Published on Apr 15, 2019 Updated 0 Hours ago

यदि भारत सिंधु जल समझौता रद्द करता है तो पाकिस्तान के साथ संबंधों में कड़वाहट और बढ़ाने के जिम्मेदार ठहराने के सिवा और कुछ हासिल नहीं होगा।

सिंधु जल संधि: बयानबाजी से परे

सिंधु जल संधि वह समझौता है जो लगभग 60 साल पहले भारत और पाकिस्तान के बीच तीन पूर्वी और पश्चिमी नदियों के जल के बंटवारे का नियमन करने के लिए किया गया था। दोनों पड़ोसियों के बीच तीन युद्धों और लगातार कटुतापूर्ण संबंधों के बावजूद यह संधि चलती रही है। ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं है कि सिंधु जल संधि को आज दुनिया के सफलतम जल-साझेदारी समझौतों में रखा जाता है।

ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं है कि सिंधु जल संधि को आज दुनिया के सफलतम जल-साझेदारी समझौतों में रखा जाता है।

लेकिन पिछले दिनों इस संधि के दोनों भागीदार देशों, खास तौर पर भारत, ने इस संधि के बारे में अप्रसन्नता जताई है और दोनों ओर के विशेषज्ञों का कहना है कि यह संधि उनके देश के साथ अन्याय करती है। इसकी समीक्षा करने की मांगों से आगे बढ़ते हुए कुछ विशेषज्ञों ने इसे रद्द करने की मांग उठाई है जबकि कुछ अन्य ने इस संधि द्वारा प्रत्याभूत पाकिस्तान को मिल रहे जल प्रवाह को रोकने की मांग की है। इस संधि पर हस्ताक्षर करने वाले पक्षकारों में न होते हुए भी इसमें महत्वपूर्ण हितधारक जम्मू-कश्मीर राज्य भी अप्रसन्न है और राज्य की आर्थिक कठिनाइयों के लिए वह इस संधि को जिम्मेवार मानता है। वास्तव में 2002 में जम्मू-कश्मीर विधानसभा ने एक प्रस्ताव पारित कर संधि की समीक्षा करने की मांग की थी।

जम्मू-कश्मीर जो मुद्दे उठा रहा है उनमें राज्य में जलविद्युत परियोजनाओं के विकास से जुड़े मुद्दे हैं क्योंकि संधि तीनों पश्चिमी नदियों में धारित जल की मात्रा को सीमाबद्ध करती है।

भंडारण

अगर तीनों पश्चिमी नदियों के मार्ग और उनकी भू-संरचना को देखा जाए तो उनमें से किसी पर बड़े जल भंडार या जलाशय बनाने के लिए क्रियान्वयन योग्य क्षमता नहीं है। चिनाब और सिंधु दोनों तेज ढाल पर संकरी घाटियों से होकर गुजरती हैं जिससे उन पर भंडारण क्षमता सीमित होती है। चिनाब और सिंधु के विपरीत, झेलम का ढाल बहुत ही हल्का है और वह घाटी में बहुत व्यापक विस्तार से बहती है जिससे उस पर भंडारण योजना के लिए आदर्श स्थलाकृति मिलती है लेकिन, उस पर कोई भी भंडारण घाटी की कीमत पर ही हो सकता है। कोई बड़ा भंडारण करने की स्थिति में घाटी डूब जाएगी।

हालांकि, झेलम की सहायक नदियों पर संभवतः चरणबद्ध तरीके से छोटी-छोटी भंडारण क्षमताओं के निर्माण की अच्छी संभावना है और संधि के तहत ऐसा करने की अनुमति भी है। यहाँ उल्लेखनीय है कि आज तक भारत द्वारा इन नदियों पर किसी भी प्रकार का कोई भंडारण नहीं किया गया है। यहीं इस बात पर ध्यान दिया सकता है कि यदि झेलम घाटी में संधि द्वारा अनुमति सीमा तक भंडारण क्षमता का विकास किया गया होता तो सितंबर 2014 में कश्मीर में आई बाढ़ के प्रभाव को किसी सीमा तक नियंत्रित किया जा सकता था।

जल-विद्युत क्षमता

तीनों नदियों में कुल 16,000 मेगावाट जलविद्युत क्षमता की पहचान की गई है, जिसमें से चिनाब घाटी का योगदान लगभग दो तिहाई है। चिनाब घाटी में झरने की तरह बहुचरणीय जल विद्युत परियोजनाओं की एक शृंखला संभव है और इन परियोजनाओं के पूरा होने के बाद ही बेसिन की पनबिजली क्षमता का पूरी तरह से दोहन किया जाना संभव है। एक बरसर जलविद्युत परियोजना को छोड़कर, इनमें से किसी भी परियोजना में उल्लेखनीय भंडारण क्षमता नहीं है। सिंधु जल संधि हो या न हो, इन योजनाओं को टिहरी जलविद्युत परियोजना या भाखड़ा नंगल परियोजना जैसी बड़े भंडारण वाली योजनाओं के रूप में विकसित किया जाना संभव नहीं था। ये योजनाएं केवल प्रवाह के ऊपर बनने वाली या दैनिक आधार पर चलने वाली परियोजनाओं के रूप में सक्रिय की जा सकती थीं। वर्तमान में पहचानी गई परियोजनाओं को तैयार करने की स्थिति में भी हम इस घाटी के लिए संधि में उपलब्ध आधे से भी कम भंडारण क्षमता का उपयोग कर सकेंगे।

जहां तक ​​झेलम का संबंध है, इसकी कुल जल विद्युत क्षमता के आधे का विकास पहले ही हो चुका है। लेकिन जैसा कि ऊपर बताया गया है, किसी भी बड़े भंडारण प्रस्ताव का अर्थ होगा पूरी घाटी को जलमग्न करना। संभवत: इसीलिए संधि में इस तथ्य को महत्व देते हुए मुख्य झेलम नदी पर किसी भी भंडारण का प्रावधान नहीं किया गया था। हालांकि, इसकी सहायक नदियों पर सीमित क्षमता की भंडारण योजनाओं का विकास संभव है।

सिंधु की जलविद्युत क्षमता वास्तव में अप्रयुक्त रह गई है। इसका कारण संभवत: परियोजना के लिए स्थापना योग्य स्थानों की दूरी और उन जगहों पर परियोजनाओं के निर्माण, बिजली की निकासी, संचालन और रखरखाव की ऊंची लागत रहा हो।

इसलिए, जब तीनों नदी घाटियों की स्थलाकृति ऐसी है कि उन पर बड़ी भंडारण योजनाओं के लिए बहुत सीमित क्षमता है, तो संधि के कारण राज्य की जलविद्युत क्षमताओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने के के तर्कों पर आश्चर्य होता है ।

प्रवाह रोका जाना

आइये अब जल्दी से पाकिस्तान को होने वाले प्रवाह को रोकने की मांग को भी देख लिया जाए। क्या यह ऐसी बात है जो व्यावहारिक और संभाव्य है?

चूंकि भारत वैसे भी पूर्वी नदियों के लगभग पूरे प्रवाह का उपयोग कर रहा है, पाकिस्तान में पानी के प्रवाह की किसी भी तरह की नाकाबंदी का मतलब अनिवार्य रूप से तीन पश्चिमी नदियों के प्रवाह को रोकना होगा, पूरी सिंधु घाटी के कुल प्रवाह में 80% ( लगभग117 बिलियन क्यूबिक मीटर – बीसीएम) से अधिक का योगदान देता है। पानी के प्रवाह को पाकिस्तान में जाने से रोकने के लिए या तो इस पानी का भंडारण करना होगा और / या इन नदियों के प्रवाह को मोड़ना होगा।

इसे ऐसे समझा जा सकता है कि 117 बीसीएम पानी की मात्रा हर साल, लगभग 120,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल को एक मीटर डुबोने के लिए पर्याप्त है। इसे और साफ परिप्रेक्ष्य में रखें तो पानी की इस मात्रा को केवल एक वर्ष में पूरी कश्मीर घाटी को सात मीटर ऊँचाई तक भरा जा सकता है। जलाशय के आयतन के संदर्भ में देखें तो हर साल हमें उपरोक्त मात्रा के भंडारण के लिए टिहरी के आकार के 30 जलाशयों की आवश्यकता होगी। इस पानी को जमा करने के लिए हम इतना बड़ा भू-भाग कहां खोजेंगे?

समय की दृष्टि से देखें तो टिहरी बांध के आकार का एक विशिष्ट भंडारण बनाने में लगभग एक दशक का समय लगता है, भले ही हम कल इस तरह के 30 जलाशयों का निर्माण शुरू कर दें, लेकिन उनमें पानी का वास्तविक संचय केवल 2030 में हो सकेगा। तब तक, पाकिस्तान को पानी रोके जाने की कोई पीड़ा नहीं होगी। और इसके बाद हर साल हमें पश्चिमी नदियों के प्रवाह को पाकिस्तान में प्रवेश से रोकने के लिए 30 ऐसे बड़े जलाशयों की आवश्यकता होगी। कोई भी समझ सकता है कि यह व्यावहारिक प्रस्ताव नहीं है।

नदी या नदियों को मोड़ने का विकल्प भी समान रूप से काल्पनिक है। तीन की बात छोड़ें, तीन में से किसी भी नदी के प्रवाह को बदलने से सैकड़ों किलोमीटर से अधिक मानव निर्मित जल-प्रवाह मार्ग का निर्माण करना होगा। इसके डिजाइन, निर्माण और रखरखाव में भी भारी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। इस तरह के किसी भी प्रस्ताव के लिए लाखों-करोड़ रुपयों के निवेश की आवश्यकता होगी, हजारों हेक्टेयर भूमि का अधिग्रहण होगा और इसे पूरा होने में दशकों लगेंगे।

भंडारण या दिशा मोड़ने के प्रस्तावों में से किसी भी स्थिति में पाकिस्तान को कम से कम अगले 30 से 50 वर्षों तक किसी भी तरह का कोई प्रभाव महसूस नहीं होगा। साथ ही यह कहने की भी जरूरत नहीं है कि उपरोक्त दोनों विकल्पों में से किसी का भी पर्यावरणीय प्रभाव विनाशकारी होगा।

संधि को रद किया जाना

ऊपर की गई बातों से निष्कर्ष निकाला जाए तो यह बहुत स्पष्ट है कि अगर भारत आज संधि को रद्द कर भी दे तो भी वास्तव में कुछ नहीं बदलेगा। जहां तक पाकिस्तान को पानी मिलने की बात है तो उसे यह प्रवाह तब तक मिलता रहेगा जब तक कि भारत अपनी जल भंडारण अथवा मार्ग परिवर्तन संबंधी परियोजनाओं को पूरा नहीं कर लेता।

संधि समाप्त किए जाने के बाद भी पाकिस्तान में पानी का प्रवाह जारी रहेगा, लेकिन इस तरह की किसी भी कार्रवाई के अन्य परिणाम भी होंगे। सिंधु घाटी पाकिस्तान की 90% कृषि का आधार होने के साथ ही वहां की 40% से अधिक आबादी को रोजगार देती है। पाकिस्तान का आम आदमी इसे अपने लोगों और अपने देश का गला घोंटने और भूखा रखने के भारत के प्रयास के रूप में देखेगा। इससे डर पैदा होगा और उसके मन में अनिश्चितता पैदा होगी। पाकिस्तान पर संधि के निरस्त होने का कोई वास्तविक प्रभाव पड़े बिना, इस तरह की कार्रवाई से केवल पाकिस्तान में उन गुटों को दुष्प्रचार का मौका मिलेगा जो दोनों देशों के बीच संबंध बिगड़ते देखना चाहते हैं। यह उनके एजेंडे के अनुरूप होगा और दोनों देशों के बीच तनाव को और खराब स्तर तक पहुंचाने के लिए ईश्वर-प्रदत्त अवसर होगा।

इसलिए भारत को चाहिए कि इस संधि के बारे में निरस्त करने का विचार भी ना करे- क्योंकि इससे पाकिस्तान को निकट भविष्य या मध्यम अवधि के भविष्य तक किसी तरह से प्रभावित करना संभव नहीं है। नैतिक, कानूनी या कूटनीतिक रूप से अनुचित और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत समझौतों के खिलाफ जाने वाली ऐसी कार्रवाई केवल दोनों देशों के बीच दुश्मनी बढ़ाने का कारण बनेगी और ऐसा होने पर दुश्मनी सिर्फ सरकारों के बीच नहीं बल्कि बड़े पैमाने पर जनता के बीच होगी। दोनों राष्ट्रों के बीच संबंधों में और ज्यादा कड़वाहट पैदा करने के लिए जिम्मेदार होने के अलावा, संधि को निरस्त करके भारत को अभी कुछ और हासिल नहीं होगा।

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