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विकासशील देशों के मज़बूत पक्षधर के तौर पर भारत को विकास में सहयोग के ढांचे को नए सिरे से गढ़कर नया रूप देना चाहिए, ताकि उससे सबका भला हो सके.
दिल्ली में G20 शिखर सम्मेलन की सबसे बड़ी उपलब्धि ये रही है कि भारत ने ख़ुद को विकासशील देशों के दृष्टिकोण की नुमाइंदगी करने वाली एक मज़बूत आवाज़ के तौर पर स्थापित कर लिया है. भारत की इस स्थिति का विकास में अंतरराष्ट्रीय सहयोग और आर्थिक कूटनीति पर गहरा असर पड़ने वाला है. क्योंकि अब तक अमीर देश इन दोनों का इस्तेमाल विकसित देश ग़रीब और विकासशील देशों पर अपना प्रभाव जमाने के औज़ार के तौर पर करते थे.
इन परिवर्तनों और भू-राजनीतिक शक्ति के बदले मानकों के कारण विकासशील देशों के बीच आपसी सहयोग की रूप-रेखाएं, पारंपरिक मंच और संस्थान अब भारत के लिए कम से कम प्रासंगिक होते जा रहे हैं.
इसके अलावा, G20 के 21वें सदस्य के तौर पर अफ्रीकी संघ (AU) को शामिल करना, उभरते हुए देशों का प्रतिनिधित्व मज़बूत करने की दिशा में उठा एक और अहम क़दम था. G20 का सदस्य बनने के बाद, अपने विशाल संसाधों और सबसे महत्वपूर्ण मुक्त व्यापार क्षेत्र के तौर पर अफ्रीकी संघ अब अपने आर्थिक हितों को विश्व स्तर पर प्रस्तुत कर सकेगा और उन्हें आगे बढ़ा सकेगा. अफ्रीकी संघ के साथ भारत की ऐतिहासिक साझेदारी और मज़बूत बहुपक्षीय संबंध रहे हैं. इनका अर्थ ये है कि अब G20 में अपने एक और साथी की मदद से भारत विश्व स्तर पर अपनी स्थिति और मज़बूत कर सकेगा.
इन परिवर्तनों और भू-राजनीतिक शक्ति के बदले मानकों के कारण विकासशील देशों के बीच आपसी सहयोग की रूप-रेखाएं, पारंपरिक मंच और संस्थान अब भारत के लिए कम से कम प्रासंगिक होते जा रहे हैं. चूंकि दुनिया 12 सितंबर को विकासशील देशों के आपसी सहयोग के संयुक्त राष्ट्र दिवस के तौर पर मनाती है. इसलिए अब भारत के लिए ज़रूरी हो गया है कि वो इस मंच और इसकी प्रक्रियाओं का आलोचनात्मक रूप से मूल्यांकन करे. भारत की वैश्विक महत्वाकांक्षाओं को देखते हुए, अब समय आ गया है कि इन पुराने पड़ चुके विचारों को ताज़ा किया जाए और आगे का नज़रिया पेश किया जाए. भारत को विकासशील देशों के बीच सहयोग की रूप-रेखा का मूल्यांकन नए सिरे से क्यों करना चाहिए, इसके कुछ कारण इस प्रकार हैं:
दुनिया को ‘साउथ’ और ‘नॉर्थ’ में बांटने का विचार ही उपनिवेशवादी दौर की देन है. बुनियादी तौर पर इन परिभाषाओं के ज़रिए दुनिया को पश्चिमी (मूल रूप से यूरोपीय) मानक के आधार पर विभाजित किया जाता है. अगर विकास में सहयोग के संदर्भ में भी इन परिभाषाओं का इस्तेमाल किया जाता है, तो भी अनजाने में हम साम्राज्यवादी सोच को ही बढ़ावा देते हैं, जो विकासशील देशों को उनके ग़ुलामी के दौर की याद दिलाता है. दुनिया को साझा हितों, संस्कृतियों और मूल्यों के बजाय उत्तर और दक्षिण के भौगोलिक दायरे में बांटने से सहयोग और आपसी विश्वास के बुनियादी उसूलों को चोट पहुंचती है.
मिसाल के तौर पर उत्तरी दुनिया के देश अभी भी भारत को अपनी रूप-रेखाओं और कार्यक्रमों के माध्यम से अफ्रीकी देशों से संवाद करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं. इस तरह वो साउथ-साउथ सहयोग के ढांचे का इस्तेमाल करके अपने हितों को आगे बढ़ाने में जुटे हैं.
अगर हम विकासशील देशों के बीच आपसी सहयोग वास्तविक रूप से उपनिवेशवाद का चोला उतारकर देखें, तो ये उपनिवेशवाद की विरासत को जवाब देने का एक ताक़तवर हथियार बन सकता है. इसके ज़रिए हमें स्वायत्तता हासिल करने की राह मिल सकती है, जो साझा इतिहास और अनुभवों पर आधारित होगी और फिर मिलकर भविष्य का निर्माण किया जा सकेगा. हालांकि, ये बात भागीदार देशों की नीयत और उनके द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले तौर-तरीक़ों पर निर्भर करती है. बदक़िस्मती से, विकासशील देशों के बीच सहयोग, उपनिवेशवाद के प्रभाव जैसे चुनौतीपूर्ण मसलों पर पर्याप्त रूप से ध्यान नहीं देता. और, उपनिवेशवाद से निजात पाने के स्पष्ट एजेंडे के बग़ैर विकास में सहयोग से नव-उपनिवेशवाद के विचारों का उभार हो सकता है और इससे छोटे और कम विकसित देशों के शोषण के नए तरीक़े विकसित हो सकते हैं.
वैसे तो विकासशील देशों के बीच सहयोग (South South Cooperation) की परिकल्पना, उत्तरी और दक्षिणी दुनिया के बीच शोषणवाले रिश्ते के जवाब में विकसित की गई थी. लेकिन अभी भी इसको अपना पूरा मक़सद हासिल करना बाक़ी है. अब विकसित देश, विकासशील देशों के आपसी सहयोग का इस्तेमाल, बहुत से भू-राजनीतिक मसलों पर अपना प्रभाव जताने के लिए कर रहे हैं, जिसमें विकास में सहयोग का क्षेत्र भी शामिल है. मिसाल के तौर पर उत्तरी दुनिया के देश अभी भी भारत को अपनी रूप-रेखाओं और कार्यक्रमों के माध्यम से अफ्रीकी देशों से संवाद करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं. इस तरह वो साउथ-साउथ सहयोग के ढांचे का इस्तेमाल करके अपने हितों को आगे बढ़ाने में जुटे हैं.
बहुलतावादी और बहुपक्षीय मंचों, ख़ास तौर से G20 और BRICS का उभार ये संकेत देता है कि ये मंच भारत के लिए वैश्विक चुनौतियों से निपटने और मिलकर आर्थिक कूटनीति चलाने के बेहतर मंच हैं.
इसके अतिरिक्त विकसित और विकासशील देशों के बीच रिश्तों का स्वरूप शोषण वाला है. यहां तक कि पश्चिम का मीडिया भी, विकासशील देशों के बीच सहयोग की परिकल्पना को इसी चश्मे से देखता है. हम उनकी इस सोच को अक्सर इसे ग़रीब और कुपोषित बच्चों के खाना खाने की तस्वीरों के तौर पर देखते हैं. असल में ये सोच कई दशकों से विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों में प्रचारित की जा रही छवि का ही नतीजा है.
तथाकथित ‘ग्लोबल साउथ’ कोई एक पहचान वाली चीज़ नहीं है. विकासशील देशों की राजनीतिक व्यवस्थाएं और संस्कृतियों में बहुत विविधता है. इन देशों ने विकास के अलग अलग स्तर को हासिल किया है. ऐसे में साझा हित हासिल करना कई बार बहुत चुनौतीपूर्ण हो जाता है. इस व्यापक विविधता का एक नतीजा ये भी होता है कि कई बार उनके हितों में टकराव होता है, जिससे सहयोग में बाधा आ जाती है. मिसाल के तौर पर क्षेत्रीय प्रतिद्वंदिता या फिर संसाधनों को लेकर विवाद से सहयोग के संभावित लाभ पर ख़तरा मंडराने लगता है.
विकासशील देशों के बीच सहयोग को एक मज़बूत संस्थागत रूप-रेखा की ज़रूरत है, जो कम आमदनी वाले और विकासशील देशों की विविधता भरी आबादी की ज़रूरतों को पूरा कर सकें. ऐसे किसी ढांचे का अभाव और सीमित संसाधनों के कारण, सदस्य देशों के बीच सहयोग कम प्रभावी है, जो टिकाऊ भी नहीं होता. सीमित संसाधन भी सदस्य देशों के बीच आपसी सहयोग को बाधित करते हैं.
तरक़्क़ी में सहयोग के भारत के लक्ष्य मोटे तौर पर विकासशील देशों के बीच कृषि के विकास, मानव अधिकारों, शहरीकरण, स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन जैसे क्षेत्रों में सहयोग पर आधारित है. जहां पहेल भारत, साउथ-साउथ सहयोग को उत्तर और दक्षिणी दुनिया के पारंपरिक सहयोग के एक ऐसे विकल्प के तौर पर देखता था, जिससे वो सहायता के कारोबार में एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी बन सके. लेकिन, अब ये बात साफ़ होती जा रही है कि विकासशील देशों के बीच आपसी सहयोग, भारत की महत्वाकांक्षाओं की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं करता है. इसकी एक वजह ये है कि वैश्विक स्तर पर विकासशील देशों के बीच आपसी सहयोग, ओवरसीज़ डेवेलपमेंट असिस्टेंस का वाजिब विकल्प नहीं, बल्कि ग्लोबल साउथ की जनता और देशों के बीच एकजुटता की अभिव्यक्ति है.
जहां साउथ-साउथ सहयोग कई मुश्किलों से कमज़ोर पड़ रहा है, वहीं ब्रिक्स (BRICS) जैसे बहुपक्षीय और G20 जैसे बहुलतावादी सहयोग के मंचों का उभार अब मुख्य भूमिका में आ रहा है. भारत इन दोनों ही संगठनों में बेहद सक्रिय भूमिका निभाता है. अब ये बात लगातार स्पष्ट होती जा रही है कि BRICS देशों जैसी उभरती ताक़तें भविष्य में अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी. चीन और रूस जैसे देश तो पहले ही वैश्विक मसलों पर अग्रणी भूमिका निभाने और विकास के अंतरराष्ट्रीय सहयोग में योगदान देने की उत्सुकता दिखा रहे हैं. BRICS द्वारा स्थापित नए बहुपक्षीय विकास बैंक न्यू डेवेलपमेंट बैंक ने हाल के दिनों में काफ़ी सफलताएं हासिल की हैं और, आर्थिक रिकवरी के लिए ब्राज़ील, चीन, भारत और दक्षिण अफ्रीका को क़र्ज़ दिए हैं. G20 द्वारा विकास के लिए पूंजी जुटाने औह सहयोग के प्रयासों में भारत की सक्रिय भागीदारी, विकासशील देशों के लिए काफ़ी अहम है.
इन तर्कों को देखते हुए वैश्विक मंच पर भारत की बढ़ती हैसियत साफ दिखाई देती है, जो G20 में उसकी भूमिका और अफ्रीकी संघ से उसके रिश्तों के ज़रिए नमूदार होती है. अब इसके लिए विकासशील देशों के बीच सहयोग की रूप-रेखा पर नए सिरे से विचार करने की ज़रूरत है. इस सहयोग के पीछे जो मूल भावना थी वो विकासशील देशों के बीच एकजुटता और प्रगति को बढ़ावा देना थी. लेकिन, इसमें निहित उपनिवेशवादी सोच, विकसित देशों की तुलना में कमज़ोरी और ‘ग्लोबल साउथ’ देशों के विविधता भरे हितों के कारण एकजुटता की कमी ने इसको भारत की बढ़ती वैश्विक महत्वाकांक्षाओं के लिए कम उपयोगी बना दिया है. बहुलतावादी और बहुपक्षीय मंचों, ख़ास तौर से G20 और BRICS का उभार ये संकेत देता है कि ये मंच भारत के लिए वैश्विक चुनौतियों से निपटने और मिलकर आर्थिक कूटनीति चलाने के बेहतर मंच हैं.
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Vikrom Mathur is Senior Fellow at ORF. Vikrom curates research at ORF’s Centre for New Economic Diplomacy (CNED). He also guides and mentors researchers at CNED. ...
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