Author : Jhanvi Tripathi

Published on Jul 31, 2023 Updated 0 Hours ago

भारत और संयुक्त अरब अमीरात का व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौता (CEPA) भारतीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने में मददगार साबित होगा. इससे भारत को अपने भू-आर्थिक रणनीति को आगे बढ़ाने में सहायता मिलेगी.

India–UAE CEPA: भारत के मुक्त व्यापार समझौतों का भविष्य क्या होगा?
India–UAE CEPA: भारत के मुक्त व्यापार समझौतों का भविष्य क्या होगा?

अंतरराष्ट्रीय व्यापार वार्ताओं में भारत की छवि एक सुस्त और सतर्क देश की रही है. ऐसे में ये वाक़ई अनोखी बात है कि भारत सरकार ने संयुक्त अरब अमीरात (UAE) के साथ पूर्ण स्तरीय व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौते (CEPA) की प्रक्रिया को 88 दिनों में ही पूरा कर लिया. इस नए क़रार से मुक्त व्यापार समझौतों (FTAs) पर भारत के भावी रुख़ को लेकर कई तरह के संकेत मिलते हैं. व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौते में शुल्कों में कमी लाने को लेकर बेहद महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखे गए हैं. हालांकि समझौते में शामिल किए गए नए मसलों जैसे डिजिटल व्यापार से जुड़े हिस्से को लेकर काफ़ी एहतियात बरती गई है. इनसे जुड़े मानकों पर समझौते की प्रक्रिया को आगे खिसका दिया गया है.

नए व्यापार समझौतों को लेकर भारत में एक हिचकिचाहट दिखाई देती रही है. भारत की भागीदारी वाली व्यापार वार्ताओं के हालिया इतिहास से ये बात ज़ाहिर होती है.

नए व्यापार समझौतों को लेकर भारत में हिचकिचाहट

नए व्यापार समझौतों को लेकर भारत में एक हिचकिचाहट दिखाई देती रही है. भारत की भागीदारी वाली व्यापार वार्ताओं के हालिया इतिहास से ये बात ज़ाहिर होती है. चाहे क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (RCEP) का मसला हो या यूरोपीय संघ (EU) के साथ वार्ताओं को दोबारा शुरू करने की भारत की कोशिश का, ये हिचकिचाहट समान रूप से दिखाई देती है. RCEP को लेकर वार्ता प्रक्रियाएं 2013 से शुरू होकर 6 सालों तक जारी रहीं. साल 2019 के आख़िर में भारत इससे बाहर हो गया. यूरोपीय संघ के साथ वार्ताओं का दौर 15 साल पहले 2007 में शुरू हुआ था. तबसे इस प्रक्रिया में कई तरह की अड़चनें आती चली गई हैं. अगस्त 2011 में भारत ने जापान के साथ व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौते (CEPA) पर दस्तख़त किए थे. संयुक्त अरब अमीरात से हुआ समझौता इसके बाद का पहला ऐसा क़रार है. 2011 के बाद से वार्ताओं की लंबी प्रक्रियाओं और पुराने मुक्त व्यापार समझौतों में ज़रूरी सुधारों के बावजूद व्यापार से जुड़े किसी नए क़रार पर दस्तख़त नहीं हो पाए थे. RCEP से बाहर निकल जाने के भारत के फ़ैसले और चीन के साथ निरंतर जारी प्रतिद्वंदिता ने ज़ाहिर तौर पर भारत को पश्चिम में नए बाज़ार और भागीदार तलाशने को प्रेरित किया.

भारत और संयुक्त अरब अमीरात के बीच हुआ ताज़ा समझौता भारत के लिहाज़ से एक बड़ा और अहम क़दम है. दरअसल भारत अब महज़ रक्षात्मक रुख़ अपनाने की बजाए दुनिया के बाज़ारों में अपनी पहुंच बनाने पर ज़ोर देता दिखाई दे रहा है.

भारत का दुनिया के बाज़ारों में अपनी पहुंच

 भारत और संयुक्त अरब अमीरात के बीच हुआ ताज़ा समझौता भारत की भू-आर्थिक रणनीति के लिहाज़ से अहम है. इसकी कई वजहें हैं. संयुक्त अरब अमीरात और खाड़ी सहयोग परिषद का विस्तृत इलाक़ा ही क़ुदरती तौर पर भारत का व्यापारिक भागीदार है. व्यापार के मसलों पर भारत और यहां के तमाम देश बख़ूबी एक-दूसरे की ज़रूरतें पूरी करते हैं. व्यापार के संदर्भ में भारत की असल दिक़्क़त पूर्वी और दक्षिण पूर्वी एशिया के भागीदारों के साथ है क्योंकि दोनों ही पक्ष आम तौर पर प्रतिस्पर्धी स्वभाव वाले उत्पादों के व्यापार में लगे हैं. बहरहाल अंतरराष्ट्रीय व्यापार केंद्र के निर्यात संभावना नक़्शे के अनुसार संयुक्त अरब अमीरात के साथ भारतीय वस्तुओं के व्यापार की अपार संभावनाएं मौजूद हैं. इसके मुताबिक भारत तक़रीबन 10.1 अरब अमेरिकी डॉलर का अतिरिक्त व्यापार कर सकता है. भारत और संयुक्त अरब अमीरात के बीच हुआ ताज़ा समझौता भारत के लिहाज़ से एक बड़ा और अहम क़दम है. दरअसल भारत अब महज़ रक्षात्मक रुख़ अपनाने की बजाए दुनिया के बाज़ारों में अपनी पहुंच बनाने पर ज़ोर देता दिखाई दे रहा है.

व्यापार की संभावनाएं और चुनौतियां

भारत और संयुक्त अरब अमीरात के बीच व्यापार में मूल्य के हिसाब से शीर्ष 10 उत्पादों पर नज़र डालने पर (नीचे टेबल 1) हम पाते हैं कि दोनों पक्षों के बीच साझा उत्पाद श्रेणियों में व्यापार होता आ रहा है. इससे 2 में से एक बात ज़ाहिर हो जाती है. पहली संभावना तो ये है कि इनमें से एक बाज़ार का दूसरे बाज़ारों को निर्यात के लिए महज़ इस्तेमाल हो रहा है. भले ही कुछ उत्पादों के संदर्भ में ये बात सच हो सकती है लेकिन इससे पूरी कहानी बयां नहीं होती. इसकी वजह ये है कि दोनों ही देशों के पास मुक्त व्यापार समझौतों पर आधारित विशाल इलाक़े में फैले बाज़ार के व्यापक जाल तक पहुंच नहीं है. साथ ही दोनों के पास विकास के दर्जे पर आधारित प्राथमिकता वाले बर्ताव की सुविधा भी उपलब्ध नहीं है. दूसरी, और ज़्यादा मुमकिन संभावना ये है कि इन साझा उत्पाद श्रेणियों पर एक मूल्य श्रृंखला मौजूद है. खनिज ईंधनों, बेशक़ीमती धातुओं, जहाज़ों, लोहे और स्टील, परमाणु उपकरणों जैसे तमाम क्षेत्रों में दोनों ही देशों के बीच साझा और पूरक रिश्ते हैं. लिहाज़ा CEPA के चलते शुल्कों में कमी इन्वर्टेड ड्यूटी स्ट्रक्चर्स[1] और घरेलू शुल्कों में बदलाव के कारण पैदा हुई अस्थिरताओं के निपटारे में फ़ायदेमंद साबित होगी. ऐसे में एक स्वागतयोग्य पहलू ये है कि 1 मई 2022 को इस समझौते के अमल में आने के बाद भारत से निर्यात होने वाले 90 प्रतिशत उत्पादों पर किसी तरह का शुल्क नहीं लगेगा.

दोनों ही देशों के पास मुक्त व्यापार समझौतों पर आधारित विशाल इलाक़े में फैले बाज़ार के व्यापक जाल तक पहुंच नहीं है. साथ ही दोनों के पास विकास के दर्जे पर आधारित प्राथमिकता वाले बर्ताव की सुविधा भी उपलब्ध नहीं है

दूसरे घटनाक्रमों से भी भारतीय पक्ष के और ज़्यादा मंसूबों के संकेत मिलते हैं. मानकों की पहचान के संदर्भ में भारतीय दवा उद्योग के जेनेरिक्स के लिए ऑटोमेटिक रजिस्ट्रेशन और मार्केटिंग ऑथराइज़ेशन क्लॉज़ को लेकर हो रही वार्ताएं भी बेहद दिलचस्प घटनाक्रम है. विकसित देशों की मंज़ूरियों के मामलों में ये ऑथराइज़ेशन  अमल में आएंगे. बहरहाल भविष्य में भारत द्वारा अपने मानकों को पारस्परिक पहचान दिलाने की क़वायद के सिलसिले में ये एक अहम क़दम है. मानकों के साथ सामंजस्य बिठाने और नियम पालना के दृष्टिकोण- दोनों लिहाज़ से इस लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ना मुनासिब रहेगा.

​मानकों से जुड़े नियमों के सहायक के तौर पर सख़्त रूल्स ऑफ़ ओरिजिन (RoO) की क़वायद आती है. CEPA में 40 फ़ीसदी मूल्य संवर्धन को अनिवार्य बनाया गया है. भले ही ये अहम है लेकिन भविष्य में RoO मूल्य एक मसला बन सकता है. इस अनिवार्यता के मायने ये हैं कि भारत और संयुक्त अरब अमीरात से किसी वस्तु का निर्यात समझे जाने के लिए इसमें मूल देश में कम से कम 40 फ़ीसदी नया मूल्य जोड़ा जाना ज़रूरी होगा. ग़ौरतलब है कि बेशक़ीमती धातुओं जैसे सेक्टरों में इतनी तादाद में मूल्य संवर्धन मुमकिन नहीं है. इन सेक्टरों में ये मसला आगे चलकर तब और साफ़ हो सकेगा जब इस समझौते का ब्योरा सार्वजनिक रूप से उपलब्ध होगा.

भविष्य में भारत द्वारा अपने मानकों को पारस्परिक पहचान दिलाने की क़वायद के सिलसिले में ये एक अहम क़दम है. मानकों के साथ सामंजस्य बिठाने और नियम पालना के दृष्टिकोण- दोनों लिहाज़ से इस लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ना मुनासिब रहेगा. 

​समझौते का ब्योरा सामने आने पर उसके एक और हिस्से की पड़ताल लाज़िमी हो जाएगी. वो हिस्सा है ई-कॉमर्स और डिजिटल कारोबार से जुड़ा क़रार. हालांकि भारत द्वारा मुक्त व्यापार समझौते में ई-कॉमर्स से जुड़े अध्याय को शामिल किए जाने की ये कोई पहली मिसाल नहीं है. हालांकि विश्व व्यापार संगठन (WTO) की अनिवार्यताओं से आगे निकलकर नियमों को कभी भी उदारीकरण के दायरों तक नहीं बढ़ाया गया है. ख़बरों के मुताबिक बौद्धिक संपदा अधिकार, डिजिटल व्यापार और सरकारी ख़रीद से जुड़े सभी अध्याय ‘उत्तम प्रयास‘ के आधार पर आगे बढ़ाए जाएंगे. इन तमाम क़वायदों से इतर यहां पहले से ही 2 कारक मौजूद हैं. पहला, मुक्त व्यापार समझौते में ई-कॉमर्स लेनदेनों पर आयात शुल्कों की रोक से परे ज़ाहिर तौर पर डिजिटल व्यापार से जुड़े मसलों के व्यापक समूह को शामिल किया जाएगा. दूसरा, इन मसलों पर बाध्यकारी प्रतिबद्धताएं नहीं हैं. इससे विश्व व्यापार संगठन की अनिवार्यताओं से आगे निकलकर[2] इन मसलों पर किसी तरह की ज़रूरतें पूरी नहीं करने का भारत का रुख़ भी बरक़रार रहता है.

कुल मिलाकर भारत और संयुक्त अरब अमीरात के व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौते से निर्यात को बढ़ावा देने पर मौजूदा सरकार के तवज्जो को आगे बढ़ाने के संकेत मिलते हैं.

CEPA भारतीय उद्योग के लिए बेहतरीन ज़रिया

कुल मिलाकर भारत और संयुक्त अरब अमीरात के व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौते से निर्यात को बढ़ावा देने पर मौजूदा सरकार के तवज्जो को आगे बढ़ाने के संकेत मिलते हैं. ठीक तरह से अमल में लाए जाने से ये समझौता भारतीय उद्योग के लिए बेहतरीन औज़ार साबित हो सकता है. ग़ौरतलब है कि भारतीय उद्योग जगत के लिए संयुक्त अरब अमीरात और खाड़ी का पूरा विस्तृत इलाक़ा जाना-पहचाना बाज़ार है. इससे बौद्धिक संपदा अधिकारों और डिजिटल कारोबार जैसे व्यापारिक मसलों पर भारत के रुख़ की निरंतरता का स्तर भी दिखाई देता है. ये मसले यूरोपीय संघ और यूनाइडेट किंगडम के साथ भारत की मौजूदा वार्ताओं में अड़चनें पैदा कर सकते हैं. बहरहाल भारत और संयुक्त अरब अमीरात के व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौते से 2 अहम व्यापारिक साथियों के बीच अनिश्चितता और सियासी जोख़िम में कमी लाने का मक़सद पूरा हो रहा है.


[1] Inverted duty structure implies that the tariff on intermediary products is higher than on the final good increasing the domestic cost of production

[2] WTO-plus requirements are those rules in any trade agreement that push the scope of liberalisation of trade rules beyond what is agreed at the WTO.

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