Author : Prabhash Ranjan

Published on Jun 15, 2023 Updated 0 Hours ago
द्विपक्षीय निवेश समझौते और भारतीय पूंजीवाद

कमज़ोर और कर्ज़ के बोझ तले दबी अपनी अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए श्रीलंका ने कड़े आर्थिक सुधारों का कड़वा घूंट पीने का फ़ैसला कर लिया है. सार्वजनिक क्षेत्र के अनेक उपक्रमों में सरकारी स्वामित्व के विनिवेश का निर्णय भी इसमें शामिल है. एयरलाइंस, होटल और अस्पताल जैसे क्षेत्रों से जुड़ी सरकारी कंपनियां भी इस सूची में हैं. श्रीलंका सरकारी स्वामित्व वाले उद्यमों के पुनर्निर्माण से जुड़ी अपनी क़वायद के लिए भारतीय निवेश आकर्षित करने को लेकर काफ़ी संजीदा है. ख़बरों के मुताबिक श्रीलंकाई एयरलाइंस में संभावित निवेशक के तौर पर टाटा समूह के नाम पर विचार किया जा रहा है. 

इस लेख में श्रीलंका में भारतीय निवेश की वैधानिक सुरक्षा के नज़रिए से इस मसले की पड़ताल करते हुए आगे चलकर वैश्विक परिदृश्य की भी चर्चा की गई है.

निश्चित रूप से सरकारी कंपनियों को नया रूप देने के श्रीलंका के फ़ैसले से भारतीय कंपनियों के लिए श्रीलंका में निवेश करने की संभावनाएं खुल जाती हैं. हालांकि इस दिशा में एक प्रमुख चिंता भारतीय निवेश की सुरक्षा और हिफ़ाज़त को लेकर है. श्रीलंका अब भी बदहाली भरे दौर से बाहर नहीं निकल सका है, लिहाज़ा वहां कारोबार करना जोख़िम भरा हो जाता है. वहां नियमन से जुड़े भारी ख़तरे मौजूद हैं. कोलंबो बंदरगाह में सामरिक रूप से अहम ईस्टर्न कंटेनर टर्मिनल (ECT) को साझा तौर पर विकसित करने के मसले पर 2021 में श्रीलंका द्वारा लिया गया फ़ैसला इसका बेहतरीन उदाहरण है. दरअसल इस साल श्रीलंका ने भारत, जापान और श्रीलंका पोर्ट अथॉरिटी के बीच हुए त्रिपक्षीय समझौते से अचानक पीछे हटने का निर्णय ले लिया. आगे चलकर कोलंबो बंदरगाह के पूर्वी टर्मिनल के विकास से जुड़ा काम चीनी कंपनी को सौंप दिया गया.

फ़ौरी तौर पर भले ही ये प्रसंग श्रीलंका का है, लेकिन ये मसला सिर्फ़ इस द्वीप देश तक ही सीमित नहीं है. दरअसल बड़ा सवाल ये है कि नियमन से जुड़े ऊंचे जोख़िमों का सामना करते हुए विदेशों में निवेश करने वाली भारतीय कंपनियों के पास किस तरह की कानूनी सुरक्षा मौजूद है. भारतीय कंपनियों द्वारा विदेशों में किए जा रहे निवेशों में बढ़ोतरी को देखते हुए और कनेक्टिविटी और बुनियादी ढांचे में निवेश पर ज़ोर दिए जाने के मद्देनज़र विदेशी सरज़मीं पर भारतीय कंपनियों के लिए क़ानूनी कवच का मसला अहम हो जाता है. इस लेख में श्रीलंका में भारतीय निवेश की वैधानिक सुरक्षा के नज़रिए से इस मसले की पड़ताल करते हुए आगे चलकर वैश्विक परिदृश्य की भी चर्चा की गई है.

भारतीय निवेशकों के लिए क़ानूनी कवच 

अंतरराष्ट्रीय निवेश के जाने-माने वक़ीलों में से एक जेसवाल्ड सालाकुज़ की दलील है कि विदेशी निवेश पर व्यापक रूप से तीन बुनियादी क़ानूनी रूपरेखाएं लागू होती हैं. पहला है, मेज़बान (जहां निवेश किया जा रहा है) और घरेलू राष्ट्र (निवेशक का देश) के राष्ट्रीय क़ानून. दूसरा, विदेशी निवेशक और मेज़बान देश की सरकार के बीच या विदेशी निवेशक और मेज़बान देश की कंपनियों के बीच दस्तख़त किया गया क़रार. तीसरा, उपयुक्त समझौतों, सीमा क़ानूनों और सामान्य क़ानूनी सिद्धांतों में शामिल अंतरराष्ट्रीय क़ानून जिन्होंने अब अंतरराष्ट्रीय क़ानून का दर्जा हासिल कर लिया है.  

श्रीलंका में निवेश करने वाली भारतीय कंपनियां ऊपर बताए गए पहले दो क़ानूनी ढांचों का प्रयोग करके नियमन से जुड़े जोख़िमों से अपने निवेशों का बचाव कर सकती हैं. मिसाल के तौर पर श्रीलंका के प्रस्तावित बजट अधिनियम में वादा किया गया है कि राष्ट्रीय महत्व की परियोजनाएं और नीतियां, सरकारों में बदलाव होने के बावजूद संचालित होती रहेगी. हालांकि मेज़बान देश के घरेलू क़ानून पर एक सीमा तक ही निर्भर रहा जा सकता है क्योंकि इसे राज्यसत्ता द्वारा एकतरफ़ा रूप से कभी भी बदला जा सकता है. ऐसा बदलाव निवेशक के लिए घाटे का सबब बन सकता है. इसी प्रकार किसी राष्ट्र की संप्रभुता कार्रवाइयों को चुनौती देने के संदर्भ में क़रारों की भी अहमियत सीमित हो जाती है. इससे विदेशी निवेश पर विपरीत असर होता है. लिहाज़ा तीसरी वैधानिक रूप रेखा यानी अंतरराष्ट्रीय क़ानून की अहमियत बढ़ जाती है.

श्रीलंका के प्रस्तावित बजट अधिनियम में वादा किया गया है कि राष्ट्रीय महत्व की परियोजनाएं और नीतियां, सरकारों में बदलाव होने के बावजूद संचालित होती रहेगी. हालांकि मेज़बान देश के घरेलू क़ानून पर एक सीमा तक ही निर्भर रहा जा सकता है.

अंतरराष्ट्रीय क़ानून को एकतरफ़ा रूप से नहीं बदला जा सकता. राष्ट्रों को उनकी संप्रभु कार्रवाइयों के प्रति जवाबदेह ठहराने के लिए इसका इस्तेमाल किया जा सकता है. विदेशी निवेश की सुरक्षा के संदर्भ में अंतरराष्ट्रीय क़ानून में सबसे महत्वपूर्ण उपकरण है- द्विपक्षीय निवेश समझौता यानी BIT. BIT दो देशों के बीच एक ऐसा क़रार है जिसका मक़सद दोनों देशों के निवेशकों द्वारा किए गए निवेश की सुरक्षा करना है. द्विपक्षीय निवेश समझौता मेज़बान देश के नियामक बर्तावों पर शर्ते आयद करके निवेश की सुरक्षा करता है. इस तरह विदेशी निवेशकों के अधिकारों पर अनुचित दख़लंदाज़ी की रोकथाम होती है. इन शर्तों में मेज़बान देशों को निवेशों की ज़ब्ती करने से रोकने के प्रावधान भी शामिल हैं. बहरहाल, सार्वजनिक हित में पर्याप्त मुआवज़े चुकाकर और पूरी प्रक्रिया का पालन करते हुए ऐसी ज़ब्ती की छूट दी गई है. मेज़बान देशों पर विदेशी निवेश के साथ न्यायसंगत और निष्पक्ष बर्ताव (FET) करने की ज़िम्मेदारी डाली गई है. साथ ही विदेशी निवेश के साथ भेदभाव की मनाही की गई है. अन्य बातों के साथ-साथ विदेशी निवेशकों को किसी देश में होने वाले मुनाफ़ों को स्वदेश भेजने की छूट भी दी गई है. द्विपक्षीय निवेश समझौते मेज़बान राज्यसत्ता के ख़िलाफ़ विदेशी निवेशकों को व्यक्तिगत रूप से अंतरराष्ट्रीय ट्रिब्यूनल में सीधे मुक़दमे दर्ज कराने की भी शक्ति देते हैं. अगर निवेशक को लगता है कि मेज़बान देश ने समझौते की ज़िम्मेदारियों का उल्लंघन किया है तो वो इस अधिकार का इस्तेमाल कर सकता है. इसे निवेशक-राज्यसत्ता विवाद समाधान (ISDS) के तौर पर जाना जाता है. व्यापार और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (UNCTAD) के मुताबिक 2022 के अंत तक सामने लाए गए ज्ञात ISDS दावों की कुल संख्या 1257 थी.    

भारत-श्रीलंका द्विपक्षीय निवेश समझौते का ख़ात्मा

बहरहाल, श्रीलंका में निवेश करने वाले भारतीय कारोबारियों के लिए अंतरराष्ट्रीय वैधानिक ढांचा नदारद है. इसकी वजह ये है कि भारत ने 22 मार्च 2017 को एकतरफ़ा रूप से भारत-श्रीलंका BIT (जिस पर 1997 में दस्तख़त हुए थे) को ख़त्म कर दिया था. दरअसल ये क़वायद भारत द्वारा 2017 में द्विपक्षीय व्यापार समझौतों को एकमुश्त रूप से ख़त्म किए जाने का हिस्सा थी. भारत के ख़िलाफ़ निवेशक-राज्यसत्ता विवाद समाधान (ISDS) से जुड़े अनेक दावे सामने आने के चलते ये क़दम उठाया गया था. इसलिए अगर टाटा समूह निकट भविष्य में श्रीलंकाई एयरलाइंस में कोई निवेश करता है या कोई अन्य भारतीय कंपनी श्रीलंका में नियमन से जुड़ी मुश्किलों में फंसती है तो वो BIT का इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे और ना ही अपने निवेश की सुरक्षा के लिए BIT का प्रयोग कर श्रीलंका के ख़िलाफ़ ISDS लाने की चेतावनी दे सकेंगे.

भारत-श्रीलंका BIT में एक सर्वाइवल क्लॉज़ है, जिसके मुताबिक संधि के एकतरफ़ा ख़ात्मे की सूरत में ये क़रार समाप्ति की तारीख़ से अगले 15 वर्षों तक के लिए प्रभावी रूप से बरक़रार रहेगा. हालांकि ये सुरक्षा केवल 2017 या उससे पहले किए गए निवेशों के लिए है. भविष्य में श्रीलंका में भारत से किए जाने वाले नए निवेशों के लिए ये सर्वाइवल क्लॉज़ किसी मतलब का नहीं रहेगा. दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन के झंडे तले दक्षिण एशियाई निवेश समझौते पर हो रही वार्ता भी धरातल पर नहीं उतर सकी है. इससे हालात और पेचीदा हो जाते हैं. भारत-श्रीलंका BIT की ग़ैर-मौजूदगी में दक्षिण एशियाई निवेश संधि भारतीय कंपनियों के लिए रामबाण साबित हो सकती थी. वो इसके ज़रिए ना सिर्फ़ श्रीलंका बल्कि समूचे दक्षिण एशिया में अंतरराष्ट्रीय क़ानून के तहत संरक्षण हासिल कर सकते थे.

सिर्फ़ श्रीलंका का ही सवाल नहीं   

जैसा कि पहले ही ज़िक्र किया जा चुका है, ये मसला श्रीलंका में निवेश करने वाले भारतीय कंपनियों तक ही सीमित नहीं है. पिछले वर्षों में भारत की ओर से होने वाले विदेशी निवेश का स्पष्ट रूप से विस्तार हुआ है. इसकी मात्रा और भौगोलिक वितरण, दोनों में प्रसार देखा गया है. भारत के वित्त मंत्रालय के मुताबिक 2021-22 में विदेशों में भारत का वास्तविक प्रत्यक्ष निवेश (ODI) 17.85 अरब अमेरिकी डॉलर रहा. 2020-21 में ये आंकड़ा 15.70 अरब अमेरिकी डॉलर था. इतना ही नहीं, वित्त मंत्रालय के आंकड़े हमें ये भी बताते हैं कि अप्रैल 2000 से मार्च 2023 के बीच भारतीय निवेश का 150 से भी ज़्यादा देशों में फैलाव हुआ है. 

विदेशों में भारतीय निवेश के ऐसे व्यापक प्रसार की वजह से भारतीय कंपनियों द्वारा नियमन के मोर्चे पर मुसीबतों में पड़ने के अनेक मामले सामने आए हैं. ख़ासतौर से ऐसे न्यायिक क्षेत्राधिकारों में जो कारोबार के लिहाज़ से अनुकूल नहीं समझे जाते हैं, वहां ऐसे कई मसले दिखाई दिए हैं. आगे दिए गए उदाहरण से ये बात प्रमाणित होती है: 2008 में टाटा समूह को बांग्लादेश की बिजली परियोजना से अपने हाथ खींचने पड़े थे क्योंकि वहां की सरकार प्राकृतिक गैस की आपूर्ति कर पाने में नाकाम रही थी; जटिल नियमन प्रणाली और क़ीमत निर्धारण प्रक्रिया के चलते भारत की बड़ी दवा कंपनी ल्यूपिन को जापानी दवा बाज़ार से बाहर निकलना पड़ा; बोलिवियाई सरकार द्वारा क़रार से जुड़ी अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में नाकाम रहने के चलते जिंदल स्टील एंड पावर कंपनी को बोलीविया में लौह अयस्क और स्टील से जुड़ी परियोजना का त्याग करने पर मजबूर होना पड़ा था; मालदीव में GMR के निवेश को तब बड़ा झटका लगा था जब मालदीव की सरकार ने माले में हवाई अड्डे के विकास को लेकर GMR के साथ हुए क़रार को अचानक बीच में ही ख़त्म कर दिया; सार्वजनिक स्वामित्व वाले तेल और प्राकृतिक गैस निगम ने वेनेज़ुएला जैसे देशों में कामकाज करने से जुड़े ज़बरदस्त जोख़िमों को कई बार सामने रखा है. 

भारत-श्रीलंका BIT में एक सर्वाइवल क्लॉज़ है, जिसके मुताबिक संधि के एकतरफ़ा ख़ात्मे की सूरत में ये क़रार समाप्ति की तारीख़ से अगले 15 वर्षों तक के लिए प्रभावी रूप से बरक़रार रहेगा. हालांकि ये सुरक्षा केवल 2017 या उससे पहले किए गए निवेशों के लिए है.

वैसे तो इन निगमों ने अपने निवेश की हिफ़ाज़त के लिए द्विपक्षीय निवेश समझौते का इस्तेमाल नहीं किया, लेकिन भारत की अनेक छोटी कंपनियों ने तमाम मेज़बान देशों की संप्रभुता कार्रवाइयों को चुनौती देने के लिए निवेश समझौतों का भरपूर उपयोग किया है. UNCTAD के मुताबिक 2000 से 2020 के बीच भारतीय कंपनियों द्वारा ISDS से जुड़े दावों को सामने लाए जाने के लगभग 11 मामले सामने आए हैं. निवेशक-राज्यसत्ता विवाद समाधान यानी ISDS के 11 दावों में से 9 दावे 2014 से 2020 के बीच किए गए. ये दावे नॉर्थ मेसेडोनिया, लीबिया, बोस्निया और हर्ज़ेगोविना, मोज़ाम्बिक, सऊदी अरब, इंडोनेशिया, मॉरीशस, पोलैंड जैसे देशों के साथ-साथ जर्मनी और यूनाइटेड किंगडम जैसे विकसित देशों के ख़िलाफ़ भी किए गए हैं. इन आंकड़ों से साफ़ है कि भारतीय कंपनियां (ख़ासतौर से छोटे निवेशक) मेज़बान देशों के मनमौजी व्यवहार के ख़िलाफ़ बचाव के लिए एक अनिवार्य उपकरण के तौर पर BIT को कितनी अहमियत देते हैं.

थोक के भाव ख़ात्मा      

भारत ने तक़रीबन 80 द्विपक्षीय व्यापार समझौतों पर दस्तख़त किए थे और वो एकतरफ़ा रूप से इनमें से 70 से भी ज़्यादा क़रारों का ख़ात्मा कर चुका है. इस प्रकार भारत अंतरराष्ट्रीय क़ानून से जुड़े उस ढांचे को उखाड़ चुका है जो विदेशों में राज्यसत्ता के मनमाने बर्तावों से भारतीय पूंजीवाद की रक्षा कर सकते थे. जैसा कि पहले भी बताया गया है, पिछले कुछ वर्षों में ISDS से जुड़े अंधाधुंध दावों की वजह से भारत ने द्विपक्षीय निवेश समझौतों को लेकर संरक्षणवादी रुख़ विकसित कर लिया है. भविष्य में भारत के ख़िलाफ़ निवेशक-राज्यसत्ता विवाद समाधान के मामले ख़त्म करना या फिर उन्हें कम से कम करना ही इस फ़ैसले के पीछे का इरादा मालूम होता है. हालांकि इस सिलसिले में BIT की एक अहम ख़ासियत पर शायद ज़्यादा ध्यान नहीं दिया गया है- वो ये है कि द्विपक्षीय निवेश समझौते दोतरफ़ा होते हैं. इसलिए BITs सिर्फ़ विदेशी कंपनियों को ही भारत पर मुक़दमे का अधिकार नहीं देते बल्कि वो भारतीय निवेशकों को भी BITs का प्रयोग करने के लिए अधिकृत करते हैं. इसके इस्तेमाल से वो अशांत विदेशी बाज़ारों में अपने निवेश की सुरक्षा कर सकते हैं.  

कोविड के बाद की दुनिया में नियमन से जुड़े जोख़िम और विकट हो गए हैं. लिहाज़ा विदेशी निवेश राज्यसत्ताओं के मनमाने, एकतरफ़ा और सनकी बर्तावों की चपेट में आ गए हैं. इसलिए भारत को द्विपक्षीय निवेश समझौतों पर अपने रुख़ पर दोबारा विचार करना चाहिए. इसकी वजह ये है कि ना सिर्फ़ पूंजी के आयातक बल्कि निर्यातक के रूप में भी भारत का उभार हो चुका है. भारत को ISDS के प्रभावी प्रावधानों के साथ BITs को लेकर एक संतुलित रवैया अपनाना चाहिए. इससे भारतीय पूंजीवाद की सुरक्षा और प्रोत्साहन के लिए अंतरराष्ट्रीय वैधानिक संहिता के निर्माण का रास्ता साफ़ हो सकेगा.


प्रभाष रंजन जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल, ओ पी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर और वाइस डीन हैं. 

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.