Author : Anchal Vohra

Published on Jan 20, 2018 Updated 0 Hours ago

यदि इस सब के बीच विरोध असल में रूहानी का ही है तो इस विरोध का स्वागत नहीं किया जा सकता। कम से कम तब तक तो नहीं जब तक यह विरोध केवल तेहरान में न होकर, 2009 की तरह व्यापक स्तर पर राजनैतिक दिशा बदलने के लिए न हो।

ईरान में हो रहे विरोध प्रदर्शन किसके लिए फ़ायदेमंद?

दिल्ली से तेहरान की फ़्लाइट के, लैंडिंग के लिए नीचे का रुख करने कुछ ही मिनट पहले जहाज़ में हलचल शुरू हो गयी थी। हाई स्ट्रीट के फैशनुमा कपड़ों में सजी औरतें, अपने अपने हैण्ड लगेज निकालने की जद्दोजहद में थीं और साथ ही खुद को पूरी तरह ढँक लेने की भी। कुछ ने घुटनों तक की लम्बाई वाले चोगे पहन लिए थे तो कुछ अपने नक़ाब पहनने में मशगूल थीं। उन सभी ने अपने बालों की लटों को स्कार्फों के अंदर छिपा लिया था। सभी अपने वतन लौटने की की तैयारी में थीं, उस वतन, जहां 1979 की इस्लामी क्रांति के बाद यह सब करना कानूनी तौर पर लाज़मी था।

ईमाम ख़ुमैनी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे का नामकरण उस इस्लामी धार्मिक नेता के नाम पर रखा गया है जिसने अमरीकी सहयोगी, शाह को अपदस्थ कर एक बड़े बदलाव के नींव रखी थी। यह हवाई अड्डा संभवतः विश्व के सबसे खाली पड़े हवाई अड्डों में से है प्रत्यक्ष रूप से यहां औद्योगिक उपक्रमों और विविधता का अभाव है। जहां विश्व भर की राजधानियों के अंतरष्ट्रीय हवाई अड्डे एक चकाचौंध भरे मॉल के तरह लगते हैं वहीँ तेहरान का हवाई अड्डा बाबा आदम के ज़माने की दुकान प्रतीत होता है। हालांकि यहां पर एक विशेष प्रकार के आराम का एहसास भी होता है परन्तु असल में यह वैश्विक बाज़ार में ईरान के अलग थलग पड़ने की गवाही देता है।

अपने चमोत्कर्ष के दौरान ईरानी साम्राज्य के आधीन, तीन महाद्वीपों तक फैला 2.9 मिलियन क्षेत्र था परन्तु मार्च 2016 में मेरी पहली ईरान यात्रा के दौरान मुझे केवल इस देश का आर्थिक अलगाव ही नज़र आया। साथ ही महिलाओं पर थोपी गयी बंदिशें जिनका खाड़ी के अन्य देशों से कोई मुकाबला नहीं है।

तेहरान में मैं जिससे भी मिली वह अर्थव्यवस्था की ही बात कर रहा था।

तेईस साल का ईरानी, दलिर, तेहरान के ग्रैंड बाज़ार में अपने पिता की दुकान पर बैठता है। वह रूहानी को अमेरिका से की गयी परमाणु संधि के लिए प्रशंसा का पात्र मानता है और उम्मीद करता है कि इस संधि के बाद ईरान का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अलगाव समाप्त हो जायेगा और अर्थव्यवस्था को बल मिलेगा। मेरी यात्रा से एक साल से भी कम समय पहले, 2015 जुलाई में ईरान ने अमरीका और पांच अन्य पश्चिमी देशों से परमाणु संधि की थी और ईरान की नौजवान आबादी जो बाहरी दुनिया से कटना नहीं चाहती थी , इसे लेकर बहुत आशान्वित थी।

दलिर का कहना था कि, “यहां बेहद कम नौकरियां हैं और इस परमाणु संधि के कारण हम उम्मीद करते हैं कि हम पर लगे प्रतिबन्ध हट जायेंगे और विदेशी कंपनियां हमारे देश में आ सकेंगी।” दलिर ने व्यापार प्रबंधन की शिक्षा हासिल की है और वह अपने भविष्य के लिए विदेशी निवेश और फलस्वरूप पैदा हुए रोज़गार के अवसरों पर निर्भर है।

1979 में शाह के तख्ता पलट और आयतुल्लाह ख़ुमैनी द्वारा सत्ता संभालने के बाद अमरीका ने ईरान पर प्रतिबन्ध लगा दिया थे जिसके चलते समय के साथ ईरान की अर्थव्यवस्था बेहद कमज़ोर हो गयी।

­­­­­­­­­­­­­­­­­­­­­­­

जहां एक ओर सारी दुनिया ने वैश्वीकरण को अपनाया वहीं ईरान में सब कुछ केवल सरकार के आधीन रहा। अमरीका ने 1995 में प्रतिबंधों का विस्तारीकरण कर दिया जिसे 2006 में दोहराया गया क्योंकि ईरान द्वारा अपने यूरेनियम संवर्धन कार्यक्रम पर रोक लगाने से इंकार कर दिया गया था जिसके परिणामस्वरुप संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् ने ईरान के विरोध में एक प्रस्ताव पारित कर दिया था। आख़िरकार 2015 में राष्ट्रपति ओबामा और रूहानी के बीच हुई संधि के बाद ईरान से कुछ प्रतिबन्ध हटा लिए गए और इस कदम ने ईरानियों को एक बेहतर भविष्य की उम्मीद दिलायी।

ईरानी अर्थशास्त्री सईद लायलाज़ का मानना है कि कट्टरपंथियों ने इस संधि को बहुत अनमने ढंग से सहमति दी थी। लायलाज़ ने 2009 में, हज़ारों अन्य लोगों के साथ, अर्थव्यस्था में बदलाव लाने के लिए मीर हुसैन मोसावी की उम्मीदवारी का समर्थन करने वाले विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा लिया था, मीर हुसैन मोसावी, आज़ाद सामाजिक और आर्थिक विचारधारा के पक्षधर नेता हैं।

सईद लायलाज़ केअनुसार, “कट्टरपंथियों की बड़ी चिंता महिलाओं के उत्थान सम्बन्धी सामाजिक बदलाव हैं क्योंकि इससे उनकी इस्लामिक सोच खतरे में पड़ जाती है।”

कट्टरपंथियों को इस बात का आभास हो गया था कि यदि उन्होंने अमरीका से साथ होने वाली संधि का समर्थन नहीं किया तो उनका अस्तित्व खतरे में होगा। उन्हें या तो सत्ता छोड़नी पड़ती या फिर ईरानी समाज पर उनका नियंत्रण समाप्त हो जाता चूंकि ज़यादातर ईरानी अपनी निजी आज़ादी खोना नहीं चाहते हैं।

“ईरान उस गाड़ी की तरह है जिसमें आगे बैठे लोग तो पूरी तरह से आर्थिक उदारीकरण के समर्थक हैं परन्तु पीछे बैठे लोग इसका पुरज़ोर विरोध करते हैं। रूहानी सन्तुलनवादी नेता है और दोनों समूहों के बीच संतुलन बनाये रखते हैं। इस तरह हमने कट्टरपंथियों और आधुनिकतावादियों को, एक बीच की राह लेने के लिए प्रेरित किया और अमरीका से संधि संभव हो सकी।”

परन्तु इस खींच तान के बीच ईरान वासियों को असल में यह समझ नहीं आया कि वह क्या चाहते हैं। इस संधि के बावजूद ईरान में 28 दिसंबर को प्रदर्शन हुए जिन्होंने हिंसक रूप धारण कर लिया और 21 लोगों की जाने चली गयीं। क्या रूहानी ने उन्हें निराश किया या फिर अमरीका ने?

खाद्यान की कमी

जनता के आक्रोश का कारण अण्डों की कीमत में आया उछाल था। अण्डों के दाम में 50% की वृद्धि एवं अन्य ज़रुरत की वस्तुओं के बढ़ते दामों ने पहले से ही परेशान लोगों का गुस्सा बढ़ा दिया था जिसके कारण ईरान वासी सडकों पर पत्थरबाज़ी करने और सरकार के विरुद्ध नारे लगाने के लिए उतर आये थे।

पिछले साल से ईरान में खाने की आधारभूत वस्तुओं के दाम 40% बढ़ कर दस साल का रेकॉर्ड तोड़ चुके हैं। ईरानवासियों ने अपनी ब्रेड, दूध और मांस की खरीद में 30% से 50% तक की कटौती कर दी है। सरकार ने कम आय वर्ग को दी जाने वाली नकद सहायता में कटौती और पेट्रोल की कीमतों में 50% की वृद्धि का प्रस्ताव प्रस्तुत किया था जिसने इस विरोध को बल दिया।

परमाणु संधि के पश्चात लोगों की अपेक्षाएं बहुत बढ़ गयीं थीं। लोगों को उम्मीद थी कि अर्थव्यवस्था में सुधार होगा और शुरूआती संकेत भी ऐसे ही मिले थे। सेन्ट्रल बैंक ऑफ़ ईरान के अनुसार सन 2016 में ईरान के सकल घरेलू उत्पाद में 12.3% की वृद्धि हुई थी। इसकी बड़ी वजह ईरान द्वारा भारत, चीन, जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देशों को किये जाने वाले तेल निर्यात में दोगुनी वृद्धि थी। एक वरिष्ठ निवेश अधिकारी, जमाल फ़राजोल्लाह के अनुसार ईरान में विदेशी निवेश 60% बढ़ा है। अमरीकी हवाई जहाज़ निमार्ण कंपनी, बोईंग ने , ईरान एयर को, 17.6 मिलियन डॉलर राशि के, 80 विमान 2017 से लेकर 2025 के बीच बेचने के एक करारनामे पर दस्तख़त किये हैं। 2016 में रूहानी ने यूरोप की यात्रा के दौरान 43 बिलियन डॉलर के अनुबंध फ्रांसीसी और इतालवी कंपनियों से किये। 2017 में फ्रांसीसी कार कंपनी रेनॉल्ट ने 780 मिलियन डॉलर मूल्य का 150,000 कारों के प्रति वर्ष निर्माण का ईरान से अनुबंध किया जो कि ईरानी इतिहास में अब तक का सबसे बड़ा ऑटो एग्रीमेंट है।

परन्तु इस सब का कोई ठोस प्रभाव नहीं हुआ। तेल निर्यात में दोगुनी वृद्धी के बावजूद ईरान, तेल की कीमतों में गिरावट के कारण ज़्यादा फायदा नहीं उठा पाया। इसका अन्य कारण यह भी रहा कि अनुबंध हुए अभी केवल दो साल हुए हैं और इससे होने वाले फायदे और रोज़गार के अवसरों को सामने आने में अभी और समय लगेगा।

ईरान की 80 मिलियन आबादी का आधा हिस्सा नौजवानों का है और इस आधे हिस्से का 40% बेरोज़गारी की समस्या से जूझ रहा है। चूंकि ईरान में अंतराष्ट्रीय स्तर पर काम करने के लिए आधारभूत सुधारों की कमी है इसलिए कोई भी विदेशी कंपनी ईरानी बाज़ार में आने से कतराती है। ईरान में नियंत्रित अर्थव्यवस्था है जिसके अंतर्गत सभी प्रमुख विभाग सरकारी नियंत्रण में आते हैं। इस व्यवस्था के चलते बहुत से हिस्सेदार तो आर्थिक रूप से सम्पन्न हो जाते हैं परन्तु आम जनता को कोई फायदा नहीं मिल पता। व्यवस्था में भ्रष्टाचार जड़ों तक जमा है और औद्योगिक व्यवस्था अकुशल है। विश्व बैंक के अनुसार ईरान को विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए अपनी अर्थव्यवस्था में सरकारी दखलअंदाज़ी कम करनी होगी और व्यावसायिक व्यवस्था को सुधरना होगा।

अमेरिका द्वारा हाथ खींच लिए जाने के कारण ईरान के लिए बहाली का मार्ग भी कठिन साबित हो रहा है। विदेशी कंपनियों पर अभी भी अमेरिका द्वारा अधिकृत 200 से ज़्यादा कंपनियों से व्यापार करने पर पाबन्दी है। व्यापारिक स्तर पर डर का माहौल है जिसमें ज़्यादातर कंपनियां, समुचित दिशा निर्देशों के अभाव में किसी चूक के फलस्वरूप अमेरिका द्वारा प्रतिबंधित किये जाने की आशंका में रहती हैं। बहुत से प्रमुख बैंक ईरान में व्यापार करने अथवा विस्तारीकरण में रूचि नहीं रखते और इस कारण उनके द्वारा व्यापारिक ऋण भी नहीं मिल पाते। यही वजह है कि ईरान डेबिट और क्रेडिट कार्ड से भुगतान जैसी भुगतान व्यवस्था से बाहर है। साथ ही व्यापारिक फर्मों को इस बात की आशंका भी बनी रहती है कि ट्रम्प सरकार द्वारा नीतिगत परिवर्तन किसी भी समय हो सकते हैं जिनका संधि पर प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ सकता है।

ओबामा से ट्रम्प तक

तेहरान यूनिवर्सिटी के वैश्विक विषयों के डीन,  मोहम्मद मरांडी , सरकार समर्थक राजनैतिक विश्लेषक हैं। 2016 अप्रैल में उन्होंने मुझसे सऊदी अरब के मुकाबले ईरान के पश्चिमी देशों से होने वाले व्यापार पर विस्तार से बात की थी। इस बात का सार यह था कि सऊदी अरब के मुकाबले ईरान व्यापार की दृष्टि से एक बहुत बेहतर राष्ट्र है।

उनका कहना था कि, “वहाबवाद को वित्तीय सहायता राज तंत्र से मिलती है। इसके समर्थक जितना ज़्यादा पश्चिमी देशों से व्यापार करते हैं उन्हें उतनी ही आर्थिक सम्पन्नता हासिल होती है बदले में वह उतना पैसा आतंकवादी गतिविधियों में झोंक देते हैं।” ईरान की पश्चिमी देशों से व्यापार करने की मंशा जताते हुए उन्होंने कहा: “इसके उलट ईरान अपनी ऊर्जा ISIS जैसी चरमपंथी संस्थाओं से लड़ने में लगाता है।”

पश्चिमी एशिया में, सऊदी अरब के बाद, ईरान दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और पहला स्थान पाने के लिए अग्रसर है। ईरान के उदारवादियों के बीच 2015-16 ईरानी अर्थव्यवस्था को पश्चिम के लिए खोलने का विचार बहुत ज़बरदस्त था। उनके विचार में ओबामा की अगुवाई में अमरीका उन्हें एक नयी दिशा में बढ़ने अवसर दे रहा था। ट्रम्प के चुनाव ने ईरान से सभी समीकरण बिगाड़ दिए।

मैनहेटन के हिल्टन में ट्रम्प की जीत की घोषणा के कुछ ही दिन बाद, एक ईरानी राजनीतिज्ञ ने मुझसे, परमाणु संधि के सन्दर्भ में कहा था,”देखते हैं कि इस बारे में उसने जो कुछ कहा है वह चुनावी बातें हैं या उससे कुछ ज़्यादा।”

सत्ता में आने के बाद ट्रंप ने ईरान पर और ज़्यादा प्रतिबन्ध लगा दिए और पिछली संधि को मान्यता देने से इंकार कर दिया। ताज़ा हाल में संधि तो बरकरार है परन्तु उसका भविष्य पूरी तरह अनिश्चित है। ट्रंप सरकार अपनी पूरी ताकत से ईरान के परंपरागत दुश्मन और अमरीका के ऐतिहासिक साथी सऊदी अरब के पक्ष में खड़ी नज़र आ रही है ।

सऊदी अरब मुख्य रूप से सुन्नी राष्ट्र है और ईरान शिया। दोनों ही इस्लामिक देशों पर अपने प्रभुत्व के लिए लड़ते रहे हैं। ईरान के सहयोगी असद और शिया फौजों की इराक़ में सफलता के चलते सऊदी अरब और अमरीका एकजुट हुए ताकि ईरान के तेहरान से ईराक़ के रास्ते सीरिया, जिसका ज़्यादातर हिस्सा सीरिया के नियंत्रण में है और लेबनान जिसकी सीमाएं इस्राइल से लगाती हैं, तक बने प्रभाव को कम किया जा सके।

सऊदी, इस्रायल के साथ फिलिस्तीन के मुद्दे पर सहमति बनाने में लगा है परन्तु ईरान विरोधी पक्ष की धुरी के रूप में काम कर रहा है। ईरान इस्रायल विरोध की अगुवाई करके फिलिस्तीन समर्थक समूहों ,हमास और इस्रायल के कट्टर विरोधी ग्रुप हिज़्बुल्लाह को समर्थन दे रहा है।

डॉ मरांडी के अनुसार इस्रायल अमरीका के लिए हमेशा से ही बड़ी समस्या बना रहा है।

यह रोचक तथ्य है कि ईरान, तुर्की के बाद ऐसा दूसरा ऐसा इस्लामिक राष्ट्र था जिसने इस्रायल को स्वायत्त राष्ट्र का दर्जा दिया था परन्तु ऐसा अमेरिकी समर्थक शाह के शासनकाल में हुआ था। 1979 की इस्लामी क्रन्ति ने सब कुछ बदल दिया। ख़ुमैनी ने शाह की अमरीका से नज़दीकी का राजनैतिक फायदा उठाया और ‘अमरीका का अंत’ का नारा दिया। अमरीका और ब्रिटैन दोनों ही ईरान के मामलों में दखलंदाज़ी करते रहे हैं। सीआईए ने सार्वजनिक तौर पर स्वीकारा है कि 1953 में लोकतान्त्रिक रूप से चुने गए ईरान के प्रधान मंत्री मोहम्मद मुसद्दिक के तख्ता पलट के पीछे उसका हाथ था। मुसद्दिक तेल कंपनियों के राष्ट्रीकरण के लिए ज़िम्मेदार थे। इस बात ने ख़ुमैनी और ईरानियों को अमेरिका विरोधी होने की उचित वजह दे दी। व्यापक इस्लामी समाज में मान्यता पाने के लिये कट्टरपंथी ईरानियों ने खुद को पश्चिम विरोधी दिखा कर ‘बेहतर मुस्लिम’ होने का तमगा पाने की कोशिश की और इसके लिए पश्चिम और पश्चिम समर्थित इस्रायल का विरोध और सुन्नी बहुल फ़िलिस्तीन के पक्ष में खड़े होकर “इस्रायल का अंत हो” का नारा दिया।

ईरान के बढ़ते महत्व और विस्तारीकरण के कारण सऊदी देश अपने उत्कर्ष हनन के प्रति चिंतित हैं। साथ ही चिंता हिज़बुल्लाह दल से विध्वंसक युद्ध की भी है। परन्तु क्या यह सब ईरान के पक्ष में कारगर साबित हुआ है हुआ है?

‘गाज़ा नहीं, लेबनान नहीं’ जैसे नारे पहली बार ईरान में विरोध प्रदर्शनों के दौरान सुनाई दिए। सत्ताधारकों की चिंता और विरोधियों की ख़ुशी बढ़ाते इन नारों के ज़रिये कुछ नागरिकों ने ईरान की विदेश नीति पर सवाल उठाये। ईरान सरकार ने सीरिया ईराक और हिज़्बुल्लाह संगठन पर खर्च राशि के सम्बन्ध में कोई औपचारिक घोषणा नहीं की है परन्तु ईरान का एक वर्ग ईरान सरकार द्वारा इन सहयोगियों तो दी जाने वाली मदद को लेकर गुस्से में है। वाशिंगटन पोस्ट के मुताबिक, यह विरोध पश्चिमी एशिया में ईरान की बढ़ती महत्ता ओर इशारा करते हैं। ईरान ने सीरिया में बशर अल असाद, यमन में हौथी विद्रोहियों और शिया सेनाओं को समर्थन देकर पूर्वी खाड़ी देशों में अपना दबदबा बना लिया है। लेबनान में तैनात ईरानी क्रांतिकारी गार्ड्स के संरक्षण में पोषित हिज़्बुल्लाह संगठन ने, तेहरान समर्थित संगठनो की ट्रेनिंग देकर और आइएसआइएस से आमने सामने लड़ कर, इस सब में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। परन्तु इस मध्य एशियाई उठापटक के बीच ईरानी साम्राज्य अपना घर संभालने में चूक गया। देश के भीतर लोगों में रोष है। ऐसे में क्या ईरान वासी देश की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं के समर्थन में खड़े होकर फिलिस्तीन मुद्दे पर ईरान सरकार का साथ देंगे? कम से कम अण्डों के दाम गिरने तक तो नहीं।

अर्थव्यवस्था की अनदेखी से कट्टरपंथियों का फायदा

यह विरोध प्रदर्शन ईरान के दूसरे सबसे प्रसिद्द शहर, मशद से शुरू हुए। यह शहर इमाम रेज़ा दरगाह, जिसका नियंत्रण कट्टरपंथी ईमाम इब्राहिम रईसी के हाथ में है, के लिए भी जाना जाता है। इब्राहिम रईसी को पिछले साल हुए चुनावों में उदारवादी रूहानी ने हराया था। रईसी और रूहानी के बीच की राजनीति भी इन विद्रोहों के जन्म की वजह हो सकती है। साथ ही रूहानी ने कुछ ही महीने पहले आईआरजीसी जैसे ताकतवर संगठन की नकेल भी कसी थी और सरकारी परियोजनाओं में भ्र्ष्टाचार के मामले में संगठन के वरिष्ठ अधिकरियों की गिरफ्तारी के आदेश दिए गए थे। विरोध प्रदर्शन तेज़ी से अन्य शहरों में भी फ़ैल गए क्योंकि विरोधियों को एक सूत्र में बांधने के लिए उदारवादी राजनीति का समर्थन या रूढ़िवादी नीतियों का विरोध नहीं बल्कि गिरता जीवनस्तर एक महत्वपूर्ण मुद्दा था। सडकों पर विरोध करने वाली जनता हर किसी के , हर मुद्दे के विरोध में थी वह चाहे आतंरिक नीतियां हो या विदेशी मुद्दे ।

यदि इस सब के बीच विरोध असल में रूहानी का ही है तो इस विरोध का स्वागत नहीं किया जा सकता। कम से कम तब तक तो नहीं जब तक यह विरोध केवल तेहरान में न होकर, 2009 की तरह व्यापक स्तर पर राजनैतिक दिशा बदलने के लिए न हो। इरानवासियों ने रूहानी में विश्वास जताया है क्योंकि उसने ईरान के बंद दरवाज़े बाहरी दुनिया के लिए खोलने की बात कही है। इस मामले में जितनी ज़रुरत ईरान को बाहरी दुनिया की ज़रुरत से कदम मिलाने की है उतनी ही ज़रूरत विश्व बाज़ार को ईरान की तरफ हाथ बढ़ाने और इस स्थिति से उबारने की है।

आर्थिक स्तर पर ईरान को अलग थलग कर देना सऊदी अरब और इस्रायल क्षेत्र में उसकी कारगुज़ारियों के लिए भले ही एक चेतावनी हो परन्तु यह कदम ईरान के भीतर बैठे कट्टरपंथियों के अर्थवयवस्था विरोध को भी बल देता है और संभवतः उन्हें इसी की ज़रुरत है। अब इन सभी कट्टरपंथियों के लिए यह कहना बेहद आसान होगा कि अमेरिका से समझौते बेकार हैं, परमाणु संधि का कोई औचित्य नहीं था और पश्चिमी देश हमें बेवकूफ बना रहे हैं। इन सभी तर्कों के साथ अब कट्टरपंथियों का इस्लामी क्रांति की ढपली बजाना और आसान होगा।

इस सब के बीच यदि 2017 के अंत में हुए विरोधों को देखा जाए तो अपेक्षकृत उदारवादी रूहानी के लिए आने वाला साल मुश्किलों भरा होगा।

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.