इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यूरोपीय देश चीन के प्रति अपने दृष्टिकोण पर पुनर्विचार और उसमें बदलाव कर रहे हैं. यूरोपीय संघ की 2019 चीन नीति को आधार मानकर अन्य यूरोपीय देशों ने बीजिंग के साथ अपने संबंधों की समीक्षा की और उन्होंने देश-स्तर पर चीन के साथ अपने द्विपक्षीय संबंधों का आकलन पेश किया. इस संबंध में, जुलाई 2023 में दो महत्वपूर्ण दस्तावेज़ सामने आए: पहला, जर्मनी की बहुप्रतीक्षित चीनी रणनीति और दूसरा, चीन पर यूनाइटेड किंगडम (यूके) की संसद की खुफिया और सुरक्षा समिति की रिपोर्ट. भले ही इन दोनों दस्तावेज़ों में चीन से ख़तरों की बात की गई हो लेकिन इन दोनों में इससे ज्यादा कोई सामनता नहीं है. जबकि जर्मन नीति में यह देखने को मिला कि सरकार चीन से ख़तरों और उसके साथ साझेदारी के अवसरों के बीच ज़रूरी संतुलन का प्रयास कर रही है, वहीं यूके रिपोर्ट में सरकार के नजरिए की आलोचना की गई और उसे “पूरी तरह अपर्याप्त” बताया गया.
यह रणनीति चीन के प्रति जर्मनी के नीतिगत दृष्टिकोण में हो रहे बदलाव का संकेत देती है, जो इस तर्क पर आधारित है कि जिस तरह से चीन बदल गया है, उसी तरह उसके प्रति जर्मन नीति में भी बदलाव आना चाहिए.
दस्तावेज़ों पर एक नज़र
जर्मन रणनीति एक तरफ़ चीन से मिलने वाली चुनौती के बारे में सरकार के नज़रिए को पेश करती है, और वहीं दूसरी तरफ़ उस चुनौती का मुकाबला करने के लिए उपायों की रूपरेखा भी सामने रखती है. जबकि इस रणनीति में बीजिंग से उठने वाले ख़तरों और उसके द्वारा पेश की जाने वाली चुनौतियों के बारे में विस्तार से चर्चा की गई है जो न केवल जर्मन हितों के लिए खतरनाक साबित हो सकते हैं बल्कि यूरोपीय मूल्यों और हितों पर भी प्रभाव डालने की क्षमता रखते है, लेकिन इसमें इस बात को लेकर स्पष्टता नहीं है कि सरकार इनसे किस तरह से निपटने की उम्मीद कर रही है. हालांकि, यह रणनीति चीन के प्रति जर्मनी के नीतिगत दृष्टिकोण में हो रहे बदलाव का संकेत देती है, जो इस तर्क पर आधारित है कि जिस तरह से चीन बदल गया है, उसी तरह उसके प्रति जर्मन नीति में भी बदलाव आना चाहिए. इस रणनीति में चीन द्वारा “मौजूदा नियम-आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार नया आकार देने” की कोशिशों की आलोचना की गई है, तिब्बत, शिनजियांग और हांगकांग में मानवाधिकारों के उल्लंघन और रूस के उसके बढ़ते आपसी सहयोग का भी उल्लेख किया गया है, जो जर्मनी के लिए चिंता का विषय है. इससे पता चलता है कि “चीन एक साथ महान आर्थिक, प्रौद्योगिक, सैन्य और राजनीतिक शक्ति है”, इसलिए वह अपने राजनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए अपनी आर्थिक शक्तियों का इस्तेमाल करता है. बीजिंग के साथ अपने संबंधों का आकलन करते समय यह रणनीति इस बात पर ज़ोर देती है, “चीन के व्यवहार और उसके फैसलों के कारण हाल के कुछ वर्षों हमारे संबंधों में प्रतिस्पर्धा और प्रतिद्वंदिता के तत्व काफ़ी बढ़ गए हैं.” यही कारण है कि जर्मन सरकार बीजिंग के प्रति अपने दृष्टिकोण में बदलाव कर रही है. यह रणनीति यूरोपीय संघ के साथ गहरे सहयोग की बात करती है और चीन के मसले पर, विशेष रूप से डी-रिस्किंग के संदर्भ में सहयोगी देशों को समन्वित कार्रवाई का सुझाव देती है.
जबकि यह रणनीति चुनौतियों की व्यापक समझ के लिए उसकी गहराई से पड़ताल करती है, लेकिन इन चुनौतियों से निपटना कैसे है, इस मुद्दे पर यह काफ़ी कमज़ोर पड़ जाती है. सरकार का कहना था, “चीन के साथ व्यवस्थागत प्रतिद्वंद्विता का मतलब यह नहीं है कि हम मिलकर काम नहीं कर सकते.” इसके अलावा उन्होंने यह भी कहा कि सरकार “उचित शर्तों के आधार पर चीन के साथ सहयोग करना चाहती है.” हालांकि ये शर्तें क्या होंगी, इसके बारे में कुछ भी स्पष्ट नहीं किया गया. दिलचस्प बात यह है कि आपसी सहयोग के क्षेत्र जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने और लोगों से जुड़ाव तक सीमित हो गए हैं. एक और ज़रूरी पहलू यहां पर यह भी है कि एक ओर इसमें चीन के अलावा दूसरे देशों के साथ व्यापार और निवेश को बढ़ावा देकर उसमें विविधता लाने की मंशा जताई गई है, वहीं दूसरी ओर यह व्यवसायों पर ये ज़िम्मेदारी डालती है कि वे संभावित जोख़िम के प्रति जागरूक हों, और उन्हें चेतावनी देती है कि भू-राजनीतिक तनावों के मामले में उन्हें वित्तीय जोख़िम उठाने होंगे. यह इस बारे में कोई विस्तृत जानकारी नहीं देता कि महत्त्वपूर्ण आधारभूत ढांचे से लेकर विदेशी निवेशगत फैसलों की जांच या संयुक्त अनुसंधान जैसे क्षेत्रों में यह चीन से इतर दूसरे देशों के साथ व्यापार संबंधों में तेज़ी कैसे लाएगा? हालांकि इसमें यह भी कहा गया है कि “चीन के साइबर जासूस जर्मन व्यावसायिक घरानों के व्यापार और अनुसंधान से जुड़ी गुप्त जानकारियों को हासिल करने के लिए आर्थिक और शैक्षणिक स्तर पर जासूसी कर रहे हैं.”
दोनों रिपोर्टों में एक और समानता ये है कि दोनों में इस बात को लेकर सहमति जताई गई है कि चीन और उससे जुड़ी चुनौतियों का सामना करने का मतलब ‘सुरक्षा और समृद्धि’ के बीच ज़रूरी संतुलन बनाना होगा.
जर्मन रणनीति के बहस और चर्चाओं के केंद्र में होने के कारण चीन को लेकर यूके की संसद की खुफिया और सुरक्षा समिति (ISC) की रिपोर्ट पर ज़रूरी बहसें कहीं दब कर रह गईं. जर्मन रणनीति एक संघीय सरकार के दृष्टिकोण पर आधारित रणनीति है जिसे सरकार ने चीन की बदलती राजनीतिक मंशा को देखते हुए, उससे उभरने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए लागू किया है. वहीं, यूके की जांच रिपोर्ट सरकार के दृष्टिकोण में मौजूद खामियों पर बात कर करती है. इसमें कहा गया है कि सरकार चीन से राष्ट्रीय सुरक्षा पर ख़तरे के विरुद्ध कोई प्रभावी नीति तैयार करने में विफल रही है. इसमें कहा गया है कि बीजिंग का राष्ट्रीय सुरक्षा पर इतना अधिक प्रभाव इसलिए है क्योंकि इसके लिए चीन “पूर्ण सरकारी दखल” की रणनीति ज़िम्मेदार है, जहां वह “अपने खुफिया अधिकारियों की बजाय अपनी आर्थिक ताकत, कब्ज़ेदारी, अधिग्रहण, शैक्षणिक संस्थानों और औद्योगिक संस्थाओं के साथ संबंध का सहारा लेता है.” ISC की रिपोर्ट में ब्रिटिश सरकार की आलोचना की गई है क्योंकि एक तो उसके पास चीन को लेकर कोई रणनीति नहीं है और दूसरा “चीन से ख़तरे का मुकाबला करने के लिए वह ‘पूर्ण सरकारी दखल’ के दृष्टिकोण को अपनाने में विफल रही है.” रिपोर्ट में यूके सरकार की इस बात के लिए बहुत ज्यादा आलोचना की गई है क्योंकि वह प्रभावी जांच करने में पूरी तरह से विफल रही है, ऐसा विशेष रूप से यूके में अनियंत्रित चीनी निवेश के संदर्भ में देखा गया है, जहां सरकार “नहीं चाहती कि महत्वपूर्ण निवेश सौदों की किसी क़िस्म की अर्थपूर्ण जांच की जाए.”
इस रिपोर्ट ने यूके को प्रमुख यूरोपीय देशों में गणना की है क्योंकि वे चीन के प्रति अपनी नीतियों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, लेकिन जांच रिपोर्ट एक निर्णायक नीतिगत दृष्टिकोण के अभाव की आलोचना करती है और ‘चीन से ख़तरों को समझने और उनसे निपटने की ज़िम्मेदारी यूके सरकार पर डालती है.
जबकि कुछ बिंदुओं पर यूके और जर्मनी के दृष्टिकोणों में समानता दिखाई पड़ती है, लेकिन उनसे कैसे निपटा जाए, इसे लेकर दोनों में भिन्नताएं देखने को मिलती हैं. उदाहरण के लिए, जहां जर्मनी की रणनीति में साइबर, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में चीन के दखल का महज़ ज़िक्र किया गया है और ISC की रिपोर्ट इन तीनों क्षेत्रों में चीन की मौजूदगी की गहराई से जांच करती है और शैक्षणिक जगत, औद्योगिक क्षेत्र, प्रौद्योगिकी और नागरिक परमाणु ऊर्जा में चीन के हस्तक्षेप पर विस्तृत अध्ययन पेश करती है. यह रिपोर्ट बताती है कि “चीन केवल आर्थिक मोर्चे पर ही आक्रामक नहीं है; बल्कि वह हस्तक्षेप से जुड़ी गतिविधियों में भी उतना ही आक्रामक है, जिसका इस्तेमाल वह पश्चिमी हितों के खिलाफ़ अपने हितों, मूल्यों और दृष्टिकोण के प्रसार में करता है.” दोनों रिपोर्टें चीन की वैश्विक महत्वाकांक्षाओं को लेकर आगाह करती हैं, जिसे चीन नियम-आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था की जगह उसके हितों और प्राथमिकताओं पर आधारित एक नई व्यवस्था के माध्यम से हासिल करना चाहता है. इसके अलावा इनमें बीजिंग और मॉस्को के बीच बढ़ते आपसी सहयोग का भी उल्लेख किया गया है, जो “साझा हितों पर आधारित हैं, जिसमें रणनीतिक लाभ के लिए स्थापित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को नष्ट करना भी शामिल है.” इसके अलावा, दोनों रिपोर्टों में एक और समानता ये है कि दोनों में इस बात को लेकर सहमति जताई गई है कि चीन और उससे जुड़ी चुनौतियों का सामना करने का मतलब ‘सुरक्षा और समृद्धि’ के बीच ज़रूरी संतुलन बनाना होगा. हालांकि दोनों ही रिपोर्टें यह कहती हैं कि सरकारें इन ख़तरों से वाक़िफ़ है लेकिन वे इनका सामना कैसे करेंगी, इसे लेकर कोई जानकारी नहीं दी गई है. जर्मन रणनीति ऐसे प्रभावी नीतिगत विकल्पों को पेश नहीं करती जिनसे इन ख़तरों का सामना करने में मदद हासिल हो. वहीं ISC की रिपोर्ट के अनुसार महत्त्वपूर्ण संपत्तियों की रक्षा के लिए सरकार की तरफ़ से कोई ज़रूरी कार्रवाई नहीं गई है, जो उसकी “एक गंभीर विफलता है और इसके परिणाम ब्रिटेन को आने वाले कई सालों तक भुगतने पड़ सकते हैं.”
निष्कर्ष
चीन के प्रति जर्मन रणनीति से अगर किसी क़िस्म की ऐतिहासिकता की उम्मीद लगाई जा रही थी, तो इस रणनीति से निराशा ही हाथ लगती है. यह बहुत हद तक चीनी कार्रवाई की आलोचना और आपसी सहयोग के विकल्पों को खुला रखने के दो सिरों के बीच संतुलन बनाए पर आधारित है. जबकि यह रणनीति चीनी ख़तरों और चुनौतियों को लेकर स्पष्ट है, लेकिन बहुत कुछ नीतियों के क्रियान्वयन और राजनीतिक नेतृत्व पर भी निर्भर है. इसका प्रमुख कारण यह है कि बहुत लंबे समय से चीन के प्रति जर्मनी की नीति व्यापार और उद्योग जगत द्वारा संचालित होती रही है, इसलिए बीजिंग से इतर दूसरे देशों के साथ व्यापारिक संबंध स्थापित करने के लिए जर्मन कंपनियों को ठोस प्रयास करने होंगे, जिसने 2022 में चीन में 10 अरब यूरो से अधिक का निवेश किया है. इसलिए क्या वे ऐसा करेंगे, ये देखा जाना अभी बाकी है. हालांकि यह रणनीति चीन के प्रति यूरोप के दृष्टिकोण को साफ़ साफ़ जाहिर करती है, जो उसकी एक दीर्घकालिक ख़तरे के रूप में पहचान करती है.
यूके की ISC की जांच रिपोर्ट में भी यही बात कही गई थी, जिसके अनुसार यूके सरकार चीन से दीर्घकालिक ख़तरों के बारे में विचार करने में असफल रही है और इसके बजाय उसका ध्यान निकट भविष्य के ख़तरों पर केंद्रित है. बावजूद इसके कि प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने चीन को एक ऐसी चुनौती कहा था जिनसे युग को परिभाषित किया जाता है, लेकिन उन्होंने बीजिंग को एक ख़तरा कहने से परहेज किया है. जांच रिपोर्ट में “चीन के दृष्टिकोण का मुकाबला करने के लिए आवश्यक संसाधनों, विशेषज्ञता या ख़तरे की जानकारी” की कमी के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराया गया है. हालांकि इस रिपोर्ट ने यूके को प्रमुख यूरोपीय देशों में गणना की है क्योंकि वे चीन के प्रति अपनी नीतियों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं, लेकिन जांच रिपोर्ट एक निर्णायक नीतिगत दृष्टिकोण के अभाव की आलोचना करती है और ‘चीन से ख़तरों को समझने और उनसे निपटने की ज़िम्मेदारी यूके सरकार पर डालती है.’ हालांकि इन दोनों नीतिगत दस्तावेज़ों में बहुत सी कमियां हैं, लेकिन इनसे चीन के प्रति यूरोप की सोच में बदलाव का पता चलता है, और इस लिहाज़ से ये दोनों ही महत्त्वपूर्ण हैं.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.