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अगर चीज़ें नियंत्रण से बाहर होने दी गयीं, तो जापान और दक्षिण कोरिया की एक दूसरे के ख़िलाफ़ प्रबल घरेलू राष्ट्रवादी भावनाएं पहले से ही नाज़ुक संबंधों को और नुक़सान पहुंचा सकती हैं.
अपने जापानी समकक्ष योशिमासा हयाशी से मुलाक़ात के लिए दक्षिण कोरियाई विदेश मंत्री पार्क जिन की हालिया टोक्यो यात्रा जापान के लिए, पूर्व प्रधानमंत्री शिंज़ो आबे की 8 जुलाई को उनके गृह नगर नारा में हुई स्तब्धकारी हत्या के बाद शायद पहली महत्वपूर्ण क्षेत्रीय संलग्नता थी. यह बैठक सियोल में सरकार बदलने की पृष्ठभूमि के बीच भी हुई, जहां नये राष्ट्रपति यून सुक-योल ने मई में पदभार संभाला. बैठक के दौरान चर्चाएं ‘कंफर्ट विमेन’ का वह मुद्दा वापस ले आयीं, जो लंबे समय से द्विपक्षीय रिश्तों के लिए मुसीबत बना हुआ है. ‘कंफर्ट वुमन’ एक कम बुरा लगने वाला नाम है, जिसका आशय उन लगभग 20,000 महिलाओं (अधिकांश कोरियाई) से है जिन्हें द्वितीय विश्व युद्ध में लड़ रही जापानी सेना की सेवा के लिए यौन दासता में धकेला गया था.
‘कंफर्ट वुमन’ एक कम बुरा लगने वाला नाम है, जिसका आशय उन लगभग 20,000 महिलाओं (अधिकांश कोरियाई) से है जिन्हें द्वितीय विश्व युद्ध में लड़ रही जापानी सेना की सेवा के लिए यौन दासता में धकेला गया था.
यह मुद्दा 2015 में प्रधानमंत्री शिंज़ो आबे शासन के तहत टोक्यो और राष्ट्रपति पार्क ग्यून-हाई शासन के तहत सियोल के बीच एक द्विपक्षीय समझौते के ज़रिये निपटा लिया गया था. 2015 में, प्रधानमंत्री आबे की ओर से जारी बयान में जापान की ‘दिल से माफ़ी और पछतावे’ का इज़हार किया गया था. जापान ने माफ़ी के प्रतीक के रूप में पीड़िताओं के कल्याण के लिए एक अरब येन की पेशकश भी की थी. यह समझौता कंफर्ट विमेन के मुद्दे को ‘अंतिम और अपरिवर्तनीय रूप से’ सुलझाने के लिए वचनबद्ध था. हालांकि, इस समझौते के कुछ ही समय बाद प्रधानमंत्री शिंज़ो आबे द्वारा दिये गये इन बयानों कि ऐसे कोई रिकॉर्ड नहीं हैं जो साबित करें कि पीड़िताओं को ज़बरन ले जाया गया था, ने दक्षिण कोरिया में आक्रोश भड़का दिया. इसके अलावा, जीवित बची कई दक्षिण कोरियाई कंफर्ट वुमन ने यह कहते हुए 2015 के समझौते को पूरी तरह ख़ारिज कर दिया कि यह समझौता उन्हें भरोसे में लिये बगैर किया गया. पार्क के उत्तराधिकारी राष्ट्रपति मून-जे-इन इस समझौते को लेकर आलोचनात्मक थे और पदभार संभालते ही 2017 में उन्होंने इस क़रार की जांच के लिए एक स्वतंत्र विशेष कार्य बल नियुक्त किया. कार्य बल ने क़रार को दोषपूर्ण बताते हुए इसकी आलोचना की और वह इस बात पर सख़्त था कि पूर्व प्रशासन ने जीवित बची पीड़िताओं के साथ सुनवाइयों का आयोजन नहीं किया. राष्ट्रपति मून ने जांच के इन निष्कर्षों का इस्तेमाल अपने रुख़ को सही ठहराने में किया और क़रार को रद्द कर दिया. जवाब में, जापान ने बयान जारी किया है कि 2015 के समझौते को संशोधित करने या शर्तों को दोबारा तय करने की किसी भी एकतरफ़ा कोशिश के जापान-दक्षिण कोरिया संबंधों पर गंभीर प्रभाव होंगे. उसके बाद से दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय रिश्ते ढलान की ओर हैं.
इस संदर्भ में बात करें तो, इस मुद्दे की भावनात्मक प्रकृति को देखते हुए, आबे को खरी-खोटी सुनाना और उनके ‘असंवेदनशील’ बयानों को इस कूटनीतिक दुष्परिणाम के लिए ज़िम्मेदार ठहराना आसान है. लेकिन उनके इस रुख़ को बूझ पाने के लिए, किसी को जापान की चुनावी राजनीति को समझना होगा. जापान में, ‘क्षमा मांगने की राजनीति’ की नये ज़माने के एलडीपी (लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी) राजनीतिज्ञों द्वारा लंबे समय से भारी आलोचना की जाती रही है. दिलचस्प है कि इसकी अगुवाई ख़ुद आबे ने की, जिनका मत था कि चीन और दोनों कोरिया ने इस मुद्दे का इस्तेमाल अंतरराष्ट्रीय समुदाय में जापान की हैसियत कम करने के लिए किया है. इसे ‘काउटाउ कूटनीति’ (समर्पण की कूटनीति) क़रार देते हुए, जापान के युवा मतदाता भी अपनी सरकार के रुख़ से ख़ुद को सहमत नहीं पाते. इस विवाद के मूल में दक्षिण कोरिया के सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2018 में दी गयी एक व्यवस्था है, जिसने जापान की निजी कंपनियों को उन मजदूरों को मुआवज़ा देने का आदेश दिया जिन्हें द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ज़बरन काम पर रखा गया था. इस अदालती आदेश के लिए पर्दे के पीछे से दक्षिण कोरिया सरकार ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल किया, लेकिन जापान सरकार ने इसे यह कहकर ख़ारिज कर दिया कि यह 1965 के जापान-दक्षिण कोरिया द्विपक्षीय समझौते का उल्लंघन करता है. जापान यह कहता है कि कोरिया में औपनिवेशिक शासन के दौरान के सारे मुद्दों, जिनमें कंफर्ट वुमन का मुद्दा भी शामिल है, से संबंधित उसकी आधिकारिक स्थिति 1965 के समझौते के अनुसार तय हो गयी थी. इस समझौते ने कोरिया पर जापान के क़ब्ज़े की अवधि से उत्पन्न होने वाले दावों के संदर्भ में, प्रायश्चित के एक साधन के बतौर जापान की ओर से दक्षिण कोरिया को 30 करोड़ अमेरिकी डॉलर के एकमुश्त भुगतान का रास्ता साफ़ किया. 1965 के समझौते के बाद, 1993 के कोनो बयान और 1995 के मुरायामा बयान के ज़रिये इस मुद्दे के समाधान की फिर से कोशिश की गयी. इसके अलावा, जापान ने जीवित बची कंफर्ट वुमन को आर्थिक मुआवज़ा मुहैया कराने के लिए 1994 में एक एशियन विमेन्स फंड स्थापित करने में भी अगुवाई की. अब जबकि 2015 का समझौता भी रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया है, जापान में थकान का एक गहरा भाव है कि क्या इस मुद्दे का कभी निपटारा हो सकेगा.
जापान ने बयान जारी किया है कि 2015 के समझौते को संशोधित करने या शर्तों को दोबारा तय करने की किसी भी एकतरफ़ा कोशिश के जापान-दक्षिण कोरिया संबंधों पर गंभीर प्रभाव होंगे.
दक्षिण कोरिया के बारे में बात करें तो, उसका समाज इस मुद्दे के ऐतिहासिक बोझ को क़ुबूल कर पाने के लिए कठिन लड़ाई लड़ता रहा है, क्योंकि कड़वी सच्चाइयां अब भी उनके सामूहिक मानस को सताती हैं. उदाहरण के लिए, जिन महिलाओं ने इस लेख में पूर्व-वर्णित यौन कर्मियों की तरह काम किया उन्हें पीटा गया, यातना दी गयी और उनके साथ बलात्कार किया गया, जिसके चलते कई ने अपनी जान ले ली, जिनमें छोटी उम्र की लड़कियां भी शामिल थीं. जो बच गयी थीं उन्हें लांछन, सदमे और मानसिक पीड़ा से भरी ज़िंदगी जीनी पड़ी. कहने की ज़रूरत नहीं, जापान के साथ कोरिया के रिश्ते कंफर्ट विमेन मुद्दे के निपटारे के सवाल से बहुत ज़्यादा प्रभावित रहे हैं.
इसके अलावा, जापान और दक्षिण कोरिया दोनों की घरेलू राजनीति इस मुद्दे की आग पर पानी डालने को राज़ी नहीं है. जापान के मामले की व्याख्या पहले ही नये ज़माने के नेताओं और युवा मतदाताओं के उदय के संदर्भ में की गयी है जो ख़ुद को ‘अतीत’ के मुद्दों से जोड़कर नहीं देख पाते, साथ ही जापान में राष्ट्रवाद का उत्थान भी इसे हवा देता है. पूर्व प्रधानमंत्रियों जुनिचिरो कोइज़ुमी और शिंज़ो आबे जैसे नेताओं ने ‘जापान की घरेलू राजनीति में पड़ोसी देशों द्वारा दख़लअंदाज़ी न किये जाने’ के आधार पर अपने वोट बैंक का निर्माण और पोषण किया, जो अक्सर चुनावी सफलता के रूप में सामने आया. 8 जनवरी 2021 को जब, सियोल की एक स्थानीय अदालत ने जापान सरकार से 12 जीवित ‘कंफर्ट वुमन’ में से हरेक को भारी मुआवजा देने को कहा, तो प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा ने कड़ा रुख़ अपनाया और इस आदेश को यह कहकर पूरी तरह से ख़ारिज कर दिया कि इस अदालत का एक संप्रभु राष्ट्र, जापान पर कोई न्यायाधिकार नहीं है. उन्होंने कहा कि ‘यह अदालती आदेश कभी स्वीकार नहीं किया जायेगा’. कई लोगों ने अदालती आदेश पर टोक्यो की तीखी प्रतिक्रिया को उस समय सुगा की कम घरेलू लोकप्रियता से जोड़कर देखा. इसकी व्याख्या इस रूप में की गयी कि वह इस मुद्दे का इस्तेमाल राष्ट्रवाद को उभार कर अपनी राजनीतिक रेटिंग बढ़ाने के लिए कर सकते हैं.
2019 में, दक्षिण कोरियाई अदालत के जापान के ख़िलाफ़ 2018 के आदेश की प्रतिक्रिया में, जापान ने दक्षिण कोरिया को व्यापारिक साझेदारों की सबसे-तरजीही राष्ट्रों (एमएफएन) की सूची से बाहर करने का फ़ैसला किया और उच्च तकनीक वाले औद्योगिक उत्पादों पर कई पाबंदियां लगा दीं. दक्षिण कोरिया ने न सिर्फ़ जवाबी कार्रवाई की, बल्कि अपना रुख़ और कड़ा कर लिया. यह प्रतिज्ञा करते हुए कि ‘दक्षिण कोरिया जापान के हाथों दोबारा पराजित नहीं होगा’, मून जे-इन प्रशासन ने एलान किया कि वह अमेरिका और जापान की भागीदारी वाले बेहद अहम त्रि-राष्ट्र सैन्य सूचना साझेदारी समझौते से हट जायेगा, जिसे ‘जनरल सिक्योरिटी ऑफ मिलिट्री इंफार्मेशन एग्रीमेंट’ (GSOMIA) कहा जाता है. 2016 में अपनी शुरुआत से ही, यह समझौता दक्षिण कोरिया और जापान दोनों के लिए उत्तर कोरिया के परमाणु ख़तरे से निपटने के वास्ते अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है. हालांकि पिछले महीने इस निर्णय को पलट दिया गया, लेकिन यह दिखाता है कि कंफर्ट विमेन का मुद्दा अनसुलझा रहने पर जापान-दक्षिण कोरिया संबंध का सुरक्षा पहलू भी कितना नाज़ुक है.
इस विवाद के मूल में दक्षिण कोरिया के सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2018 में दी गयी एक व्यवस्था है, जिसने जापान की निजी कंपनियों को उन मजदूरों को मुआवज़ा देने का आदेश दिया जिन्हें द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ज़बरन काम पर रखा गया था.
आवश्यकता के चलते सहयोगी, इन दो देशों के घरेलू समीकरण और इनके इर्दगिर्द क्षेत्रीय भूराजनीति दोनों बहुत भिन्न हैं. वैसे, जापान और दक्षिण कोरिया दोनों ही इस क्षेत्र में अमेरिका के प्रमुख सहयोगी हैं और उनके समक्ष कई साझा चुनौतियां हैं जिनसे उन्हें मिलकर पार पाना चाहिए. 24 मई को, जब राष्ट्रपति जो बाइडन टोक्यो में व्यक्तिगत रूप से क्वॉड बैठक में शिरकत कर रहे थे, रूस और चीन के छह लड़ाकू विमानों ने, जिनमें रूसी टीयू-95 एमएस और चीनी एच-6के रणनीतिक बमवर्षक शामिल थे, जापान सागर और पूर्वी चीन सागर के ऊपर संयुक्त हवाई गश्त लगायी, जिसका मक़सद बीजिंग और मॉस्को के बीच गहराते संबंधों का प्रदर्शन था. जापान और दक्षिण कोरिया दोनों ने रूसी और चीनी बमवर्षकों को रोकने के लिए अपने लड़ाकू विमानों को उड़ाया. जापान के रक्षा मंत्री नोबुओ किशी ने कहा कि इस साल जो हुआ वह पहले की घटनाओं के मुक़ाबले ज़्यादा उकसाऊ है, क्योंकि यह क्वॉड शिखर सम्मेलन के दौरान किया गया.
उत्तर-कोविड युग में चीन की बढ़ती आक्रामकता टोक्यो और सियोल दोनों के लिए एक बड़ी चुनौती है. रूस के साथ हालिया हवाई गश्त के अलावा, चीन सेनकाकू/दिओयू द्वीपों में जापान को लगातार कोंचता रहता है. दक्षिण कोरिया द्वारा अपने क्षेत्र में कथित तौर पर अमेरिकी ‘टर्मिनल हाई अल्टीट्यूड एयर डिफेंस’ (थाड) मिसाइल बैटरियों की तैनाती की रिपोर्ट्स को देखते हुए उसे भी निशाना बनाया गया है. दक्षिण कोरिया के रणनीतिक दायरों में यह धारणा लगातार बलवती हो रही है कि चीन द्वारा दक्षिण कोरिया पर अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा ज़रूरतों से समझौते के लिए दबाव बनाया जा रहा है. अपनी ओर से, चीन ने राष्ट्रपति यून को इशारा किया है कि वह पूर्व राष्ट्रपति मून जे-इन प्रशासन के साथ स्थापित ‘तीन नहीं’ की सैद्धांतिक रूपरेखा से भटकाव बर्दाश्त नहीं करेगा, यानी दक्षिण कोरिया में नयी थाड बैटरी नहीं, अमेरिका-जापान-दक्षिण कोरिया त्रिपक्षीय मिसाइल रक्षा प्रणाली नहीं और अमेरिका-जापान-दक्षिण कोरिया सुरक्षा गठजोड़ नहीं. दक्षिण कोरिया-जापान संबंधों के लिए एक बड़ा प्रोत्साहन यह हो सकता है कि, यून ने पदभार संभालने के बाद से जापान के साथ रिश्ते सुधारने पर ज़ोर दिया है. असल में, अप्रैल में जब वह नवनिर्वाचित भावी राष्ट्रपति थे, तब उन्होंने द्विपक्षीय रिश्तों के नये सिरे से निर्धारण में मदद के वास्ते जापानी प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा के साथ मुलाक़ात के लिए दक्षिण कोरियाई प्रतिनिधिमंडल की टोक्यो यात्रा की अगुवाई की थी. प्रतिनिधिमंडल ने अपनी यात्रा के संबंध में यह कहते हुए एक बयान भी जारी किया कि उनका लक्ष्य ‘कोरिया-जापान के एक नये रिश्ते की शुरुआत करना था’. पदभार संभालने के बाद, राष्ट्रपति यून ने उस GSOMIA की लाइन के अनुरूप अमेरिका-जापान-दक्षिण कोरिया त्रिपक्षीय सुरक्षा सहयोग को मज़बूत करने पर ज़ोर दिया है, जिसकी निरंतरता हाल-हाल तक ख़तरे में थी. हालांकि, इस तरह के सहयोग प्रकट तौर पर उत्तर कोरियाई परमाणु ख़तरे और मिसाइल प्रक्षेपणों से निपटने के लिए लक्षित हैं, लेकिन चीन द्वारा इसे ‘तीन नहीं’ में से एक के उल्लंघन के रूप में देखा जायेगा.
8 जनवरी 2021 को जब, सियोल की एक स्थानीय अदालत ने जापान सरकार से 12 जीवित ‘कंफर्ट वुमन’ में से हरेक को भारी मुआवजा देने को कहा, तो प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा ने कड़ा रुख़ अपनाया और इस आदेश को यह कहकर पूरी तरह से ख़ारिज कर दिया कि इस अदालत का एक संप्रभु राष्ट्र, जापान पर कोई न्यायाधिकार नहीं है.
वॉशिंगटन अपनी ओर से जापान और दक्षिण कोरिया दोनों को बाकी बचे सभी ऐतिहासिक मुद्दे सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझाने के लिए राज़ी करने की पूरी कोशिश करता रहा है, ताकि वे बीजिंग के ख़िलाफ़ साझा मोर्चा पेश कर सकें. राष्ट्रपति बाइडन के मातहत अमेरिकी प्रशासन उत्तर कोरिया और चीन से निपटने के सवाल पर टोक्यो और सियोल को एक साथ लाने के लिए प्रतिबद्ध रहा है. इस साल मई में, बाइडन पांच दिन की दक्षिण कोरिया और जापान यात्रा पर थे. रूस-यूक्रेन युद्ध को देखते हुए, अमेरिका बाध्य हुआ कि वह अपने संसाधनों और रणनीतिक फोकस को वापस यूरेशियाई हृदयस्थली की ओर केंद्रित करे. बाइडन की एशिया यात्रा का महत्व यह है कि इसने अमेरिका को एक बार फिर अपना ध्यान हिंद-प्रशांत पर केंद्रित करने के लिए मजबूर किया है. बाइडन की यात्रा ने इस क्षेत्र के उनके दो सबसे अहम सहयोगियों को पुन: आश्वस्त किया है, जो उनके पूर्ववर्ती राष्ट्रपति की शैली और इरादे से एक अलग राह है. यूक्रेन के मुद्दे पर तीनों देशों के नेताओं ने रूस के एकतरफ़ा क़दमों के ख़िलाफ़ एक सशक्त मुद्रा अपनायी और साथी लोकतांत्रिक देश, यूक्रेन के पीछे एकजुट रहने की प्रतिज्ञा की. प्रसंगवश, अमेरिका के साथ जापान और दक्षिण कोरिया दोनों, रूसी आक्रामकता को दंडित करने और रोकने के लिए आर्थिक प्रतिबंध अभियान में फरवरी में ही शामिल हो गये थे.
पुन: प्रज्वलित हुए नये रणनीतिक दोस्ताने के बावजूद, जापान और दक्षिण कोरिया को इस तथ्य को लेकर सतर्क रहना होगा कि अगर चीज़ें नियंत्रण से बाहर होने दी गयीं, तो उनकी एक दूसरे के ख़िलाफ़ प्रबल घरेलू राष्ट्रवादी भावनाएं पहले से ही नाज़ुक संबंधों को और नुक़सान पहुंचा सकती हैं. विदेश मंत्रियों की बैठक ने जापान और दक्षिण कोरिया के बीच गर्मजोशी का संकेत दिया, लेकिन यह देखा जाना बाकी है कि वे ‘कंफर्ट विमेन’ का ऐतिहासिक मुद्दा अब भी अनसुलझा रहते हुए कितना आगे जा सकते हैं. कूटनीतिक बारीकियों के बावजूद, इस तरह की बैठकों ने अतीत में वांछित नतीजे नहीं दिये, ख़ासकर इस मुद्दे की संवेदनशीलता और दोनों तरफ़ इससे जुड़ी राजनीतिक-सह-जन भावनाओं को देखते हुए. जापान को कोरिया में अपने औपनिवेशिक शासन से उपजी तकलीफ़ों व दुखों और उसके अब भी बाकी प्रभावों को समझने की ज़रूरत है, जबकि दक्षिण कोरिया को यह समझने की ज़रूरत है कि युद्ध के बाद के जापान ने शांतिवाद को न सिर्फ़ एक राज्य-आदेशित नीति के रूप में, बल्कि अपने लोगों के लिए ‘जीवन जीने के तरीक़े’ के रूप में चुना है. दोनों देशों की भावी पीढ़ियों की इस तरह से बेहतर सेवा हो सकेगी.
दक्षिण कोरिया ने अभी तक इनमें से किसी का पालन नहीं किया है और मध्यस्थता बोर्ड जैसा कुछ गठित होना अभी बाकी है. इस तरह का बोर्ड जापान-दक्षिण कोरिया संबंधों को स्थिरता प्रदान करने में एक सकारात्मक भूमिका निभायेगा ख़ासकर जब ‘कंफर्ट वुमन’ जैसे ऐतिहासिक मुद्दे नौका को डगमग करने का ख़तरा पैदा कर रहे हों.
दोनों पक्षों के बीच कोई विवाद खड़ा होने पर, समाधान का एक व्यावहारिक अंग यह होगा कि 1965 के समझौते के मध्यस्थता प्रावधान का इस्तेमाल किया जाए. समझौते के अनुच्छेद III.2 और अनुच्छेद III.3 कहते हैं कि विवाद के समाधान के लिए दक्षिण कोरिया गणतंत्र एक मध्यस्थता बोर्ड के संविधान द्वारा ज़िम्मेदारी से बंधा हुआ है. इसके अलावा दक्षिण कोरियाई सरकार को एक तीसरा देश चुनना होगा, जिसकी सरकार मध्यस्थ तय करेगी. दक्षिण कोरिया ने अभी तक इनमें से किसी का पालन नहीं किया है और मध्यस्थता बोर्ड जैसा कुछ गठित होना अभी बाकी है. इस तरह का बोर्ड जापान-दक्षिण कोरिया संबंधों को स्थिरता प्रदान करने में एक सकारात्मक भूमिका निभायेगा ख़ासकर जब ‘कंफर्ट वुमन’ जैसे ऐतिहासिक मुद्दे नौका को डगमग करने का ख़तरा पैदा कर रहे हों. तीखी भूराजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के इस दौर में, एक स्थिर, समृद्ध और भविष्योन्मुख जापान-दक्षिण कोरिया संबंध हिंद-प्रशांत क्षेत्र के भविष्य के लिए बेहद अहम है. चीन और रूस दोनों की इस पर क़रीब से नज़र रहेगी.
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Dr. Amlan Dutta is a Junior Fellow at the Prime Minister's Museum and Library (PMML), Teen Murti House, New Delhi, where he is working on ...
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