Author : Aditi Madan

Published on Jun 08, 2021 Updated 0 Hours ago

भारत का टीकाकरण अभियान सर्वसमावेशी होना चाहिए.

कोविड-19 टीकाकरण में पहुंच की विषमता: कमज़ोर और ग़रीब परिवारों की दुर्दशा

कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर भारत में तबाही मचा रही है. मई के अंत तक संक्रमण के करीब 2.55 करोड़ मामले और 2,83,248 मौतें दर्ज की जा चुकी हैं. भारत की कुल आबादी का 66.5 प्रतिशत हिस्सा गांवों में बसता है. लेकिन देश के करीब 60 प्रतिशत अस्पताल, 80 फ़ीसदी चिकित्सक और 75 प्रतिशत मेडिकल सुविधाएं शहरी क्षेत्रों में मौजूद हैं.  

पहली लहर के दौरान शुरुआत में कोविड-19 के मामले शहरी क्षेत्रों में बढ़ने शुरू हुए थे. आगे चलकर ये ग्रामीण क्षेत्रों तक फैल गए (सितंबर 2020 तक अर्ध-ग्रामीण क्षेत्रों में 65 प्रतिशत). दूसरी लहर में भी यही रुझान देखने को मिला. ग्रामीण क्षेत्रों के संदर्भ में एक तथ्य चिंताजनक है. यहां कोविड-19 के दर्ज मामलों में उछाल के बावजूद टीकाकरण की रफ़्तार में समानांतर तेज़ी देखने को नहीं मिली है. संक्रमण के 60 प्रतिशत से ज़्यादा मामले ग्रामीण और अर्ध-ग्रामीण क्षेत्रों में दर्ज किए गए. इसके बावजूद 14 मई तक यहां की सिर्फ़ 12-15 प्रतिशत आबादी को ही कोविड-19 टीके का पहला डोज़ लग पाया. इस तारीख़ तक ग्रामीण आबादी के मात्र 2.6 प्रतिशत हिस्से को ही टीके के दोनों डोज़ लगाए जा सके थे. इसकी तुलना में शहरो में रहने वाले क़रीब 7.7 प्रतिशत लोग दोनों डोज़ लगाने में कामयाब रहे.

संक्रमण के 60 प्रतिशत से ज़्यादा मामले ग्रामीण और अर्ध-ग्रामीण क्षेत्रों में दर्ज किए गए. इसके बावजूद 14 मई तक यहां की सिर्फ़ 12-15 प्रतिशत आबादी को ही कोविड-19 टीके का पहला डोज़ लग पाया. 

मई के अंत तक भारत की सिर्फ़ 3.1 प्रतिशत जनसंख्या को ही टीके के दोनों डोज़ लग सके थे. इसमें भी शहरी ज़िलों को ग्रामीण ज़िलों के मुक़ाबले 1.7 गुणा ज़्यादा टीके हासिल हुए. कोविड-19 टीकाकरण पर कई चुनौतियों का प्रभाव पड़ा है. इनमें अफ़वाहों और ग़लतफ़हमियों के चलते टीके को लेकर पैदा हुई झिझक भी शामिल है. इतना ही नहीं 18 से 44 वर्ष की आयु वाले लोगों के लिए को-विन ऐप पर अनिवार्य निबंधन के प्रावधान के चलते डिजिटल माध्यमों पर निर्भरता से जुड़ी मुश्किलें भी कम नहीं हैं. ख़ासतौर से सामाजिक और आर्थिक तौर पर कमज़ोर तबके के लोगों की बात करें तो हम पाते है कि ये लोग डिजिटल माध्यमों का प्रयोग करना नहीं जानते. आधुनिक तकनीक (बॉट्स/ऐप्लिकेशंस) तक उनकी पहुंच नहीं है, और अगर पहुंच है भी तो वो नाकाफ़ी है. कई लोगों के पास स्मार्टफ़ोन नहीं हैं. इंटरनेट की सुविधा या तो नदारद है या फिर उसके रास्ते में तमाम तरह की बाधाएं हैं. ऐसे लोगों के लिए भाषाई तौर पर भी जुड़ाव में दिक्कतें हैं. और तो और स्थानीय स्वास्थ्य केंद्र भी मीलों दूर स्थित हैं. 

स्मार्टफ़ोन, इंटरनेट और तकनीकी व्यवहार ज्ञान

2019 के आंकड़ों के हिसाब से भारत में 45 करोड़ लोग स्मार्टफ़ोन इस्तेमाल करते हैं. हालांकि ग्रामीण इलाक़ों की सिर्फ़ 25 प्रतिशत आबादी के पास ही स्मार्टफ़ोन मौजूद हैं. ग्रामीण क्षेत्रों की केवल 4 फ़ीसदी और शहरी क्षेत्रों की सिर्फ़ 23 प्रतिशत आबादी ही कंप्यूटर तक पहुंच रखती है. इंटरनेट के कनेक्शन भी सार्वभौम या सबको सुलभ नहीं हैं. भारत में सिर्फ़ 34 प्रतिशत लोगों को ही इंटरनेट की सुविधा हासिल है. इतना ही नहीं देश के कुछ क्षेत्रों में खस्ताहाल मोबाइल नेटवर्क और कमज़ोर सिग्नल व्यवस्था के चलते करीब 55 करोड़ भारतीय अब भी फ़ीचर फ़ोन ही इस्तेमाल कर रहे हैं. महत्वपूर्ण फ़ोन नंबरों को वो स्पीड डायल पर रखते हैं. इन हालातों में उनसे को-विन जैसे अत्याधुनिक डिजिटल ऐप का प्रयोग करने की उम्मीद रखना कहीं से मुनासिब नहीं है. करीब 34 फ़ीसदी भारतीयों के पास ही इंटरनेट की सुविधा मौजूद है. ग्रामीण क्षेत्रों में सिर्फ़ 4 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों की 23 प्रतिशत आबादी को ही कंप्यूटरों की सुविधा प्राप्त है. ये हालात ग्रामीण क्षेत्रों में टीकाकरण अभियान की रफ़्तार को पीछे धकेल रहे हैं. 

को-विन प्लैटफ़ॉर्म इंटरनेट कौशल से संपन्न और आधुनिक तकनीकी सुविधाओं से लैस शहरी आबादी का साथ देता है. ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षाकृत कम जागरूक और आधुनिक तकनीक से महरूम आबादी इस आवश्यक सुरक्षा जाल से वंचित है. ओडिशा के एक दूरदराज के गांव गोविंदपुर की ही मिसाल लेते हैं. यहां के एक ग्रामीण के पास लैपटॉप नहीं है. उसके सस्ते स्मार्टफ़ोन में को-विन ऐप (टीके की उपलब्धता और टीकाकरण का समय और स्थान सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी सरकारी ऐप) को सपोर्ट करने वाले फ़ीचर्स ही नहीं हैं. तकनीक के मामले में इस तरह के विभाजन से डिजिटल माध्यमों की जानकारी से वंचित रह गई आबादी को भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है. वो या तो निबंधन केंद्रों की दौड़ लगा रहे हैं या फिर किसी मददगार के ज़रिए ऐप पर टीके और स्लॉट की बुकिंग कर रहे हैं. ऐप से निबंधन की अनिवार्यता के चलते कई लोग टीकाकरण की प्रकिया से ही बाहर हो जा रहे हैं. इस बात पर बल देते हुए सामाजिक कार्यकर्ता पल्लबी घोष निबंधन प्रक्रिया के संदर्भ में सूचना के अभाव पर ज़ोर देती हैं. इस सिलसिले में वो असम के लामडिंग के एक टीकाकरण केंद्र की मिसाल देती हैं. यहां लोग टीकाकरण केंद्र जाने से पहले ज़रूरी ऑनलाइन निबंधन से जुड़ी प्रक्रिया से वाकिफ़ ही नहीं थे. इस जानकारी के बिना ही वो टीकाकरण केंद्र पर इकट्ठा हो गए. 

कोविड-19 के बारे में अपर्याप्त जानकारियों के चलते देश के अलग-अलग हिस्सों में कई प्रकार की भ्रांतियां फैली हुई हैं. 

इसी तरह उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचल काशीगांव के एक निवासी ने बताया कि उन्हें अपने फ़ोन से को-विन ऐप पर निबंधन के बारे में जानकारी हासिल करने में मुश्किलों का सामना करना पड़ा. ये हाल तब है जब गांव के नज़दीक ही इंटरनेट सुविधाओं के साथ कॉमन सर्विस सेंटर (सीएससी) मौजूद है, जहां लोग टीकाकरण हेतु निबंधन कराने के लिए मदद ले सकते हैं. 

इतना ही नहीं टीकाकरण के लिए को-विन ऐप पोर्टल पर रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया में पहचान से जुड़े प्रमाण को अपलोड करना पड़ता है. कुछ ख़ास प्रकार के लोगों मसलन- रेहड़ी-पटरी वालों, शहरी झुग्गी बस्तियों के निवासियों, झुग्गी झोपड़ी समूहों और दुर्गम इलाक़ों में रहने वाले लोगों के अलावा भिक्षावृत्ति जैसे कामों में लगे लोगों के लिए तो सामान्य परिस्थितियों में ही पहचान पत्रों का जुगाड़ कर पाना बेहद मुश्किल होता है. ऐसे लोग केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा चलाई जा रही सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का लाभ पाने के लिए जद्दोजहद करते रहते हैं. बात डिजिटल असमानता की हो रही है तो एक और तथ्य की ओर ध्यान दिलाना ज़रूरी हो जाता है. को-विन ऐप अपनी मौजूदा बनावट के चलते मौजदा विषमता को भाषाई तौर पर और बढ़ा रहा है क्योंकि फ़िलहाल इसका संचालन सिर्फ़ अंग्रेज़ी भाषा के ज़रिए ही हो रहा है. ग़ौरतलब है कि भारत में 22 आधिकारिक भाषाएं हैं लेकिन इस वक़्त को-विन ऐप का इस्तेमाल इनमें से किसी भी भाषा में नहीं हो रहा. 

तकनीक पर आधारित ये व्यवस्था इन लोगों के लिए कई प्रकार की मुश्किलें खड़ी कर रही हैं. इस व्यवस्था के चलते टीकाकरण की प्रक्रिया से उनके पूरी तरह से बाहर रहने की प्रबल आशंका है. दूसरा, ग़रीब परिवारों से जुड़े इन लोगों के सामने मुश्किलों भरे इस वक़्त में टीकाकरण का इंतज़ार करते हुए एक दिन की आमदनी से हाथ धोने तक का ख़तरा रहता है. सबसे पहले तो उन्हें ऑनलाइन स्लॉट बुक करने में घंटों व्यतीत करना होगा, उसके बाद अपने परिवार के हरेक योग्य सदस्य को टीकाकरण के लिए वैक्सीन सेंटर तक ले जाने के लिए कई दिनों तक अपने काम से छुट्टी लेनी होगी. इनमें से कई केंद्र तो उनकी रिहाइश से काफ़ी दूर के इलाक़ों में स्थित हैं. अध्ययन में शामिल महाराष्ट्र के एक ग्रामीण ने बताया कि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के 8 किमी दूर स्थित होने और महामारी के मौके पर अस्पताल जाने से लगने वाले डर के चलते उनके यहां के लोगों ने टीकाकरण से दूरी बना ली है. 

टीके के प्रति झिझक

कोरोना की दूसरी लहर में बढ़ते संक्रमण और मौतों के बावजूद ग्रामीण भारत में टीके को लेकर झिझक का माहौल बरकरार है. कोविड-19 के बारे में अपर्याप्त जानकारियों के चलते देश के अलग-अलग हिस्सों में कई प्रकार की भ्रांतियां फैली हुई हैं. इतना ही नहीं, व्हाट्सऐप के ज़रिए कई प्रकार की अफ़वाहें फैलाई जा रही हैं. असमय होने वाली मौतों और कई तरह की बीमारियों के लिए वैक्सीन को दोषी बताया जा रहा है. इसके साथ ही ये झूठी ख़बर भी फैलाई गई है कि टीके में सुअर के मांस और गाय के ख़ून का इस्तेमाल हुआ है. ये अफ़वाह भी उड़ाई गई है कि टीके से नपुंसकता और बांझपन आने से लेकर लोगों की जान तक जा रही है. इन तमाम तरह की भ्रांतियों के चलते कई लोग ये मानने लगे हैं कि उन्हें टीके से फ़ायदे की बजाए नुकसान होगा. वैक्सीन के प्रति झिझक और भय के साथ ही कोविड-19 को लेकर फैले तमाम तरह के मिथक टीकाकरण अभियान के रास्ते के सबसे बड़े अवरोध हैं. 

जागरूकता के अभाव, झूठी जानकारियों, मिथकों और झिझक से निपटने के लिए सामाजिक स्तर पर एकजुटता की रणनीति का सहारा लेना होगा.

निष्कर्ष

टीकाकरण अभियान में सामाजिक और भौगोलिक रूप से अंतिम पायदान या दूरदराज रहने वाले लोगों तक पहुंच बनाने के लिए नीतियों और कार्यक्रमों को नए सिरे से तय करने की ज़रूरत है. भारत में चुनावों के समय मतदान केंद्रों की स्थापना के तरीकों के हिसाब से ही टीकाकरण केंद्रों की स्थापना के बारे विचार किया जा सकता है. जागरूकता के अभाव, झूठी जानकारियों, मिथकों और झिझक से निपटने के लिए सामाजिक स्तर पर एकजुटता की रणनीति का सहारा लेना होगा. इसी रणनीति के ज़रिए सामाजिक तौर पर कमज़ोर वर्गों और भौगोलिक रूप से दुर्गम इलाक़ों में रहने वाले लोगों तक पहुंच सुनिश्चित की जा सकती है. भारत का टीकाकरण अभियान सर्वसमावेशी होना चाहिए. इसके चलते मौजूदा विषमताओं में कतई और बढ़ोतरी नहीं होनी चाहिए. टीके तक समान रूप से पहुंच, विशेष ज़रूरतों वाले लोगों के लिए मुफ़्त टीकाकरण कैंपों में आओ और टीका लगाओ का विकल्प और पहचान से जुड़े सबूत मुहैया कराने की बाध्यता के बग़ैर भी टीकाकरण की सुविधा प्रदान करना वक़्त का तकाज़ा है. एक अंतिम उपाय के तौर पर ग्राम पंचायतों के स्तर पर स्वास्थ्यकर्मियों और प्रभावशाली स्थानीय नेताओं का एक टास्कफ़ोर्स गठित किया जाना अत्यावश्यक है. इसका मकसद टीके के बारे में घर-घर जागरूकता अभियान चलाना, भ्रांतियों और मिथकों को दूर  कर टीके के प्रति ग्रामीण समाज के झिझक को मिटाना और निबंधन की प्रक्रिया में लोगों की मदद करना होना चाहिए. अगर हम ये तमाम उपाय करते हैं तो सही मायनों में हम ये कह सकेंगे कि हमने इन हालातों से अपने सबक सीख लिए हैं. इसके साथ ही भविष्य में महामारी की अगली लहरों से निपटने के लिए सबके टीकाकरण के रूप में हमारी अग्रिम तैयारी सुनिश्चित हो सकेगी. 

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