पूरी दुनिया में कोरोना महामारी के दौरान मची उथल-पुथल का व्यापक असर पड़ा था और आज भी पूरा विश्व इसके दुष्प्रभावों का सामना कर रहा है और एक प्रकार से मौज़ूदा समय में अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था बैसाखियों के सहारे है. कोविड-19 महामारी ने तरह-तरह की वैश्विक चुनौतियों को भी सामने लाने का काम किया है, जैसे कि बहुपक्षवाद का धराशायी होना और ग्लोबल नॉर्थ की ओर से चुनौतियों का मुक़ाबला करने के लिए कमज़ोर प्रतिक्रिया दिखाना. इतना ही नहीं कोरोना महामारी की शुरुआत के बाद से सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) को हासिल करने के लिए वित्तपोषण का अंतर 2.5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर कम से कम 3.9 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर प्रति वर्ष हो गया है. वर्ष 2020 और 2025 के बीच इसमें हर साल 400 बिलियन अमेरिकी डॉलर की बढ़ोतरी होने का अनुमान है. कई कम इनकम वाले और सबसे कम विकसित देशों (LDCs) को बढ़ते कर्ज के बोझ, महंगे ऋण, खाद्य असुरक्षा एवं तेज़ी से बढ़ती मुद्रास्फ़ीति आदि के रूप में इसका ख़ामियाजा भुगतना पड़ रहा है. ज़ाहिर है कि मौज़ूदा परिस्थितियों में विकास साझेदारियां और सशक्त सहयोग बेहद अहम हो गए हैं. वर्तमान में अंतर्राष्ट्रीय सहायता फ्रेमवर्क्स की विशेषता ग्लोबल साउथ का उभार होना है, उसमें भी ख़ास तौर पर भारत और चीन का उभार है, जो कि समावेशी एवं सर्वांगीण विकास को सुविधाजनक बनाने के लिए वित्तीय उपकरणों और संस्थागत व्यवस्थाओं के वैकल्पिक तरीक़ों को प्रस्तुत कर रहे हैं. जैसे कि भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त करने के 76 वर्ष पूरे किए हैं और एक अहम विकास भागीदार के रूप में भारत के उभार ने वैश्विक विकास में एक नियमित एवं क्रमिक बदलाव की शुरुआत कर दी है. इसके साथ ही भारत ने टिकाऊ नैरेटिव को मज़बूत करने की दिशा में ग्लोबल साउथ की तरफ से संचालित साझेदारियों के महत्व को लेकर वैश्विक स्तर पर व्यापक चर्चा-परिचर्चा भी शुरू कर दी है.
भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त करने के 76 वर्ष पूरे किए हैं और एक अहम विकास भागीदार के रूप में भारत के उभार ने वैश्विक विकास में एक नियमित एवं क्रमिक बदलाव की शुरुआत कर दी है.
सही मायने में साझेदारियां
ग्लोबल साउथ की मुखर आवाज़ का प्रतिनिधित्व करने वाला भारत, अपनी विकास साझेदारियों के मॉडल के ज़रिए वर्ष 1947 के पहले से ही अपनी सशक्त मौज़ूदगी दर्ज़ कराता रहा है. उदाहरण के तौर पर वर्ष 1946 में भारत की तत्कालीन अंतरिम सरकार ने अपनी क्षमता निर्माण कार्यक्रम के हिस्से के रूप में चीन और इंडोनेशिया के कृषि वैज्ञानिकों को आमंत्रित करना शुरू कर दिया था. ‘वसुधैव कुटुंबकम‘ की भावना पर आधारित भारत का साझेदारी मॉडल मांग-संचालित है, जिसमें कोई पूर्व शर्त नहीं होती है और यह लाभार्थी देश की संप्रभुता का भी पूरा सम्मान करता है (चित्र 1). विदेश मंत्रालय के अंतर्गत वर्ष 2012 से भारत की परियोजनाओं को डेवलपमेंट पार्टनरशिप एडमिनिस्ट्रेशन (DPA) द्वारा कार्यान्वित किया गया है. साझेदार देशों द्वारा संचालित प्राथमिकताओं के आधार पर विकास साझेदारी को लेकर भारत का नज़रिया नेशनल मूवमेंट की प्रकृति और स्वभाव पर आधारित है.
चित्र 1: विकास साझेदारी की भारतीय प्रकृति
स्रोत: DevCoopIndia, RIS, 2022
जिस समय भारत ने स्वतंत्रता हासिल की, उस दौरान कई विकासशील देश बड़े पैमाने पर असमानता, पिछड़ापन, रंगभेद की नस्लीय भेदभाव वाली नीति और उपनिवेशीकरण जैसी चुनौतियों से जूझ रहे थे. भारत अन्य विकासशील देशों के आंदोलनों को सशक्त करने के लिए अपनी जानकारी, विशेषज्ञता, अनुभव और संसाधनों को साझा करने के लिए उत्सुक था, जिससे उन देशों के साथ सौहार्दपूर्ण जुड़ाव को प्रोत्साहन मिला. ब्रिटिश शासन के दौरान भारत ने जिस पीड़ा को सहा, वो साथी विकासशील देशों की आवश्यकताओं एवं चुनौतियों को समझने में मददगार साबित हुई.
युगांडा की संसद को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि “हमारी विकास साझेदारी आपकी प्राथमिकताओं द्वारा निर्देशित होगी. यह साझेदारी उन शर्तों पर होगी जो आपके लिए सुविधाजन होंगी, जो आपकी क्षमता को बढ़ाने वाली होंगी और आपके भविष्य में कोई रुकावटें पैदा नहीं करेंगी… हम स्थानीय स्तर पर अधिक से अधिक क्षमता का निर्माण करेंगे और जहां तक संभव होगा ज़्यादा से ज़्यादा स्थानीय मौक़े सृजित करेंगे.” भारत अपने साझेदारी कार्यक्रमों के ज़रिए भागीदार देशों की प्राथमिकताओं के प्रति अपनी एकजुटता एवं जवाबदेही को ज़ाहिर करता रहा है. सीमित संसाधनों वाले एक विकासशील देश के तौर पर भारत ने स्वेच्छा से उन देशों के लिए विकास से जुड़े अपने अनुभव को साझा करने की पेशकश की है, जो देश इसमें शामिल होना चाहते हैं. इसे वर्ष 1964 में प्रारंभ किए गए इंडियन टेक्निकल एंड इकोनॉमिक कोऑपरेशन (ITEC) कार्यक्रम द्वारा भलीभांति समझा जा सकता है. भारत द्वारा इस कार्यक्रम को वर्ष 1978 में विकास सहयोग के लिए संयुक्त राष्ट्र (UN) के तकनीक़ी सहयोग से काफ़ी पहले शुरू किया गया था. ऐसे वक़्त में जब दुनिया दो गुटों में बंटी हुई थी और भारत गुटनिरपेक्षता को लेकर चल रही चर्चाओं की अगुवाई कर रहा था, विशेषज्ञों का मानना है कि उस दौरान ITEC भारत के इन्हीं आदर्शों की अभिव्यक्ति की तरह था. साउथ-साउथ कोऑपरेशन (SSC) से आगे बढ़ते हुए, भारत ने ठीक इसी तरीक़े से अन्य विकासशील देशों का सहयोग करने के लिए अपने संस्थानों, संसाधनों और क्षमताओं का विस्तार किया. तब से लेकर अब तक ITEC के माध्यम से भारत द्वारा सिविल और डिफेंस दोनों सेक्टरों में 160 से ज़्यादा देशों के 200,000 से अधिक अधिकारियों को प्रशिक्षण दिया जा चुका है.
ऐसे वक़्त में जब दुनिया दो गुटों में बंटी हुई थी और भारत गुटनिरपेक्षता को लेकर चल रही चर्चाओं की अगुवाई कर रहा था, विशेषज्ञों का मानना है कि उस दौरान ITEC भारत के इन्हीं आदर्शों की अभिव्यक्ति की तरह था.
भारत की विकास साझेदारियों के दूसरे क्षेत्रों में रियायती लाइन्स ऑफ क्रेडिट (LoCs) यानी पहले से निर्धारित उधार की सीमा और सहायता अनुदान शामिल हैं. भारत के विदेश मंत्रालय के मुताबिक़ जुलाई 2023 तक LoCs के अंतर्गत क़रीब 22,444.87 मिलियन अमेरिकी डॉलर का वितरण किया गया है, यह वर्ष 2017-18 की तुलना में 34 प्रतिशत की वृद्धि को प्रदर्शित करता है. इतना ही नहीं भारत द्वारा फरवरी 2023 तक लगभग 73,785 करोड़ रुपये अनुदान और ऋण के तौर पर वितरित किए गए हैं, यह वर्ष 2018-2023 की अवधि के लिए 28.3 प्रतिशत की बढ़ोतरी को दर्शाता है. वर्तमान में भारत के EXIM बैंक द्वारा संचालित LoCs का साधन, मुख्य रूप से भारत के पड़ोसी देशों और अफ्रीका पर विशेष ध्यान देने के साथ बड़ी परियोजनाओं के वित्तपोषण की सुविधा प्रदान करता है. (चित्र 2) पिछले 15 वर्षों में क़रीब 32 बिलियन अमेरिकी डॉलर LoCs के रूप में प्रदान किए गए हैं, जिसमें अकेले लगभग 12 बिलियन अमेरिकी डॉलर अफ्रीकी देशों को दिए गए हैं. सफलता के कुछ उदाहरणों पर नज़र डालें तो भारत द्वारा घाना में रेलवे ट्रांसपोर्टेशन के लिए 447.17 मिलियन अमेरिकी डॉलर, मालदीव में सड़कों के लिए 34.33 मिलियन अमेरिकी डॉलर, सेनेगल में बिजली ट्रांसमिशन और वितरण के लिए 200 मिलियन यूएस डॉलर, मोज़ाम्बिक में पेट्रोलियम/तेल और गैस के लिए 31 मिलियन अमेरिकी डॉलर और श्रीलंका में वाटर सेक्टर के लिए 60.69 मिलियन अमेरिकी डॉलर प्रदान किया जाना शामिल है.
चित्र 2: भारत द्वारा LoCs का सेक्टरों के मुताबिक़ वितरण (1947-2020)
स्रोत: DevCoopIndia, RIS, 2022
एजेंडा 2030 और भारत की विकास साझेदारियां
देखा जाए, तो एजेंडा 2030 के अंतर्गत सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने के मामले में दुनिया की गति काफ़ी धीमी होने की वजह से विकास साझेदारियां अब एक कोई नैतिक दायित्व नहीं रह गई हैं. सच्चाई यह है कि विकास साझेदारियां एक लिहाज़ से प्रगति की आवश्यकता बन गई हैं. ऐसे परिदृश्य में मज़बूत सहयोग और सहभागिता वाले भारत के मॉडल में गेम-चेंजर बनने की क्षमता है. ऐसे में नई दिल्ली की व्यापक, समग्र और ‘मानव-केंद्रित’ प्रकृति वाली परियोजनाएं टिकाऊ विकास में अपना ख़ासा योगदान दे रही हैं. यद्यपि, भारत की विकास साझेदारियों के तहत कोई नीति-संचालित टिकाऊ एजेंडा नहीं है, बल्कि भारत अपनी विभिन्न परियोजनाओं के माध्यम से भविष्य की रक्षा करने और धरती के संरक्षण के इर्द-गिर्द बातचीत तैयार करने पर बल दे रहा है. सबका साथ, सब विकास, सबका विश्वास के मंत्र से प्रेरित होकर भारत न सिर्फ़ SSC को आगे बढ़ा रहा है, बल्कि ग्लोबल साउथ के उद्देश्य को भी सशक्त कर रहा है. भारत अपनी G20 समूह एवं शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन (SCO) की वर्तमान अध्यक्षता के माध्यम से राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए व्यवहारिक एवं स्वीकार्य तरीक़े स्थापित करने हेतु आम राय बनाने में भी जुटा हुआ है.
सबका साथ, सब विकास, सबका विश्वास के मंत्र से प्रेरित होकर भारत न सिर्फ़ SSC को आगे बढ़ा रहा है, बल्कि ग्लोबल साउथ के उद्देश्य को भी सशक्त कर रहा है.
भारत ने कोविड-19 महामारी के दौरान वैक्सीन मैत्री के तहत पूरे विश्व के लगभग 90 देशों को टेस्टिंग किट्स, रक्षात्मक उपकरण, हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन और फिर बाद में वैक्सीन के रूप में कोविड से संबंधित चिकित्सा सहायता प्रदान करके अपनी भूमिका को सशक्त एवं व्यापक बनाया है. आपातकालीन परिस्थितियों में सबसे पहले अपनी तरफ से प्रतिक्रिया देने और मदद उपलब्ध कराने वाले के रूप में पहचान स्थापित करने वाली नई दिल्ली ने संकट के ऐसे समय में, जब वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला गंभीर रूप से बाधित हो गई थी, तब कई विकासशील देशों में रेपिड रिस्पॉन्स टीम्स, यानी त्वरित प्रतिक्रिया टीमों को भेजकर उन्हें तकनीक़ी सहायता मुहैया कराई. हालांकि, अब भारत के समक्ष तीन प्रमुख बदलावों का यह सटीक समय है: a) सभी संसाधनों से सुसज्जित एक आत्मनिर्भर अंतर्राष्ट्रीय विकास सहयोग एजेंसी की स्थापना करना, b) अपनी विकास साझेदारियों को लेकर उनके उद्देश्यों, लक्ष्यों और नतीज़ों का पूरा ब्योरा देते हुए एक श्वेत पत्र जारी करना और आख़िर में, c) डेवलपमेंट पार्टनरशिप एडमिनिस्ट्रेशन के अंतर्गत एक अलग स्तंभ के रूप में टिकाऊ विकास को संस्थागत बनाना.
स्वाति प्रभू ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक डिप्लोमेसी (CNED) में एसोसिएट फेलो हैं.
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