भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने तकनीकी विकास के क्षेत्र में एक अहम कामयाबी हासिल की है. इसरो ने 300 मीटर की दूरी तक फ्री-स्पेस क्वॉन्टम कम्यूनिकेशन का परीक्षण किया है. क्वॉन्टम कम्यूनिकेशन क्वॉन्टम मैकेनिक्स के सिद्धांत पर आधारित है. क्वॉन्टम साइंस के व्यावहारिक इस्तेमाल के संदर्भ में क्वॉन्टम की डिस्ट्रीब्यूशन (क्यूकेडी) सर्वाधिक संभावनाओं वाला क्षेत्र है. आज के समय में कई वजहों से क्यूकेडी अत्यंत ज़रूरी हो गया है. पिछले कई दशकों में विश्व में इलेक्ट्रॉनिक्स का व्यापार काफ़ी बढ़ गया है. ऐसे में इनके लिए गहन सुरक्षात्मक उपाय किए जाने आवश्यक हो गए हैं. नतीजतन वैश्विक इलेक्ट्रॉनिक व्यापार में इस्तेमाल किए गए डेटा को आम तौर पर बिट्स के तौर पर सांकेतिक शब्दों में बदला जाता है. इसके लिए बड़े द्विगुण अंकों का इस्तेमाल किया जाता है जिन्हें “की” (key) कहा जाता है. सुरक्षित तरीके से “की” (key) का वितरण सुनिश्चित करने के लिए क्वॉन्टम “की” (key) बेहद अहम हो जाते हैं. मौजूदा वक़्त में इलेक्ट्रॉनिक से जुड़ा वाणिज्य गणनात्मक जटिलताओं के इस्तेमाल के ज़रिए संपन्न किया जाता है. हालांकि, ये पब्लिक “की” (key) और पारंपरिक एन्क्रिप्शन तंत्र सुरक्षा में आने वाली कमियों के चलते एक सीमा के बाद बोझ बन जाते हैं. इलेक्ट्रॉनिक व्यापार में आंकड़े सार्वजनिक रूप से घोषित किए जाते हैं. ऐसे में अगर ये आंकड़े बड़े भी हों तब भी उन्हें हेराफेरी और जासूसी से सुरक्षित नहीं रखा जा सकता. कालांतर में कम्प्यूटेशनल पावर और एलगोरिथम के चलते ये “की” (key) असुरक्षित हो जाते हैं. दीर्घकाल तक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए क्रिप्टोग्राफिक “की” (key) को पूरी तरह से सुरक्षित बनाना होगा. इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए क्यूकेडी अपरिहार्य और अत्यावश्यक हो जाते हैं. क्यूकेडी तकनीक के उभार और विकास के बाद चाहे जितने भी कम्प्यूटेशनल सुधार कर लिए जाएं, क्वॉन्टम क्रिप्टोग्राफ़ी की कूट सुरक्षा और “की” (key) को तोड़ा नहीं जा सकेगा. क्यूकेडी कम्यूनिकेशन न सिर्फ़ वाणिज्यिक तौर पर बल्कि सैन्य संचार व्यवस्थाओं के लिए भी परम आवश्यक है.
लंबी दूरियों के बीच क्यूकेडी के प्रदर्शन और उपग्रहों और धरती पर स्थित केंद्रों के बीच क्वॉन्टम कम्यूनिकेशंस स्थापित करने के मामलों में इसरो को अभी एक लंबा सफ़र तय करना है.
दुनिया की कई अंतरिक्ष संस्थाएं और वैज्ञानिक संगठन पहले से ही क्यूकेडी तकनीकों का उपयोग और विकास कर रहे हैं. इसरो भी अब इन्हीं संस्थाओं में शामिल हो गया है. इसरो ने एक अहम कदम के तौर पर 300 मीटर की दूरी पर अवस्थित दो बिंदुओं के बीच ताज़ा परीक्षण कर ये दिखा दिया है कि क्वॉन्टम कम्यूनिकेशंस मुमकिन हैं. फ़िलहाल इसरो क्यूकेडी तकनीक के मामले में प्रारंभिक अवस्था में है. लंबी दूरियों के बीच क्यूकेडी के प्रदर्शन और उपग्रहों और धरती पर स्थित केंद्रों के बीच क्वॉन्टम कम्यूनिकेशंस स्थापित करने के मामलों में इसरो को अभी एक लंबा सफ़र तय करना है. सैद्धांतिक तौर पर क्यूकेडी तकनीक लंबी दूरियों के बीच बेहद सुरक्षित संचार की संभावनाएं पैदा करता है. हालांकि, व्यावहारिक तौर पर क्यूकेडी तकनीक को अबतक सिर्फ़ कुछ सौ किलोमीटर की दूरी तक ही प्रभावी पाया गया है.
चीन का क्वॉन्टम कम्यूनिकेशंस सैटेलाइट
भारत द्वारा अपने परीक्षण से प्रदर्शित संभावनाओं के अलावा क्यूकेडी तकनीक के परीक्षण और विकास की दिशा में दुनिया में कई दूसरे उल्लेखनीय उदाहरण भी मिलते हैं. मिसाल के तौर पर यूरोपियन स्पेस एजेंसी (ईएसए) और यूनिवर्सिटी साइंस एंड टेक्नोलॉजी ऑफ़ चाइना ने क्वॉन्टम सूचना विज्ञान से जुड़े इस क्षेत्र में क्षमता का प्रदर्शन किया है. ईएसए ने क्वॉन्टम कम्यूनिकेशंस के क्षेत्र में करीब-करीब दो दशकों तक प्रयोग और परीक्षण किए हैं. क्वॉन्टम कम्यूनिकेशंस के क्षेत्र में चीन ने अभी-अभी कदम रखा है और इसमें थोड़ी-बहुत तरक्की भी हासिल की है. चीनी वैज्ञानिकों ने विएना और बीजिंग के बीच क्वॉन्टम एनक्रिप्टेड टेलीकॉन्फ्रेंस का इस्तेमाल कर अपने शोध का प्रदर्शन किया है. यूनिवर्सिटी ऑफ़ साइंस एंड टेक्नोलॉजी ऑफ़ चाइना के अंतरिक्ष विज्ञानियों और शोधकर्ताओं की एक टीम ने मिसिअस नाम का एक उपग्रह तैयार कर उसे अंतरिक्ष में लॉन्च किया है. इसे दुनिया का पहला क्वॉन्टम कम्यूनिकेशंस सैटेलाइट बताया जा रहा है. इसे 2017 में प्रक्षेपित किया गया था. इस सैटेलाइट ने एक अहम कामयाबी हासिल करते हुए आपस में उलझे दो सूक्ष्म अणुओं को प्रवाहित किया था. इन्हें फोटॉन कहा जाता है. बीच की दूरी और आपस में गुत्थमगुत्था या उलझी हुई अवस्था में होने के बावजूद सैटेलाइट ने इन फोटॉन्स का प्रसारण किया. एक फोटॉन के साथ किसी भी तरह का छेड़छाड़ किए जाने पर दूसरे पर भी उसका असर पड़ने की संभावना होती है. बुनियादी तौर पर एक उलझी हुई अवस्था में होने के चलते इनका इस्तेमाल संदेशों को कूटबद्ध करने के लिए “की” (key) के निर्माण में किया जा सकता है. उसे सिर्फ़ उस दूसरे अणु के ज़रिए ही डिकोड किया जा सकेगा. इसमें कोई शक नहीं है कि जटिलता पर आधारित क्वॉन्टम क्रिप्टोग्राफ़ी क्वॉन्टम कम्यूनिकेशन का एक अतिसुरक्षित उपाय है. चीन के वैज्ञानिकों ने अपने स्तर से ये दिखाया है कि अपने कृत्रिम उपग्रह मिसयस की मदद के बिना वो किस तरह से विएना और बीजिंग के बीच कूटबद्ध संचार सुनिश्चित कर सकते हैं. इसे साकार करने के लिए मिसियस द्वारा विएना और बीजिंग के निकट के ग्राउंड स्टेशनों तक क्रिप्टोग्राफ़िक की (key) का वितरण सुनिश्चित करवाया गया. इसे एक उलझी हुई अवस्था में वितरित कराया गया क्योंकि इसी तरीके से वो अपनी कक्षा में वितरित होते हैं. इसके ज़रिए आपस में 7400 किमी की दूरी पर स्थित चीन और ऑस्ट्रिया की विज्ञान संस्थाओं के बीच संचार सुविधाएं कायम की गईं. यहां ध्यान देना ज़रूरी है कि ऑस्ट्रिया और चीन में बने ग्राउंड स्टेशनों के बीच संचार मध्यस्थ के तौर पर मिसियस या क्वॉन्टम कम्यूनिकेशंस की कोई भूमिका नहीं रही. मिसियस ने सिर्फ़ क्वॉन्टम “की” का निर्माण किया, लेकिन इसका वास्तविक प्रसारण उसकी मदद के बिना ही संपन्न हुआ.
चीन के वैज्ञानिकों ने अपने स्तर से ये दिखाया है कि अपने कृत्रिम उपग्रह मिसयस की मदद के बिना वो किस तरह से विएना और बीजिंग के बीच कूटबद्ध संचार सुनिश्चित कर सकते हैं.
यूरोपीय संघ के साथ गठजोड़
ये एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें चीन भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी से आगे है. उसने उपग्रह-आधारित क्वॉन्टम कम्यूनिकेशन के परीक्षण में बढ़त बना ली है. आभासी तौर पर ही सही पर चीन ने हैकिंग से सुरक्षित क्वॉन्टम क्षमता का प्रदर्शन किया है. भले ही क्वॉन्टम कम्यूनिकेशंस की दिशा में चीन द्वारा अब तक हासिल की गई सफलताएं प्रभावित करती हैं, लेकिन उनको लेकर बढ़ा-चढ़ाकर बातें करने की ज़रूरत नहीं है. चीन घरेलू मोर्चे पर इस तकनीक के विकास के प्रयासों के अलावा दूसरे देशों के साथ भी गठजोड़ कायम करने की दिशा में सघन रूप से प्रयासरत है. ये देश क्वॉन्टम साइंस के क्षेत्र में काफ़ी आगे बढ़ चुके हैं. इनमें यूरोपीय संघ (ईयू) प्रमुख है. पिछले दो साल से भी अधिक समय से चीन और यूरोपीय संघ कुछ अत्यंत संवेदनशील क्षेत्रों में गठजोड़ कायम करने के लिए वार्ताएं कर रहे हैं. इनमें आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (एआई), क्वॉन्टम साइंस, 5जी आदि शामिल हैं. इससे स्पष्ट है कि चीन की नज़र में क्वॉन्टम साइंस में संभावनाएं हैं. वो यूरोपीय संघ के साथ किसी संभावित गठजोड़ को एक अवसर के रूप में देख रहा है. चीन यूरोपीय संघ द्वारा क्वॉन्टम साइंस के क्षेत्र में हासिल की गई कामयाबियों से लाभान्वित होना चाहता है. हालांकि, ये भी सच है कि बदले में चीन यूरोपीय वैज्ञानिक बिरादरी को इसी तरह की पारस्परिक रियायत देने से गुरेज़ करता है. उसने अपने यहां हो रहे शोधकार्यों तक यूरोपीय विज्ञानियों को पहुंच प्रदान नहीं किया है, जबकि वो ख़ुद यूरोपीय शोधकर्ताओं द्वारा हासिल की गई कामयाबियों का पूरा-पूरा लाभ उठाना चाहता है. ऐसे में बीजिंग और ब्रुसेल्स के बीच वार्ताओं में गतिरोध कायम है. अत्याधुनिक तकनीकी और विज्ञान के क्षेत्र में गठजोड़ को लेकर बातचीत सिरे नहीं चढ़ सकी है. इसकी वजह बौद्धिक संपदा (आईपी) नियमन से जुड़े मामलों पर चीन का ढीला-ढाला रवैया है. इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि इस पर निकट भविष्य में कोई समझौता हो भी पाएगा. यूरोपीय संघ के शोध और नवाचार मामलों के महानिदेशक जीन एरिक पाक्वेट ने ये स्वीकार किया है कि जिन क्षेत्रों में चीन को ऐसा लगता है कि उसने दूसरों से बढ़त ले ली है उनमें वो गठजोड़ के लिए तैयार नहीं है. चीन सिर्फ़ उन्हीं क्षेत्रों में गठजोड़ का इच्छुक है जिनमें वो कमज़ोर है और उसे लगता है कि उसके मुक़ाबले उन मामलों में यूरोपीय संघ मज़बूत है. चीन के ठीक विपरीत भारत दूसरी राजसत्ताओं के साथ गठजोड़ को लेकर कहीं अधिक पारदर्शी है. ऐसे में भारत को यूरोपीय संघ के साथ विज्ञान-आधारित और तकनीक के मामलों में भागीदारी पर गहन रूप से नज़दीकी बढ़ाने के लिए काम करना चाहिए. चीन भी इसी दिशा में प्रयास कर रहा है.
चीन यूरोपीय संघ द्वारा क्वॉन्टम साइंस के क्षेत्र में हासिल की गई कामयाबियों से लाभान्वित होना चाहता है. हालांकि, ये भी सच है कि बदले में चीन यूरोपीय वैज्ञानिक बिरादरी को इसी तरह की पारस्परिक रियायत देने से गुरेज़ करता है.
भारत के लिए यहां सिर्फ़ एक मुश्किल है. वो ये कि क्या यूरोपीय संघ के देश इस क्षेत्र में गठजोड़ के लिए भारत को अपने मतलब के लिहाज से एक आकर्षक भागीदार समझते हैं या नहीं. इसरो द्वारा हाल ही में हासिल की गई कामयाबी भी शायद यूरोपीय संघ को कोई ख़ास प्रभावित न कर पाए. हालांकि, इससे भारत द्वारा इस क्षेत्र में लगातार की जा रही प्रगति का पता चलता है. क्वॉन्टम साइंस के क्षेत्र में घरेलू मोर्चे पर और अधिक कामयाबी हासिल कर लेने से भारत खुद को एक आकर्षक भागीदार के तौर पर पेश कर सकेगा.
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