Author : Kanchan Gupta

Published on Oct 24, 2018 Updated 0 Hours ago

ओस्‍लो समझौते के बाद जो दो राष्‍ट्र वाले हल का विचार था वो अब बहुत दूर की कौड़ी लगता है। रामल्‍ला और वॉशिंगटन के बीच का संवाद टूट चुका है।

‘ओस्‍लो’ समझौते को 25 साल हो गए, अब किसी को इसकी परवाह नहीं

व्हाइट हाउस में यित्झाक राबिन, बिल क्लिंटन और यासिर अराफात, 1993 | छवि: विकिमीडिया कॉमन्स

1970 के आखिरी सालों में ऐसा लगता था कि समय-समय पर होने वाला ख़ून-ख़राबा जो अरब और इज़राइल रिश्‍तों को परिभाषित कर रहा है और मध्‍य-पूर्व के मामलों पर हावी है, वो इतिहास बन जाएगा। 1978 के कैंप डेविड समझौते ने एक-दूसरे के कट्टर दुश्‍मन मिस्र और इज़राइल के बीच अगले साल शांति संधि के रास्‍ते खोले। समझा जा रहा था कि ये समझौता आगे की दिशा तय करते हुए फ़ि‍लिस्‍तीनी मसले का हल निकालेगा और इज़राइल को उस इलाक़े में उसकी सही जगह दिलवाएगा जहां शुरुआत से ही यहूदी राष्‍ट्र को मिटा देने की क़समें खाई गईं।

लेकिन जैसा कि हम सब जानते हैं कि इतिहास भविष्‍य में कभी सीधी छलांग नहीं लगाता, न ही हमेशा चीज़ें बेहतरी के लिए बदलती हैं। मिस्र के राष्‍ट्रपति अनवर सआदत , जिन्‍होंने इज़राइल के साथ शांति बहाली का हौसला दिखाया था, उनकी 1981 में हत्‍या कर दी गई। अनवर सआदत की हत्‍या करने वाले खालिद इस्‍लामबौली को 1982 में फ़ांसी दे दी गई। ईरान, जिसने ठीक पहले इस्‍लामी क्रांति देखी थी, उसने राष्‍ट्रपति सआदत की हत्‍या का स्‍वागत किया और अयातुल्‍लाह खोमैनी ने खालिद इस्‍लामबौली को शहीद घोषित कर दिया, तेहरान में एक सड़क का नाम भी इस्‍लामबौली के नाम कर दिया गया। इस साल सितंबर की शुरुआत में ईरान की मिलिट्री परेड पर एक हमला हुआ और कई लोग मारे गए, इस डरा देने वाली घटना ने मिस्र में हुई 6 अक्‍टूबर 1981 की घटना याद दिला दी। जिसमें राष्‍ट्रपति अनवर सआदत की हत्‍या कर दी गई थी। सदत के राजनैतिक हत्‍या से इज़राइल के साथ हुआ शांति समझौता ख़तरे में पड़ गया पर राष्ट्रपति होस्‍नी मुबारक के अमेरिका के क़रीब और सोवियत संघ से दूर जाने के चलते ये समझौता बचा रह गया। इससे स्‍वेज़ नहर के आर-पार बड़ा बदलाव हुआ।

रूस, मिस्र के इस तरह दूर होने और मॉस्‍को के नियंत्रण से बाहर होने की वजह से ख़ुश नहीं था और उसने दूसरे सहयोगी तलाशने शुरू कर दिए।

शिया ईरान ने सुन्‍नी अरब अथॉरिटी और उसके नियंत्रण में दखल देना शुरू किया, जिसके चलते कैंप डेविड समझौते से पहले के मध्‍य-पूर्व से जुड़े नियम-क़ायदे पूरी तरह से बदल गए।

फि‍र भी उम्‍मीद ख़त्‍म नहीं हुई थी। अमेरिका इज़राइल और फ़ि‍लिस्‍तीन के बीच शांति क़ायम करने की कोशिशों को लेकर डटा रहा। ओस्‍लो शांति प्रक्रिया की वजह से 1993 में ओस्‍लो एकॉर्ड (समझौते) 1 पर दस्‍तख़त हुए। इसके बाद 1994 में इज़राइल और जॉर्डन के बीच शांति समझौता हुआ, 1995 ओस्‍लो एकॉर्ड 2 पर हस्‍ताक्षर किए गए।


‘ओस्‍लो’ के 25 साल बाद ज़मीन पर बहुत कम बदलाव आए हैं हांलाकि PLO यानी फ़ि‍लिस्‍तीन मुक्ति संगठन ने इज़राइल को एक देश के तौर पर मान्‍यता दी है तो इज़राइल ने फ़ि‍लिस्‍तीन मुक्ति संगठन को फ़ि‍लिस्‍तीनी अथॉरिटी बनाने की इजाज़त दी है। फ़ि‍लिस्‍तीनी अथॉरिटी ऐसी व्‍यवस्‍था है जो फ़ि‍लिस्‍तीनी विधान परिषद बनने के पहले तक काम करेगी।


25 साल बहुत लंबा समय नहीं है लेकिन मध्‍य-पूर्व से जुड़ी यादों के धुंधला पड़ जाने के लिहाज़ से ये गुज़र गया एक लंबा वक़्त है। इतना कि फ़ि‍लिस्‍तीन के स्‍थायी हल की नींव रखने वाले ओस्‍लो एकॉर्ड 1 की 25वीं सालगिरह को इस इलाक़े और दुनिया ने बिना तवज्‍जो दिए गुज़र जाने दिया गया।

ये दलील दी जा सकती है कि इज़राइल ने ख़ुद को गाज़ा से निकाल लिया है (बाड़ बाँधने को सही ठहराते हुए क्‍यों कि वो अपने लोगों को हमास से बचाने के लिए बैरिकेटिंग कर रहा है) वो वेस्‍ट बैंक में फतह के नियंत्रण वाली फ़ि‍लिस्‍तीनी अथॉरिटी को खुद सरकार चलाने की छूट और नीति बनाने का अधिकार भी दे रहा है। यासिर अराफ़ात से बेहद ख़राब रिश्‍तों के अपेक्षा महमूद अब्‍बास से कम शत्रुतापूर्ण रिश्‍ते है लेकिन इसका जोड़ गाज़ा में हमास की दुश्‍मनी (ईरान वाया सीरिया हमास की बड़े पैमाने पर मदद करता है जैसा वो लेबनान में करता है) और वेस्‍ट बैंक में जंग जैसी स्थिति से कहीं अधिक है।

इस बीच वेस्‍ट बैंक में ‘एरेत्‍ज़ इज़राइल’ या जॉर्डन नदी से भूमध्‍य सागर तक इज़राइल की भूमि को वापस पाने की मुहिम के तहत यहूदी बस्तियों का बनना जारी है। प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्‍याहू इस बारे में न तो शर्मिंदा हैं और न ही बचाव के मूड में हैं। अमेरिका अपना दूतावास तेल अवीव से हटाकर यरुशलम ले आया है, जो इस बात का संकेत है कि वैश्विक तौर पर ये माना जाने लगा है कि जो हालात 6 दिवसीय जंग से पहले थे उन्‍हें बहाल करना नामुमकिन नहीं हो तो अव्‍यवहारिक ज़रूर हो गया है। कनेसेट (इज़राइल की एसेंबली) ने नेशन स्‍टेट बिल पारित कर दिया है जहां एक बुनियादी क़ानून के ज़रिए इज़राइल के स्‍वरूप को औपचारिक तौर पर यहूदियों के राष्‍ट्र की संकल्‍पना दी गई है।

ओस्‍लो समझौते के बाद जो दो राष्‍ट्र वाले हल का विचार था वो अब बहुत दूर की कौड़ी लगता है। रामल्‍ला और वॉशिंगटन के बीच का संवाद टूट चुका है। राष्‍ट्रपति डोनल्ड ट्रम्‍प ने अपने ख़ास अंदाज़ में फ़ि‍लिस्‍तीनी भावनाओं को रौंद डाला है। दक्षिण पंथ की ओर अग्रसर यूरोप के पास न तो समय है और न ही वो चाहता है कि यहूदी विरोधी वामपंथियों के ‘बहिष्‍कार करो, निवेश निकालो और रोक लगाओं’ पर वो अमल करे। अगर जेरेमी कोर्बिन खुलेआम यहूदी विरोधी होकर भी छूट जाते हैं तो इसका श्रेय प्रधानमंत्री टेरेसा मे को जाना चाहिए। एनापॉलिस रोडमैप जिसके रास्‍ते सालभर में इज़राइल और फ़ि‍लिस्‍तीनी अपनी मंज़ि‍ल तक पहुंचने वाले थे वो महज शांति के इतिहास का एक हाशिया बन कर रह गया है। 2007 में इज़राइली और फ़ि‍लिस्‍तीनी एनापॉलिस में लगभग समझौते पर राज़ी हो गए थे यही हाल ओस्‍लो में भी था। एनापॉलिस से अब तक की बहस में बहुत कुछ हुआ, जिसने मुमकिन और नामुमकिन की खाई को और बढ़ा दिया है।

गाज़ा और इज़राइल के बीच खुली दुश्‍मनी इस बढ़ती खाई की एक वजह है। इराक़ से लेकर सीरिया तक मची उथल-पुथल का भी इसमें एक बड़ा हाथ है। शिया ईरान के बढ़ते असर को सुन्‍नी अरब से कड़ी चुनौती मिल रही है। मिस्र इस्‍लामी कट्टरपंथियों के साथ अपनी लड़ाई लड़ रहा है और इज़राइल अब अरब देशों का स्‍थायी दुश्‍मन नहीं रहा। कल के दुश्‍मन आज के साथी हैं, राष्‍ट्रीय और सांप्रदायिक हित, अरब हितों से ऊपर हो गए हैं। इस उथल-पुथल में कहा जा सकता है कि फ़ि‍लिस्‍तीनी मुद्दा भुला दिया गया है। इस्‍लामी सहयोग संगठन (OIC) भले फ़ि‍लिस्‍तीनियों का दम भरता रहे, हक़ीक़त संयुक्‍त राष्‍ट्र के सदनों, यूनिस्‍को और संयुक्‍त राष्‍ट्र मानवाधिकार परिषद के प्रस्‍तावों से बहुत अलग है।

हैरत की बात नहीं है कि ओस्‍लो समझौते की 25वीं सालगिरह भुला दी गई, बिना किसी चर्चा के गुज़र गई।

पुनश्‍च: ट्रम्‍प का कहना है कि वो अभी भी दो राज्य समाधान (इज़राइल से अलग स्‍वतंत्र फ़ि‍लिस्‍तीन देश बनना चाहिए) के पक्षधर हैं। संयुक्‍त राष्‍ट्र महासभा की बैठक के दौरान ट्रम्प अलग से नेतन्याहू से मिले और उसके बाद हुई साझा प्रेस कॉन्‍फ़्रेंस में ट्रम्‍प ने कहा कि “मैं टू स्‍टेट सॉल्‍यूशन (दो राष्‍ट्र की नीति) का समर्थन करता हूं, मुझे लगता है कि यही सबसे कारगर होगा। इस बारे में मुझे किसी से बात करने की भी ज़रूरत नहीं है।”

नेतन्‍याहू ने बाद में कहा कि “हर कोई स्‍टेट शब्‍द को अलग-अलग तरीके से परिभाषित करता है।” अब हमें ट्रम्‍प की डील के ब्‍योरे का इंतज़ार करना चाहिए, इन कोशिशों के फ़ि‍लिस्‍तीन के पक्ष में होने की उम्‍मीदें कम ही हैं इसके बावजूद भी कि फ़ि‍लिस्‍तीनी अथॉरिटी के अध्‍यक्ष महमूद अब्‍बास जॉर्डन के पश्चिम में इज़राइल के सुरक्षा नियत्रण ही बने रहने देने के पक्ष में हैं।

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