Published on Jul 13, 2021 Updated 0 Hours ago

शिखर वार्ता के बाद साझा बयान लंबा और महत्वाकांक्षी है, इस तरह का मानो ब्रिटेन और भारत को दुनिया के हर मुद्दे पर अपनी राय रखने का विशेष अधिकार है

भारत-यूके (यूनाईटेड किंगडम) के संबंधों का विरोधाभास

जब नेता मिलते हैं तो बड़े ऐलान जैसे संबंधों को नये सिरे से बनाने की उम्मीद करनी चाहिए. 04 मई को प्रधानमंत्री मोदी और जॉनसन के बीच वर्चुअल शिखर वार्ता के बाद जिस “भारत-यूके रोडमैप 2030” का प्रदर्शन किया गया वो भविष्य के मुताबिक़ संपूर्ण है. लेकिन इसके बावजूद हम इस बात के लिए निश्चिंत नहीं हो सकते कि ब्रिटेन अतीत से बाहर निकल चुका है. ब्रिटेन के पूर्व चांसलर जॉर्ज ओसबोर्न कहते हैं, “ब्रिटिश सरकारों का एक पूरा सिलसिला है जो सोचती हैं कि भारत के साथ एक विशेष संबंध हैं. मेरा अनुभव ये है कि भारतीय ब्रिटेन के बारे में ऐसा नहीं सोचते.”

शिखर वार्ता के बाद साझा बयान लंबा और महत्वाकांक्षी है, इस तरह का मानो ब्रिटेन और भारत को दुनिया के हर मुद्दे पर अपनी राय रखने का विशेष अधिकार है. इस बयान में भारत की घरेलू राजनीति में ब्रिटेन के हस्तक्षेप- भारत विरोधी अलगाववादियों को बचाना, भारतीय उच्चायोग पर हिंसक हमलों को बर्दाश्त करना, वित्तीय अपराधियों को शरण मुहैया कराना या किसानों के आंदोलन पर संसद में बहस आयोजित करना- को लेकर भारत की चिंताएं नहीं बताई गई हैं. कश्मीर के अलगाववादियों और तालिबान को ब्रिटेन का समर्थन किसी से छुपा नहीं है.

ब्रिटेन के विदेश मंत्री डोमिनिक राब कहते हैं, “आपकी राजनीति हमारी राजनीति है” तो उनका मतलब है कि भारत को इन हस्तक्षेपों के साथ रहने की आदत डाल लेनी चाहिए. ब्रिटेन में रहने वाले पाकिस्तान के लोग नियमित तौर पर सांसदों से पाकिस्तान के मुद्दे पर सवाल-जवाब करते रहते हैं. 

जब ब्रिटेन के विदेश मंत्री डोमिनिक राब कहते हैं, “आपकी राजनीति हमारी राजनीति है” तो उनका मतलब है कि भारत को इन हस्तक्षेपों के साथ रहने की आदत डाल लेनी चाहिए. ब्रिटेन में रहने वाले पाकिस्तान के लोग नियमित तौर पर सांसदों से पाकिस्तान के मुद्दे पर सवाल-जवाब करते रहते हैं. ब्रिटेन में रहने वाले भारत के लोगों का हित भारत के हित से कम जुड़ा हुआ है. इस तरह ब्रिटेन में रहने वाले पाकिस्तान के लोगों का वोट मिलने का तत्काल ईनाम भारत के साथ मज़बूत साझेदारी के लंबे वक़्त के फ़ायदों से ज़्यादा है. इस तरह ये समुदाय उस देश पर दबाव बनाने का औज़ार बना रहेगा जिसको ब्रिटेन “एक ज़रूरी साझेदार” और “अंतर्राष्ट्रीय रूप से बढ़ती अहमियत” वाला देश कहता है. 

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के लिए भारत की इच्छा के समर्थन में ब्रिटेन का बयान भी उसके इरादे से मेल नहीं खाता (हालांकि भारत की तरह ब्रिटेन भी सुरक्षा परिषद में सुधार को लेकर बातचीत का समर्थन करता है). संयुक्त राष्ट्र के मंच से ब्रिटेन (या स्थायी-5) के किसी राजदूत ने संयुक्त राष्ट्र में भारत की स्थायी सदस्यता के समर्थन में कोई बयान नहीं दिया है.

कुछ दिन पहले कॉर्नवॉल में जी-7 शिखर सम्मेलन में भारत ने “ओपन सोसाइटी स्टेटमेंट” पर हस्ताक्षर किया. पिछले कुछ महीनों से लगातार ये चर्चा चल रही थी कि जी-7 अब डी-10 में बदल जाएगा. लेकिन ग़ैर-लोकतांत्रिक देश जैसे रूस, ईरान और खाड़ी के साम्राज्य भारत के सबसे मज़बूत साझेदार देशों में से हैं. इसके अलावा, अगर चीन के ख़िलाफ़ किसी गठबंधन का लक्ष्य है तो इसमें शामिल होने के इच्छुक ग़ैर-लोकतांत्रिक देशों से नज़रें क्यों हटाई जा रही हैं? 

लंदन के प्रभावशाली संस्थान चैटम हाउस के निदेशक रॉबिन निबलेट 11 जनवरी के अपने दस्तावेज़ में दूसरी बातों के अलावा कहते हैं: “भारत के हित शायद ही छोटे, आर्थिक रूप से विकसित लोकतांत्रित देशों से मेल खाते हैं.” निबलेट भारत को “प्रतिद्वंदी या ज़्यादा-से-ज़्यादा ख़राब समकक्ष” के रूप में चीन, सऊदी अरब और तुर्की जैसे देशों की श्रेणी में रखते हैं. थिंक टैंक के साथ भागीदारी को मज़बूत करने से इस समस्या का समाधान नहीं होगा क्योंकि ब्रिटेन ऐसे काम करता है मानो वो ऊंचे धरातल पर हो. 

भारत ने ब्रिटेन से माइग्रेशन और मोबिलिटी साझेदारी हासिल की जिसके तहत 3,000 युवा भारतीय हर साल लेबर मार्केट टेस्ट दिए बिना यूके में रोज़गार का अवसर हासिल करेंगे. लेकिन इसके बदले में भारत को बिना दस्तावेज़ ब्रिटेन में रह रहे भारतीयों को स्वीकार करने की बात माननी पड़ी. 

साझेदारी में संरचना की समस्या हमें हैरान क्यों करे? दुनिया की 5वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और संयुक्त राष्ट्र का स्थायी सदस्य देश ऐसे भारत को लेकर ख़ुश नहीं रह सकता जो 7वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और आगे बढ़ रहा है (महामारी से पहले भारत ने 5वीं रैंक पर ब्रिटेन की जगह ले ली थी लेकिन अब वो 7वें पायदान पर पहुंच गया है). 2019 में विश्व की जीडीपी में भारत का हिस्सा 7.09 प्रतिशत था और 2030 तक ये बढ़कर 7.97 प्रतिशत होने की उम्मीद है. इस तरह अमेरिका और चीन के बाद भारत तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा. सामरिक मामलों के जानकार अभिंजन रेज कहते हैं: “क्या भविष्य में भारत की स्थिति ही वो चीज़ नहीं है जिसकी वजह से भारत की मौजूदा स्थिति में सुधार आ रहा है?” ब्रिटेन को भारतीय शक्ति के साथ ज़रूर रहना चाहिए, इसलिए ऐसा तो नहीं कि ब्रिटेन भारत के आगे बढ़ने में अड़ंगे लगा रहा है? 

इससे ये भी पता चलता है कि अमेरिकी नौसेना का जहाज़ यूएसएस जॉन पॉल जोन्स अप्रैल में बिना इजाज़त भारत के विशेष आर्थिक क्षेत्र में क्यों दाख़िल हुआ था. निबलेट सही हैं- भारत दूसरे लोकतांत्रिक देशों जैसे कनाडा और ऑस्ट्रेलिया, जिनके समुद्री दावों को भी अमेरिका ख़ारिज करता है, से अलग है क्योंकि उनके समुद्र में युद्ध पोत भेजने और दुनिया को बताने से अमेरिका बचता है. पश्चिम के नज़रिए से देखने पर भारत बिल्कुल अलग है. 

भारत मौजूदा हालात को बदलने वाली शक्ति है और हो भी क्यों नहीं? परिवर्तित सुरक्षा परिषद और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों से लेकर ग्लोबल वॉर्मिंग पर बदले हुए नियम तक, भारत हर जगह बहस की रूप-रेखा तय कर रहा है. विदेश मंत्री जयशंकर इसे संतुलन से नेतृत्व वाला बदलाव बताते हैं. “द इंडिया वे” नाम की अपनी किताब में जयशंकर भारत की मौजूदा महत्वाकांक्षा को पूरा करने में प्राचीन नीतियों पर भरोसा जताते हैं. भारत शक्तिशाली देशों के समूह में प्रवेश चाहता है, यथास्थिति को पलटना नहीं चाहता. 

ब्रिटेन भारत की तरफ़ साझेदार नहीं बाज़ार के नज़रिए से देखता है

पीएम मोदी के साथ वर्चुअल शिखर वार्ता के बाद ब्रिटिश मीडिया से बात करते हुए जॉनसन ने फ़ौरन व्यापार समझौते का ढिंढोरा पीटा. इस समझौते से 6,000-6,500 ब्रिटिश नागरिकों को रोज़गार मिलेगा, 533 मिलियन पाउंड (739.2 मिलियन अमेरिकी डॉलर) से ज़्यादा नया भारतीय निवेश ब्रिटेन में आएगा और ब्रिटिश कारोबारियों के लिए 447 मिलियन पाउंड का निर्यात समझौता होगा जिससे 400 से ज़्यादा ब्रिटिश नागरिकों को नौकरी मिलेगी. एक अपवाद को छोड़कर भारतीय बयान ग़ायब था. भारत ने ब्रिटेन से माइग्रेशन और मोबिलिटी साझेदारी हासिल की जिसके तहत 3,000 युवा भारतीय हर साल लेबर मार्केट टेस्ट दिए बिना यूके में रोज़गार का अवसर हासिल करेंगे. लेकिन इसके बदले में भारत को बिना दस्तावेज़ ब्रिटेन में रह रहे भारतीयों को स्वीकार करने की बात माननी पड़ी. 

बढ़ी हुई व्यापार साझेदारी के तहत 2030 तक व्यापार दोगुना करने और मुक्त व्यापार समझौते पर बातचीत का दरवाज़ा खोलने पर विचार किया गया है. क्या ब्रिटेन यूरोपीय यूनियन से कम व्यापार शुल्क लेने के लिए तैयार होगा जिससे कि भारत से और ज़्यादा कृषि निर्यात को इजाज़त मिल सके? क्या ब्रिटेन छात्रों और कुशल कामगारों के प्रवेश को आसान बनाएगा? क्या भारत आयात शुल्क कम करेगा? मिले-जुले नतीजों के बाद मुक्त व्यापार समझौते को लेकर भारत की प्राथमिकता कुछ कम हुई है और मोदी सरकार के तहत भारत ने ऐसा एक भी समझौता नहीं किया है. 

इस तरह भारत और ब्रिटेन के बीचे संबंधों में संरचनात्मक समस्या है जो कि नीयत और दस्तावेज़ों, और संबंधों में बदलाव और झुकाव के ज़रिए हल नहीं हुआ है. पुराने रोडमैप और व्यापार महत्वाकांक्षा दूर से देखने पर भटकाव की तरह लगते हैं. 2015 में यूके-भारत रक्षा और अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा साझेदारी के ज़रिए सहयोग को बढ़ाने की कोशिश की गई लेकिन नतीजे बिल्कुल साधारण रहे. नया रोडमैप भी उसी तरह हो सकता है. 

शायद चीन पर एक अतिरिक्त विकल्प का निर्माण करने वाली साझेदारी भारत के लिए तत्काल फ़ायदे से ज़्यादा महत्वपूर्ण साबित हुआ. अन्यथा हम “वैश्विक सप्लाई चेन की विविधता” और हिंद महासागर में ब्रिटिश नौसेना के करियर स्ट्राइक ग्रुप की तैनाती के साथ साझा नौसैनिक अभ्यास की व्याख्या कैसे कर पाएंगे? यूरोपीय यूनियन से ब्रिटेन के अलग होने (ब्रेक्ज़िट) के बाद इंडो-पैसिफिक की तरफ़ ब्रिटेन के झुकाव के साथ दोनों ही तरफ़ नई सोच चल रही है. लेकिन चीन को लेकर केंद्रित इन क़दमों के बारे में चीन के जवाब की कमी ग्लोबल टाइम्स और चीन के विद्वानों के चिंताजनक लहज़े से मेल नहीं खाता जब भारत और यूरोपीय यूनियन ने मुक्त व्यापार समझौते पर बातचीत की फिर से शुरुआत का ऐलान किया. 

दरअसल ब्रिटेन में रहने वाले भारतीय ब्रिटिश हैं और उनको एकजुट करना ब्रिटेन की राजनीति में दख़ल की तरह होगा और जब भारत अपने मामलों में ब्रिटेन के दखल पर आपत्ति जताता है तो इस मामले में दख़ल को न्यायोचित ठहराना मुश्किल होगा.

हम ये दलील दे सकते हैं कि संबंधों को नये सिरे से बनाने की बुनियाद मज़बूत है. ब्रिटेन में रहने वाले भारतीय मूल के 15 लाख ब्रिटिश नागरिक, जो आबादी के सिर्फ़ 1.8 प्रतिशत हैं, ब्रिटेन की जीडीपी में छह प्रतिशत का योगदान देते हैं. ब्रिटिश आंकड़ों के मुताबिक़ दोनों देशों के बीच 23 अरब पाउंड का व्यापार होता है जो दोनों देशों में 5-5 लाख रोज़गार को सहारा देता है. 2000-2020 के बीच 28.21 अरब अमेरिकी डॉलर के निवेश के साथ ब्रिटेन भारत में छठा सबसे बड़ा निवेशक है. 

लेकिन ब्रिटिश मीडिया के द्वारा ज़रूरत से ज़्यादा तारीफ़ (“उभरती महाशक्ति” पर विचार कीजिए) सेहतमंद होने की गोली की तरह है जिससे भारत अपने को मज़बूत करने के लक्ष्य से भटकेगा. ऐसा देश जिसकी प्रति व्यक्ति जीडीपी 2019 में 2,100 अमेरिकी ड़ॉलर हो वो ब्रिटेन के साथ मुक़ाबला नहीं कर सकता जिसकी प्रति व्यक्ति जीडीपी 42,329 अमेरिकी डॉलर है. अगर ब्रिटेन भारत को अपने हस्तक्षपों से अलग करने से इनकार कर दे तो इसकी वजह निश्चित तौर पर उसकी सैन्य शक्ति है.  

भारत को क्या करना चाहिए? 

भारत को संबंधों के अलग-अलग पहलू के बीच तालमेल की कमी को समझने की ज़रूरत है. लंबे साझा बयान और दुर्गम महत्वाकांक्षा जवाब नहीं हैं. भारत को परेशान करने वाले मुद्दों पर साझा नतीजे पर पहुंचना सबसे बड़ी चिंता होनी चाहिए. ये ब्रिटेन की व्यापार महत्वाकांक्षा की अहमियत को कम करता है. 

क्या भारत अपने लिए महत्वपूर्ण मुद्दों पर ब्रिटेन में रहने वाले भारतीयों को एकजुट करे? दरअसल ब्रिटेन में रहने वाले भारतीय ब्रिटिश हैं और उनको एकजुट करना ब्रिटेन की राजनीति में दख़ल की तरह होगा और जब भारत अपने मामलों में ब्रिटेन के दखल पर आपत्ति जताता है तो इस मामले में दख़ल को न्यायोचित ठहराना मुश्किल होगा. एक ज़्यादा असरदायक तरीक़ा होगा व्यापक राष्ट्रीय शक्ति का निर्माण करना ताकि ब्रिटेन सहारे के लिए भारत की तरफ़ देखे. इसके लिए समय और धैर्य की ज़रूरत है.

भारत ने क़ानूनी बाधाओं की वजह से धरोहरों की वापसी की उम्मीदें छोड़ दी हैं. भारत की उलाहना वाली राजनीति में ये बड़ा मुद्दा है लेकिन जैसे-जैसे भारत का भरोसा बढ़ता है, भविष्य में ये मुद्दा प्रमुखता से उभरेगा.

इस संबंध की कई शुरुआत हुई है. लेकिन खेल में बने रहने के लिए हमें भू-राजनीति को स्वीकार करना होगा. ब्रिटेन (ब्रेक्ज़िट के बाद) और भारत (चीन की चुनौती के साथ) को साझेदारों की ज़रूरत है. महामारी के बीच भारत की मुश्किलों को देखते हुए ब्रिटेन को शुरुआती बढ़त है. महामारी के बाद क्या होगा? हम नहीं जानते.

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