Author : Kabir Taneja

Published on Oct 11, 2023 Updated 20 Days ago

फिलिस्तीन के हमास गुट का हमला और इन आतंकी हमलों के ख़िलाफ़ इजराइल की ओर से ज़बरदस्त प्रतिक्रिया, निश्चित तौर पर आने वाले दिनों में इस क्षेत्र की भू-राजनीति को नए सिरे से निर्धारित करने का काम करेगी.

इजराइल के ख़िलाफ़ हमास का हमला कहीं पश्चिम एशिया में रीजनल ऑर्डर को नए सिरे से निर्धारित करने की कोशिश तो नहीं!

गाज़ा में स्थित हमास समूह द्वारा इजराइल पर ज़बरदस्त आतंकी हमला किया गया है. इस हमले में हमास के लड़ाकों ने अपनी ताक़त और आतंक दोनों का प्रदर्शन करते हुए इजराइल पर ज़मीन, हवा और समुद्र तीनों तरफ से अटैक किया है. हमास के इस हमले में सैकड़ों की संख्या में इजराइली नागरिकों की मौत हो गई है, साथ इजराइल का “अभेद सुरक्षा” का दावा भी तार-तार हो गया है. यह भी बताया गया है कि हमास ने इजराइल के दर्ज़नों नागरिकों को बंधक भी बना लिया है. जिस अंदाज़ में यह हमला किया गया, उसने इजराइल के सुरक्षा बलों को संभलने का मौक़ा ही नहीं दिया. इस हमले ने 50 साल पहले इजराइल में हुए योम किप्पुर युद्ध की यादें ताज़ा कर दी है. तब इसी तर्ज़ पर पर मिस्र और सीरिया की अगुवाई में अरब देशों के गठबंधन ने इजराइल पर अचानक हमला कर दिया था. ज़ाहिर है कि कुछ दिन पहले ही इजराइल डिफेंस फोर्सेज (DF) के वरिष्ठ अधिकारियों ने कहा था कि हमास वास्तविकता में व्यापक पैमाने पर युद्ध से बचना चाहता है.

इजराइल पर हुआ यह ताज़ा हमला इतना व्यापक और निर्मम था, ऐसा इससे पहले कभी नहीं देखा गया था. इस हमले के दौरान कुछ मिनटों के भीतर इजराइल पर 5,000 से अधिक रॉकेट दाग दिए गए. इनती बड़ी तादात में रॉकेट दागे गए कि इजराइल का एंटी-मिसाइल सिस्टम भी कुछ नहीं कर पाया. हमास की तरफ से ज़मीन के साथ-साथ ग्लाइडरों और नावों से भी रॉकेट दागे गए थे. यह हमला एक ऐसे वक़्त में हुआ है, जब इजराइल की घरेलू राजनीति बड़े बदलाव के दौर से गुजर रही है. वर्ष 2020 में हुए अब्राहम समझौते के बाद इजराइल और अरब देशों के बीच संबंध तेज़ी से सामान्य हो रहे हैं. इस समझौते के माध्यम से अमेरिका की अगुवाई में सऊदी अरब द्वारा इजराइल को मान्यता देने की दिशा में क़दम बढ़ाए जा रहे हैं और चीन की मध्यस्थता से दो प्रतिद्वंदी देशों सऊदी अरब एवं ईरान के रिश्तों में जमी बर्फ पिघल रही है. जैसे-जैसे इन घटनाक्रमों ने वैश्विक स्तर पर सुर्खियां बटोरीं, वैसे-वैसे फिलिस्तीन का मुद्दा तेज़ी के साथ हाशिए पर जाता हुआ दिखाई देने लगा. उल्लेखनीय है कि अरब देशों की राजनीति और दुनियाभर के मुसलमानों में फिलिस्तीन का मुद्दा कहीं न कहीं केंद्र में है, लेकिन इसके बावज़ूद इसे दरकिनार किया जा रहा था. हमास के ताज़ा हमले ने एक बार फिर फिलिस्तीन के संकट को क्षेत्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चा में लाने का काम किया है. इस हमले के कारणों में शायद यह सबसे अहम था, यानी कि एक ‘नए’ मिडिल ईस्ट (पश्चिम एशिया) के नैरेटिव की हवा निकालना.

जिस अंदाज़ में यह हमला किया गया, उसने इजराइल के सुरक्षा बलों को संभलने का मौक़ा ही नहीं दिया. इस हमले ने 50 साल पहले इजराइल में हुए योम किप्पुर युद्ध की यादें ताज़ा कर दी है.

फ़िलिस्तीनी विरोध के “लीडर” के तौर पर हमास की भूमिका काफ़ी अलग है, अर्थात पूरी रीजन में किस प्रकार से आगे बढ़ना है, इसको लेकर उसकी अपनी अलग विचारधारा है. वर्ष 1987 में फिलिस्तीनी मुस्लिम ब्रदरहुड की विचारधारा को आगे बढ़ाने वाली एक शाखा के तौर पर हमास का गठन हुआ था. गठन के बाद से ही हमास का अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी फतह की तुलना में एकदम अलग राजनीतिक नज़रिया था. ज़ाहिर है कि फतह समूह राजनीतिक संवाद और संस्थागत तौर-तरीक़ों में अधिक विश्वास रखता है. हमास और फतह दोनों समूहों में काफ़ी विवाद रहा, लेकिन वर्ष 2007 में फिलिस्तीन के भीतर इन दोनों गुटों की लड़ाई ख़त्म हो गई. ज़ाहिर है कि फिलिस्तीन में वर्ष 2006 के चुनावों में हमास की जीत हुई थी. इन चुनावों में अमेरिका की भी बड़ी भूमिका थी. इसके बाद हमास ने पूरे गाज़ा क्षेत्र में अपने शासन का ऐलान कर दिया. हमास का भरोसा बातचीत में नहीं था, बल्कि उसे सशस्त्र विरोध के अपने मॉडल पर ज़्यादा विश्वास था. यह लगभग वही समय था, जब वर्ष 2005 में इजराइल की सेनाएं गाज़ा क्षेत्र से पीछे हट गई थीं. हमास ने अपने शासन के दौरान फिलिस्तीन में एक लिहाज़ से आंतरिक ‘स्थिरता’ क़ायम करने का काम किया और इसके लिए उसने फिलिस्तीन को अपने अड्डे के रूप में उपयोग करने वाले सलाफ़िस्ट समूहों पर भी नियंत्रण किया. यह सब वो बातें थीं, जिनके चलते अफ़ग़ानिस्तान में अफ़ग़ान तालिबान, तहरीक़-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP), और भारतीय उपमहाद्वीप में अल क़ायदा (AQIS) जैसे आतंकी संगठन भी हमास को अपना समर्थन देने के लिए उतावले नज़र आते थे.

इतना ही नहीं, गाज़ा और वहां पनप रहा विरोध ज़ल्द ही भू-राजनीतिक हथियार भी बन गया. हमास, जो कि एक सुन्नी मूवमेंट है, उसे हिजबुल्लाह जैसे गुटों के रूप में अपना क्षेत्रीय सहयोगी भी मिल गया. हिजबुल्लाह एक शिया आंतकी संगठन है और इसे ईरान का समर्थन हासिल है. वर्ष 1979 में हुई ईरानी क्रांति और वर्ष 1982 में लेबनान पर इजराइल के हमले के बाद हिजबुल्लाह काफ़ी सशक्त हो गया था. रिपोर्ट्स के मुताबिक़ हिजबुल्लाह के प्रमुख हसन नसरल्ला ने पिछले हफ्ते ही कहा था कि ‘कोई भी देश, जो इजारइल के साथ सामान्य स्थित बनाने के लिए समझौते पर हस्ताक्षर करता है, उसकी निंदा की जानी चाहिए और उसके कार्यों की भर्तसना की जानी चाहिए.’ देखा जाए तो धार्मिक लिहाज़ से ये संगठन दो किनारों पर खड़े हैं, यानी कि इनमें कोई समानता नहीं है. लेकिन फिलिस्तीन के मुद्दे को लेकर इनका वैचारिक एवं मजहबी गठजोड़ बना, क्योंकि इनका मकसद एक ही था और वो था इजराइल में अशांति और उथल-पुथल मचाना.

इजराइल के तमाम पड़ोसी मुल्क़ों जैसे कि मिस्र, सीरिया और जॉर्डन आदि ने भी लंबे वक़्त से क्षेत्र में अपने व्यक्तिगत रणनीतिक उद्देश्यों को पाने के लिए फिलिस्तीन के मुद्दे का इस्तेमाल किया है. इन देशों ने पश्चिमी देशों, ख़ास तौर पर अमेरिका के समर्थन से इजराइल की बढ़ती सैन्य ताक़त का विरोध करने के लिए फिलिस्तीन के मुद्दे को हवा दी है. वर्ष 2017 में हमास की ओर से एक दस्तावेज़ प्रकाशित किया गया था. इसका शीर्षक था ‘सामान्य सिद्धांतों और नीतियों का दस्तावेज़’. (A Document of General Principles and Policies) इस डॉक्यूमेंट के सेक्शन 25 में लिखा है: “कब्ज़े का हर तरीक़े से विरोध करना एक क़ानूनी अधिकार है, दैवीय क़ानूनों और अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनों में भी इसका अधिकार दिया गया है. इस अधिकार को सशस्त्र विरोध के ज़रिए ही हासिल किया जा सकता है. सशस्त्र विरोध को फिलिस्तीनी लोगों के सिद्धांतों और अधिकारों की रक्षा के लिए रणनीतिक विकल्प माना जाता है.” इजराइल डिफेंस फोर्सेज के पूर्व अधिकारी माइकल मिलस्टीन के मुताबिक़ जिस व्यापक स्तर पर और समन्वित तरीक़े से इस हमले को अंज़ाम दिया गया है, उससे साफ ज़ाहिर है कि हमास अब सिर्फ़ एक आतंकवादी समूह नहीं रह गया है. हमास की इस हमले को लेकर पूरी योजना कभी श्रीलंका में सक्रिय रहे पूर्व आतंकी संगठन लिट्टे अर्थात लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम की याद दिलाती है. लिट्टे ने आधुनिक गुरिल्ला युद्ध की रणनीति तैयार की थी, जिसमें ज़मीन, समुद्र और हवा तीनों तरफ से एक साथ हमला करना शामिल था.

हमास की इस हमले को लेकर पूरी योजना कभी श्रीलंका में सक्रिय रहे पूर्व आतंकी संगठन लिट्टे अर्थात लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम की याद दिलाती है. लिट्टे ने आधुनिक गुरिल्ला युद्ध की रणनीति तैयार की थी, जिसमें ज़मीन, समुद्र और हवा तीनों तरफ से एक साथ हमला करना शामिल था.

हमास के हमले के बाद अलगअलग देशों के बयान और उनका नज़रिया

इस हमले के बाद इजराइल एवं फिलिस्तीन के पड़ोसी मुल्क़ों द्वारा, जो कि इस पूरे मामले में कहीं न कहीं हितधारक भी हैं, जो आधिकारिक बयान जारी किए गए हैं, उन्हें समझने पर पता चलता है कि इन क्षेत्रीय ताक़तों ने वर्तमान हालातों में हुए इस ताज़ा घटनाक्रम को किस नज़रिए से देखा है. जैसे की उम्मीद थी, ईरान और क़तर पूरे मामले में फिलिस्तीन के पक्ष में खड़े दिखाई दिए हैं और उन्होंने इस हमले के लिए हाल के दिनों में इजराइल द्वारा उठाए गए क़दमों को ही ज़िम्मेदार ठहराया है. तुर्किये की तरह क़तर ने भी हमास नेतृत्व की मदद की है. सच्चाई यह है कि इजराइल ने इस मसले का समाधान निकालने के लिए दोनों देशों के साथ अपने रिश्ते सुधारने की कोशिश की है. वर्ष 2020 में मोसाद के तत्कालीन प्रमुख योसी कोहेन ने दोहा का दौरा किया था और क़तर से हमास के कब्ज़े वाले गाज़ा में वित्तीय मदद जारी रखने का आग्रह किया था. हालांकि, ताज़ा घटनाक्रम को लेकर सऊदी अरब एवं संयुक्त अरब अमीरात (UAE) के बयान ज़्यादा दिलचस्प थे. बयान जारी करते वक्त रियाद ख़ासा मुश्किल में दिखाई दिया, क्योंकि इस तरह की ख़बरें ज़ोर पकड़ रही हैं कि सऊदी अरब एवं इजराइल कि रिश्ते ज़ल्द ही सामान्य होने वाले हैं. सऊदी अरब की राजशाही की ओर से सधा हुआ बयान दिया गया, जिसमें फिलिस्तीन समर्थक अरब लोगों की भावनाओं का पूरा ख्याल रखा गया, साथ ही इजराइल को कब्ज़े के लिए ज़िम्मेदार ठहराया गया था. इसके अलावा कई और देशों की तरह ही दोनों पक्षों से तनाव को तत्काल समाप्त करने एवं संयम बरतने की अपील भी की गई थी. ज़ाहिर है कि यह ऐसी बात है, जिसका भारत भी समर्थन करता है. अबु धाबी, जिसके इजराइल के साथ अब पूर्ण राजनयिक रिश्ते हैं, उसने तो और भी सधा हुआ बयान दिया. अबु धाबी की ओर से जारी बयान में तनाव को ज़ल्द से ज़ल्द समाप्त करने और अरब-इजराइल शांति की दिशा में कोशिशों को दोबारा शुरू करने का आह्वान किया गया.

सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान (MbS) ने सितंबर में कहा था कि इजराइल के साथ सामान्य रिश्ते स्थापित करने के लिए फिलिस्तीनी मुद्दे को सुलझाना बेहद अहम होगा. उन्होंने कहा था, “हमें उस हिस्से का समाधान करने की ज़रूरत है”. हालांकि, मीडिया में रीजनल प्रेस और अमेरिका की ओर से लीक हुई ख़बरों में इसका बहुत ही कम उल्लेख किया गया है कि सऊदी अरब एवं इजराइल के बीच संबंधों को सामान्य बनाने की प्रक्रिया में फिलिस्तीन से जुड़ी मांगों या फिर किसी समझौते के बारे में भी चर्चा की गई है. इसके बजाए, ज़्यादातर ख़बरों में अमेरिकी सुरक्षा संधि और सिविल न्यूक्लियर प्रोग्राम की डिलीवरी जैसी भू-रणनीतिक मांगों के बारे में ही चर्चा की गई.

सऊदी अरब एवं इजराइल के बीच संबंधों को सामान्य बनाने की प्रक्रिया में फिलिस्तीन से जुड़ी मांगों या फिर किसी समझौते के बारे में भी चर्चा की गई है. इसके बजाए, ज़्यादातर ख़बरों में अमेरिकी सुरक्षा संधि और सिविल न्यूक्लियर प्रोग्राम की डिलीवरी जैसी भू-रणनीतिक मांगों के बारे में ही चर्चा की गई.

हमास के आतंकी हमले के ख़िलाफ़ इजरायल की जवाबी कार्रवाई भले ही लंबी चले, लेकिन निर्णायक साबित होगी. जिस प्रकार से इजराइल द्वारा हमले का जवाब दिया जा रहा है, उससे इसकी बात की प्रबल संभावना है कि वो अपने दम पर ही आने वाले दिनों में क्षेत्रीय भू-राजनीति कि दिशा और दशा को बदलकर रख देगा. ऐसा लगता है कि हमास के इस हमले के पीछे उसका मकसद सीधे तौर पर सऊदी अरब और इजराइल के बीच सुधरते रिश्तों में रोड़ा अटकाना नहीं है, लेकिन हमास का समर्थन करने वाले देशों के मुख्य उद्देश्यों में यह ऐसा करना ज़रूर शामिल है. इस पूरे क्षेत्र में पिछले कुछ वर्षों के दौरान जो व्यावहारिक राजनीति दिखाई दी है, उसका नज़रिया ऊपर से नीचे (‘top down’) की ओर रहा है. कहने का मतलब यह है कि ऐसी राजनीति दिखाई दी है, जिसमें सरकारें और राजशाही अपने-अपने राष्ट्रीय हितों के मुताबिक़ दोस्ती और दुश्मनी को बार-बार निर्धारित करते रहे हैं.

क्षेत्रीय राजनीति और भावनाओं पर हमले का असर

इस हमले के ज़रिए हमास जो करने में सफल रहा है, वो शायद फिलिस्तीन के मुद्दों के साथ सहानुभूति रखने वालों में उत्तेजना लाना और फिर से उन्हें इसके बारे में सोचने पर मज़बूर करना है. ख़ास तौर पर सऊदी अरब में, जहां पर दो पवित्र मस्जिदें मौज़ूद हैं, वहां तो हमास अपने इस उद्देश्य में क़ामयाब रहा ही है. वर्ष 2022 के अरब ओपिनियन इंडेक्स सर्वे के मुताबिक़ 76 प्रतिशत लोगों ने कहा था कि फिलिस्तीन मुद्दे को लेकर अरब के सभी लोग चिंतित हैं. साथ ही 84 प्रतिशत लोगों ने सऊदी अरब द्वारा इजराइल के साथ रिश्तों को सामान्य करने की कोशिशों को ख़ारिज़ कर दिया था.* एक विशेष बात यह है कि एक तरफ इस रीजन के कई लोगों ने अब्राहम समझौते को भी अस्वीकार कर दिया है, लेकिन उन्होंने ‘स्ट्रैटेजिक ऑटोनॉमी‘ के विचार पर अपनी सहमति जताई है, जिसने देखा जाए तो समझौतों के विरुद्ध व्यापक रूप से किसी भी सार्वजनिक विरोध या आंदोलनों को कमज़ोर करने का काम किया है. दरअसल यह रीजनल लीडरशिप द्वारा बहुत ही सावधानी से और नफ़ा-नुक़सान की गणना करने बाद फेंका हुआ पासा था. आज की परिस्थितियों में यह देखना बेहद महत्वपूर्ण होगा कि हमास के प्रतिरोध और उसके उद्देश्यों को लेकर अरब के लोगों की राय जुदा है, या फिर वे दोनों को एक चीज़ के रूप में ही देखते हैं. सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान जैसे लोगों के लिए, जो कि मध्यम मार्ग या उदारवाद को अपनाने के बजाए, सार्वजनिक रूप से इस्लामिक कट्टरपंथ और इस्लामिक राजनीति के मुस्लिम ब्रदरहुड ब्रांड की पैरवी कर रहे हैं, उनके लिए वर्तमान संकट निजी इच्छा बनाम सच्चाई के बीच किसी एक को चुनने के लिए परीक्षा की घड़ी है.

जिस प्रकार से आतंकवाद के विरुद्ध इजराइल को हर तरफ से समर्थन मिल रहा है, ज़ाहिर है कि वह उससे उत्साहित होगा. वहीं दूसरी तरफ इस घटना से फिलिस्तीन के मुद्दे को नई संजीवनी मिल सकती है, ख़ास तौर पर अरब देशों में.

आख़िकार, इन ताज़ा घटनाक्रमों का असर बहुआयामी होगा. जिस प्रकार से आतंकवाद के विरुद्ध इजराइल को हर तरफ से समर्थन मिल रहा है, ज़ाहिर है कि वह उससे उत्साहित होगा. वहीं दूसरी तरफ इस घटना से फिलिस्तीन के मुद्दे को नई संजीवनी मिल सकती है, ख़ास तौर पर अरब देशों में. भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा ‘एक्स’ (जिसे पहले ट्विटर के नाम से जाना जाता था) पर जारी संदेश में इजराइल की लीडरशिप को बिना शर्त समर्थन दिया गया है. दूसरी तरफ, इस हमले के बाद हमास ख़ासा चर्चा में आ गया है और देखा जाए तो आज वो उस स्तर पर पहुंच गया है, जिस स्तर पर 9/11 आतंकी हमले के बाद अमेरिका ने अल क़ायदा को रखा था. फिलहाल, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, इजराइल और अन्य देशों को हर हाल में यह सुनिश्चित करना होगा कि इस क्षेत्र में शुरू की गईं I2U2, इंडिया-मिडिल ईस्ट-यूरोप इकोनॉमिक कॉरिडोर (IMEEC) जैसी नई भू-राजनीतिक एवं भू-आर्थिक पहलों में कोई अड़चन पैदा न हो और न ही क्षेत्र के विकास में कोई रुकावट आए. उल्लेखनीय है कि द्विपक्षीय, लघुपक्षीय और बहुपक्षीय संबंधों के माध्यम से मिडिल ईस्ट के देशों के एकीकरण के नए युग को लेकर पुरज़ोर कोशिशें की जा रही हैं. इससे न केवल यह पूरा क्षेत्र एक बड़े केंद्र या बाज़ार के रूप में उभरेगा, बल्कि यहां निवास करने वाले सभी नागरिकों को भी लाभ होगा. अंतत: इससे जहां एक ओर वैश्विक स्तर पर समृद्धि आएगी, वहीं क्षेत्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा को भी मज़बूती मिलेगी.


कबीर तनेजा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज प्रोग्राम में फेलो हैं.

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