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महामारी के अंधकार भरे दौर में ये कई वैक्सीन, उम्मीद की नई किरण बनकर आई हैं. इन टीकों की मदद से आने वाले महीनों में कोविड-19 की महामारी पर क़ाबू पाने की उम्मीदें जगी हैं. मगर, इन उम्मीदों के साथ एक नया ख़ौफ़ भी जुड़ गया है
साल 2020 में निराशा का बोल-बाला रहा. यहां तक कि जिन देशों की स्वास्थ्य व्यवस्था की दुनिया भर में तारीफ़ होती है, उन्हें भी ऐसे बुरे हालात का सामना करना पड़ा, जिसका अंत अभी भी नज़दीक नहीं दिख रहा है. दुनिया ने इसी अंधकार भरे और निराशाजनक माहौल में, नए साल 2021 में क़दम रखा है. आज विश्व के तमाम देशों में कोविड-19 के कई टीकों को नियामक संस्थाओं से मंज़ूरी मिल चुकी है. उन्हें लगाने का अभियान बड़ी धूम-धाम से शुरू किया जा रहा है. महामारी के अंधकार भरे दौर में ये कई वैक्सीन, उम्मीद की नई किरण बनकर आई हैं. इन टीकों की मदद से आने वाले महीनों में कोविड-19 की महामारी पर क़ाबू पाने की उम्मीदें जगी हैं. मगर, इन उम्मीदों के साथ एक नया ख़ौफ़ भी जुड़ गया है. कोरोना वायरस ने एक नया रूप (Strain/Mutant) धर लिया है, जो कहीं ज़्यादा संक्रामक बताया जा रहा है. ये अलग अलग महाद्वीपों के तमाम देशों में बड़ी तेज़ी से फैल रहा है और इसे ऐसे ख़तरनाक टाइम बम का नाम दिया गया है, जिसकी घड़ी बहुत तेज़ चल रही है.
पूरी दुनिया में वैक्सीन के लिए होड़ मची है, और अमीर देश ये सुनिश्चित करने में जुटे हैं कि, वो अपनी आबादी को कई बार टीका लगाने से भी ज़्यादा टीकों की ख़ुराक जुटा लें या उसकी आपूर्ति सुनिश्चित कर लें. वही, ग़रीब देशों के कोविड-19 के टीकों के लिए हाथ में कटोरा लेकर क़तार में खड़े होने का मंज़र भी साफ़ दिखाई दे रहा है. बहुत से विश्लेषक इसे ‘वैक्सीन राष्ट्रवाद’ का नाम दे रहे हैं. 4 जनवरी 2021 तक, दुनिया के 30 देशों ने अपने यहां कोविड-19 का टीकाकरण अभियान शुरू कर दिया था, लेकिन, अगर हम मध्य-पूर्व के मुट्ठी भर अमीर देशों (इज़राइल, बहरीन, ओमान और कुवैत) को छोड़ दें, तो इनमें से एक भी देश एशिया या अफ्रीका के नहीं हैं. दुनिया भर में फैले वैक्सीन राष्ट्रवाद के ख़तरे से निपटने के लिए, मध्यम और कम आमदनी वाले देशों की एक ही उम्मीद है, और उसका नाम है भारत, क्योंकि भारत विश्व का सबसे बड़े वैक्सीन निर्माता है.
पूरी दुनिया में वैक्सीन के लिए होड़ मची है, और अमीर देश ये सुनिश्चित करने में जुटे हैं कि, वो अपनी आबादी को कई बार टीका लगाने से भी ज़्यादा टीकों की ख़ुराक जुटा लें या उसकी आपूर्ति सुनिश्चित कर लें. वही, ग़रीब देशों के कोविड-19 के टीकों के लिए हाथ में कटोरा लेकर क़तार में खड़े होने का मंज़र भी साफ़ दिखाई दे रहा है.
भारत भी अगले एक या दो हफ़्ते में अपने यहां कोविड-19 टीकाकरण अभियान शुरू करने वाला है. उसने कोविशील्ड और कोवैक्सिन नाम के दो टीकों को कुछ शर्तों के साथ सीमित स्तर पर उपयोग की इजाज़त दी है. लेकिन, जिस तरह से इन टीकों के इस्तेमाल की इजाज़त दी गई, उस प्रक्रिया को लेकर वैज्ञानिक समुदाय चिंता जता रहा है. यहां तक कि जो डॉक्टर और स्वास्थ्यकर्मी बड़ी बेसब्री से वैक्सीन आने का इंतज़ार कर रहे हैं, उन्होंने भी इस बात को लेकर चिंता जताई है कि, अगर राष्ट्रीय टीकाकरण अभियान के तहत किसी वैक्सीन को बिना वैज्ञानिक आंकड़ों के लगाया जाएगा, तो उन्हें लोगों को ऐसी वैक्सीन लगाने के लिए राज़ी करने में बहुत मुश्किलें पेश आएंगी. उच्च स्तर के सरकारी अधिकारियों और स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन ने सफाई दी है कि कम से कम अभी तक, देश में कोविड-19 टीकाकरण अभियान मुख्य़ तौर पर कोविशील्ड पर आधारित है, और कोवैक्सिन को इस वायरस के किसी संभावित प्रतिरूप से निपटने के हथियार के रूप में ही मंज़ूरी दी गई है. लेकिन, कोवैक्सिन को हरी झंडी देने को लेकर भारी विवाद खड़ा हो गया है.
कोविड-19 के देशव्यापी टीकाकरण अभियान के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय का शुरुआती बजट 50 हज़ार करोड़ रुपए का बताया जा रहा है. ये कितनी बड़ी रक़म है, इसे समझना हो तो बस ये जान लीजिए कि उपलब्ध सबसे ताज़ा आंकड़ों (2017-18 के बजट व्यय) के मुताबिक़, केंद्र और राज्यों सरकारों के तमाम मंत्रालयों और विभागों ने स्वास्थ्य पर कुल लगभग 2 लाख करोड़ रुपए ही ख़र्च किए थे. बड़ी तेज़ी से बदल रहे संदर्भों में हम इस लेख में उपलब्ध आंकड़ों के माध्यम से भारत के कोविड-19 टीकाकरण अभियान को लेकर उठे छह बड़े सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे. ये भारत के इतिहास में अब तक का सबसे बड़ा स्वास्थ्य अभियान होगा.
सीरम इंस्टीट्यूट द्वारा बनायी जा रही वैक्सीन कोविशील्ड; या भारत बायोटेक का टीका कोवैक्सिन; दोनों ही टीके तुलनात्मक रूप से सुरक्षित साबित हुए हैं और इनके ज़्यादा रिएक्शन भी नहीं देखे गए हैं. कोविशील्ड, जिसकी दो ख़ुराक लेने की ज़रूरत होगी, उसका अभी भारत में क्लिनिकल ट्रायल चल रहा है. अन्य देशों में हुए ट्रायल में इस वैक्सीन ने 62 प्रतिशत असर दिखाया है. सीरम इंस्टीट्यूट ने हाल ही में कहा था कि अगर दो डोज़ के बीच तीन महीने का अंतर रखा जाता है, तो कोविशील्ड 90 प्रतिशत तक प्रभावी हो जाती है. भारत बायोटेक ने भी अपनी कोवैक्सिन को लेकर भी ऐसे ही दावे किए हैं और कहा है कि ट्रायल में इस टीके ने कम से कम 60 प्रतिशत असर दिखाया है.
मगर, ये भी सच है कि भारत में जिन दो टीकों का ट्रायल चल रहा है, उनमें से किसी के निर्माता ने कम से कम अब तक तो इनके असर के आंकड़े पेश नहीं किए हैं. कोविशील्ड के बारे में ये कहा जा सकता है कि उसके पास अन्य जगह हुए ट्रायल में 62 से 90 प्रतिशत तक असर दिखाने के आंकड़े हैं. पर, प्रभावी साबित होने के कोवैक्सिन के आंकड़े कम से कम अब तक तो विशुद्ध रूप से हवाई ही हैं. भले ही ये वैक्सीन अधिक सुरक्षित और बेहतर जेनेटिक प्रोफाइल वाली है. कोविशील्ड के इस्तेमाल का समर्थन, विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जून 2020 में वैक्सीन को लेकर प्रकाशित नियामक सिद्धांतों के आधार पर भी किया जा रहा है. इसमें विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वैक्सीन को हरी झंडी देने वाली संस्थाओं से कहा था कि अगर ज़रूरी हो तो वो अन्य देशों की मज़बूत नियामक व्यवस्था पर भी कुछ हद तक विश्वास कर सकते हैं.
महामारी के पिछले कुछ महीनों के दौरान, भारत सरकार के सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गेनाइज़ेशन (CDSCO) के कभी तो ‘बहुत सुस्त’ होने और कभी ‘अति सक्रिय’ होने की आलोचना की गई है. कुछ भी हो, कोरोना वायरस के नए और बेहद संक्रामक प्रतिरूप का हमला झेल रहे ब्रिटेन जैसे देशों के उलट, ऐसा लगता है कि भारत में कोविड-19 की लहर कमज़ोर हो रही है. ऐसे में आने वाले कुछ हफ़्तो के दौरान कोविड-19 की रोकथाम के लिए एक ‘वैकल्पिक वैक्सीन’, जिसका दावा अधिकारी कर रहे हैं, की ज़रूरत नहीं मालूम पड़ती है.
आशंका इस बात की है कि अब भारत को भी रूस और चीन के ही दर्ज़े में रखा जा सकता है. उसकी वैक्सीन को ब्रिक्स देशों जैसा टीका बताकर, ये कहते हुए ख़ारिज किया जा सकता है कि उसने स्वदेशी वैक्सीन विकसित करने की होड़ में बिना टीके के प्रभाव के आंकड़ों के ही उसे मंज़ूरी दे दी.
भारत के नियामक अधिकारियों के बचाव में कुछ लोग चीन और रूस का हवाला दे सकते हैं, जिन्होंने बिना वैक्सीन के प्रभाव से जुड़े आंकड़े सार्वजनिक किए हुए ही अपने यहां के टीकों को हरी झंडी दे दी थी. पर, उन्हें याद रखना चाहिए कि जल्दबाज़ी में कोविड-19 की वैक्सीन को मान्यता देकर भी जनता के स्वास्थ्य के लिहाज़ से चीन और रूस को कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ. क्योंकि, दोनों ही देश अपने यहां की जनता को भी बिना पर्याप्त परीक्षण के वैक्सीन लगाने से कतरा रहे हैं. ये हक़ीक़त इस बात से स्पष्ट होती है कि नए साल की आमद तक रूस और चीन ने अपने यहां के केवल 0.5 प्रतिशत नागरिकों को ही कोविड का टीका लगाया था. जबकि, दोनों ही देशों ने वर्ष 2020 के मध्य में ही अपने यहां कई टीकों को मंज़ूरी दे दी थी.
पर, चूंकि भारत दुनिया में वैक्सीन का सबसे बड़ा निर्यातक है. ऐसे में अगर केवल एक स्वदेशी वैक्सीन विकसित करने की प्रतीकात्मक उपलब्धि जताने के लिए ही किसी वैक्सीन को मंज़ूरी दी गई है, तो इससे भारत को फ़ायदे से ज़्यादा नुक़सान हो जाएगा. क्योंकि, बिना वैज्ञानिक नियामक प्रक्रिया के टीके को स्वीकृति देने से भारत की छवि को गहरा धक्का लग सकता है. ये बात ख़ास तौर से महत्वपूर्ण है क्योंकि दवाओं से इतर, टीके स्वस्थ लोगों को लगाए जाते हैं और टीकाकरण अभियान काफ़ी हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि आम लोग उसके बारे में क्या सोचते हैं. आशंका इस बात की है कि अब भारत को भी रूस और चीन के ही दर्ज़े में रखा जा सकता है. उसकी वैक्सीन को ब्रिक्स देशों जैसा टीका बताकर, ये कहते हुए ख़ारिज किया जा सकता है कि उसने स्वदेशी वैक्सीन विकसित करने की होड़ में बिना टीके के प्रभाव के आंकड़ों के ही उसे मंज़ूरी दे दी. वैक्सीनों के वैश्विक बाज़ार में भारत का सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी चीन है. वो भी अपने यहां के टीकों पर उठ रही शंकाओं को दूर करने में जुटा है. इसके लिए चीन अपने यहां मंज़ूरी पा चुकी वैक्सीनों का अन्य देशों में ट्रायल कर रहा है, जिससे कि उनके असरदार होने के सबूत जुटा सके. लेकिन, उसे इस मामले में सीमित सफलता ही मिली है.
अगर भारत अपने टीकाकरण अभियान को तेज़ गति से चलाना चाहता है, तो टीकों की पर्याप्त ख़ुराक जुटा पाना एक समस्या हो सकती है. अगर देश भर में फैले 29 हज़ार टीकाकरण केंद्रों में प्रतिदिन लगभग 200 लोगों को वैक्सीन दी सके, तो भारत का कोविड-19 टीकाकरण अभियान केवल दो महीनों में ही ख़त्म हो सकता है.
एक प्रतीकात्मक जीत जताने के लिए नियम कायदों से परे जाकर कोवैक्सिन को मंज़ूरी देने से लंबी अवधि में भारत और भारत बायोटेक के हितों को नुक़सान पहुंच सकता है, क्योंकि अभी कोवैक्सिन का किसी अन्य देश में ट्रायल नहीं हो रहा है. इसकी आशंका इसलिए भी है, क्योंकि ‘महज़ कुछ हफ़्तों के’ इंतज़ार के बाद ही सही प्रक्रिया अपनाकर इस वैक्सीन को स्वीकृति दी जा सकती थी. महामारी के दौरान, भारत की दवा नियामक संस्थाओं द्वारा हड़बड़ी में नियमों को ताक पर रखने का लंबा इतिहास रहा है. लेकिन, भारत की नियामक व्यवस्था को लेकर विश्व में जो छवि है, उसे चोट पहुंचाने का ये क़दम बेहद ग़लत समय पर उठाया गया है. क्योंकि, अमीर देशों के ‘वैक्सीन राष्ट्रवाद’ के चलते, आज दुनिया को भारत की वैक्सीन की बेहद सख़्त ज़रूरत है.
दुनिया के कई देशों में, पिछले कई हफ़्तों से कोविड-19 का टीकाकरण अभियान चल रहा है, और ये उम्मीद से कहीं ज़्यादा सुस्त है. 4 जनवरी 2021 तक 30 देशों में केवल 1.2 करोड़ लोगों को ही टीका लगाया जा सका था. जबकि, अकेले अमेरिका में ही दिसंबर महीने तक 2 करोड़ लोगों को कोविड-19 की वैक्सीन देने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था. भारत ने अपने टीकाकरण अभियान के पहले चरण में अगस्त 2021 तक, प्राथमिकता के आधार पर 30 करोड़ लोगों को कोविशील्ड और कोवैक्सिन टीके लगाने का लक्ष्य रखा है. भारत की सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बायोटेक जैसी कंपनियों की मज़बूत उत्पादन क्षमता को देखते हुए, भारत सरकार द्वारा पहले चरण के टीकाकरण के लिए वैक्सीन जुटाने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए.
अगर भारत, वास्तव में कोविड-19 के सार्वभौमिक टीकाकरण अभियान का विकल्प चुनता है, तो इसके लिए देश में कोल्ड चेन की सुविधा विकसित करने में भारी मात्रा में निवेश करना होगा, क्योंकि देश के अलग अलग राज्यों में कोल्ड चेन की सुविधाओं की उपलब्धता में काफ़ी अंतर है.
सीरम इंस्टीट्यूट के पास लगभग 10 करोड़ टीके तैयार हैं और ख़बर ये है कि वो हर महीने कोविशील्ड की 5 से 6 करोड़ ख़ुराक़ का उत्पादन कर सकते हैं. वहीं दूसरी ओर, कहा जा रहा है कि भारत बायोटेक हर साल क़रीब 30 करोड़ डोज़ का उत्पादन कर सकती है. कंपनी अपनी उत्पादन क्षमता को 70 करोड़ टीकों के उत्पादन तक बढ़ाने में जुटी है. इसके अलावा स्पुतनिक, नोवावैक्स और ज़ायकोव-डी, जिनका भारत में क्लिनिकल ट्रायल चल रहा है, उनकी करोड़ों ख़ुराक भी भारतीय कंपनियों द्वारा निर्मित की जा सकती है.
इन बातों को देखते हुए, अगर सरकार टीकाकरण अभियान को कई महीनों में बांटती है, और दूसरे टीकों को भी हरी झंडी मिलती है, तो भारत में पहले चरण के टीकाकरण अभियान के लिए वैक्सीन जुटाना मुश्किल नहीं होगा, भले ही इन कंपनियों ने निजी बाज़ार और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर टीके उपलब्ध कराने का वचन दे रखा हो. लेकिन, अगर भारत अपने टीकाकरण अभियान को तेज़ गति से चलाना चाहता है, तो टीकों की पर्याप्त ख़ुराक जुटा पाना एक समस्या हो सकती है. अगर देश भर में फैले 29 हज़ार टीकाकरण केंद्रों में प्रतिदिन लगभग 200 लोगों को वैक्सीन दी सके, तो भारत का कोविड-19 टीकाकरण अभियान केवल दो महीनों में ही ख़त्म हो सकता है.
अभी तो सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया और एस्ट्राज़ेनेका की कोविशील्ड; भारत बायोटेक और ICMR की कोवैक्सिन; ज़ायडस कैडिला और बायोटेक्नोलॉजी विभाग की ज़ायकोव-डी; रूस के गमालेया नेशनल सेंटर और डॉक्टर रेड्डीज़ लैब की स्पुतनिक V; हैदराबाद की बायोलॉजिकल E और MIT की एक वैक्सीन; पुणे की जेनोवा बायोफार्मास्यूटिकल्स और अमेरिका की HDT बायोटेक कॉरपोरेशन; नोवावैक्स और सीरम इंस्टीट्यूट के अन्य टीकों के भारत में अलग अलग जगह और अलग अलग चरण के ट्रायल चल रहे हैं. इनमें से अधिकतर वैक्सीन का ट्रायल उनके निर्माता ही कर रहे हैं, जबकि अन्य कंपनियों ने भारतीय कंपनियों के साथ वैक्सीन बनाने के समझौते किए हैं. इसके अलावा, भारत बायोटेक नाक से दी जा सकने वाली कोविड-19 वैक्सीन का भी ट्रायल कर रही है. वहीं, सीरम इंस्टीट्यूट भी ऐसे ही टीके का अपने अंतरराष्ट्रीय साझीदारों के साथ विदेश में ट्रायल कर रहा है.
तमाम अधिकारियों के मुताबिक़, कोविड-19 का टीकाकरण अभियान जनवरी के मध्य से पूरे देश में शुरू किया जाएगा. वैक्सीन के निजी क्षेत्र के निर्माता, जैसे कि सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बायोटेक, जिन्होंने दुनिया के कई देशों को वैक्सीन आपूर्ति करने का वादा कर रखा है, उन्हें नियामक संस्थाओं से मंज़ूरी, निर्यात की इजाज़त और विश्व स्वास्थ्य संगठन से हरी झंडी मिलने का इंतज़ार है. भारत में टीकों के बड़े निर्माताओं को सरकार ने साफ़ शब्दों में निर्देश दिया है कि उन्हें पहले राष्ट्रीय टीकाकरण अभियान के लिए वैक्सीन की आपूर्ति करनी होगी. उसके बाद ही वो टीकों का निर्यात या निजी क्षेत्र को आपूर्ति कर सकते हैं.
सरकार द्वारा प्रकाशित दिशा निर्देशों के अनुसार कोविड-19 वैक्सीन को देश में चरणबद्ध तरीक़े से लगाया जाएगा. पहले चरण में स्वास्थ्य कर्मियों, फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं और अधिक जोखिम वाले लोगों को वैक्सीन दी जाएगी. इस दस्तावेज़ के अनुसार (Figure 1), समूहों की प्राथमिकता इस आधार पर भी तय की जाएगी कि उन्हें कैसी अन्य बीमारियां है, और महामारी का रूप कैसा है.
दुर्भाग्य से भारत में कोविड-19 महामारी की रोकथाम के लिए दवाओं के अलावा किए गए अन्य सभी उपायों, जैसे कि लॉकडाउन का सबसे ज़्यादा फ़ायदा देश के बेहतर स्थिति वाले लोगों को ही मिला है. इसका पता हमें सीरोप्रिवैलेंस सर्वे से चला है. इन सर्वे के दौरान देखा गया है कि भारत की अधिकतर झुग्गी बस्तियों में लोगों के बीच वायरस से प्रतिरोधक क्षमता (सीरोपॉज़िटिविटी) बहुत अधिक देखी गई है. इसका मतलब है कि भारत के कई इलाक़ों में कोरोना वायरस के संक्रमण और उससे हुए नुक़सान के चलते लोगों के बीच हर्ड इम्युनिटी पहले ही विकसित हो चुकी है. इसी कारण से अगर, कोविड-19 के टीकाकरण अभियान के पहले चरण में 30 करोड़ लोगों को वैक्सीन दे दी जाती है और इससे कोविड की मृत्यु दर में कमी आ जाती है, तो हो सकता है कि सरकार देश के सभी नागरिकों को सरकारी ख़र्च पर टीका लगाने की नीति पर फिर से विचार करे. अगर भारत, वास्तव में कोविड-19 के सार्वभौमिक टीकाकरण अभियान का विकल्प चुनता है, तो इसके लिए देश में कोल्ड चेन की सुविधा विकसित करने में भारी मात्रा में निवेश करना होगा, क्योंकि देश के अलग अलग राज्यों में कोल्ड चेन की सुविधाओं की उपलब्धता में काफ़ी अंतर है.
और हां, जैसे ही टीकाकरण अभियान का असर कोविड-19 से मृत्यु दर पर दिखने लगेगा, तो पूरे देश में कोविड के टेस्ट की संख्या में भी कमी आएगी, क्योंकि कोरोना वायरस की मौजूदा पॉज़िटिविटी दर 2 प्रतिशत से कम है. इसका अर्थ ये है कि हर पॉज़िटिव केस का पता लगाने के लिए कम से कम 50 टेस्ट किट इस्तेमाल की जाती हैं. कोविड टेस्ट में सरकार बहुत पैसे ख़र्च कर रही है और हर नेगेटिव टेस्ट का मतलब ये होता है कि ये संसाधन बहुत से लोगों को टीका लगाने या स्वास्थ्य संबंधी सेवाएं देने में इस्तेमाल किए जा सकते थे. ऐसे में भारत जैसे बेहद कम संसाधन वाली स्वास्थ्य व्यवस्था में टीकाकरण, टेस्टिंग और स्वास्थ्य की अन्य सेवाओं के बीच चुनाव करना, मजबूरी बन जाता है. आने वाले समय में ये बहस और तेज़ होगी. हो सकता है कि, इसी कारण से भारत, आने वाले कुछ महीनों में निजी क्षेत्र में भी टीकों को उपलब्ध कराने पर विचार कर सकता है.
अब जबकि देश में टीकाकरण अभियान शुरू होने वाला है, जो इतना व्यापक होगा कि पूरे देश में होने वाले चुनावों सरीखा लग रहा है, तो टीकाकरण की राह और रफ़्तार में कई चुनौतियां आएंगी. पहली तो ये कि जैसे जैसे कोविड-19 के संक्रमण के मामले कम हो रहे हैं, तो बहुत सी वैक्सीन को क्लिनिकल ट्रायल के लिए भागीदार मिलने में मुश्किलें आ रही हैं. आशंका इस बात की है कि आने वाले समय में वैक्सीन की उपलब्धता की उम्मीदों, और लगातार मीडिया कवरेज के चलते, बहुत से स्वयंसेवी टीकों के ट्रायल में शामिल होने से परहेज़ करें. शायद बहुत से लोग इस हक़ीक़त से वाबस्ता ही नहीं हैं कि फाइज़र और मॉडर्ना जैसी बड़ी दवा कंपनियां निकट भविष्य में अपने टीके भारतीय बाज़ार में नहीं उतारने जा रही हैं.
टीकाकरण अभियान के लिए हज़ारों मास्टर ट्रेनर तैयार किए जा रहे हैं. 30 दिसंबर 2020 को भारत सरकार ने कोविड-19 वैक्सीन संवाद के व्यापक दिशा निर्देश जारी किए थे. वैज्ञानिक समुदाय ने इनकी काफ़ी तारीफ़ की थी. लेकिन, उसके बाद से विवाद गहराता चला गया है. इसकी शुरुआत सब्जेक्ट एक्सपर्ट कमेटी (SEC) द्वारा कोविशील्ड और कोवैक्सिन को सीमित उपयोग की मंज़ूरी देने के बीच के फ़र्क़ से हुई थी. इसके बाद, ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ़ इंडिया (DCGI) ने दोनों टीकों को मंज़ूरी का बराबर वाला दर्ज़ा देकर भ्रम को और बढ़ा दिया.
ऐसे माहौल में जब बहुत से राजनेता टीकाकरण को लेकर हिचक को बढ़ावा दे रहे हैं, तो स्वास्थ्य कर्मियों और टीका लगाने वालों के लिए ही नहीं, राजनेताओं और सामुदायिक नेताओं के लिए भी वैक्सीन को लेकर जनता के बीच भरोसा जगा पाने में मुश्किलें होंगी. इसकी वजह यही है कि वैक्सीन को लेकर शीर्ष स्तर से ही भ्रम फैलाने वाले संकेत दिए गए. अगर हम इसमें भारत की प्रशासनिक व्यवस्था और भारत के टीकों में वैश्विक अविश्वास को भी जोड़ दें, तो हमें ये बात ज़ोर देकर कहनी पड़ेगी कि केवल स्वदेशी वैक्सीन विकसित करने की प्रतीकात्मक उपलब्धि जताने के लिए, वैक्सीन को अनुमति देने की वैज्ञानिक प्रक्रिया के आख़िरी चरण में जो हड़बड़ी दिखाई गई, उससे अमीर देशों के वैक्सीन राष्ट्रवाद का मज़बूती से जवाब दे पाने की भारत की स्थिति ही कमज़ोर हुई है.
भारत निश्चित रूप से चीन की राह पर नहीं चलना चाहेगा, जिसके पास कोविड-19 की वैक्सीन तो बहुत हैं, मगर भरोसा किसी पर नहीं.
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Oommen C. Kurian is Senior Fellow and Head of Health Initiative at ORF. He studies Indias health sector reforms within the broad context of the ...
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