Published on Aug 30, 2024 Updated 0 Hours ago

अवामी लीग की सरकार के पतन के बाद, अब बांग्लादेश को स्थिर बनाने की ज़िम्मेदारी मुहम्मद यूनुस की अगुवाई वाली अंतरिम सरकार की है.

बांग्लादेश में अंतरिम सरकार: बदलाव की बयार

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लगभग डेढ़ दशक तक राज करने वाली सरकार के अंतिम अवशेषों से मुक्ति पाकर अब बांग्लादेश एक नई शुरुआत करने की तैयारी कर रहा है. नोबेल पुरस्कार विजेता मुहम्मद यूनुस की कमान में अब एक अंतरिम सरकार को ये ज़िम्मेदारी मिली है कि वो अराजकता और हिंसा का क़हर झेल रहे देश में स्थिरता क़ायम करें. छात्रों ने मुहम्मद यूनुस को अंतरिम सरकार का मुख्य सलाहकार नियुक्त किया है. ये भूमिका प्रधानमंत्री के पद के बराबर की है. सम्मानित अर्थशास्त्री यूनुस ने समाज के अलग अलग वर्गों से ताल्लुक़ रखने वाले 16 लोगों को मिलाकर अपनी सलाहकार परिषद का गठन किया है. आज जब मुहम्मद यूनुस बांग्लादेश के ‘दोबारा उभार’ का नारा दे रहे हैं, तो ऐसे में इस कैबिनेट का विश्लेषण करना ज़रूरी हो जाता है कि वो किसकी नुमाइंदगी करती है. तभी हम ये समझ सकेंगे कि आने वाले लंबे समय तक बांग्लादेश किस दिशा में आगे बढ़ने वाला है.

 छात्रों ने मुहम्मद यूनुस को अंतरिम सरकार का मुख्य सलाहकार नियुक्त किया है. ये भूमिका प्रधानमंत्री के पद के बराबर की है. सम्मानित अर्थशास्त्री यूनुस ने समाज के अलग अलग वर्गों से ताल्लुक़ रखने वाले 16 लोगों को मिलाकर अपनी सलाहकार परिषद का गठन किया है.

नई कैबिनेट में सैयदा रिज़वाना हसन हैं, जो बांग्लादेश में पर्यावरण की लड़ाई लड़ने वाले वकीलों की एसोसिएशन की मुख्य अधिशाषी हैं; कैबिनेट में महिला अधिकार कार्यकर्ता फ़रीदा अख़्तर हैं; मानव अधिकार कार्यकर्ता और ओधिकार नाम के संगठन के संस्थापक अदिलुर रहमान ख़ान; इस्लामी आंदोलन बांग्लादेश के शिक्षा सलाहकार एएफएम ख़ालिद हुसैन हैं, जो बांग्लादेश के प्रमुख देवबंदी इस्लामिक विद्वान हैं; ग्रामीण टेलीकॉम की ट्रस्टी नूरजहां बेग़म; ब्रोती नाम के मानव अधिकार संगठन की मुख्य कार्यकारी अधिकारी शर्मीन मुर्शिद; मुक्ति योद्धा और बीर प्रतीक से सम्मानित फरुक़ ए आज़म; छात्र नेता नाहिद इस्लाम भी हैं, जो उस भेदभाव विरोधी छात्र आंदोलन के मुख्य संगठकर्ता हैं, जिसने शेख़ हसीना सरकार को सत्ता और देश से बेदख़ल किया; ढाका यूनिवर्सिटी के छात्र और छात्र आंदोलन के प्रमुख संगठनकर्ताओं में से एक आसिफ़ मुहम्मद भी इस सलाहकार परिषद में शामिल किए गए हैं. इसके अलावा, बांग्लादेश बैंक के पूर्व गवर्नर सलेहुद्दीन अहमद; ढाका यूनिवर्सिटी में लॉ के प्रोफ़ेसर आसिफ़ नज़रुल, पूर्व एटॉर्नी जनरल और बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील हसन आरिफ़; रिटायर्ड ब्रिगेडियर जनरल और बांग्लादेश के चुनाव आयोग के प्रमुख रहे एम सखावत हुसैन; चटगांव पहाड़ी क्षेत्र विकास परिषद के चेयरमैन सुप्रदीप चकमा; मनोविज्ञान के विशेषज्ञ और डायरेक्टर ऑफ नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ और अस्पताल के साइकिएट्री विभाग के निदेशक प्रोफ़ेसर बिधान रंजन रॉय के अलावा पूर्व विदेश सचिव तौहीद हुसैन को भी मुहम्मद यूनुस की सलाहकार परिषद में जगह दी गई है. इस नई कैबिनेट के चुनाव से जो कुछ ख़ास संकेत मिलते हैं, वो इस प्रकार हैं:

 

  • अवामी लीग (AL) से दूरी बनाना: सबसे बड़ी बात यही है कि इस सलाहकार परिषद में उम्मीद के मुताबिक़, अब सत्ता में रही अवामी लीग का एक भी नुमाइंदा शामिल नहीं किया गया है. अवामी लीग का इतिहास बांग्लादेश के जन्म से भी पुराना है; बांग्लादेश के आज़ाद इतिहास के 53 वर्षों में से 28 साल अवामी लीग सत्ता में रही है और अभी हाल के दिनों तक बांग्लादेश की जनता के बीच ये पार्टी अच्छी ख़ासी लोकप्रिय भी थी. हालांकि, अब अंतरिम सरकार ऐसे क़दम उठा रही है, जिससे वो ख़ुद को अवामी लीग की विरासत और ताल्लुक़ से दूर रख सके. मिसाल के तौर पर मुहम्मद यूनुस की सरकार ने 15 अगस्त के सार्वजनिक अवकाश को रद्द कर दिया है, जिसे अब तक बांग्लादेश में राष्ट्रीय शोक दिवस के तौर पर मनाया जाता है. 1975 में 15 अगस्त को ही बांग्लादेश के संस्थापक बंगबंधु शेख़ मुजीबुर रहमान और उनके परिवार का क़त्ल कर दिया गया था. शेख़ मुजीब को बांग्लादेश का राष्ट्रपिता कहा जाता है. वो अवामी लीग के अध्यक्ष और बांग्लादेश के प्रधानमंत्री भी रहे थे.

 

इसके अलावा, सलाहकार परिषद के दो छात्र नेताओं में से एक और युवा और खेल मंत्रालय के सलाहकार आसिफ महमूद की मांग पर बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ओबैदुल हसन समेत छह शीर्ष के न्यायाधीशों ने भी अपना इस्तीफ़ा यूनुस सरकार को सौंप दिया है. आंदोलनकारी छात्रों के मुताबिक़, ये जज ‘अवामी लीग की सरकार का पक्ष लिया करते थे’, और इनकी विदाई ऐसे मौक़े पर हुई है, जब अंतरिम सरकार न्यायपालिका को पुनर्गठित करने में जुटी है. हालांकि, देश के प्रति अवामी लीग के योगदान को देखते हुए अब तक उस पर पाबंदी नहीं लगाई गई है, और पार्टी से आगामी चुनावों में भाग लेने की अपील की गई है.

 

  • अर्थव्यवस्था को प्राथमिकता देना: अंतरिम सरकार में मुहम्मद यूनुस समेत तीन ऐसे लोग हैं, जिनका ताल्लुक़ वित्तीय क्षेत्र से रहा है. इससे पता चलता है कि नई कैबिनेट अर्थव्यवस्था पर कितना अधिक ज़ोर दे रही है. मुहम्मद यूनुस को बांग्लादेश के ग्रामीण बैंक की स्थापना का श्रेय दिया जाता है और वो छोटे क़र्ज़ और छोटी वित्तीय सहायता के जनक माने जाते हैं. उनके अलावा कैबिनेट में ग्रामीण बैंक के पूर्व प्रबंध निदेशक और बांग्लादेश बैंक के पूर्व गवर्नर को भी शामिल किया गया है, जिन्होंने बैंकों के संचालन के आधुनिकीकरण के लिए काम किया था. इस क्षेत्र में बांग्लादेश ने कई चुनौतियों का सामना किया है. अप्रैल 2024 में साल दर साल की तुलना में महंगाई की दर दशक के सबसे उच्चतम स्तर यानी 7 प्रतिशत तक पहुंच गई थी. वहीं मार्च 2023 तक महंगाई दर लगातार 13 महीनों तक 9 प्रतिशत से अधिक रही थी. हाल के वर्षों में बांग्लादेश पर क़र्ज़ का बोझ भी बढ़ गया है और GDP के अनुपात में बाहरी क़र्ज़ पिछले पांच वर्षों के दौरान 10 प्रतिशत से बढ़कर 15 फ़ीसद पहुंच गया है. बांग्लादेश के विदेशी मुद्रा भंडार पर भी दबाव लगातार बना हुआ है. वहीं, वास्तविक GDP विकास दर सुस्त होकर 4.8 प्रतिशत ही रह गई है. इसके अतिरिक्त बांग्लादेश भुगतान के संकट में घाटे, बजट घाटे, विदेश में रह रहे बांग्लादेशी नागरिकों द्वारा भेजी जाने वाली रक़म में गिरावट, कमज़ोर होती मुद्रा और आमदनी की बढ़ती असमानता के साथ साथ ऊर्जा के सेक्टर में आपूर्ति की तुलना में कहीं ज़्यादा मांग जैसी चुनौतियों का सामना कर रहा है. इन शिकायतों ने भी शेख़ हसीना सरकार के ख़िलाफ़ प्रदर्शनों की आग को भड़काने का काम किया था. ऐसे में आज बांग्लादेश के लिए ठोस आर्थिक सलाह बेहद गंभीर ज़रूरत है.

वैसे तो किसी अंतरिम सरकार की मुख्य ज़िम्मेदारी रोज़मर्रा के प्रशासनिक फ़ैसले लेना और तीन महीनों के भीतर स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करना होता है; अगर मुहम्मद यूनुस और उनकी कैबिनेट बांग्लादेश में सही से चुनाव करा लेते हैं, तो ये उनकी बड़ी उपलब्धि होगी.

  • मानव अधिकारों पर ज़ोर: ये देखा जा सकता है कि अंतरिम सरकार के गठन में ही ऐसे क़द दिखते हैं, जो बांग्लादेश की उन प्रमुख चिंताओं का समाधान करने के लिए उठाए गए हैं, जो पूर्ववर्ती सरकार से नाख़ुशी की जड़ में थीं. जहां एक मसला बढ़ती आर्थिक चुनौतियों का है, वहीं दूसरा मानव अधिकारों के उल्लंघन और लोकतंत्र में आई गिरावट का भी है. पश्चिमी देशों को शेख़ हसीना सरकार से जो मुख्य शिकायत थी, वो लोकतांत्रिक मूल्यों के पतन की ही थी. ये आरोप इसी साल जनवरी की शुरुआत में हुए बांग्लादेश के 12वें आम चुनाव के दौरान सबसे ज़्यादा तेज़ हो गए थे. मीडिया की सुर्ख़ियों के मुताबिक़, चुनाव से पहले विपक्षी दलों के लगभग 25 हज़ार नेता और उनके समर्थक गिरफ़्तार कर लिए गए थे और 56 लोग चुनाव से जुड़ी हिंसा में मारे गए थे. शेख़ हसीना सरकार के ख़िलाफ़ टॉर्चर करने, राजनीतिक क़ैदियों को जान-बूझकर स्वास्थ्य सेवाओं से महरूम रखने और क़ानून व्यवस्था संभालने वाली एजेंसियों द्वारा ज़रूरत से ज़्यादा बल प्रयोग के इल्ज़ाम की ख़बरें भी आई थीं. विपक्षी दलों ने आम चुनावों का बहिष्कार किया था और शेख़ हसीना सरकार इकतरफ़ा जनादेश के ज़रिए सत्ता में एक बार फिर लौट आई थी. चुनाव में बेहद कम यानी 40 प्रतिशत मतदान हुआ था, जो कम वोटिंग का रिकॉर्ड है. इसका नतीजा ये हुआ था कि चुनावों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए गए थे. 2018 में भी जब विपक्षी दलों के बहिष्कार के बीच शेख़ हसीना लगातार तीसरी बार सत्ता में लौटी थीं, संयुक्त राष्ट्र और एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने मानव अधिकारों के उल्लंघन के लिए बांग्लादेश की आलोचना की थी. इसीलिए नई अंतरिम सरकार की सलाहकार परिषद में दो मानव अधिकार कार्यकर्ताओं को, मानव अधिकार और लोकतंत्र के एक विशेषज्ञ, एक महिला अधिकार कार्यकर्ता और मानसिक स्वास्थ्य सुधारने पर ध्यान केंद्रित करने के लिए मनोविज्ञान के एक विशेषज्ञ को भी शामिल किया गया है.

 

आगे का रास्ता


बांग्लादेश की अंतरिम सरकार में शामिल किए गए लोगों को देखकर ये ज़रूर कहा जा सकता है कि देश में सुधार लाने के प्रयास किए जा रहे हैं. वैसे तो किसी अंतरिम सरकार की मुख्य ज़िम्मेदारी रोज़मर्रा के प्रशासनिक फ़ैसले लेना और तीन महीनों के भीतर स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करना होता है; अगर मुहम्मद यूनुस और उनकी कैबिनेट बांग्लादेश में सही से चुनाव करा लेते हैं, तो ये उनकी बड़ी उपलब्धि होगी. हालांकि, इस बात को लेकर गफ़लत फैली हुई है कि कौन सी पार्टियां चुनाव में हिस्सा लेंगी. अब तक देश की प्रमुख विपक्षी दल रही बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी का भाग लेना तो तय है. लेकिन, जनता का समर्थन हासिल करने के लिए जिस तरह के करिश्माई नेतृत्व की ज़रूरत होती है, उसका बीएनपी के पास अभाव है. बांग्लादेश की सबसे बड़ी इस्लामिक पार्टी जमात-ए-इस्लामी को शेख़ हसीना सरकार अक्सर आतंकवादी संगठन कहा करती थी. पर, पिछले साल जमात पर से पाबंदी हटा ली गई थी और अब उसका भी सत्ता के लिए चुनाव में उतरना तय माना जा रहा है. हालांकि, अवामी लीग के नेतृत्व के भविष्य को लेकर सवाल ज़रूर उठाए जा रहे हैं. पर, अवामी लीग के भी चुनाव में हिस्सा लेने की पूरी उम्मीद है. मौजूदा परिस्थितियों में ये भी संभव है कि छात्रों के कुछ दल भी चुनाव मैदान में कूदें. आज जब अंतरिम सरकार मुख्य रूप से संस्थानों को फिर से ताक़तवर बनाने में जुटी है, तो चुनावों की चर्चा करना बहुत जल्दबाज़ी होगी. आने वाले समय में सत्ता में कोई भी दल आए, लेकिन सलाहकार परिषद के गठन के रूप में बांग्लादेश के लिए जिन चुनौतियों को प्राथमिकता देने की ज़रूरत है, उनका समाधान निकालना ही होगा.

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