क़रीब 20 साल के अंतराल के बाद तालिबान एक बार फिर से अफ़ग़ानिस्तान का राजनीतिक प्रधान बन गया है. ये उग्रवादी संगठन, जो एक वक़्त अमेरिका का राष्ट्रीय दुश्मन था, आज अंतर्राष्ट्रीय गौरव का आनंद ले रहा है. इसका एक नेता टाइम मैगज़ीन की 2021 में 100 सबसे प्रभावशाली लोगों की सूची में भी शामिल हो गया है. एक तरफ़ जहां दुनिया भर के देश इस उग्रवादी संगठन को अफ़ग़ानिस्तान की वैध सरकार के रूप में मान्यता देने की जल्दबाज़ी में नहीं है, वहीं दूसरी तरफ़ तालिबान एक ‘अंतरिम’ सरकार स्थापित करने में कामयाब रहा है जो बहुत ज़्यादा हुआ तो अगले कुछ महीनों में इस देश की भू-राजनीतिक (और घरेलू) रास्ता तय कर सकती है. वास्तव में लगातार और प्रभावशाली राजनीतिक और सैन्य प्रतिरोध की पूरी तरह से कमी को देखते हुए 15 अगस्त को काबुल में तालिबान की आसान जीत ने अफ़ग़ानिस्तान में उसकी वापसी को निर्विवादित तथ्य बना दिया है जिसका कि “कोई विकल्प नहीं” है.
दक्षिण एशिया में अफ़ग़ानिस्तान के सबसे बड़े दानकर्ता और उसके भरोसेमंद ‘विकास और सामरिक साझेदार’ के तौर पर भारत का ये कर्तव्य है कि वो अफ़ग़ानिस्तान में बुनियादी ढांचे पर निवेश को सुनिश्चित करे और तालिबान की आज़ादी को संयमित करने में अफ़ग़ानिस्तान की सिविल सोसायटी की मदद करे.
ये सभी बातें भारत जैसे एक देश को कहां ले जाती हैं जो कि सामरिक और वैचारिक कारणों से तालिबान के साथ ख़ास तौर पर दोस्ताना नहीं रहा है? दक्षिण एशिया में अफ़ग़ानिस्तान के सबसे बड़े दानकर्ता और उसके भरोसेमंद ‘विकास और सामरिक साझेदार’ के तौर पर भारत का ये कर्तव्य है कि वो अफ़ग़ानिस्तान में बुनियादी ढांचे पर निवेश को सुनिश्चित करे और तालिबान की आज़ादी को संयमित करने में अफ़ग़ानिस्तान की सिविल सोसायटी की मदद करे.
अफ़ग़ानिस्तान को भारत की मदद
भारत और अफ़ग़ानिस्तान जैसे संप्रभु राष्ट्रों के बीच संबंध 1950 के समय से है जब दोस्ती के समझौते ने दोनों देशों की “सभ्यताओं” वाली साझेदारी को ठोस राजनीतिक आकार दिया. स्वतंत्रता के मामले में भारत से कुछ दशक आगे अफ़ग़ानिस्तान, जिसको 1919 में आज़ादी मिली थी, भारतीय राष्ट्रवाद के संघर्ष को विकसित करने में अहम स्थान रखता है. वैसे तो कुछ लोगों को ये भरोसा करने में हैरानी होगी कि अफ़ग़ानिस्तान एक वक़्त तत्कालीन उपनिवेश भारत के लिए भरोसे का गढ़ था लेकिन सबूत बताते हैं कि इस देश, जिसे आज भारत एक “नज़दीक का पड़ोसी” बताता है, को 1980 तक एक “समान साझेदार” के रूप में देखा जाता था. लेकिन सोवियत संघ के आक्रमण (1979-89), ख़तरनाक गृह युद्ध (1992-96) और आख़िर में अफ़ग़ानिस्तान पर चरमपंथी तालिबान के कब्ज़े (1996-2001) के साथ अफ़ग़ानिस्तान संकट के एक ऐसे दौर से गुज़रा जिससे वो कभी नहीं उबर पाया.
आज अफ़ग़ानिस्तान की अर्थव्यवस्था दुनिया की सबसे छोटी अर्थव्यवस्थाओं में से एक है. इसके अलावा अफ़ग़ानिस्तान अंतर्राष्ट्रीय खैरात के दम पर ख़ुद को बचाए हुए है. ये खैरात 2020 में अफ़ग़ानिस्तान के सकल घरेलू उत्पादन का 42.9 प्रतिशत है. इसी तरह अफ़ग़ानिस्तान की ज़्यादातर आधारभूत संपत्तियां- यहां की संसद से लेकर रिंग रोड तक- भारत जैसे दानकर्ताओं की मदद से बनी हैं. पिछले 20 वर्षों के दौरान भारत ने अफ़ग़ानिस्तान को तीन अरब अमेरिकी डॉलर की सहायता मुहैया कराई है. इस तरह से भारत दुनिया भर के देशों में अफ़ग़ानिस्तान को मदद के मामले में पांचवें पायदान पर है.
अफ़ग़ानिस्तान की ज़्यादातर आधारभूत संपत्तियां- यहां की संसद से लेकर रिंग रोड तक- भारत जैसे दानकर्ताओं की मदद से बनी हैं. पिछले 20 वर्षों के दौरान भारत ने अफ़ग़ानिस्तान को तीन अरब अमेरिकी डॉलर की सहायता मुहैया कराई है. इस तरह से भारत दुनिया भर के देशों में अफ़ग़ानिस्तान को मदद के मामले में पांचवें पायदान पर है.
अपने वित्तीय समर्थन को विकास के चार क्षेत्रों- जिनमें मानवीय सहायता, आधारभूत ढांचे की परियोजनाएं, छोटी और समुदाय आधारित विकास परियोजनाएं और आख़िर में शिक्षा और क्षमता विकास शामिल हैं- की तरफ़ मोड़कर अफ़ग़ानिस्तान में भारत की सहायता मुख्य तौर पर बिना हस्तक्षेप की रही है. ये पश्चिमी देशों की तरह नहीं है जिन्होंने अपने काम-काज के तरीक़ों को इस अनिश्चित देश पर थोपने की कोशिश की है. इस मामले में भारत, जैसा कि इयान हॉल कहते हैं, ख़ासतौर पर सतर्क रहा है कि वो अफ़ग़ानिस्तान में खुलकर राजनीतिक भूमिका अदा नहीं करे और इसकी जगह उसने अफ़ग़ानिस्तान के लोगों की तरफ़ से क़ानून के राज को बढ़ावा देने का रास्ता चुना.
इस उद्देश्य के लिए भारत ने अक्सर अफ़ग़ानिस्तान की संस्थागत क्षमता को मज़बूत करने की कोशिश की है. इसके लिए भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (आईसीसीआर) के ज़रिए जानकारी के आदान-प्रदान और हस्तांतरण को बढ़ावा दिया, राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (एनडीए) जैसे सर्वोत्कृष्ट संस्थानों में प्रशासनिक और रक्षा कर्मियों को प्रशिक्षण दिया गया और बांध, अस्पताल, बिजली ग्रिड समेत दूसरी पहल के रूप में आधारभूत ढांचे का समर्थन मुहैया कराया है. वैसे तो विकास संबंधी ये पेशकश आंशिक रूप से भारत की भू-राजनीतिक मजबूरियों की वजह से की गई, जिनमें अफ़ग़ानिस्तान तक उसकी सीधी पहुंच की कमी शामिल है, लेकिन ये पहल इस युद्ध ग्रस्त देश के पुनर्विकास के लिए कम महत्वपूर्ण नहीं हैं. वास्तव में अफ़ग़ानिस्तान को भारत की मदद के स्वरूप को “परंपरागत दानकर्ताओं के मुक़ाबले ज़रूरत के हिसाब से ज़्यादा फ़ायदेमंद” माना गया है.
दक्षिण एशिया में अफ़ग़ानिस्तान के सबसे बड़े दानकर्ता और उसके भरोसेमंद ‘विकास और सामरिक साझेदार’ के तौर पर भारत का ये कर्तव्य है कि वो अफ़ग़ानिस्तान में बुनियादी ढांचे पर निवेश को सुनिश्चित करे और तालिबान की आज़ादी को संयमित करने में अफ़ग़ानिस्तान की सिविल सोसायटी की मदद करे.
लेकिन हाल की घटनाओं की वजह से काबुल में फिर से तालिबान की सत्ता स्थापित होने के बाद भारत सरकार के पास अफ़ग़ानिस्तान में अपनी आधारभूत ढांचे की संपत्तियों, जिन पर बार-बार उग्रवादी समूहों ने हमला किया है, के लिए चिंतित होने का कारण है. हेरात प्रांत में सलमा डैम पर हमला करने से लेकर भारतीय एमआई-24 अटैक हेलीकॉप्टरों पर कथित कब्ज़े तक तालिबान ने भारत की तरफ़ एक दोस्ताना रुख़ का प्रदर्शन नहीं किया है. वास्तव में तालिबान का वैचारिक झुकाव और पाकिस्तान की सेना और खुफ़िया एजेंसी से उसका सामरिक संबंध उसे भारत के साथ सद्भावना का प्रदर्शन करने से रोकेगा. इसी वजह से, जैसा कि ताज़ा रिपोर्ट संकेत देते हैं, भारत के साथ हिस्सेदारी के मामले में तालिबान कभी नरम तो कभी गरम दिखता है. इस बात की संभावना काफ़ी ज़्यादा है कि तालिबान के अपने हितों के अलावा ये पाकिस्तान के दबाव का नतीजा है. तालिबान को लगता है कि भारत के क्षेत्रीय दुश्मनों जैसे चीन के साथ दोस्ती करने से उसके हित ज़्यादा सधेंगे.
सवाल ये है कि बातचीत करनी चाहिए या नहीं
भारत और तालिबान के बीच ख़राब संबंधों के इतिहास को देखते हुए इस बात की उम्मीद नहीं दिखती कि भारत सरकार तालिबान के आधे-अधूरे भरोसों और दावों के आधार पर उसको गले लगाएगी. इस तरह ये सही है कि भले ही तालिबान ने कश्मीर के मुद्दे पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया हो या तालिबान ने अपना रास्ता ख़ुद बनाना शुरू कर दिया हो जो कि रावलपिंडी में उसके आकाओं की ज़रूरत से मेल नहीं खाता है, लेकिन भारत को इस उग्रवादी समूह से संपर्क स्थापित करने में निश्चित रूप से सतर्कता बरतनी चाहिए क्योंकि तालिबान वैचारिक और दूसरे स्वरूपों में अलग रास्ते पर बना रहेगा.
लेकिन क्या इसका ये मतलब है कि जब तक तालिबान नियमों के आधार पर बर्ताव शुरू नहीं करता है तब तक भारत को दूसरी तरफ़ देखना चाहिए? नहीं, अफ़ग़ानिस्तान के बदलते हालात को उसकी क़िस्मत पर छोड़ देना मूर्खता होगी. ख़ासतौर पर तब, जब इस प्रक्रिया में शामिल दूसरे क्षेत्रीय देशों का रवैया भारत को लेकर दोस्ताना नहीं है. इस तरह भारत को अपने लिए और वृहत अफ़ग़ान राष्ट्र के लिए निश्चित तौर पर इस प्रक्रिया में शामिल होना चाहिए. ये भी नहीं भूलना चाहिए कि अफ़ग़ानिस्तान के लोगों ने अक्सर समर्थन के लिए भारत की तरफ़ देखा है.
दक्षिण एशिया में अफ़ग़ानिस्तान के सबसे बड़े दानकर्ता और उसके भरोसेमंद ‘विकास और सामरिक साझेदार’ के तौर पर भारत का ये कर्तव्य है कि वो अफ़ग़ानिस्तान में बुनियादी ढांचे पर निवेश को सुनिश्चित करे और तालिबान की आज़ादी को संयमित करने में अफ़ग़ानिस्तान की सिविल सोसायटी की मदद करे.
वर्तमान में तालिबान के साथ भारत की भागेदारी दोहा में तालिबान के राजनीतिक दफ़्तर के ज़रिए हो रही है. एक समय भारत ने अस्पष्ट तौर पर जिस “राष्ट्रवादी तालिबान” की बात कही होगी उससे बातचीत की बात करें तो क़तर में भारतीय राजदूत और तालिबान के राजनीतिक दफ़्तर के प्रमुख के बीच पिछले दिनों की मुलाक़ात अफ़ग़ानिस्तान से संबंधों में बचे-खुचे हिस्से को बचाने की कोशिश का हिस्सा है. लेकिन तालिबान के साथ भारत की बातचीत को अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के शासन को वैध राजनीतिक नेतृत्व के रूप में स्वीकार्यता नहीं समझना चाहिए. इसके बदले इसे एक ऐसी सरकार के साथ बातचीत के तौर पर समझना चाहिए जिसके पास लंबे समय के लिए एक देश को चलाने की प्रशासनिक और राजनीतिक क्षमता नहीं है. इस तरह भले ही अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान अभी अमेरिका के ख़िलाफ़ तथाकथित सैन्य जीत की वजह से इसे एक अवसर मान रहा हो लेकिन इस उग्रवादी समूह को आज नहीं तो कल सरकार चलाने से जुड़ी परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है. इससे अफ़ग़ान समाज के भीतर बंटवारा और बढ़ेगा.
अफ़ग़ानिस्तान का ख़ज़ाना खाली होने और आम नागरिकों का विरोध तेज़ होने के साथ लगता है कि तालिबान को ये पता चल गया होगा कि उसका कथित बदला हुआ रूप 21वीं शताब्दी के अफ़ग़ानिस्तान के सामने है जो 90 के दशक के उसके कब्ज़े वाले अफ़ग़ानिस्तान से साफ़ तौर पर अलग है. अपनी सत्ता के लिए ‘अंतरिम’ सरकार जैसे शब्द का इस्तेमाल बताता है कि ये उग्रवादी समूह आने वाले दशक में ज़िम्मेदारी का बोझ उठाने के बदले अल्पकाल में अपना नियंत्रण कायम करना चाहता है. इन ज़मीनी वास्तविकताओं को देखते हुए भारत को तालिबान के साथ बातचीत को लेकर दुविधा में नहीं पड़ना चाहिए. उसे ये नहीं सोचना चाहिए कि इससे भारत के बाक़ी बचे नागरिकों की अफ़ग़ानिस्तान से सुरक्षित वापसी और आधारभूत ढांचे की सुरक्षा की गारंटी के अलावा ज़्यादा कुछ नहीं हासिल होने वाला है. वास्तव में भारत को तालिबान के साथ ज़रूर बातचीत करनी चाहिए क्योंकि अगर वो इस उम्मीद में अफ़ग़ानिस्तान को लेकर अपना दरवाज़ा बंद करता है कि वो ऊपर से कोई बदलाव करेगा तो उसे काफ़ी नुक़सान हो सकता है.
हमें ज़रूर समझना चाहिए कि आज की भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक वास्तविकताएं काफ़ी जटिल और तेज़ रफ़्तार हैं जो व्यापक अफ़ग़ान परिदृश्य की बनावट को बदलने के लिए आई हैं. मिसाल के तौर पर चीन के बढ़ते भू-आर्थिक क़दम उसे अफ़ग़ानिस्तान में ज़्यादा महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने की मंज़ूरी देंगे और इसके लिए चीन को सत्ता में परिवर्तन की बारीकियों के दलदल में धंसने की ज़रूरत भी नहीं है. दूसरी तरफ़ रूस जैसे देश के लिए तालिबान के साथ उसकी मौजूदा बातचीत दीर्घकालीन योजना, जिसके लिए ज़्यादा कुशल राजनयिक सलूक की ज़रूरत पड़ती, की जगह “व्यावहारिक” वास्तविकताओं पर टिकी हुई है. इसका ये मतलब नहीं है कि चीन और रूस के पास व्यापक सामरिक कार्यनीति की कमी है, ये सोच ही ग़लत है. बेशक चीन और रूस दीर्घकालीन दृष्टिकोण, जिसका तब बदलना तय है जब तालिबान के तहत अंतरिम सत्ता स्थायी में बदलती है, उसके ऊपर अपनी सामरिक ज़रूरत को प्राथमिकता दे रहे हैं.
अफ़ग़ानिस्तान की ज़्यादातर आधारभूत संपत्तियां- यहां की संसद से लेकर रिंग रोड तक- भारत जैसे दानकर्ताओं की मदद से बनी हैं. पिछले 20 वर्षों के दौरान भारत ने अफ़ग़ानिस्तान को तीन अरब अमेरिकी डॉलर की सहायता मुहैया कराई है. इस तरह से भारत दुनिया भर के देशों में अफ़ग़ानिस्तान को मदद के मामले में पांचवें पायदान पर है.
इन परिस्थितियों में भारत के लिए महत्वपूर्ण है कि वो अफ़ग़ानिस्तान के बदलते हालात को लेकर ऐसा दृष्टिकोण रखे जो तालिबान की अंतरिम सरकार के अल्पकालिक स्वरूप को लेकर सावधान होने के साथ-साथ उसे महत्वहीन बताकर ख़ारिज भी नहीं करे. इसके लिए भारत को ये सुनिश्चित करना चाहिए कि अफ़ग़ानिस्तान की मौजूदा सरकार का अस्थायी स्वरूप छोटा और अस्थायी बन जाए. ऐसा करने में भारत को तालिबान के साथ बातचीत ज़रूर करनी चाहिए ताकि अफ़ग़ान समाज के भीतर और ज़्यादा विस्फोट को रोका जा सके. इसके लिए उसे उन विचारों और आदर्शों की चारदीवारी के रूप में खड़ा होना होगा जिन पर भरोसा करके अफ़ग़ान नागरिकों की एक पूरी पीढ़ी बड़ी हुई है.
चीन और रूस के पास व्यापक सामरिक कार्यनीति की कमी है, ये सोच ही ग़लत है. बेशक चीन और रूस दीर्घकालीन दृष्टिकोण, जिसका तब बदलना तय है जब तालिबान के तहत अंतरिम सत्ता स्थायी में बदलती है, उसके ऊपर अपनी सामरिक ज़रूरत को प्राथमिकता दे रहे हैं.
समय की ज़रूरत है कि मानवीय संकट, जो अंतर्राष्ट्रीय ध्यान खींच रही है, का पूरी सावधानी के साथ समाधान किया जाए. अफ़ग़ानिस्तान के भीतर 40 लाख से ज़्यादा विस्थापित नागरिक अलग-अलग हिस्सों में इकट्ठा हो रहे हैं. ऐसे में भारत को संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (यूएनएचसीआर) और अंतर्राष्ट्रीय रेड क्रॉस समिति (आईसीआरसी) जैसे संगठनों को अपना समर्थन बढ़ाने पर विचार करना चाहिए. ये संगठन विस्थापित अफ़ग़ानी नागरिकों के लिए जीवन की मूलभूत ज़रूरतों, जिनमें खाना और (अस्थायी) पनाह शामिल हैं, को पूरा करने में मदद करने की कोशिश कर रहे हैं. इसके अलावा भारत शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) और दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ (सार्क) जैसे क्षेत्रीय संगठनों के मंच के ज़रिए कट्टरपंथ और आतंकवाद जैसे मुद्दों के अलावा अफ़ग़ानिस्तान में मानवीय संकट पर चर्चा और कार्रवाई करने के लिए कोशिश भी कर सकता है. इस तरह मौजूदा तालिबान सत्ता के तहत अफ़ग़ान नागरिकों की तरफ़ मदद का हाथ बढ़ाना भले ही भारत के लिए मुश्किल होने के साथ-साथ असंभव भी हो लेकिन वो अपने मौजूदा आधारभूत ढांचों जैसे काबुल में इंदिरा गांधी चिल्ड्रन्स हॉस्पिटल के ज़रिए युद्ध से प्रभावित इस देश के संकट काल में बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराने वाली जगह के तौर पर इस्तेमाल कर सकता है.
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