अच्छी ख़बर ये है कि कुछ ऐसे नए सुबूत आए हैं, जिनसे पता चलता है कि अपने तमाम दुस्साहसों और दांव-पेंचों के बावजूद पाकिस्तानी फ़ौज के ज़्यादातर बड़े अधिकारी, कट्टरपंथ के प्रति कम झुकाव रखते हैं और तार्किक सोच वाले बने हुए हैं. बुरी ख़बर ये है कि पाकिस्तानी फ़ौज की धमकियों और बड़बोले दावों ने आम पाकिस्तानियों के दिल में अपनी फ़ौज की ताक़त के बारे में बढ़-चढ़कर यक़ीन करने वाली सोच बिठा है. और, वो इस बात पर भरोसा करने को तैयार नहीं हैं कि जिस फ़ौज के सामने वो दंडवत होते हैं, और जिसके बारे में उनके दिमाग़ में बेहद ताक़तवर होने की बात बिठा दी गई है, उसकी असलियत तो ये है कि वो न तो सर्वविजेता है और न ही कोई अजेय ताक़त है. हाल ही में एक टीवी इंटरव्यू में पाकिस्तान के पत्रकार हामिद मीर ने पाकिस्तानी फ़ौज के पूर्व प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा के साथ हुई एक बैठक को लेकर दिलचस्प बातें उजागर की हैं. 2021 में जब जनरल बाजवा आर्मी चीफ थे, तो उन्होंने दो दर्जन से ज़्यादा मीडिया कर्मियों के साथ ये बैठक की थी.
हामिद मीर के मुताबिक़, जनरल बाजवा ने पत्रकारों को बताया था कि पाकिस्तानी फ़ौज, भारत से जंग करने की हैसियत में नहीं है और ऐसी सूरत में भारत से दोस्ती करना वाजिब होगा.
हामिद मीर के मुताबिक़, जनरल बाजवा ने पत्रकारों को बताया था कि पाकिस्तानी फ़ौज, भारत से जंग करने की हैसियत में नहीं है और ऐसी सूरत में भारत से दोस्ती करना वाजिब होगा. ये बात साफ़ नहीं है कि जनरल बाजवा और पत्रकारों की ये बैठक, फ़रवरी 2021 में नियंत्रण रेखा (LoC) पर युद्ध विराम से पहले हुई थी या बाद में. हामिद मीर का दावा है कि बाजवा ने यही बात उस वक़्त भी दोहराई थी, जब पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने पत्रकारों के साथ एक बैठक में भारत के साथ दोस्ती करने के पक्ष में तर्क दिए थे. उस बैठक में पाकिस्तान के आधा दर्जन रिटायर्ड विदेश सचिव भी मौजूद थे और उन्होंने भारत के साथ संबंध सामान्य करने के प्रस्ताव का पुरज़ोर विरोध किया था. साफ़ है कि रिटायर हो चुके ये राजनयिक गुज़रे हुए कल में जी रहे थे और नए दौर की उन हक़ीक़तों, ख़तरों, मजबूरियों और भू-सामरिक बदलावों का सामना करने के लिए तैयार नहीं थे, जिन्होंने पाकिस्तान को मुश्किल हालात में पहुंचा दिया है.
अगर हामिद मीर की बातों पर भरोसा करें, तो जनरल बाजवा को इस बात की पहले से ख़बर थी कि भारत, अगस्त 2019 में जम्मू कश्मीर में संवैधानिक सुधार करने जा रहा है. हामिद मीर दावा करते हैं कि जनरल बाजवा ने भारत की योजनाओं की जानकारी, पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर (PoJK) के तत्कालीन ‘प्रधानमंत्री’ फ़ारूक़ हैदर को भी दी थी. लेकिन, जब फ़ारुक़ हैदर ने भारत को जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्ज़ा ख़त्म करने से रोकने के लिए फ़ौरन सैन्य अभियान छेड़ने की मांग की, तो जनरल बाजवा ने उन्हें बताया कि पाकिस्तान, भारत से युद्ध लड़ पाने की हैसियत में नहीं है. जम्मू कश्मीर में संवैधानिक सुधारों के बाद, पाकिस्तानी फ़ौज की इंटर सर्विसेज़ पब्लिक रिलेशंस (ISPR) ने जो बयान भी जारी किया था, उससे भी ये ज़ाहिर होता है कि पाकिस्तानी फ़ौज इस बदलाव को बहुत हवा देने के पक्ष में नहीं थी और वो ऐसे हालात से बचना चाहती थी जिसमें उसे भारत के इस क़दम का सैन्य अभियान से जवाब देना पड़े. लेकिन, हामिद मीर ने जनरल बाजवा पर कश्मीर के मसले पर समझौता कर लेने का आरोप लगाया. हामिद मीर, कश्मीर में जिहाद के बड़े समर्थक रहे हैं. उनके मुताबिक़, भारत और पाकिस्तान के बीच पर्दे के पीछे जिस समझौते पर चर्चा चल रही थी, उसमें ‘कश्मीर मसले’ को 20 साल के लिए ताले में बंद करने की बात भी शामिल थी. हालांकि, ये कोई नई बात नहीं थी. पाकिस्तान के पत्रकार जावेद चौधरी ने तो जनवरी में जनरल बाजवा के साथ बात करने के बाद ही इस बात से पर्दा उठाया था. कश्मीर मसले को बीस साल के लिए ठंडे बस्ते में डालने का विचार भी कोई नया नहीं था. जब जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बीच शांति प्रक्रिया को लेकर बातचीत चल रही थी, तब भी इस सुझाव पर चर्चा हुई थी.
ऐसा लगता है कि हामिद मीर को जनरल बाजवा पर ज़्यादा ग़ुस्सा इसलिए आया था, क्योंकि उन्होंने पाकिस्तान के पत्रकारों के सामने ये स्वीकार किया था कि पाकिस्तानी फ़ौज हथियारों और दूसरे संसाधनों की क़िल्लत से जूझ रही है, और वो भारत के ख़िलाफ़ एक लंबी और खुली जंग लड़ने की हालत में नहीं है. ज़ाहिर है कि जनरल बाजवा ने कहा कि पाकिस्तानी फ़ौज के पास, ईंधन, हथियारों और गोला-बारूद की भारी कमी है. उसके टैंक अच्छी हालत में नहीं है और न ही पाकिस्तान के लड़ाकू जहाज़ों की हालत अच्छी है. हामिद मीर का इंटरव्यू कर रही पत्रकार नसीम ज़ेहर भी जनरल बाजवा के साथ उस मीटिंग में मौजूद थीं. नसीम ज़ेहरा ने कहा कि वो ये सच बोलने के लिए जनरल बाजवा का कोर्ट मार्शल करना चाहती थीं. नसीम ज़ेहरा और हामिद मीर को पाकिस्तानी फ़ौज की जंग लड़ने की ताक़त पर पूरा भरोसा था. दोनों ने अपनी बातचीत में बालाकोट के हवाई हमले को पाकिस्तान की तरफ़ से दिए गए जवाब का हवाला देते हुए पाकिस्तानी फ़ौज की जंग लड़ने की क्षमता को लेकर जनरल बाजवा के बयान पर सवाल उठाए.
जनरल बाजवा ने जो बात पाकिस्तानी पत्रकारों और फिर राजनयिकों और पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले ‘प्रधानमंत्री’ से कही वो तो सच में पाकिस्तान के इस सच्चाई को स्वीकारना था कि भारत से लगातार टकराव की स्थिति बनाए रखना, पाकिस्तान के लिए अब मुमकिन नहीं रहा था. इसकी बड़ी वजह 2018 के बाद से लगातार बढ़ती जा रही पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था की चुनौतियां भी थीं. पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था तबाही के कगार पर खड़ी थी. भुगतान का संकट (BoP) इतना बड़ा हो गया था कि हालात पाकिस्तान के हाथ से निकल गए थे और उसने 2018 के आख़िरी महीनों में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) से मदद की गुहार लगाई थी. हालांकि, IMF ने ये मदद 2019 के मध्य में जाकर दी. जो देश आर्थिक रूप से अपनी हस्ती बचाने का संघर्ष कर रहा हो, वो अपने से कई गुना बड़े और ताक़तवर पड़ोसी देश के साथ आक्रामक सैन्य संघर्ष कर पाने की स्थिति में बिल्कुल नहीं था वो भी तब जब पाकिस्तान अपना ख़र्च चलाने के लिए IMF के भरोसे रहा हो. ऐसे सैन्य दुस्साहस से तो पाकिस्तान का दिवालिया होना तय था. ऐसे में जिसको भी अर्थशास्त्र का ज़रा भी अंदाज़ा होगा, उसे ये पता होगा कि ख़ाली ख़ज़ाने के साथ जंग नहीं लड़ी जाती.
जो देश आर्थिक रूप से अपनी हस्ती बचाने का संघर्ष कर रहा हो, वो अपने से कई गुना बड़े और ताक़तवर पड़ोसी देश के साथ आक्रामक सैन्य संघर्ष कर पाने की स्थिति में बिल्कुल नहीं था वो भी तब जब पाकिस्तान अपना ख़र्च चलाने के लिए IMF के भरोसे रहा हो.
2018 से 2022 के बीच पाकिस्तान का रक्षा बजट 1.13 ख़रब पाकिस्तानी रुपए से बढ़कर 1.53 खरब पाकिस्तानी रुपए हो गया था. इसी दौरान, डॉलर की तुलना में पाकिस्तानी रुपए की क़ीमत 121 से गिरकर 204 रुपए हो गई थी (ये 2018 से 2022 के बीच की औसत दर है). अगर डॉलर में मापें, तो पाकिस्तान का रक्षा बजट लगभग उसी स्तर पर था. उसमें कोई वृद्धि नहीं हुई थी. पाकिस्तान के सैन्य बलों को किफ़ायत करने के उपाय लागू करने पड़े थे. इससे उनके प्रशिक्षण और अभियानों पर असर पड़ा. नियंत्रण रेखा पर लगातार गोलीबारी की भी भारी क़ीमत चुकानी पड़ रही थी. वैसे तो नियंत्रण रेखा पर गोलीबारी के मामले में पाकिस्तान, भारत के मुक़ाबले एक तिहाई या केवल 20 प्रतिशत ही ख़र्च कर रहा था. लेकिन पहले से ही पैसे की कमी का सामना कर रही फ़ौज की हालत इस ख़र्च से और भी ख़राब हो गई थी. 2021 तक पैसे की क़िल्लत और भी बढ़ गई थी. क्योंकि, अर्थव्यवस्था बेहद बुरी स्थिति में बनी हुई थी और अफ़ग़ानिस्तान से लगने वाली सीमा पर सुरक्षा के हालात बिगड़ते जा रहे थे. अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी की तारीख़ क़रीब आती जा रही थी. ऐसे में पाकिस्तान को अपनी पूर्वी सीमा पर स्थिरता की दरकार थी, जिससे वो अपनी पश्चिमी सीमा पर ध्यान केंद्रित कर सके. अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर तालिबान के क़ब्ज़े और पाकिस्तान में एक बार फिर से आतंकवाद से सिर उठाने के कारण, सुरक्षा के हालात तेज़ी से बिगड़ रहे थे. ऐसे में पाकिस्तानी फ़ौज और उसकी वायुसेना को स्थिरता क़ायम करने के लिए इन अभियानों में शामिल होने की ज़रूरत थी. फ़ौजी और वित्तीय दोनों ही नज़रियों से पाकिस्तान इस स्थिति में नहीं था कि एक साथ दो मोर्चे संभाल सके. ज़ाहिर है कि नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तान युद्ध विराम के साथ साथ भारत से तनाव कम करना चाहता था. इसी तरह भारत को भी अपनी पश्चिमी सीमा पर तनाव कम करने की ज़रूरत थी क्योंकि चीन के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर तनाव बढ़ता जा रहा था.
पाकिस्तान के सियासतदानों और पत्रकारों के उलट, पाकिस्तानी फ़ौज को दीवार पर लिखी इबारत साफ़ दिख रही थी. इसीलिए वो ऐसी स्थिति की ओर धकेले जाने या खींचे जाने से बचना चाहती थी, जिससे मुल्क की सुरक्षा तबाह हो जाए. जनरल बाजवा की ये बैठकें, पाकिस्तान के लोगों की सोच बदलने की एक कोशिश थीं. भारत के साथ तनाव कम करने की पहल करना, घुटने टेकना नहीं बल्कि व्यवहारिक होना था. दूसरे शब्दों में कहें तो जनरल बाजवा, पाकिस्तानी फ़ौज की मुश्किल स्थिति को सकारात्मक रूप देने की कोशिश कर रहे थे. 2019 में पुलवामा हमले ने पाकिस्तान और भारत को जंग के मुहाने पर ला खड़ा किया था. जब भारत ने बालाकोट पर हवाई हमले किए, तो पाकिस्तान को पलटवार करने को मजबूर होना पड़ा था. लेकिन, पाकिस्तानी फ़ौज किसी भी सूरत में हालात को और बिगड़ने नहीं देना चाहती थी. बालाकोट के बाद सीमा पर हुई झड़प अलग बात है, लेकिन एक सीमित या बड़ी जंग बिल्कुल अलग बात है. सीधे शब्दों में कहें तो पाकिस्तान की इतनी औक़ात नहीं थी कि वो खुलकर लड़ाई लड़ सके. ऐसे में इस बात पर हैरानी नहीं हुई थी, जब बालाकोट संकट के बाद पाकिस्तान, तनाव कम करने के लिए उत्सुक था. इसी वजह से जब हवाई झड़प के बाद भारत के पायलट अभिनंदन को पाकिस्तानी सीमा के भीतर पकड़ा गया, तो पाकिस्तान ने फ़ौरन ही उन्हें भारत को सौंपने का फ़ैसला किया, वरना भारत के साथ जंग छिड़ने का ख़तरा था.
क्या युद्ध विराम टिका रहेगा?
2021 तक पाकिस्तान के सामने ये बात एकदम साफ़ हो चुकी थी कि वो भारत से कश्मीर छीनने के लिए कुछ भी नहीं कर सकता है. 2019 के संवैधानिक सुधारों के बाद पाकिस्तान दुनिया भर में इसके ख़िलाफ़ जो दुष्प्रचार शुरू किया था, वो मुहिम भी ठंडी पड़ गई थी. जनरल बाजवा को एहसास हो गया था कि पाकिस्तान का आर्थिक संकट गहरा हो रहा है, ऐसे में पाकिस्तान की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ज़रूरी है कि भारत के साथ तनाव कम किया जाए. दोनों देशों के बीच पर्दे के पीछे चल रही बात ने संबंध सामान्य करने की राह प्रदान की, जिससे दोनों के रिश्ते पुलवामा हमले के पहले के दौर जैसे हो जाएं. हालांकि, इसका ये मतलब बिल्कुल नहीं था कि पाकिस्तान, कश्मीर पर अपने दावे से पीछे हटने वाला था. असल में ये बेहतर मौक़े की तलाश में कुछ लंबे समय के लिए शांत पड़ जाने का सामरिक दांव था. इसके पीछे सोच यही थी कि जब तक भारत से टकराव मोल लेना व्यवहारिक, मुमकिन और टिकाऊ न हो तब तक शांत रहा जाए. इस शांति से पाकिस्तान को जो वक़्त मिले, उसका उपयोग कश्मीर में अपने लिए सियासी ज़मीन तैयार करने के लिए किया जाए. अलगाववादी आंदोलन में इस तरह से नई जान डाली जाए, जिससे 20 साल बाद जब इस मुद्दे को दोबारा उठाया जाए, तो भारत को खड़े होने का मौक़ा ही न मिले. निश्चित रूप से पाकिस्तान, भारत की उस पारंपरिक कमज़ोरी का फ़ायदा उठाना चाहते थे, जब वो इस ख़ामख़याली में पड़ जाए कि ये मुद्दा तो हमेशा के लिए सुलझ गया है.
लेकिन, शुक्रिया इमरान ख़ान का जिन्होंने सियासी ज़मीन गंवाने के डर से पर्दे के पीछे तैयार किए जा रहे शांति के प्रस्ताव में उस वक़्त ख़लल डाल दिया, जब उन्होंने भारत के साथ दोबारा व्यापार शुरू करने के प्रस्ताव पर रोक लगा दी. हालांकि, दोनों देशों के बीच युद्ध विराम पिछले दो साल से टिका हुआ है. हालांकि, इसकी बड़ी वजह यही है कि इससे भारत और पाकिस्तान दोनों को फ़ायदा है. पाकिस्तान को इसलिए क्योंकि उसकी फ़ौज को लगातार पश्चिमी मोर्चे पर ध्यान देना पड़ रहा है और उसकी आर्थिक मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं; वहीं भारत को इससे ये फ़ायदा है कि चीन के साथ बढ़ते तनाव के कारण उसे अपने सैनिकों को नियंत्रण रेखा से हटाकर वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तैनात करना पड़ा है. अब ये युद्ध विराम कितने समय तक टिका रहेगा, ये पाकिस्तानी फ़ौज के मौजूदा प्रमुख जनरल आसिम मुनीर और शायद उनके बाद आने वाले जनरलों पर निर्भर करेगा.
अगर बाजवा के बाद के जनरल व्यवहारिक होंगे, तो ऐसा कोई क़दम उठाने में उन्हें कोई फ़ायदा नहीं दिखेगा, जिससे नियंत्रण रेखा पर गोलीबारी शुरू हो. लेकिन, अगर वो पाकिस्तानी मीडिया के भड़कावे में आ जाते हैं या फिर देश के बंटे हुए नेताओं और समाज को फ़ौज के नाम पर एकजुट करना चाहेंगे तो वो दोबारा सीमा पर वैसी ही हरकतें शुरू कर देंगे, जिससे नियंत्रण रेखा पर माहौल बिगड़ेगा और भारत से तनाव बढ़ेगा. तर्कवादी सोच रखने वालों को इससे शायद ज़्यादा फ़ायदा न हो. लेकिन, कट्टरपंथ और सैन्य दुस्साहस की भावना से प्रेरित होकर (फिर चाहे छद्म युद्ध के ज़रिए ही क्यों न हो) अगर पाकिस्तान के जनरल कोई जोख़िम लेते हैं, तो भिखारी हो चुके पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था पूरी तरह तबाह हो जाएगी.
भारत का दृष्टिकोण
भारत के नज़रिये से देखें, तो इन नए पर्दाफ़ाशों से कई सबक़ मिलते हैं.
पहला, भले ही पाकिस्तान अभी भारत पर युद्ध थोपने की स्थिति में न हो. लेकिन, ये समझना ग़लत होगा कि पाकिस्तान, भारत के सामने दंडवत हो जाएगा कि आओ हमें जीत लो.
दूसरा, पाकिस्तान के साथ कोई भी शांति समझौता, दोनों देशों के संघर्ष और दुश्मनी का ख़ात्मा नहीं करेगा. ऐसे समझौते हालात, मजबूरियों और क्षमताओं की कमी का नतीजा होते हैं. जैसे ही ये बाधाएं दूर हो जाएंगी, वैसे ही दोनों देशों की पुरानी कड़वाहट ज़िंदा हो जाएगी. दूसरे शब्दों में कहें तो जब बात पाकिस्तान (या किसी भी और दुश्मन) की आती है, तो भारत कभी भी लापरवाही दिखाने या फिर ख़ुद को इस भुलावे में रखने का जोख़िम मोल नहीं ले सकता कि शांति की जीत होगी.
तीसरा, अभी भारत, पाकिस्तान से इतना ताक़तवर नहीं हुआ है कि वो उस पर अपनी शर्तें थोप सके. भविष्य में ये हो सकता है. लेकिन, कम से कम अभी तो ऐसी स्थिति बिल्कुल नहीं है.
चौथा, अगली बार जब भारत दंड देने का कोई अभियान छेड़े, तो इस बात पर भी सोच विचार कर ले कि उसके बाद क्या होगा. किसी देश के ख़िलाफ़ दंडात्म सैन्य कार्रवाई कोई खेल का मैदान नहीं कि ख़ाली वक़्त में जाकर छलांगें लगा आए. अगर भारत ने ये सोच विचार कर लिया होता, तो बालाकोट के जवाब में उसने पाकिस्तान के ‘ऑपरेशन स्विफ्ट रिटॉर्ट’ का जवाब दिया होता. ऐसा नहीं करने का मतलब, बालाकोट के हवाई हमलों के मक़सद को हल्का करना था.
सुशांत सरीन, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं.
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