Published on Jul 13, 2021 Updated 0 Hours ago

ताइवान के ख़िलाफ़ चीन के किसी भी संभावित आक्रमण को मात देने के लिए जापान अमेरिका के साथ मिलकर काम करने के लिए संकल्पित है.

इंडो-पैसिफिक: ताइवान के साथ जापान का सुरक्षा समझौता नई ऊंचाई पर

जापान और ताइवान के बीच संबंध परंपरागत तौर पर उनके द्विपक्षीय रिश्तों के सभी क्षेत्रों में दोस्ताना रहे हैं. जापान के प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा और अमेरिका के राष्ट्रपति जोसफ़ आर. बाइडेन के बीच हाल की शिखर वार्ता का नतीजा एक और संकेत देता है, और वे ये कि ताइवान की रक्षा और सुरक्षा को जापान अपनी विदेश नीति की सबसे बड़ी प्राथमिकताओं में से एक रखता है. इससे ये भी इशारा मिलता है कि ताइवान के ख़िलाफ़ चीन के किसी भी संभावित आक्रमण को मात देने के लिए जापान अमेरिका के साथ मिलकर काम करने के लिए संकल्पित है. 

16 अप्रैल 2021 को वॉशिंगटन में अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन के साथ जापान के प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा की बातचीत का मुख्य मुद्दा अमेरिकी प्रशासन के साथ मिलकर ताइवान की सुरक्षा को बरकरार रखना था. दोनों नेताओं के साझा बयान में दूसरे मुद्दों के अलावा ताइवान का भी ज़िक्र था- 1969 में जब जापान ने चीन के साथ संबंध सामान्य किए थे, उसके बाद पहली बार ऐसा हुआ. 

चीन से चुनौती 

बातचीत के दौरान राष्ट्रपति बाइडेन ने कहा कि अमेरिका और जापान- दोनों देश “चीन से मिलने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए साथ मिलकर काम करने को संकल्पित हैं ताकि एक स्वतंत्र और मुक्त इंडो-पैसिफिक का भविष्य सुनिश्चित किया जा सके.” प्रधानमंत्री सुगा ने भी “ताइवान स्ट्रेट की शांति और स्थिरता के महत्व को लेकर जापान और अमेरिका के बीच सहमति” का ज़िक्र किया. 

हाल के दिनों में जापान ने दूसरे मंचों पर भी ताइवान की सुरक्षा को लेकर अपनी चिंता व्यक्त की. 16 मार्च 2021 को अमेरिका के रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन के साथ अपनी मुलाक़ात के दौरान जापान के रक्षामंत्री नोबुओ किशि ने चीन के आक्रमण की स्थिति में ताइवान की सुरक्षा के लिए जापान के आत्म रक्षा बलों के अमेरिकी सेना के साथ सहयोग के तरीक़ों के अध्ययन की ज़रूरत पर ज़ोर दिया. इस मौक़े पर दोनों रक्षा मंत्री चीन और ताइवान के बीच सैन्य संघर्ष की स्थिति में नज़दीकी तौर पर सहयोग के लिए तैयार हुए. 

अमेरिका और जापान- दोनों देश “चीन से मिलने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए साथ मिलकर काम करने को संकल्पित हैं ताकि एक स्वतंत्र और मुक्त इंडो-पैसिफिक का भविष्य सुनिश्चित किया जा सके.

ये याद किया जा सकता है कि 2016 में किशी ने मज़बूकत जापान-ताइवान-अमेरिका संबंधों के लिए आग्रह किया था. अपने भाई शिंज़ो आबे के प्रधानमंत्री रहने के दौरान जापान के तत्कालीन विदेश मामलों के मंत्री के तौर पर किशी ने कहा, “जब हम जापान, अमेरिका और ताइवान के बीच त्रिपक्षीय संबंधों को बढ़ा रहे हैं तो हम स्ट्रेट के आर-पार रिश्तों के स्थायी विकास की उम्मीद भी करते हैं.”

इसके अलावा, जापान ने ताइवान को लेकर अमेरिका और चीन के बीच संघर्ष की स्थिति में सैन्य कार्रवाई की व्यावहारिकता पर हाल में अध्ययन किया है. यहां ये उल्लेखनीय है कि जापान का सुरक्षा क़ानून अपने आत्म-रक्षा बल (एसडीएफ) को अमेरिकी सेना और उसके साझेदारों को लॉजिस्टिक समर्थन मुहैया कराने की इजाज़त देता है. जापान के श्वेत पत्र का नया मसौदा कहता है कि “ताइवान को लेकर परिस्थिति की स्थिरता जापान की सुरक्षा और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की स्थिरता के लिए महत्वपूर्ण है.”

अतीत के साथ निरंतरता

महत्वपूर्ण बात ये है कि रक्षा और सुरक्षा के क्षेत्र में जापान और ताइवान के बीच हमेशा से एक नज़दीकी संबंध का अस्तित्व रहा है. 1969 में अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड एम. निक्सन के साथ वॉशिंगटन में अपनी शिखर वार्ता के दौरान जापान के प्रधानमंत्री ईसाकू सातो ने बयान दिया कि ताइवान के इलाक़े मे शांति और सुरक्षा को बनाए रखना “जापान की सुरक्षा के लिए एक बेहद महत्वपूर्ण कारक था“. अपनी बारी आने पर राष्ट्रपति निक्सन ने ताइवान (रिपब्लिक ऑफ चाइना) की ओर अमेरिका की संधि की शर्तों को बरकरार रखने का ज़िक्र किया. 

1972 में चीन-अमेरिका के संबंधों में सुधार के साथ जापान ने पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) को चीनी राष्ट्र के एकमात्र प्रतिनिधि के तौर पर मान्यता दी. इसके बाद जापान को ताइवान के साथ कूटनीतिक संबंधों को तोड़ना पड़ा. लेकिन एक स्वतंत्र देश के तौर पर ताइवान की रक्षा को लेकर जापान संवेदनशील बना रहा. जापान ने अपनी कूटनीति इस तरह से जारी रखी जिसके तहत मेनलैंड चीन को कूटनीतिक तौर पर मान्यता देकर ख़ुद की आर्थिक हितों की सुरक्षा के साथ-साथ ताइवान की “संभावित स्वतंत्रता” को प्रोत्साहन मिलना सुनिश्चित किया (किसिंजर, 2011, पेज 279).

1972 में चीन-अमेरिका के संबंधों में सुधार के साथ जापान ने पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) को चीनी राष्ट्र के एकमात्र प्रतिनिधि के तौर पर मान्यता दी. इसके बाद जापान को ताइवान के साथ कूटनीतिक संबंधों को तोड़ना पड़ा.

1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री केइज़ो ओबुची ने अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की ‘तीन ना की नीति” का समर्थन करने से इनकार कर दिया. इस नीति के तहत अमेरिका ताइवान की स्वतंत्रता या “एक चीन, एक ताइवान”, या “दो चीन” या किसी ऐसी अंतर्राष्ट्रीय संस्था में ताइवान की सदस्यता, जिसके सदस्य संप्रभु देश हैं, का समर्थन नहीं करता. महत्वपूर्ण बात ये है कि जापान एक लोकतंत्र है. वहां की सरकार को जनता की भावना का सम्मान करना है जो ताइवान की सुरक्षा का समर्थन करने के पक्ष में है. हाल में निकेई और टीवी टोक्यो के एक पोल के मुताबिक़ जापान की जनता का एक बड़ा बहुमत आज सरकार को ताइवान स्ट्रेट में शांति और स्थिरता की कोशिश में भागीदार बनता देखना चाहेगी. पोल के अनुसार 74 प्रतिशत जापान के लोग ताइवान स्ट्रेट में स्थिरता को लेकर सरकार की कोशिशों का समर्थन करते हैं. 

घुसपैठ में कमी

ताइवान को लेकर सुगा-बाइडेन का सुरक्षा समझौता काफ़ी सार्थक है. ख़बरों के मुताबिक़, शिखर वार्ता के परिणामस्वरूप ताइवान के नज़दीक चीन की सैन्य गतिविधियां कम हुई हैं. वहीं शिखर वार्ता से पहले इस साल 1 जनवरी से 16 अप्रैल के बीच चीन ने 75 दिन अपने सैन्य विमानों को ताइवान के एयर डिफेंस आइडेंटिफिकेशन ज़ोन (एडीआईज़ेड) में भेजा. इन घुसपैठ वाली कार्रवाई के दौरान कुल मिलाकर 257 सैन्य विमान ताइवान के हवाई क्षेत्र में दाख़िल हुए. सिर्फ़ 12 अप्रैल को रिकॉर्ड 25 एयरक्राफ्ट ताइवान के हवाई क्षेत्र में उड़े. 

एक ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक़ चीन की वायुसेना के 28 से ज़्यादा एयरक्राफ्ट, जिनमें लड़ाकू और परमाणु हथियार को ले जाने में सक्षम बॉम्बर शामिल हैं, 15 जून को ताइवान के हवाई क्षेत्र में दाखिल हुए. चीन के इस ताज़ा मिशन में 14 जे-16 और छह जे-11 लड़ाकू विमान शामिल थे. इनके साथ-साथ चार एच-6 बॉम्बर, जो परमाणु हथियार ले जाने में सक्षम हैं, और कई सर्विलांस और अर्ली वॉर्निंग एयरक्राफ्ट भी शामिल थे. लेकिन चीन की इन गतिविधियों के बारे में ज़्यादा दिमाग़ नहीं लगाना चाहिए. ये घटना उस वक़्त हुई जब जी-7 देशों के नेताओं ने एक साझा बयान जारी कर कई मुद्दों के लिए चीन को फटकार लगाई और ताइवान स्ट्रेट में शांति और स्थिरता के महत्व पर ज़ोर दिया. चीन का ये तरीक़ा रहा है कि जब-जब पश्चिमी देश चीन की ताइवान नीति की आलोचना करते हैं, तब-तब चीन इस तरह की सैन्य गतिविधियों पर उतर जाता है. 

चीन को ये पता होगा कि ताइवान की सुरक्षा को लेकर जापान की नई वचनबद्धता के मद्देनज़र अमेरिका ताइवान के ख़िलाफ़ चीन के किसी भी आक्रमण का जवाब देने के लिए बेहतर स्थिति में होगा

आज की तारीख़ में चीन के द्वारा ताइवान को अपना हिस्सा बनाने की दिशा में कोई भी क़दम उठाने की संभावना बेहद कम है. चीन को ये पता होगा कि ताइवान की सुरक्षा को लेकर जापान की नई वचनबद्धता के मद्देनज़र अमेरिका ताइवान के ख़िलाफ़ चीन के किसी भी आक्रमण का जवाब देने के लिए बेहतर स्थिति में होगा. नई परिस्थितियों में अमेरिका जापान के अपने सैन्य अड्डों और जापान के आत्म रक्षा बलों (जेएसडीएफ) का बेहतरीन इस्तेमाल कर इस क्षेत्र में अमेरिका की अगुवाई में संभावित सैन्य अभियान चला सकता है. 

इस बात का ज़िक्र ग़ैर-ज़रूरी है कि 19 जनवरी 1960 को जापान के प्रधानमंत्री नोबुसुके किशी और अमेरिका के तत्कालीन विदेश मंत्री क्रिश्चियन ए. हर्टर के बीच समझौते के मुताबिक़ जब कभी भी अमेरिका जापान में अपने सैन्य अड्डों का इस्तेमाल किसी सैन्य अभियान के लिए करेगा तो अमेरिका को जापान के साथ पहले सलाह-मशविरा करना होगा. लेकिन अमेरिका और जापन के बीच रक्षा संबंध के स्वरूप को देखते हुए ये सलाह-मशविरा औपचारिकता के अलावा और कुछ नहीं है. 

भविष्य की संभावना

निष्कर्ष ये है कि ताइवान को लेकर जापान और अमेरिका के बीच नई समझ को देखते हुए जापान और ताइवान के बीच संबंध सुरक्षा के क्षेत्र में नई ऊंचाई पर पहुंच गए हैं. लग रहा है कि इस वक़्त जापान और ताइवान- दोनों साथ काम करने की साझा ज़रूरत को पूरी तरह समझ रहे हैं और इस क्षेत्र में चीन की किसी भी संभावित घुसपैठ को मात देने के लिए सभी ज़रूरी क़दम उठा रहे हैं. 

अगर निकट भविष्य में जापान के प्रधानमंत्री सुगा और ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग-वेन साथ आकर अपने सुरक्षा मुद्दों पर चर्चा करने के लिए एक मंच बनाते हैं तो ये हैरानी की बात नहीं होगी. ताइवान की राष्ट्रपति साई ने पहले ही एलान कर दिया है कि उनका लक्ष्य किसी भी “एकतरफ़ा आक्रामक कार्रवाई” के ख़िलाफ़ बचाव के लिए लोकतांत्रिक देशों का एक गठबंधन बनाना है. ज़्यादा दिन नहीं हुए जब 28 फरवरी 2019 को साई ने कहा था, “पूर्वी एशियाई क्षेत्र में ताइवान और जापान एक जैसे ख़तरे का सामना कर रहे हैं.” उन्होंने ये कहते हुए दोनों देशों के बीच सुरक्षा सहयोग पर ज़ोर दिया, “ये ज़रूरी है कि बातचीत का स्तर सुरक्षा सहयोग तक बढ़ाया जाए.” 

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.