Published on Mar 06, 2024 Updated 0 Hours ago

भारत के LGBTQ+ समुदाय की आर्थिक संभावनाओं का इस्तेमाल करने से भारत प्रतिभाओं के तमाम स्रोतों के ज़रिए अपनी आर्थिक तरक़्क़ी को गति दे सकेगा. इससे इनोवेशन को बढ़ावा मिलेगा और टिकाऊ आर्थिक विकास को मज़बूती मिलेगी.

भारत की ‘पिंक' इकॉनमी!

पिंक इकॉनमीजिसेपिंक मार्केटऔरइंद्रधनुषी अर्थव्यवस्थाभी कहा जाता है, का मतलब सामान्य औरतों और मर्दों से अलग इंसानों के आर्थिक प्रभाव से होता है. 2011 की जनगणना मेंअन्य वर्गके तहत इस आबादी के एक मामूली हिस्से की मौजूदगी को ही स्वीकार किया गया था. लेकिन, किनसे स्केल पर आधारित अनुमान बताते हैं कि भारत में LGBTQ+ समुदाय के 13.5 करोड़ लोग रहते हैं. ये देश की कुल 1.4 अरब आबादी के लगभग दस फ़ीसद के बराबर है. आबादी में इस समुदाय की इतनी बड़ी हिस्सेदारी से पता चलता है कि LGBTQ+ का भारत की अर्थव्यवस्था में काफ़ी प्रभाव है. ये केवल उनके उत्पादन और खपत की संभावनाओं से होता है, बल्कि, इससे जुड़े बाज़ार के अन्य पहलुओं के असर से भी होता है.

आबादी में इस समुदाय की इतनी बड़ी हिस्सेदारी से पता चलता है कि LGBTQ+ का भारत की अर्थव्यवस्था में काफ़ी प्रभाव है. ये केवल उनके उत्पादन और खपत की संभावनाओं से होता है, बल्कि, इससे जुड़े बाज़ार के अन्य पहलुओं के असर से भी होता है

पिंक इकॉनमी के बारे में अंदाज़ा लगाया गया है कि भारत में इस समुदाय की ख़रीदने की क्षमता 168 अरब डॉलर (सांकेतिक GDP के आधार पर) है. ऐसे में पिंक अर्थव्यवस्था का उभार देश की आर्थिक परिचर्चाओं में रहे एक बड़े बदलाव की तरफ़ इशारा करता है. ऐसे में LGBTQ+ समुदाय, सामाजिक नियमों और उनके अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभाव के बीच के संबंधों का बारीक़ विश्लेषण करना आवश्यक हो जाता है.

भारत की स्थिति

भारत में पिंक इकॉनमी का उभार, आबादी एक एक ऐसे बड़े वर्ग से ताल्लुक़ रखता है, जो देश की अर्थव्यवस्था पर काफ़ी गहरा प्रभाव डाल सकती है. हालांकि, इस अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति LGBTQ+ समुदाय के प्रति बड़े पैमाने पर होने वाले भेदभाव लांछनों की शिकार है. ये बात समलैंगिकों के अर्थशास्त्र के सिद्धांतों से मेल खाता है, जिसमें ये रेखांकित किया गया है कि सामाजिक बर्ताव किस तरह आर्थिक परिणामों को तय करते हैं. सबूत ये इशारा करते हैं कि समाज के भीतर कुछ ख़ास तबक़ों के साथ भेदभाव और GDP में गिरावट के बीच सीधा संबंध होता है. इससे पता चलता है कि कलंक और भेदभाव की अर्थव्यवस्था को भारी क़ीमत चुकानी पड़ती है.

भारत में LGBTQ+ समुदाय की स्थिति की पड़ताल करने से पता चलता है कि उनकी ज़िंदगी के तमाम पहलुओं के दौरान उनके साथ भयंकर और चिंताजनक भेदभाव किया जाता है. घर में उनका शोषण होता है. समुदाय से उनको बहिष्कृत कर दिया जाता है. ऐसे में इस समुदाय के लोगों को तमाम तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिससे ये स्कूल की पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं, जिससे इन्हें औपचारिक शिक्षा बहुत कम ही हासिल हो पाती है. इस शैक्षणिक भेदभाव की वजह से उनके लिए रोज़गार के मौक़े कम हो जाते हैं, और फिर वो भेदभाव के ऐसे दुष्चक्र के शिकार बनते रहते हैं, जो केवल उन्हें निजी तौर पर प्रभावित करता है, बल्कि आगे चलकर देश की मानवीय पूंजी के आधार और आर्थिक विकास के चक्र पर भी इसका बुरा असर होता है.

इस समुदाय के प्रति भय की क़ीमत भारत को हर साल अपनी GDP में 0.1 से लेकर 1.7 प्रतिशत तक के नुक़सान के तौर पर चुकानी पड़ती है, जिसका मतलब है कि LGBTQ+ समुदाय से भेदभाव से देश को 112 अरब से लेकर 1.7 ख़रब रुपयों तक का नुक़सान होता है. इसकी प्रमुख चुनौती की जड़ समाज में इस तबक़े को लेकर ग़लत सोच और भेदभाव में छुपी हुई है. ये भेदभाव श्रमिकों की उपलब्धता में कमी और घटी हुई उत्पादकता के तौर पर अर्थव्यवस्था पर असर डालता है, जिससे आगे चलकर आर्थिक उत्पादन की क्षति होती है, अवसाद बढ़ता है और LGBTQ+ समुदाय के बीच आत्महत्या की घटनाओं में इज़ाफ़ा होता है, और अंत में इसका परिणाम सामाजिक आर्थिक झटकों के तौर पर सामने आता है. इसलिए, पिंक इकॉनमी के तमाम पहलुओं को सामाजिक व्यवहार के संदर्भ में समझना बेहद महत्वपूर्ण है. इसके बाद ही एक समावेशी आर्थिक विकास के लिए ज़ोरदार प्रयास किए जा सकेंगे- जो टिकाऊ विकास की एक आवश्यक शर्त है.

 समाज के भीतर कुछ ख़ास तबक़ों के साथ भेदभाव और GDP में गिरावट के बीच सीधा संबंध होता है. इससे पता चलता है कि कलंक और भेदभाव की अर्थव्यवस्था को भारी क़ीमत चुकानी पड़ती है.

समावेशीकरण और आर्थिक प्रगति के बीच संबंध एकदम साफ़ और महत्वपूर्ण है. 2017 में संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार कार्यालय की रिपोर्ट में बहुत महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश सामिल किए गए थे, जो कॉरपोरेट क्षेत्र में LGBTQ+ समुदाय को शामिल करने का आधार बने हैं. हालांकि, बड़ी कंपनियां धीरे धीरे LGBTQ+ समुदाय को रोज़गार देने को केवल एक सामाजिक ज़िम्मेदारी बल्कि एक कारोबारी रणनीति के तौर पर भी लागू कर रहे हैं. बहुत सी बड़ी कंपनियों ने ऐसे समावेशी कारोबारी व्यवहार को अपनाया है, जो LGBTQ+समुदायों के लिए मददगार साबित हुए हैं. नीचे की टेबल में इनमें से कुछ के बारे में जानकारी दी गई है.

Table: LGBTQ+ के समावेश की कुछ पहलें

रिपोर्ट

कॉरपोरेट

मुख्य निष्कर्ष

सुझाव

भारत के कामगार क्षेत्र में ट्रांस को शामिल करने का घोषणा पत्र

गोदरेज

LGBTQ+ को लेकर नीतियों में वैश्विक मानकों का पालन करना 1) वैश्विक प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने, 2) तमाम प्रतिभाओं को आकर्षित करने, 3) ब्रांड की छवि निर्मित करने, और 4) बाज़ार में नए अवसर और राजस्व के नए स्रोत बनाने के लिए ज़रूरी है

o   बिना भेदभाव वाले कामगार स्थल की नीति-o  एचआर का समावेशी नज़रिया o  जागरूकता के कार्यक्रम o   स्वास्थ्य बीमा और संबंधित लाभ

भारत में GBTQ+ समुदाय के लिए समावेशी कामगार स्थलों का निर्माण, रोज़गार देने वालों के लिए एक रिसोर्स गाइड

सामुदायिक और कारोबारी प्रायोजक गोल्डमैन सैक्स, आईबीएम और गूगल हैं

o   LGBTQ समुदाय के सदस्यों की छुपी हुई आर्थिक संभावनाओं के द्वार खोलकर उनको कामगारों में शामिल करना

o  LBGTQ समुदाय के लिए समावेशी माहौल बनाने से कर्मचारियों के साथ साथ ग्राहकों के लिए भी आकर्षक स्थिति बनेगी

o   दफ़्तरों में परेशान करने से रोकने वाली नीतियां o  LGBT कर्मचारी के लिए सहयोगी एचआर नीतियां o  LGBT कर्मचारी की मदद करने वाला नेटवर्कख़ास LGBT-वाले लाभ

 o LGBT की सम्मानजनक मार्केटिंग

भारत में कर्मचारियों के सर्वेक्षण में लैंगिक पहचान और सेक्सुअल ओरिएंटेशन को वैकल्पिक डेटा बिंदु के तौर पर शामिल करना

दि इकॉनमिक ऐंड बिज़नेस केस

ओपेन फॉर बिज़नेस के प्रायोजक एक्सेंचर, ब्रुनस्विक और थॉमस रॉयटर हैं

LGBT+ को बढ़ावा देकर उनके समावेश के आर्थिक तर्कों का इन बातों पर सकारात्मक असर पड़ेगा:

o   आर्थिक प्रदर्शन o   कारोबारी प्रदर्शन o   व्यक्तिगत कार्य का प्रदर्शन

o  LGBTQ+ समूहों के साथ साझेदारी

 मौजूदा क़ानूनी दिक़्क़तों से निपटने में मदद

o LGBTQ+ समुदाय को लेकर स्थानीय नीतियों में बदलाव से निपटने के लिए वकील मुहैया कराना

डेलॉय ग्लोबल 2023LGBTQ+ का काम में समावेश

डेलॉय

o   LGBTQ+ समुदाय के समावेश से कार्यालयों में रिश्तों पर असर पड़ता है

अपने कामगारों में LGBTQ+ समुदाय के अनुभवों को बेहतर बनाने के लिए संगठन के अवसरों का पता लगाया जाए

LGBT+ कर्मचारियों के अलग अलग अनुभवों की पड़ताल और उनकी चुनौतियों को दूर करना, अन्य वर्गों के साथ संवाद के पहलुओं को स्वीकार करना

 

एक पिंक समावेशी भविष्य

इप्सोस द्वारा 2021 में किए गए 27 बाज़ारों के सर्वेक्षण में 16 से 74 वर्ष आयु वाले  19 हज़ार 69 वयस्कों का इंटरव्यू किया गया था. इस सर्वेक्षण में पाया गया था कि कॉरपोरेट वर्ग द्वारा समानता को बढ़ावा देने, LGBT समुदायों द्वारा अपने सेक्सुअल प्रेफरेंस को खुलकर स्वीकार करने और मीडिया में उनका प्रतिनिधित्व बढ़ाने को लेकर बड़े पैमाने पर समर्थन मिल रहा था. तमाम देशों में ट्रांसजेंडर एथलीटों के अपनी लैंगिक पहचान के मुताबिक़ खुलापन अपनाने और मुक़ाबलों में शामिल होने को लेकर भी तमाम तरह की राय ज़ाहिर की गई थी, जो नीचे के Figure से ज़ाहिर होती है.

Figure 1: LGBT को समानता और इज़हार को लेकर राय

स्रोत: IPSOS, 2021 LGBT+ Pride Global Survey

भारत की बात करें तो समावेशी कॉर्पोरेट संस्कृति के मामले में बेंगलुरु सबसे आगे है. देश की GDP में 10 प्रतिशत के योगदान से आगे बढ़कर बेंगलुरु की पहचान एक LGBTQ+ के प्रति दोस्ताना शहर के रूप में भी है, जहां बहुराष्ट्रीय कंपनियां शहर के समावेशी माहौल को कारोबार के लिए मुफ़ीद समझती हैं. इससे वो इस समुदाय की कामयाबी और आमदनी में इज़ाफ़े में भी योगदान दे पाती हैं. राष्ट्रीय स्तर पर ये क्रांतिकारी बदलाव लाने के लिए एक व्यापक सामाजिक, आर्थिक और क़ानूनी रणनीति अपनाने से भारत को पिंक इकॉनमी की संभावनाओं का लाभ उठा पाने में मदद मिलेगी. इसके लिए निम्नलिखित क्षेत्रों पर विशेष रूप से ध्यान देने की ज़रूरत है:

-रिसर्च एवं विकास: भारत में LGBTQ+ समुदाय के अनुभवों, चुनौतियों और ज़रूरतों का पता लगाने और गहराई से समझने के लिए एक व्यापक रिसर्च की शुरुआत की जाए. डेटा पर आधारित इस नज़रिए से इस समुदाय की विशेष चुनौतियों से निपटने और उनसे समावेश के लिए लक्ष्य आधारित नीतियों का विकास हो सकेगा.

-काम-काज की जगह में भेदभाव करने वाली नीतियां: भारत में निजी क्षेत्र के कर्मचारियों के नियमन के लिए भेदभाव की रोकथाम के स्पष्ट नियम नहीं हैं. वैसे तो बहुत सी कंपनियों ने समावेश वाली विशेष नीतियों का विकास करना शुरू किया है. लेकिन, इसमें जवाबदेही तय करने वाली कोई व्यवस्था नहीं है, और इस कमी को दूर करने की ज़रूरत है.

-समावेशी शिक्षा और जागरूकता: LGBTQ+ के पाठ्यक्रम को शामिल करने और शिक्षा देने वालों को समावेशी सोच की ट्रेनिंग देने से पढ़ने का समावेशी माहौल तैयार होगा. सामाजिक नज़रिए और बर्ताव में बदलाव लाने के लिए शिक्षण संस्थान प्रमुख बिंदु बन रहे हैं.

-आर्थिक सशक्तिकरण की पहलें: विकास के ऐसे कार्यक्रम बनाने की ज़रूरत है, जो LGBTQ+ समुदाय के कौशल विकास या नए हुनर सीखने का लक्ष्य हासिल करें. इसके अलावा सहायता और क़र्ज़ के लिए इस समुदाय के बीच उद्यमिता की पहलों को भी बढ़ावा दिया जाए.

आख़िर में भारत में पिंक इकॉनमी अपनी संभावनाएं तलाशने के लिए सहयोगी प्रयास की मांग करती है. भारत के LGBTQ+ समुदाय की आर्थिक संभावनाओं के द्वार खोलने से प्रतिभाओं के विविध स्रोतों का इस्तेमाल हो सकेगा, इनोवेशन को बढ़ावा मिलेगा, जिससे भारत की आर्थिक प्रगति को बढ़ावा मिलेगा और टिकाऊ आर्थिक विकास को मज़बूती दी जा सकेगी.

 

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