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हिंद और प्रशांत महासागर से लगे हुए चार लोकतंत्र जिनकी सोच एक जैसी मानी जाती है, जो साथ-साथ आगे बढ़ सकते हैं, एक भू-राजनैतिक इलाक़े का निर्माण करते हैं जिसे इंडो-पैसिफ़िक कहते हैं, इसमें अमेरिका, जापान, भारत और ऑस्ट्रेलिया शामिल हैं.
हांलाकि मौजूदा समय में इसकी संरचना, इरादों और मक़सद के बारे में जवाब से ज़्यादा सवाल हैं. इंडो-पैसिफ़िक पर चारों देशों का अपना नज़रिया है जिसे साझा नज़रिए के साथ मिलाकर आगे बढ़ना हर देश के लिए मुश्किल हो जाता है. इससे ये ज़रूरत पैदा हो गई है कि 4 देशों के तालमेल के मक़सद पर फिर से बहस की जाए. वास्तव में कामचलाऊ छोटे-छोटे यूनियन में बंटना, चारों देशों के बीच मेल-मिलाप की कमी जैसे मसलों ने इस ग्रुप के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लगा दिए हैं कि क्या ये कुछ ठोस नतीजे दे पाएगा या बस ऐसे ही अलग-अलग क्षेत्र में रहने वाले लोगों का फोरम बनकर रह जाएगा और एक दूसरा मुद्दा ये है कि क्या 4 देशों का ये तालमेल इलाक़े में एक शक्तिशाली सुरक्षा ढांचा बनाने में सक्षम है? और अगर ये संभव है तो उसका आकार कैसा होगा? इस तरह के सवाल खड़े होने के पीछे दो कारण हैं. पहला, जहां एक तरफ़ देश ‘फ़्री एंड ओपन इंडो-पैसेफ़िक’ के लिए वचनबद्ध हैं वहीं आपसी सामंजस्य ढीला-ढाला है, इतना कि मंत्री स्तर पर इसकी औपचारिकता भी पूरी नहीं हो पायी है.
हालांकि, चारों देशों के बीच समंदर में सुरक्षा और संयुक्त सैन्य अभ्यासों का मज़बूत सहयोग हैं लेकिन एक इकाई के तौर पर इंडो-पैसेफ़िक क्षेत्र में सुरक्षा को लेकर कुछ ठोस सामने नहीं आया है. अनौपचारिक वादों, चीन को लेकर कुछ सदस्य देशों की बढ़ती चिंता और ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका के क्षेत्रीय संकल्पों को लेकर अस्पष्टता ने अभी तक कुछ ठोस नतीजा लेकर सामने नहीं आया है.
भारत ने समंदर में आने-जाने की आज़ादी के सिद्धांत पर ज़ोर देकर, समंदर के अंतरराष्ट्रीय क़ानून का सम्मान कर और चारों देशों के साझा विचार के साथ तालमेल बैठाकर अपने लिए एक अलग जगह बनाई है.
ये स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है कि भारत का अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया से सहयोग बढ़ रहा है. इस इलाके में और ज़्यादा औपचारिक सुरक्षा ढांचे का पक्षधर न होते हुए भी वो ये नहीं चाहता कि उसकी पहचान अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किसी ख़ास गुट के साथ हो जिसका असर उसकी क्षेत्रीय सुरक्षा पर पड़े, और यही वो दुविधा है जिसके कारण चार देशों के समूह और हिंद प्रशांत पर भारत का नज़रिया साफ़ नहीं हो पाया है.
हिंद-प्रशांत और चार देशों के समूह को अलग-अलग करके देखने का भारत का कूटनीतिक नज़रिया न सिर्फ़ पूरी स्थिति को अस्पष्ट करता है बल्कि एक ऐसे सुरक्षा ढांचे की ज़रूरत को बल देता है जो भू-राजनीतिक विखंडन के बजाय एक सिलसिलेवार रणनीति की वकालत करता है.
2017 से जबसे चार देशों के समूह का पुनरुत्थान हुआ है तबसे भारत के उसके साथ सक्रिय संबंध हैं, साथ ही उसने चार देशों के समूह के उद्देश्य और हिंद-प्रशांत के नज़रिए को भी अलग करने पर ज़ोर दिया है. नई दिल्ली ने अपनी कार्रवाई और बयानों के ज़रिए चार देशों के समूह और हिंद प्रशांत के बीच वैचारिक और संरचनात्मक नीति के अंतर को उजागर किया है, जो राजदूत पंकज सरन के बयानों से भी ज़ाहिर हुआ है. चीन के वुहान और रूस के सोची में हुई दो अहम अनौपचारिक शिखर बैठकों के बाद इन चार देशों के समूह के लिए भारत की गर्मजोशी में कमी देखी गई. भारत चार देशों के समूह को हिंद-प्रशांत में सक्रिय बहुत से संगठनों में से एक संगठन के तौर पर देखता है न कि एक ऐसा संगठन जो इलाक़े में बहुत अहम है. भारत ने नौपरिवहन की आज़ादी और समुद्री क़ानूनों के सम्मान पर जो ज़ोर दिया है उससे न सिर्फ़ उसका एक अलग मुक़ाम बना है बल्कि चार देशों के समूह के केंद्रीय विचार से भी ये मेल खाता है. भारत की हिंद-प्रशांत रणनीति महज़ चार देशों के समूह का नेतृत्व नहीं मानती बल्कि रणनीतिक स्वायत्तता क़ायम रखते हुए रूस के साथ भी अपने विकल्प खुले रखना चाहती है. साथ ही ऐसी किसी हरकत भी करना चाहता है जिससे चीन भड़के नहीं.
हिंद-प्रशांत में भारत स्वायत्तता और सामंजस्य के बीच एक तालमेल बनाना चाहता है. हालांकि, ये चार देशों के समूह (चौकड़ी) को हिंद-प्रशांत से अलग देखता है, पर इसके साथ ये ख़तरा भी है कि क्षेत्रीय विखंडता के लिए एक सिलसिलेवार रणनीति बनाने का मौक़ा हाथ से निकल जाए. भारत के उद्देश्य का एक सकारात्मक तर्क ये भी है कि हिंद-प्रशांत को एक सिलसिलेवार रणनीति के तौर पर देखा जाए न कि क्षेत्रीय आधार पर कुछ बंटे हुए लक्ष्यों, साझेदारियों और गठबंधनों के तौर पर. चार देशों का ये समूह, यानि quad, भारत को एक मौक़ा देता है कि वो इलाके के मध्य में होने के नाते दोनों छोर पर रणनीतिक आधार पर अपनी सुरक्षा ज़रूरतों को खाड़ी से लेकर मलाक्का के स्ट्रेट (जल डमरू मध्य) तक पुख़्ता करे.
2018 के शांग्रिला डायलॉग में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिंद-प्रशांत के मुद्दे पर भारत के रुख़ को स्पष्ट करते हुए कहा कि, ‘भारत हिंद-प्रशांत क्षेत्र को एक रणनीति या सीमित सदस्यों के क्लब के रूप में नहीं देखता और न ही ऐसे गुट के तौर पर जो वर्चस्व चाहता है और ये तो किसी भी हाल में नहीं मानते हैं कि ये किसी देश के खिलाफ़ है.’ प्रधानमंत्री मोदी ने ये भी साफ़ कर दिया कि भारत की हिंद-प्रशांत नीति चीन को एक किनारे लगाने के लिए भी नहीं है, हिंद-प्रशांत को लेकर भारत की एक सकारात्मक सोच है, जिसमें ASEAN को केंद्र में रख कर दक्षिण पूर्व एशिया को क्षेत्र का अहम् इलाक़ा माना गया है. भारत की परिभाषा के तहत हिंद-प्रशांत ‘एक स्वतंत्र, खुला, समावेशी क्षेत्र है जो हम सब को प्रगति और खुशहाली की दिशा में आगे बढ़ते हुए हर किसी को खुले दिल से स्वीकार करता है.’ इसमें वो सभी देश शामिल हैं जो इस क्षेत्र के भीतर आते हैं और बाहर के भी जिनका यहां साझेदारी है.’ भारत ने जानबूझकर ‘समावेशी’ शब्द जोड़कर हिंद-प्रशांत की परिभाषा को वैचारिक दृष्टि से एक नया आयाम देने की कोशिश की है.
भारत की परिभाषा में जिस तरह से ‘सबको’ शब्द शामिल किया गया है, वो सीधे तौर पर चार देशों के समूह के चीन विरोधी लक्ष्य को कमज़ोर करता है. ऐसा करने के पीछे की नीयत कहीं न कहीं, भारत को इस क्षेत्र में नौपरिवहन में सहूलियत दिलवाने के साथ ही बड़ी शक्तियों के साथ किसी तरह की दुश्मनी न मोल लेनी पड़े उसे ध्यान में रखते हुए किया गया है.
इस क्वॉड यानि चौकड़ी को दोबारा खड़ा ही स्वतंत्र और खुले हिंद-प्रशांत के कथन पर हुआ है न कि क्षेत्र व्यापी समावेश के लिए. इस पूरे कथन के निशाने पर चीन है क्योंकि उसका भारी सैन्यीकरण, दक्षिण चाइना सी में दावों और हिंद महासागर में नौसेना की रणनीतिक चौकियों को क्षेत्र को अस्थिर करने की मुख्य़ वजह माना जा रहा है. हालांकि, इकाई के तौर पर चार देशों का ये क्वॉड या चौकड़ी चीन के साथ का संतुलन बनाने की कोशिश में लगा है, लेकिन भारत ने हिंद-प्रशांत में चीन के संदर्भ में अभी अपनी नीति को स्पष्ट नहीं किया है. फ़िलहाल वो चौकड़ी का हिस्सा है जो क्षेत्र में चीन के आक्रामक रुख़ पर लगाम लगाने के लिए नियमबद्ध व्यवस्था का हिमायती है और साथ ही एक ऐसे समावेशी क्षेत्र की भी बात कर रहा है जो किसी देश के ख़िलाफ़ नहीं है. फिर भी समावेश की सीमाओं को भारत ने परिभाषित नहीं किया है. इससे ये साबित होता है कि हिंद-प्रशांत पर भारत की सोच चीन पर लगाम लगाना नहीं बल्कि चौकड़ी की तरफ़ उसका झुकाव साझा सिद्धांतों की तरफ़ प्रतिबद्धता है. दूसरा अहम् मुद्दा हिंद प्रशांत की धारणा को लेकर भारत की सोच में एक स्वाभाविक विरोधाभास है. हिंद प्रशांत को लेकर भारत की सोच और पूरे क्षेत्र को एक साथ लेकर चलने की उसकी विचारधारा इस क्वॉड यानि चौकड़ी के मिनी लैट्रलिज़्म यानि ऐसी व्यवस्था जहां कूटनीति के ज़रिए बातचीत की जाए के ख़िलाफ़ जाती है. फिर ये सवाल भी उठता है कि समावेश पर भारत के दबाव से कहीं चौकड़ी के मिनी लैट्रलिज़्म पर विपरीत असर तो नहीं पड़ेगा? कुल मिलाकर हिंद-प्रशांत पर भारत के नज़रिए ने इलाक़े में गुटों और साझेदारियों पर छिड़ी बहस में एक और पहलू जोड़ कर उसे कुछ और अनिश्चित कर दिया है. स्पष्टता की इस कमी की वजह से ही चार देशों की ये चौकड़ी कोई सार्थक काम नहीं कर पा रही है.
नई दिल्ली को भारत-प्रशांत को एक ऐसे मंच के तौर पर देखना चाहिए जो भारत प्रशांत के दो समुद्री छोरों को जोड़ता है. नई दिल्ली को इलाक़े में अपनी मौजूदगी मज़बूत करते हुए हिचकिचाहट छोड़ते हुए सुरक्षादाता की भूमिका अपनानी चाहिए. उसे होर्मुज़ के स्ट्रेट तक जाने में जो हिचकिचाहट है, उसे छोड़ कर मलाक्का के स्ट्रेट के पार जाने से गुरेज़ नहीं करना चाहिए. हालांकि, इस क्वॉड के ज़रिए इलाक़े में सुरक्षा व्यवस्था को बेहतर किया जा सकता है, लेकिन ये कितना असरदार साबित होता है ये इस बात पर निर्भर करेगा कि भारत अपने इरादों में कितना स्पष्ट है. उसे अपना रुख़ साफ़ करना होगा कि हिंद-प्रशांत में चौकड़ी के सदस्य हों या फिर चीन दोनों के साथ उसके संबंध क्या होंगे? इस सिलसिले में कुछ सवालों के जवाब बेहद अहम हैं. क्या भारत को चार देशों के समूह और इंडो पैसिफ़िक को अलग अलग देखना चाहिए या सहजीवी के तौर पर? और भारत की हिंद प्रशांत नीति किस हद तक समावेशी है?
विवेक मिश्रा नेताजी इंस्टिट्यूट फ़ॉर एशियन स्टडीज़ में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं जबकि उदयन दास जाधवपुर यूनिवर्सिटी में PhD (इंटरनेशनल रिलेशनस में) कर रहे हैं.
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Vivek Mishra is Deputy Director – Strategic Studies Programme at the Observer Research Foundation. His work focuses on US foreign policy, domestic politics in the US, ...
Read More +Udayan Das is a doctoral candidate in International Relations at the Jadavpur University
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