Author : Sushant Sareen

Published on Jun 16, 2022 Updated 29 Days ago

भारत को अपनी अफ़ग़ान नीति पर ब्रेक नहीं लगाना चाहिए बल्कि अफ़ग़ानिस्तान द्वारा पेश किए गए महत्वपूर्ण रणनीतिक और सुरक्षा अवसरों का लाभ उठाना चाहिए.

तालिबान तक भारत की पहुंच: बातचीत में शामिल हों, समर्थन न करें

विदेश मंत्रालय (एमईए) द्वारा यह घोषणा करना कि अधिकारियों की एक टीम अफ़ग़ानिस्तान में डिलीवरी ऑपरेशन की निगरानी के लिए काबुल की यात्रा पर जाएगी और वहां तालिबान नेताओं के साथ अफ़ग़ानिस्तान को दी जा रही भारतीय मानवीय सहायता के विषय पर चर्चा करेगी, इसे किसी आश्चर्य के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. पिछले कुछ समय से यह कयास लगाए जा रहे थे कि भारत तालिबान शासन तक अपनी पहुंच बनाने पर विचार कर रहा है. सूचना तो यहां तक थीं कि भारतीय अधिकारियों की एक टीम ने भारतीय दूतावास को फिर से खोलने की संभावना का पता लगाने के लिए फरवरी में काबुल का दौरा किया था, हालांकि बहुत ही गुपचुप तरीक़े से इसे अंजाम दिया गया और बहुत ही सीमित उद्देश्य के लिए इसे पूरा किया गया था. हालांकि भारत और तालिबान के बीच संपर्क की शुरुआत तो अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के कब्ज़े से बहुत पहले से ही हो चुकी थी लेकिन तालिबान शासन के आग्रह पर सार्वजनिक रूप से तालिबान द्वारा काबुल की सत्ता पर कब्ज़ा करने के दो सप्ताह बाद भारतीय अधिकारियों और तालिबान के बीच पहली आधिकारिक बैठक दोहा में हुई थी. तालिबान द्वारा नियमित रूप से यह संदेश भेजे जा रहे थे कि वह भारत के साथ संबंध बहाल करने को इच्छुक है. तालिबान के प्रवक्ता ज़बीउल्लाह मुज़ाहिद से लेकर विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्ताकी और अनस हक्क़ानी से लेकर शेर अब्बास स्टानिकजई तक, भारत को सुरक्षा का भरोसा देने को तैयार थे, अगर भारत अफ़ग़ानिस्तान में अपनी परियोजनाओं की शुरुआत करने को इच्छुक रहता है, और तो और भारत के साथ तालिबान घनिष्ठ सांस्कृतिक, आर्थिक और यहां तक कि सुरक्षा संबंधों को बहाल करने को लेकर भी उत्साहित था.

तालिबान द्वारा नियमित रूप से यह संदेश भेजे जा रहे थे कि वह भारत के साथ संबंध बहाल करने को इच्छुक है. तालिबान के प्रवक्ता ज़बीउल्लाह मुज़ाहिद से लेकर विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्ताकी और अनस हक्क़ानी से लेकर शेर अब्बास स्टानिकजई तक, भारत को सुरक्षा का भरोसा देने को तैयार थे 

अफ़ग़ानिस्तान को मानवीय सहायता के रूप में 50,000 टन गेहूं, दवाएं और टीके भेजने के भारत सरकार के निर्णय के साथ इस ओर पहली बड़ी शुरुआत हुई. पिछले साल के अंत में भारत सरकार को अफ़ग़ानिस्तान में भेजे गए सहायता सामग्री के वितरण की निगरानी के लिए एक प्रतिनिधिमंडल भेजने और काबुल में तालिबान नेतृत्व से जुड़ने के मौक़े को इस्तेमाल करने के सुझाव दिए गए थे. ऐसे में यह प्रस्तावित दौरा अधिकारियों को वहां की ज़मीनी स्थिति से रूबरू होने का मौक़ा प्रदान कर सकता था, जो आगे की कार्रवाई तय करने में उपयोगी साबित होता. ख़ास कर यह देखते हुए कि कई दूसरे देश काबुल में अपना प्रतिनिधिमंडल भेज रहे थे, ऐसे में कोई उचित कारण नहीं था कि भारत ऐसे क्षेत्र से दूर रहे जहां से उसके महत्वपूर्ण सुरक्षा और रणनीतिक हित जुड़े हों.

हालांकि तब भारत ने उस अवसर का फायदा उठाने में ख़ास दिलचस्पी नहीं दिखाई जो ख़ुद सामने चल कर आई थी. भारत ने निकट भविष्य के लिए अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान शासन की वास्तविकता को पहचान लिया था और इससे ख़ुद को समायोजित करने में जुटा था और यह तब ज़्यादा साफ हो गया जब भारतीय अधिकारियों ने घोषणा की कि भारत अमीरात के लिए किसी भी विरोध को हवा देने के पक्ष में नहीं है. हालांकि भारत अन्तरराष्ट्रीय  स्तर पर बनी सहमति से इतर अमीरात को मान्यता देने के मूड में नहीं था लेकिन पूरी तरह भारत तालिबान से संबंध बहाली की गुंजाइश के ख़िलाफ़ भी नहीं था. बावजूद इसके, भारत वेट एंड वाच की नीति पर चलता रहा क्योंकि भारत देखना चाहता था कि क्या तालिबान 2.0 मूल तालिबान का ही एक अद्यतन संस्करण है या नहीं. इतना ही नहीं, भारत यह भी समझना चाहता था कि तालिबान और पाकिस्तान के बीच रिश्ते कैसे होंगे और बाकी दुनिया अफ़ग़ानिस्तान के अंदर की घटनाओं पर किस तरह प्रतिक्रिया दे रही थी, और आतंकवाद से लेकर महिलाओं, अल्पसंख्यकों और राजनीतिक विरोधियों को लेकर तालिबान की नीतियां क्या थी. इसके साथ ही तब शायद दिल्ली में सरकार की ओर से इसका राजनीतिक और वैचारिक प्रतिरोध भी हुआ था. आख़िरकार भारत के ख़िलाफ़ आतंक को प्रश्रय देने वाले इस्लामी आतंकवादी संगठनों के ख़िलाफ़ सख़्त रूख़ अपनाना और उसके साथ ही तालिबान के साथ व्यापार करने की नीति में असंगति बेहद साफ थी. हालांकि, तब कूटनीति अक्सर आपको ऐसी परिस्थिति में मदद करती है जब चीज़ें आपको अच्छी नहीं लगती हैं लेकिन विकल्प ना होने की वज़ह से फिर भी आपको उसे करने के लिए मज़बूर होना पड़ता है.

1990 के दशक में पाकिस्तान तब उतना बिखरा नहीं हुआ था जितना वह आज है. इसका मतलब यह हुआ कि सुरक्षा सहायता के अलावा पाकिस्तान तब तालिबान की वित्तीय और आर्थिक मदद करने में भी सक्षम था. आज पाकिस्तान ख़ुद के अस्तित्व बचाए रहने के लिए संघर्ष कर रहा है 

ऐसा नहीं है कि भारत को इस बारे में कोई भ्रम है कि तालिबान क्या है और वे किसका प्रतिनिधित्व करते हैं. ना ही भारत तालिबान से बदलाव की उम्मीद करता है. तालिबान शासन के अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता में नौ महीनों के अनुभव यह किसी को और हर किसी को बताने को काफी है कि उनके चरित्र में कोई बदलाव नहीं हुआ है. अपने मूल स्वरूप में तालिबान एक वैचारिक रूप से संचालित आंदोलन है, जो बदलाव या किसी भी प्रकार के विकास में असमर्थ दिखता है. आसान शब्दों में कहें तो, अगर तालिबान बदल गया तो वे तालिबान नहीं रहेंगे. उनकी वैचारिक कट्टरता का अर्थ यह भी है कि वे अल-कायदा, तहरीक़-ए-तालिबान पाकिस्तान, जमात अंसारुल्लाह और जैश-ए-मोहम्मद जैसे अन्य आतंकवादी समूहों के साथ अपने संबंध नहीं तोड़ने जा रहे हैं. इसके बावज़ूद, अगर भारत तालिबान के साथ संबंध बढ़ाने की संभावनाएं तलाश रहा है और शायद काबुल में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने पर विचार कर रहा है तो यह केवल विकल्पों के विस्तार के लिए ही है.

क्या पाकिस्तान अब भी पांव खींच रहा है ?

अगस्त 2021 में तालिबान के सत्ता पर काबिज़ होने के बाद, भारत को कैसे एक गंभीर रणनीतिक झटका लगा और आने वाले लंबे समय तक अफ़ग़ानिस्तान में उसकी कोई भूमिका होगी या नहीं, इसे लेकर निराशा के परिदृश्यों में कोई कमी नहीं थी. हालांकि, तब भी यह बिल्कुल स्पष्ट था कि अफ़ग़ानिस्तान में जारी खेल में भारत की वापसी में कुछ ही समय बाक़ी था. इसके कारण बेहद आसान थे : साल 2020 में दुनिया 1990 के दशक की तुलना में काफी अलग थी जब पाकिस्तान ही अफ़ग़ानिस्तान के ज़्यादातर मामलों में नेतृत्व की भूमिका में था. आज भी अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान की भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है लेकिन तालिबान पर अब उसका प्रभाव और नियंत्रण ठीक वैसा नहीं है जैसा एक चौथाई सदी पहले हुआ करता था.

तालिबान भी बदल चुका है – वैचारिक रूप से नहीं बल्कि संगठनात्मक स्वरूप में. तालिबान में अब कबिलाई, क्षेत्रीय, राजनीतिक और यहां तक कि नीति-आधारित विभाजन देखा जा सकता है जो 1990 के दशक में इतने स्पष्ट तौर पर नहीं दिखाई देती थी.

1990 के दशक में पाकिस्तान तब उतना बिखरा नहीं हुआ था जितना वह आज है. इसका मतलब यह हुआ कि सुरक्षा सहायता के अलावा पाकिस्तान तब तालिबान की वित्तीय और आर्थिक मदद करने में भी सक्षम था. आज पाकिस्तान ख़ुद के अस्तित्व बचाए रहने के लिए संघर्ष कर रहा है और उसके पास तालिबान को कोई सार्थक मदद मुहैया कराने के लिए आर्थिक ताक़त नहीं बची है. यहां तक कि कूटनीतिक रूप से भी पाकिस्तान अंतर्राष्ट्रीय मामलों में 1990 के दशक के मुक़ाबले आज कहीं प्रासंगिक नहीं दिखता है. तब यह बाकी दुनिया की परवाह किए बिना तालिबान शासन को अपने दम खम पर पूर्ण राजनयिक मान्यता प्रदान करने में सक्षम था. पाकिस्तान ने तब मध्य पूर्व देशों में अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात से तालिबान को मान्यता भी दिला दी थी. आज पाकिस्तान के पास वो कूटनीतिक स्थान नहीं है जहां वह ख़ुद से तालिबान को मान्यता दे सके, इसलिए अमीरात को मान्यता दिलाने के लिए पाकिस्तान किसी दूसरे देश से पैरवी कर रहा है ताकि वह भी ऐसा ही कर सके. तालिबान इसे बहुत क़रीब से समझ रहा है और पाकिस्तान पर अत्यधिक निर्भर होने की सीमाओं को भी महसूस कर रहा है. 1990 के दशक के मध्य में कोई टीटीपी जैसा संगठन नहीं था जिसने पाकिस्तान के अंदर कहर बरपाया था ; तब अल-क़ायदा एक नया उभरता हुआ संगठन था; और आईएसआईएस कहीं भी क्षितिज पर मौज़ूग नहीं था. आज टीटीपी पाकिस्तान के लिए एक बहुत गंभीर ख़तरा बन चुका है, अल क़ायदा भी हरक़त में आ रहा है; आईएसआईएस का स्थानीय संस्करण – आईएसकेपी – तालिबान और पाकिस्तान दोनों के लिए एक गंभीर ख़तरा बन चुका है. दूसरे शब्दों में, तालिबान को प्रभावित करने की पाकिस्तान की क्षमता उसकी अपनी आर्थिक, कूटनीतिक और सुरक्षा चुनौतियों के लिहाज़ से काफी सीमित हो चुकी है.

तालिबान 2.0

तालिबान भी बदल चुका है – वैचारिक रूप से नहीं बल्कि संगठनात्मक स्वरूप में. तालिबान में अब कबिलाई, क्षेत्रीय, राजनीतिक और यहां तक कि नीति-आधारित (व्यावहारिक और कट्टरपंथियों के बीच) विभाजन देखा जा सकता है जो 1990 के दशक में इतने स्पष्ट तौर पर नहीं दिखाई देती थी. फिलहाल के लिए तो तालिबान के विभिन्न गुटों के बीच की तनातनी से आंतरिक संघर्ष के और बढ़ने के कोई संकेत नहीं नज़र आ रहे हैं. हालांकि यह भारत के लिए किसी तरह का मौक़ा पैदा नहीं करता है, ख़ास तौर पर तब जबकि इनमें से कुछ गुट पाकिस्तान के प्रति बिल्कुल वफादार नहीं हैं, और जिस पाकिस्तान ने कई तालिबान नेताओं के साथ बहुत ख़राब व्यवहार किया, उन्हें धमकाया, उन्हें क़ैद किया और उन्हें झुकने के लिए ब्लैकमेल तक किया. ऐसे में भारत के साथ संबंध विकसित करने से उन्हें पाकिस्तान पर हावी होने का मौका मिल सकता है. यह खेल ऐसा है जिसमें जितना अधिक पाकिस्तान असरदार बनने की कोशिश करेगा उतना ही ज़्यादा अफ़ग़ानिस्तान भारत के प्रति आकर्षित होगा.

हालांकि तालिबान यह जानता है कि भारत का कार्ड केवल एक सीमा तक ही कारगर हो सकता है. भारत की तरह ही जो देश सॉफ्ट पावर पर ज़्यादा निर्भर हैं, तालिबान जानता है कि पाकिस्तान को नियंत्रण में रखने के लिए उन्हें हार्ड पावर इस्तेमाल करने की ज़रूरत है. शायद यही कारण है कि पाकिस्तान से नज़दीकी रखने वाले गुट – हक्क़ानी नेटवर्क – ने भी सीमा निर्धारित कर दी है, जिसके आधार पर वो पाकिस्तान का दांव खेल सके और भविष्य में ऐसा कर सके. तालिबान जिस तरह से टीटीपी और पाकिस्तानी अधिकारियों के बीच वार्ता को अंजाम देने में लगा है उससे यह स्पष्ट हो जाता है. अब जबकि तालिबान, टीटीपी-पाकिस्तान वार्ता को अंजाम देने में जुटा है वहीं पाकिस्तान पर टीटीपी को समायोजित करने का दबाव है. और पाकिस्तान की दुर्दशा यह है कि अगर वार्ता सफल होती है तो इसका अर्थ होगा टीटीपी को स्थान देना; दूसरी ओर, अगर वार्ता विफल हो जाती है तो टीटीपी फिर से युद्ध का रूख़ अख़्तियार कर लेगा जो पाकिस्तान में अस्तित्व के संकट को बढ़ा देगा. और यह केवल टीटीपी नहीं है जिसका इस्तेमाल तालिबान अपनी परिस्थिति का फायदा उठाने के लिए कर रहा है. अगर परिस्थितियां और ख़राब होती हैं तो तालिबान को बलूच विद्रोहियों और यहां तक कि पाकिस्तान के ख़िलाफ़ अल-क़ायदा जैसे समूहों का इस्तेमाल करने से भी ग़ुरेज़ नहीं होगा.

साथ जोड़ें, अलग करें, या विरोध करें

जैसी कि आज परिस्थियां हैं, मोटे तौर पर भारत के लिए वही विकल्प उपलब्ध हैं जो अन्य देशों के लिए हैं. अमेरिकियों ने इन्हें तीन शब्दों में अभिव्यक्त किया है : साथ जोड़ें, अलग करें या विरोध करें. अमेरिकी अधिकारियों का कहना है कि वे पहले दो विकल्पों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं और तीसरा विकल्प फिलहाल उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं है. भारत ने अब तक सिर्फ तालिबान को अलग थलग रखने के विकल्प पर ही ध्यान केंद्रित किया है. हालांकि एक सीमा से आगे यह विकल्प नुक़सानदेह साबित हो सकता है, ख़ासकर तब जबकि कई अन्य देश अब तालिबान को अपने साथ ‘जोड़ना’ शुरू कर चुके हैं.

आख़िरी चीज़ जो भारत को करनी चाहिए वह नए मित्र बनाने के लिए पुराने दोस्तों को छोड़ना है. अफ़ग़ानिस्तान में अपनी भागीदारी बढ़ाने के रूप में, भारत ना केवल अपने दूतावास, बल्कि अपने चार वाणिज्य दूतावासों को भी फिर से खोल सकता है.

हालांकि यह विरोधाभासी लग सकता है कि ज़्यादातर देश एक ही समय में तालिबान को साथ जोड़ने और उसे अलग-थलग करने की नीति अपना रहे हैं. वे तालिबान के साथ बातचीत कर उसे जोड़ रहे हैं, मानवीय मदद मुहैया करा रहे हैं, और यहां तक कि कुछ आर्थिक सहायता भी प्रदान कर रहे हैं, और अफ़ग़ानिस्तान में अपनी परियोजनाओं को फिर से शुरू कर रहे हैं और तालिबान को मानवाधिकारों, महिलाओं और अल्पसंख्यक अधिकारों पर अपनी कुछ प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं, साथ ही उन अफ़ग़ान नागरिकों के लिए सुरक्षित मार्ग की मांग कर रहे हैं जो देश छोड़ना चाहते हैं. साथ ही वे तालिबान को औपचारिक राजनयिक मान्यता देने पर रोक लगाकर, तालिबान शासन को मदद और सहायता प्रदान करके और अन्तरराष्ट्रीय  वित्तीय प्रणाली तक उनकी पहुंच सुनिश्चित कर, तालिबान को अलग-थलग कर रहे हैं.

ऐेसे में भारतीय नीति में कुछ बदलाव के साथ तीनों विकल्पों को शामिल किया जाना चाहिए. जहां तक भारत के लिए तालिबान के साथ जुड़ने का मामला है, भारत को अपने पुराने दोस्तों, जो ज़्यादातर निर्वासन में हैं, उन तक पहुंच बनाना चाहिए. एक ऐसे देश के रूप में जो अफ़ग़ानिस्तान में स्थिरता के पक्ष में है और वहां एक समावेशी सरकार बनाने पर जोर दे रहा है, भारत को निर्वासितों के साथ अपने संपर्कों का इस्तेमाल कर देश में सुलह की कोशिश करनी चाहिए. आख़िरी चीज़ जो भारत को करनी चाहिए वह नए मित्र बनाने के लिए पुराने दोस्तों को छोड़ना है. अफ़ग़ानिस्तान में अपनी भागीदारी बढ़ाने के रूप में, भारत ना केवल अपने दूतावास, बल्कि अपने चार वाणिज्य दूतावासों को भी फिर से खोल सकता है. यह एक तरह की अग्निपरीक्षा होगी जिससे पता चलेगा कि तालिबान पाकिस्तानी प्रभाव से कितना स्वतंत्र हो सका है. तालिबान को जोड़ने का मतलब कुछ आर्थिक, विकास और मानवीय सहायता देना भी होगा.

यहां तक कि जब भारत तालिबान को अपने साथ जोड़ने की कोशिश कर रहा है तो उसे तालिबान को अलग-थलग करने के साथ ही बाकी अन्तरराष्ट्रीय  समुदाय के साथ संबंध को मज़बूत करने का प्रयास भी करना चाहिए. हालांकि पाकिस्तान इस संभावना से काफी भयभीत है कि तालिबान को भारत उनसे पहले औपचारिक मान्यता प्रदान कर देगा लेकिन भारत को ऐसी किसी चतुराई भरे कदम उठाने से बचना चाहिए क्योंकि यह उल्टे भारत के लिए नुक़सानदेह साबित हो सकता है. अन्य बातों के अलावा इस तरह के क़दम से पाकिस्तान के लिए तालिबान को औपचारिक रूप से मान्यता देने का रास्ता साफ हो जाएगा. ऐसे में तालिबान को अलग-थलग और अन्तरराष्ट्रीय  प्रतिबंधों के दबाव में रखने के लिए भारत को इसका समर्थन करना चाहिए.

भारत के दृष्टिकोण का अंतिम चरण तालिबान का विरोध करना है, ना केवल कूटनीतिक और राजनीतिक, बल्कि गुप्त रूप से तालिबान विरोधी ताक़तों का समर्थन करना भी इसमें शामिल है. क्योंकि तालिबान भी जैश-ए-मोहम्मद और अल-क़ायदा जैसे आतंकी संगठनों से नज़दीकियां बढ़ाकर ऐसा ही कर रहा है. कुछ भी हो, यह तालिबान के साथ भारत के संबंधों में एक हाथ से लो दूसरे हाथ से दो वाली स्थिति हो सकती है. अगर तालिबान का रूख़ अड़ियल रहता है तो काफी संभावना है कि अन्य देश भी तालिबान विरोधी ताक़तों का समर्थन करना शुरू कर देंगे, जो अफ़ग़ानिस्तान में भारत की कूटनीतिक और रणनीतिक हितों को ऊंचाई तक पहुंचाएगा. बेशक, यह तब मुमकिन है जब भारत सख़्त रवैया अपनाने को तैयार हो.

अफ़ग़ानिस्तान में कभी भी संभावनाओं पर पूर्ण विराम नहीं लगता है लिहाज़ा कोई कारण नहीं बनता है कि भारत अपनी अफ़ग़ानिस्तान नीति को आगे बढ़ाने से अपने क़दम पीछे खींचे. कुछ कठोर नीतियों के साथ व्यावहारिकता का मेल ना केवल भारत को अफ़ग़ानिस्तान में जारी खेल में वापस ला सकता है बल्कि भारत की संभावनाओं की सीमा का विस्तार भी कर सकता है.

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