Published on Aug 26, 2020 Updated 0 Hours ago

ये अंत का आरंभ या आरंभ का अंत नहीं है, सिर्फ़ एक युग का अंत है

कोविड-19 के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था: नए समय में नई उम्मीदें

वित्तीय बाज़ार वस्तविकता पर आधारित ज्ञान के ऊपर फलते-फूलते हैं. इनमें से एक वास्तविकता ये है कि “इस बार अलग हालात हैं”. हालांकि, इस सिद्धांत को लेकर मूलभूत और कुछ हद तक न्यायोचित शंकाएं भी हैं. ऐसा दशकों (कुछ मामलों में तो सदियों) से जुटाए गए वैकल्पिक ज्ञान की वजह से है. वित्तीय बाज़ार के परिवर्तनशील तत्व अक्सर औसत को आधार बनाकर आगे बढ़ते हैं. लेकिन इस बार ये अलग लग रहा है. कम-से-कम आज की पीढ़ी के लोगों के अनुभव से तो बिल्कुल अलग है.

बात करना, मिलना-जुलना, दलील देना और संबंध बनाना व्यापार चलाने के लिए प्रमुख चीज़ें हैं. इसे हटा देंगे तो व्यापार का नियम तय करने के लिए अलग मिसाल की ज़रूरत होगी.

कोविड19 एक बार का मामला नहीं है

सबसे बेहतरीन परिदृश्य है जल्द-से-जल्द वैक्सीन बनना या इलाज. लेकिन जब तक कोई समाधान नहीं मिलता तब तक न सिर्फ़ कारोबार का एक बड़ा हिस्सा- रेस्टोरेंट, होटल, एयरलाइंस- ख़त्म हो जाएंगे बल्कि व्यापार और वाणिज्य को सहारा देने वाला लोगों का मूल स्वभाव भी बदल जाएगा. प्रोफ़ेसर कौशिक बसु कहते हैं, “कोई भी अर्थशास्त्री मान्यता के तौर पर ‘बात कर सकते हैं’ नहीं लिखता. इसे देने के तौर पर माना जाता है”. बात करना, मिलना-जुलना, दलील देना और संबंध बनाना व्यापार चलाने के लिए प्रमुख चीज़ें हैं. इसे हटा देंगे तो व्यापार का नियम तय करने के लिए अलग मिसाल की ज़रूरत होगी.

दुनिया ख़राब (आर्थिक तौर पर) हो रही है

सोशल मीडिया बढ़ा-चढ़ाकर राजनीतिक बयानबाज़ी को दिखाते हैं. दुनिया भर में संघर्षों को लेकर तमाम शोरगुल (अमेरिका-चीन, भारत-चीन, अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, मध्य-पूर्व) के बावजूद शारीरिक सुरक्षा के मामले में दुनिया अपेक्षाकृत शांत है. युद्ध के इलाक़े कुछ हैं लेकिन 20वीं सदी के इतिहास के संदर्भ में आम लोगों की जान और माल को ख़तरे में डालने वाले संघर्ष और भी कम हैं. लेकिन आर्थिक व्यवहार में साफ़ बदलाव हुआ है. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद व्यापार के ज़्यादा एकीकरण, विदेश में बसने को लेकर खुलापन, व्यापार और वाणिज्य के लिए वैश्विक विस्तार की तरफ़ का सफ़र पीछे की तरफ़ बढ़ रहा है. आर्थिक नीति के शब्दकोष में संरक्षणवाद राजनीतिक तौर पर सम्मानजनक शब्द बन गया है. चाहे अच्छे के लिए हो या बुरे के लिए लेकिन थॉमस पिकेट्टी के अंदाज़ वाली असमानता की कहानियों के इर्द-गिर्द गूंज ज़्यादा सुनाई दे रही है.

ग़लत समय में फंसा भारत ?

कोविड-19 के आने और लॉकडाउन से जुड़े झटकों से पहले ही भारतीय अर्थव्यवस्था की रफ़्तार सुस्त पड़ रही थी. सुस्ती की वजह से भारत को परेशान कर रहा जुड़वां बैलेंस शीट का मुद्दा और बिगड़ गया है. इसमें कॉरपोरेट और बोझ के तले दबे बैंक (और नॉन बैंकिंग फ़ाइनेंशियल कंपनी या NBFC) की बैलेंस शीट शामिल हैं. इसकी वजह से वित्तीय प्रणाली- जो  तेज़ी से असली अर्थव्यवस्था में दखल देने का प्राथमिक स्रोत बनता जा रहा है- असरदार बड़ी भूमिका निभाने के लिए काफ़ी कमज़ोर है. 2020 को लेकर काफ़ी उम्मीद जताई गई थी. विकास में छलांग की उम्मीद लगाई गई थी. लेकिन दुर्भाग्य है कि कोविड-19 ने इन उम्मीदों पर पानी फेर दिया. संक्षेप में कहें तो भारत दोहरे संकट के हालात का सामना कर रहा है. एक तरफ़ कमज़ोर विकास और दूसरी तरफ़ कमज़ोर वित्तीय संस्थान हैं जो जोखिम उठाने की हालत में नही हैं. इसमें रुपये छापकर हमें इस सुस्ती से बाहर निकाले की सरकार की अनिच्छा (या अयोग्यता) को भी जोड़ दीजिए.

2020 को लेकर काफ़ी उम्मीद जताई गई थी. विकास में छलांग की उम्मीद लगाई गई थी. लेकिन दुर्भाग्य है कि कोविड-19 ने इन उम्मीदों पर पानी फेर दिया. संक्षेप में कहें तो भारत दोहरे संकट के हालात का सामना कर रहा है.

उम्मीद की किरण

निराशा के इस परिदृश्य में कुछ बहुत महत्वपूर्ण उम्मीद की किरण हैं. बाहर निकलने की रणनीति बनाते समय इनका फ़ायदा उठाना भारत के लिए अहम रहेगा. आर्थिक नीति बनाते समय हमेशा मौजूद रहने वाली फॉरेन एक्सचेंज (फॉरेक्स) की मजबूरी व्यापक रूप से ग़ायब है. मौजूदा संकट में कई उभरते बाज़ारों के हालात को देखते हुए ये बड़ी बात है. विदेशी इक्विटी के आने में तेज़ी, कम चालू खाते का घाटा (CAD)  और भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) के द्वारा आक्रामक ढंग से डॉलर की ख़रीद के कारण भारत के पास इस वक़्त 500 अरब डॉलर का फॉरेक्स रिज़र्व है. ये बड़ा नीतिगत सहारा है जो कि पहले के संकट के दौरान नहीं रहा है.

दूसरा, क़रीब-करीब पूरा सार्वजनिक कर्ज़ स्थानीय बचत के ज़रिए दिया जाता है. ये पिछले कई दशकों से भारत की ख़ास मज़बूती बन गई है. भारत के राजकोषीय घाटे को पूरा करने के लिए विदेशी निवेश पर कोई निर्भरता नहीं है. परंपरागत तौर पर- क्रेडिट रेटिंग एजेंसी समेत- भारत के कर्ज़ को लेकर दुख जताया जाता है लेकिन तथ्य ये है कि पूरा कर्ज़ स्थानीय तौर पर लिया जाता है. दूसरे शब्दों में, भारत के सार्वजनिक कर्ज़ का वित्तीय इंतज़ाम भारतीय रुपये में होता है. इस रुपये को लेकर कर्ज लेने वाले यानी भारत सरकार के पास छापने का अधिकार भी है.

नीतिगत विकल्प

सरकारी ख़र्च

नीतिगत प्रोत्साहन, सरल टैक्स व्यवस्था और सुधार एक हद तक भूमिका निभा सकते हैं लेकिन कोविड-19 के बाद की रणनीति में सबसे बड़ी भूमिका सरकारी ख़र्च की होनी है. कुछ समय के लिए निजी खपत कम रहने की संभावना है, प्राइवेट कॉरपोरेट सेक्टर का निवेश ज़्यादा समय लेगा और वैश्विक व्यापार और वाणिज्य की रफ़्तार भी सुस्त रहेगी, ऐसे में सरकारी ख़र्च ही पुख़्ता उपाय है. इसलिए दुनिया के कई देशों में वित्तीय प्रोत्साहन के स्तर को देखना आश्चर्यजनक नहीं है. ये प्रोत्साहन सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के 10-20% तक दिया गया है. भारत में अभी तक वित्तीय दख़ल छोटा और ऐहतियात भरा रहा है. लेकिन लॉकडाउन हटने के साथ ही और ज़्यादा प्रोत्साहन का वादा है. वास्तव में ये एक विकल्प नहीं है. इसलिए बड़े वित्तीय प्रोत्साहन को लेकर सवाल अगर के बदले कब होना चाहिए.

वित्तीय पोषण का विकल्प

सरकार की तरफ़ से ज़्यादा ख़र्च के लिए एक मज़बूत वित्तीय योजना अनिवार्य शर्त है. दुनिया भर में विकसित देश ज़्यादा वित्तीय मदद मुद्रा छापने के कार्यक्रम के ज़रिए कर रहे हैं. भारत सरकार के पास भी ये विकल्प है लेकिन (अभी तक) इसका इस्तेमाल करने को लेकर वो अजीब ढंग से ज़िद्दी बनी हुई है. इस बात का डर है कि ज़्यादा नोट छापने से करेंसी पर असर पड़ेगा. लेकिन ये देखते हुए कि भारत अपना सभी सार्वजनिक कर्ज़ स्थानीय बचत से देता है, नोट छापने का जोखिम वास्तविकता से ज़्यादा सैद्धांतिक लगता है. जब तक कि सरकारी ख़र्च का कार्यक्रम चालू खाते के घाटे को बहुत ज़्यादा नहीं बढ़ाता है तब तक करेंसी के अवमूल्यन का काफ़ी कम जोखिम है. हालांकि, ये तथ्य है कि सरकार ने इस विकल्प के इस्तेमाल को रोक रखा है.

बढ़े हुए सरकारी ख़र्च के लिए पैसा लाने का दूसरा विकल्प सरकारी संपत्ति की आक्रामक बिक्री है क्योंकि ये पूरी तरह माना जा सकता है कि कर राजस्व उम्मीद से कम मिलेगा. सरकारी संपत्ति की बिक्री आम तौर पर बहुत अच्छी रणनीति नहीं है लेकिन अगर ख़र्च का मक़सद नये बुनियादी ढांचे का निर्माण करना है तो इसका सिर्फ़ ये मतलब होगा कि एक सरकारी संपत्ति को दूसरी सरकारी संपत्ति में बदलना. दूसरे शब्दों में कहें तो अगर LIC में हिस्सेदारी बेचने से मिली रक़म का इस्तेमाल पांच नये अस्पताल बनाने में होता है तो ये अर्थव्यवस्था में करदाता के मालिकाना हक़ को कम करना नहीं है बल्कि सिर्फ़ LIC में हिस्सेदारी को अस्पताल की हिस्सेदारी में बदलना है.

भले ही ये मजबूरी का विकल्प हो लेकिन इस पसंद का इस्तेमाल किया जा सकता है.

महंगाई पर ध्यान

काफी लंबे वक़्त से आर्थिक नीति बनाने में महंगाई प्रमुख चिंता रही है. हमारी राजनीतिक अर्थव्यवस्था के संवाद में महंगाई के महत्व से ये चिंता बढ़ती है. पिछले कुछ समय से भारत ने ‘कम महंगाई’ के मंत्र को एक प्रकार की स्वयंसिद्ध वास्तविकता के तौर पर अपनाया है. RBI के नीति बनाने में महंगाई का लक्ष्य तय करना एक प्रमुख उद्देश्य बन गया है. इसकी वजह से ये तो हुआ है कि भारत ने पिछले कुछ वर्षों के दौरान कम औसत महंगाई का रिकॉर्ड बनाया है लेकिन इसने कई और आर्थिक नतीजों को उलट-पुलट कर दिया है. कम महंगाई का मतलब है कम GDP विकास. यही वजह है कि हाल के वर्षों में 6-7% का विकास पहले के 6-7% विकास जैसा “महसूस” नहीं करा रहा. ज़्यादा GDP विकास के बिना आमदनी तेज़ी से नहीं बढ़ती, मांग तेज़ी से नहीं बढ़ती, कर राजस्व भी तेज़ी से नहीं बढ़ता. सबसे महत्वपूर्ण ये है कि ज़्यादा महंगाई सरकार को तेज़ी से कर्ज़ हटाने और भविष्य में ज़्यादा विकास के लिए और ज़्यादा कर्ज़ लेने की इजाज़त देती है.

भारत के राजकोषीय घाटे को पूरा करने के लिए विदेशी निवेश पर कोई निर्भरता नहीं है. परंपरागत तौर पर- क्रेडिट रेटिंग एजेंसी समेत- भारत के कर्ज़ को लेकर दुख जताया जाता है लेकिन तथ्य ये है कि पूरा कर्ज़ स्थानीय तौर पर लिया जाता है.

आज जब हमारे सामने परेशान करने वाला सबसे बड़ा मुद्दा मांग ध्वस्त होना है तो महंगाई कम होना तय है. इसका असर बर्बाद करने वाला हो सकता है क्योंकि सरकार ज़्यादा राजस्व जुटाने में सक्षम नहीं है और GDP में कमज़ोर बढ़ोतरी की वजह से और ज़्यादा कर्ज़ नहीं उठा सकती.

कई तरह के नीतिगत उपायों- सीधे तौर पर आमदनी में सहारा से लेकर RBI को महंगाई के लक्ष्य तय करने के निर्देश को कम करने तक- के ज़रिए ये सुनिश्चित किया जा सकता है कि भारत की महंगाई लगातार सकारात्मक बने रहे.

ये अंत का आरंभ या आरंभ का अंत नहीं है, सिर्फ़ एक युग का अंत है

एक युग ख़त्म हो रहा है. ऐसा युग जिसमें वैश्विक साझेदारी, मुक्त व्यापार और वैश्विक ख़ुशहाली का विस्तार हुआ. हो सकता है कि नया युग मार-काट वाला बन जाए. लेकिन भारत के लिए असीमित अवसर बना हुआ है और इसकी वजह सिर्फ़ अक्सर बताई जाने वाली युवा आबादी और मध्यम वर्ग की बड़ी संख्या नहीं है. हमारी उम्मीदें चमकीली हैं और कोविड-19 ने हमारे भौतिक ढांचे को ख़त्म नहीं किया है. लेकिन अगर हमें तरक़्क़ी के रास्ते से फिसलना नहीं है तो सरकार की तरफ़ से नीति बनाने में तेज़ी आनी चाहिए, वो अनुकूल और निर्णायक हो. ये ऐसी चीज़ है जो भारत छोड़ नहीं सकता.

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