Author : Rituraj Kumar

Published on Apr 12, 2023 Updated 0 Hours ago

पारदर्शिता एवं जवाबदेही पर ज़्यादा ज़ोर देने के लिए इंटरनेट शटडाउन को नियंत्रित करने वाली मौज़ूदा क़ानूनी व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन किए जाने की आवश्यकता है.

भारत में इंटरनेट सेवा को बंद करने के फैसले: सुरक्षा और अधिकारों के बीच संतुलन बनाने की ज़रूरत!

भारत में इंटरनेट सेवा को बंद करना एक आम घटना बन गई है. सरकार देश के अलग-अलग हिस्सों में इंटरनेट सेवा को बंद करने के पीछे अक्सर क़ानून और व्यवस्था सुनिश्चित करने, राष्ट्रीय सुरक्षा को बरक़रार रखने और ग़लत सूचनाओं पर लगाम लगने या दुष्प्रचार को रोकने जैसे कारणों का हवाला देती है. हालांकि, देखा जाए तो बार-बार होने वाले इंटरनेट शटडाउन का सूचना और अभिव्यक्ति के मुक्त प्रवाह पर गंभीर असर पड़ता है.

हाल ही में, संचार और सूचना प्रौद्योगिकी की स्थायी समिति ने बिना किसी तथ्यात्मक अध्ययन के बार-बार इंटरनेट बंद किए जाने की घटनाओं पर चिंता व्यक्त करते हुए, ऐसी घटनाओं के बारे में रिकॉर्ड नहीं रखने को लेकर दूरसंचार विभाग की खिंचाई की है. पैनल ने इसके साथ ही दूरसंचार विभाग (डीओटी) से इंटरनेट निलंबन से जुड़े नियम-क़ानूनों के किसी भी दुरुपयोग को रोकने के लिए गृह मंत्रालय के साथ समन्वय स्थापित करके इंटरनेट शटडाउन को हटाने के लिए अनुरूपता और कार्यप्रणाली को लेकर एक स्पष्ट व्यवस्था एवं नियम सुनिश्चित करने के लिए भी कहा है.

इंटरनेट शटडाउन और उसके प्रभाव को समझना

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इंटरनेट ने हमारे जीवन और जीने के तौर-तरीक़ों में  नाटकीय रूप से क्रांति ला दी है. इंटरनेट हमारी मूलभूत ज़रूरतों से लेकर कठिन से कठिन कार्यों तक और यहां तक कि आर्थिक और सामाजिक गतिविधियों के कई पहलुओं पर भी असर डालता है. बार-बार इंटरनेट बंद होने से मुख्य रूप से ई-कॉमर्स, पर्यटन और आईटी सेवाओं जैसी इंटरनेट सर्विस पर निर्भर सेक्टरों को नुक़सान पहुंच रहा है. वर्तमान की जो परिस्थितियां हैं, उनमें देखा जाए तो भारतीय नागरिक आज किसी भी अन्य देश के नागरिकों की तुलना में सबसे अधिक इंटरनेट ब्लैकआउट का शिकार हैं. एक्सेस नाउ के आंकड़ों के मुताबिक़ जनवरी 2012 और जून 2022 के बीच पूरे भारत में सरकार द्वारा 647 बार इंटरनेट शटडाउन किया गया था, जो कि पूरी दुनिया में अब तक का सबसे अधिक बार किया गया इंटरनेट शटडाउन है.

देश में इंटरनेट को अक्सर बेहद मामूली वजहों के आधार पर निलंबित किया गया है, जैसे कि परीक्षा आयोजित करते समय नकल को रोकने लिए या किसी क्षेत्र में विरोध प्रदर्शन को रोकने के लिए.

देश में इंटरनेट को अक्सर बेहद मामूली वजहों के आधार पर निलंबित किया गया है, जैसे कि परीक्षा आयोजित करते समय नकल को रोकने लिए या किसी क्षेत्र में विरोध प्रदर्शन को रोकने के लिए. ऐसे सभी मामलों में मुख्य रूप से ख़तरे का अंदेशा या उसकी समझ ही पूरी तरह से ग़लत है क्योंकि विभिन्न राज्यों में जिला प्रशासन प्रशासनिक उद्देश्यों के लिए पूरे क्षेत्र के लिए इंटरनेट सेवाओं को निलंबित कर रहा है, ज़ाहिर है कि यह कहीं से भी आनुपातिकता के सिद्धांत के मुताबिक़ नहीं है. उदाहरण के लिए, स्वतंत्र और निष्पक्ष परीक्षा आयोजित कराने के कई तरीक़े हैं, लेकिन नकल को रोकने के लिए इंटरनेट पर पाबंदी लगाने से क्षेत्र के अन्य लोगों का रोज़मर्रा का जीवन भी प्रभावित होता है. इंटरनेट सेवाओं के इस तरह के निलंबन के कारण जो विपरीत प्रभाव पड़ते हैं, वे इससे होने वाली किसी भी काल्पनिक लाभ की तुलना में काफ़ी अधिक हैं.

पर्याप्त फ्रेमवर्क और सुरक्षा उपायों की कमी

बार-बार इंटरनेट सेवाओं के निलंबन के पीछे जो एक प्रमुख कारण है, वो है इसको लेकर एक पर्याप्त फ्रेमवर्क और समुचित सुरक्षा उपायों की कमी. इसके पीछे इंटरनेट निलंबन का आदेश देने वाले नौकरशाहों पर लगाम लगाने वाले नियमों की कमी भी एक प्रमुख वजह है. इंटरनेट निलंबन मुख्य रूप से टेंपरेरी सस्पेंशन ऑफ टेलिकॉम सर्विसेज (पब्लिक इमरजेंसी और पब्लिक सेफ्टी) रूल्स, 2017 एवं दंड प्रक्रिया संहिता,1973 (CrPC) की धारा 144 के तहत किया जाता है.

टेलीग्राफ अधिनियम, 1885 ब्रिटिश शासन के दौर का है. इस अधिनियम का मकसद ब्रिटिश शासन की मदद करना था, क्योंकि यह अधिनियम सरकार को किसी भी टेलीग्राफिक संदेश के प्रसारण को रोकने की अनुमति देता है. यह पुराना क़ानून केंद्र सरकार को नियम बनाने की शक्ति प्रदान करता है. सस्पेंशन रूल्स को इसकी शक्ति का उपयोग करते हुए अधिनियमित किया गया था. इसके नियमों के मुताबिक़ दूरसंचार सेवाओं को निलंबित करने का निर्देश केवल एक उचित आदेश के माध्यम से सिर्फ़ केंद्रीय गृह सचिव या संबंधित राज्य सरकारों की तरफ़ से राज्यों के गृह सचिव द्वारा ही जारी किया जा सकता है. इस निर्देश को केवल "किसी भी सार्वजनिक आपातकाल की परिस्थित में" या "आम लोगों की सुरक्षा के हित में" दिया जा सकता है. इसके अलावा, अगर इस निर्देश को जारी करने वाला अधिकारी इस बात को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त है कि यह निलंबन "भारत की संप्रभुता और अखंडता के हितों" की रक्षा के लिए, राष्ट्र की सुरक्षा, दूसरे देशों साथ मैत्रीपूर्ण संबंध या पब्लिक ऑर्डर या किसी नाराज़गी या अपराधिक कृत्य के भड़कने से रोकने के लिए ज़रूरी है.” इसके साथ ही निलंबन के इस आदेश को अगले कार्य दिवस तक तीन सदस्यीय रिव्यू कमेटी यानी समीक्षा समिति के समक्ष रखा जाना चाहिए, जो पांच दिनों के भीतर यह निर्णय लेती है कि संबंधित आदेश इंडियन टेलीग्राफ एक्ट, 1885 की धारा 5(2) के तहत 'सार्वजनिक आपातकाल' या 'सार्वजनिक सुरक्षा' के लिए ख़तरा पैदा होने के लिहाज़ से उचित है या नहीं.

कई वजहें हैं, जिनसे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि ये सस्पेंशन रूल्स ग़लत हैं. नियम के मुताबिक़ इंटरनेट निलंबन के आदेश की जांच समीक्षा समिति द्वारा की जानी है और इसके कमेटी में सभी सरकारी अधिकारी सदस्य होते हैं.

कई वजहें हैं, जिनसे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि ये सस्पेंशन रूल्स ग़लत हैं. नियम के मुताबिक़ इंटरनेट निलंबन के आदेश की जांच समीक्षा समिति द्वारा की जानी है और इसके कमेटी में सभी सरकारी अधिकारी सदस्य होते हैं. यह आदेश के एक निष्पक्ष मूल्यांकन के आचरण से गंभीर रूप से समझौता करने वाला है, क्योंकि सरकारी सिस्टम में विभिन्न पदों पर बैठे अधिकारी ही निलंबन का आदेश देते हैं, उसे कार्यान्वित करते हैं और उसकी समीक्षा भी करते हैं, जो कि साफ तौर पर हितों के टकराव यानी यह एक ऐसी स्थित है, जिसमें सरकारी अधिकारी का निर्णय उसकी व्यक्तिगत रुचि से प्रभावित होता है, को दर्शाता है.

एक और बात है कि सस्पेंशन रूल्स के अंतर्गत समीक्षा समिति को केवल "अपने निष्कर्षों को दर्ज़ करने" का अधिकार है, लेकिन इसे एक गैरक़ानूनी निलंबन आदेश को रद्द करने का अधिकार नहीं है, इस प्रकार से एक अधिकारविहीन कमेटी बनकर रह जाती है. इसके अलावा, समीक्षा के लिए पांच दिनों की अनुमति देना भी उचित नहीं है, क्योंकि ज़्यादातर इंटरनेट शटडाउन पांच दिनों से कम समय के लिए किए जाते हैं. इसलिए समीक्षा की पूरी क़वायद प्रक्रियात्मक रोक के तौर कार्य करने में नाक़ाम रहती है. इतना ही नहीं, सस्पेंशन रूल्स में निलंबन आदेशों या समीक्षा समिति के निष्कर्षों के प्रकाशन की अनिवार्यता का भी प्रावधान नहीं है. ज़ाहिर है कि पीड़ित पक्ष अदालत में निलंबन को चुनौती देने के लिए इससे जुड़े आदेशों के बारे में जानकारी हासिल कर सके, यह सुनिश्चित करने हेतु पारदर्शिता की ज़रूरत है.

वर्ष 2017 में सस्पेंशन रूल्स लागू होने के बावज़ूद दंड प्रक्रिया संहिता के तहत इंटरनेट शटडाउन को जारी रखा गया है. ज़ाहिर है कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 सस्पेंशन रूल्स की तुलना में अधिक अनुकूल साबित होती है, क्योंकि इसमें ऊपर उल्लेख किए गए नियमों द्वारा प्रदान किए जाने वाले प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों को कहीं से भी शामिल नहीं किया गया है. धारा 144 के तहत निर्णय गृह सचिव स्तर के बजाए डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के स्तर पर लिए जाते हैं और इसलिए समयबद्ध तरीक़े से इंटरनेट के निलंबन आदेश की वैधता की जांच करने के लिए किसी समीक्षा समिति की ज़रूरत नहीं होती है और कोई सामयिक समीक्षा भी प्रदान नहीं की जाती है. इन्हीं सब वजहों से धारा 144 के अंतर्गत निलंबन का आदेश जारी करना सुविधाजनक होता है, इसलिए ज़्यादातर इसी का उपयोग किया जाता है.

यह एक अहम सवाल भी उठाता है: क्या सरकारों द्वारा सीआरपीसी की धारा 144 का सहारा लेने को क़ानूनी रूप से स्वीकृति मिलनी चाहिए? उल्लेखनीय है कि यह एक सामान्य सा क़ानून है, जो सार्वजनिक क़ानून-व्यवस्था या शांति क़ायम करने के लिए अधिकार प्रदान करता है. उल्लेखनीय है कि क़ानूनी तौर पर कई तरह के विकल्प उपलब्ध होने के बावज़ूद इंटरनेट शटडाउन जैसे क़दमों को उठाया जाता है. क़ानून के बारे में बेहद चर्चित सिद्धांत के मुताबिक़, "यदि किसी मामले को लेकर क़ानूनी तौर पर विशेष प्रावधान किया गया है, तो उस मामले को सामान्य प्रावधानों से बाहर रखा जाता है." सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विशेष क़ानूनों के ज़रिए कवर किए गए क्षेत्रों से सामान्य क़ानूनों को बाहर रखने के लिए इस सिद्धांत को अमल में लाया गया है. 

सुधारों की आवश्यकता

जनवरी 2020 में, अनुराधा भसीन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इंटरनेट के माध्यम से सूचना तक पहुंच भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1) के अंतर्गत एक मौलिक अधिकार है. तीन-न्यायाधीशों की खंडपीठ द्वारा अपने आदेश में आगे कहा गया कि इंटरनेट शटडाउन एक 'सख़्त उपाय' है, जिसे केवल तभी लगाया जा सकता है, जब यह क़ानून के मुताबिक़ हो, बेहद आवश्यक  हो और आनुपातिक हो, इसके साथ ही केवल इंटरनेट निलंबन आदेश प्रकाशित करने के बाद ही लगाया गया हो.

सुप्रीम कोर्ट का उपरोक्त निर्णय हालांकि उम्मीद की एक किरण के रूप में आया है, लेकिन यह भी ध्यान रखना बेहद ज़रूरी है कि राज्य सरकारें और केंद्र शासित प्रदेश अनुराधा भसीन केस में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्देशों की भावना के विपरीत इंटरनेट निलंबन से जुड़े आदेश जारी करते जा रहे हैं. इसके पीछे प्रमुख वजह यह है कि केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी किए गए निर्देशों को संवैधानिक मान्यता नहीं दी है.

कमिटी ने सुझाव दिया है कि डिपार्टमेंट ऑफ टेलिकम्युनिकेशन एक ऐसी पॉलिसी तैयार करे, जो इंटरनेट के पूर्ण शटडाउन के बजाए, केवल चुनिंदा सेवाओं को ही प्रतिबंधित करे.

21वीं सदी की वास्तविकताओं के अनुकूल एक क़ानूनी फ्रेमवर्क निर्मित करने के लिहाज़ से सितंबर 2022 में संचार मंत्रालय ने 40 पन्नों के दि इंडियन टेलिकम्युनिकेशन्स बिल, 2022 के मसौदे को जारी किया. हालांकि, प्रस्तावित नए बिल में इंटरनेट निलंबन से जुड़ी सुधारों की अपीलों पर अपनी आंखें मूंद ली गईं और इसमें अनुराधा भसीन केस के बारे में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले का भी कोई संज्ञान नहीं लिया गया. इस बिल के मसौदे में ब्रिटिश शासन के समय के क़ानून की मूल भावना को बरक़रार रखते हुए, इसके चैप्टर 6 में इंटरनेट सेवाओं को निलंबित करने के लिए एक स्पष्ट क़ानूनी प्रावधान उपलब्ध कराया गया है.

इंडियन टेलिकम्युनिकेशन्स बिल, 2022 के मसौदा टेलिकॉम सस्पेंशन रूल्स के प्रावधानों के अंतर्गत एक ज़रूरी और अनिवार्य कर्तव्य के रूप में निलंबन के आदेश का सक्रियता के साथ प्रकाशन और उसकी आवधिक समीक्षा को शामिल करने के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया है, ज़ाहिर है कि पहले भी इस मुद्दे पर चुप्पी साध ली गई थी. हालांकि, अगर ऐसा होता है, तो सरकार द्वारा इन न्यायिक रूप से शुरू की गई अपेक्षित ज़रूरतों और इनके अनुपालन के बारे में जागरूकता बढ़ेगी. इस बिल के ड्राफ्ट में इंटरनेट शटडाउन पर संसदीय स्थायी समिति की सिफ़ारिशों को शामिल करने की आवश्यकता है. इसके साथ ही इसमें सार्वजनिक आपातकाल और सार्वजनिक सुरक्षा की स्थिति को सुनिश्चित करने के लिए परिभाषित मापदंडों को समायोजित करने ज़रूरत है, साथ ही उन मापदंडों को भी सूचीबद्ध करने की आवश्यकता है, जो इंटरनेट शटडाउन की मेरिट को निर्धारित करने के लिए एक मैकेनिज्म़ को कार्यान्वित करते हैं. इसके अलावा, ओवरसाइट रिव्यू कमेटियों के गठन में गैर-आधिकारिक या गैर-सरकारी सदस्यों जैसे कि सेवानिवृत्त न्यायाधीशों और जन प्रतिनिधियों को शमिल करके, उन्हें अधिक समावेशी बनाना चाहिए.

इसके अतिरिक्त, आम लोगों को कम से कम परेशानी हो, यह सुनिश्चित करने के लिए नियमों को बदलती टेक्नोलॉजी के अनुसार होना चाहिए. कमिटी ने सुझाव दिया है कि डिपार्टमेंट ऑफ टेलिकम्युनिकेशन एक ऐसी पॉलिसी तैयार करे, जो इंटरनेट के पूर्ण शटडाउन के बजाए, केवल चुनिंदा सेवाओं को ही प्रतिबंधित करे. इससे यह सुनिश्चित होगा कि जन-सामान्य को कोई परेशानी नहीं हो और ग़लत सूचनाओं पर लगाम लगाने आदि जैसे उद्देश्यों को भी आसानी से पूरा किया जा सके.

निष्कर्ष

इस सच्चाई से आज कोई भी इनकार नहीं कर सकता है कि वर्तमान में पूरी दुनिया में सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए इंटरनेट सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाला और सबसे सुलभ माध्यम है. ऐसे हालातों में पारदर्शिता एवं जवाबदेही पर ज़्यादा ज़ोर देने के लिए इंटरनेट शटडाउन को नियंत्रित करने वाली मौज़ूदा क़ानूनी व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन किए जाने की आवश्यकता है. इस दिशा में इंटरनेट शटडाउन के औचित्य और इनकी क़ानूनी वैधता का आकलन करने के लिए एक मुनासिब तंत्र को लागू किया जाना चाहिए. इतना ही नहीं, इंटरनेट शटडाउन को लागू करने के लिए स्पष्ट दिशानिर्देश और प्रोटोकॉल भी स्थापित किए जाने चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि इंटरनेट बंद करने जैसे उपायों का इस्तेमाल सिर्फ़ असाधारण परिस्थितियों में ही किया जाए.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.