आलोचना की वजह से सरकार को शर्मिंदगी भरी हालत में अपने क़दम पीछे खींचने पड़े. उसके बाद टोक्यो ओलंपिक का समय आया. सुगा ने उम्मीद बांधी कि सफलतापूर्वक ओलंपिक के आयोजन के ज़रिए वो अपनी राजनीतिक क़िस्मत को बहाल करेंगे. लेकिन ऐसा नहीं हो पाया क्योंकि लोगों ने उस वक़्त टीका नहीं लगवाने वाली जापान की बड़ी आबादी और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली पर दबाव को देखते हुए इतना बड़ा आयोजन कराने की समझदारी पर सवाल खड़े कर दिए. लेकिन इसके बावजूद सरकार पीछे नहीं हटी. मगर कुछ ही समय के बाद ओलंपिक देखने वाले सभी दर्शकों पर पाबंदी लगाकर सरकार को पीछे हटना पड़ा. टोक्यो में संक्रमण के बढ़ते दर ने भी सुगा को चौथी बार आपातकाल का एलान करने के लिए मजबूर किया. देश के थके हुए लोग इससे और भी झुंझला गए. इस वक़्त तक एक पैटर्न सामने आ गया था: सुगा सरकार ग़लत सलाह पर आधारित सार्वजनिक फ़ैसले की तरफ़ लापरवाही से बढ़ती थी और उसके बाद फ़ौरन जल्दबाज़ी में पलट जाती थी. इस पैटर्न ने उस सोच को मज़बूत किया कि जापान का सत्ताधारी वर्ग भटक गया है. हाल के महीनों में लोगों का ग़ुस्सा चरम पर पहुंच चुका है. सत्ताधारी लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी (एलडीपी) को राजनीतिक झटकों के ज़रिए लोगों ने अपना ग़ुस्सा जताया भी. प्रधानमंत्री के गृह क्षेत्र योकोहामा में सुगा के मनपसंद प्रत्याशी को भारी हार का सामना करना पड़ा. इसके अलावा एलडीपी को उपचुनाव में भी हार का सामना करना पड़ा. साथ ही टोक्यो के स्थानीय चुनाव में भी बहुमत हासिल करने में एलडीपी नाकाम रही. चुनावी झटकों के साथ सुगा कैबिनेट पर जनता के कम भरोसे ने एलडीपी के कई नेताओं को अपने नेता की पसंद पर फिर से विचार करने के लिए मजबूर कर दिया. ये बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि अक्टूबर में जापान में आम चुनाव होने हैं. 1950 से अब तक एलडीपी ने सिर्फ़ दो बार सत्ता गंवाई है. हाल के वर्षों में 2009 में एलडीपी को हार का सामना करना पड़ा. उस वक़्त वित्तीय संकट की वजह से लोगों के व्यापक ग़ुस्से के कारण अलोकप्रिय एलडीपी सरकार को सत्ता से बाहर होना पड़ा. एलडीपी का वरिष्ठ नेतृत्व उस वक़्त पार्टी की अलोकप्रियता और इस वक़्त सुगा सरकार के ख़िलाफ़ ग़ुस्से में समानता को भूल नहीं पा रहा है.
अगला दावेदार कौन?
सुगा के ख़िलाफ़ तलवारें खिंची हुई हैं क्योंकि पूर्व विदेश मंत्री और एलडीपी के नेता फुमियो किशिदा नेतृत्व पर अपना दावा ठोकने के लिए बाहर निकल गए हैं. कुछ कम महत्वपूर्ण नेताओं ने भी दावेदारी का अपना इरादा जता दिया है. फिलहाल सुगा ने अपनी पार्टी के नेतृत्व के लिए लड़ने का इरादा घोषित कर दिया है. साथ ही नेतृत्व की अपनी क्षमता को लेकर पार्टी में उठे संदेह को शांत करने के लिए उन्होंने पार्टी के बड़े नेताओं को इधर-उधर भी किया है. ऐसा लगता है कि आम चुनाव में सुगा की संभावना को लेकर पार्टी के छोटे और मध्य स्तर के सदस्यों के बीच संदेह उनकी मुसीबत की वजह बना. 3 अगस्त की सुबह को सुगा ने एलान किया कि एक और कार्यकाल के लिए वो एलडीपी के नेतृत्व की मांग नहीं करेंगे. पुराने नेता अब नहीं रहेंगे लेकिन पार्टी नेता विहीन नहीं है?
वैसे तो सुगा के इस्तीफ़े ने नेतृत्व की रेस को खुला छोड़ दिया है लेकिन तीन उम्मीदवारों में से कोई एक इस रेस को जीत सकता है. सबसे पहला नाम शिगेरु इशिबा का है जो जापान के पूर्व रक्षा मंत्री और राजनीतिक हेवीवेट हैं.
वैसे तो सुगा के इस्तीफ़े ने नेतृत्व की रेस को खुला छोड़ दिया है लेकिन तीन उम्मीदवारों में से कोई एक इस रेस को जीत सकता है. सबसे पहला नाम शिगेरु इशिबा का है जो जापान के पूर्व रक्षा मंत्री और राजनीतिक हेवीवेट हैं. इशिबा की पहचान रक्षा के मामले में कट्टर नेता की है और उनका मानना है कि जापान को परमाणु हथियार विकसित करने का विकल्प सुरक्षित रखना चाहिए और उत्तर कोरिया जैसे दुश्मनों के ख़िलाफ़ आक्रमण की क्षमता हासिल करनी चाहिए. लेकिन एलडीपी के भीतर इशिबा के पास मज़बूत राजनीतिक आधार की कमी है. ये उस वक़्त स्पष्ट हो गया था जब 2012 और 2020 में नेतृत्व के लिए चुनाव के दौरान उन्हें क्रमश: शिंज़ो आबे और योशिहिदे सुगा के हाथों करारी हार का सामना करना पड़ा था. 2020 की हार के बाद एलडीपी के भीतर अपने गुट के प्रमुख के पद से उन्होंने सार्वजनिक तौर पर इस्तीफ़ा दे दिया. ये ऐसा फ़ैसला था जिसने संकेत दिया कि अपने राजनीतिक करियर को उन्होंने विराम दे दिया है. लेकिन मुश्किल से एक साल के भीतर चुनावी सर्वे से संकेत मिलता है कि सुगा की जगह लेने के लिए इशिबा दो बड़े उम्मीदवारों में से एक हैं. मगर एलडीपी के भीतर आबे और सुगा गुट से दूरी को देखते हुए इशिबा के लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं.
एक और नाम जापान के स्वतंत्र विचारों वाले प्रशासनिक सुधार मंत्री तारो कोनो का है. पूर्व एलडीपी नेता और विदेश मंत्री रह चुके योही कोनो के बेटे तारो कोनो देश में मौजूदा दौर के सबसे लोकप्रिय राजनेताओं में से एक हैं. अपनी अलग राह पकड़ने की तरफ़ उनका झुकाव और एलडीपी के भीतर विवादित रुख़ की वक़ालत जैसे परमाणु बिजली प्लांट को बिल्कुल छोड़ देना, ने उन्हें आम तौर पर साधारण और सुस्त राजनीतिक विरोधियों के मुक़ाबले एक अलग पहचान बनाने में मदद की है. कोनो मौजूदा प्रधानमंत्री के क़रीबी विश्वासपात्र भी हैं. लेकिन सबसे ऊंचे पद की ओर उनकी राह अनिश्चितताओं से भरी है. उनकी स्वतंत्र विचारों वाली छवि को लेकर ये चिंता है कि क्या वो एलडीपी के मुख्यधारा के नेताओं के साथ मिलकर सुधारों के लिए मज़बूत गठबंधन बना पाएंगे? ये सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि जापान की अर्थव्यवस्था कोविड-19 से उबर रही है. कोनो की सफलता पार्टी के भद्र नेता और पूर्व प्रधानमंत्री तारो असो के समर्थन पर भी निर्भर है. जहां सर्वे में इशिबा और कोनो की ज़ोरदार भिड़ंत है, वहीं दोनों में से किसी ने अभी तक औपचारिक रूप से प्रधानमंत्री पद के लिए खड़ा होने का एलान नहीं किया है. आख़िर में एक और नाम फुमियो किशिदा का है. सर्वे में जहां किशिदा पिछड़ रहे हैं वहीं अपनी उम्मीदवारी का एलान करके उन्होंने इस रेस में अपना पहला नाम कर लिया है. एक तरफ़ किशिदा के विरोधी प्रधानमंत्री की रेस में आने के जोखिम का पता लगा रहे हैं, वहीं किशिदा ने शुरुआत करने में देरी नहीं की. किशिदा ने कोरोना वायरस से उबरने की एक योजना का प्रस्ताव दिया है और एलडीपी के भीतर अपने समर्थन को मज़बूत करने में लगे हैं.
सर्वे में जहां किशिदा पिछड़ रहे हैं वहीं अपनी उम्मीदवारी का एलान करके उन्होंने इस रेस में अपना पहला नाम कर लिया है.
सुगा की विरासत की जंग तेज़
जैसे-जैसे सुगा की विरासत की जंग तेज़ हो ही है, जापान की राजनीति के जानकारों को लग रहा है कि क्या एक-के-बाद-एक प्रधानमंत्री का ज़माना फिर से लौट गया है. शिंज़ो आबे के आठ साल के स्थायी कार्यकाल से पहले जापान के कई प्रधानमंत्री आए और कुछ ही समय में उन्हें पद छोड़ना पड़ा. इसकी वजह से वो जापान की अर्थव्यवस्था में फिर से जान फूंकने पर ध्यान नहीं केंद्रित कर पाए. साथ ही चीन और उत्तर कोरिया से सुरक्षा ख़तरा बढ़ने और जापान की आबादी के तेज़ी से उम्रदराज होने का भी मुक़ाबला नहीं कर पाए. अगर जापान की राजनीति की गहरी समझ रखने वाले और समझौतों में माहिर सुगा भी प्रधानमंत्री कार्यालय में एक साल से ज़्यादा रहने में नाकाम रहे तो उनके उत्तराधिकारियों का भविष्य कैसा होगा? इस सवाल का जवाब सिर्फ़ वक़्त देगा.
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